ईश्वर तेरे कितने रूप?
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जहां तक याद है,१९८७ में,'हंस' के जून अंक में
उत्पलेंदु चक्रवर्ती की कहानी 'देवशिशु' और स्वदेश दीपक की 'बाल भगवान ' कहानी एक साथ पुनः प्रकाशित हुई थी। दोनों लेखकों में विवाद था,यह अलग विषय है। दोनों कहानियों की विषय वस्तु समान है।
'देव शिशु' कहानी में एक बेहद निर्धन मजदूर की पत्नी रात को एक बेडोल शिशु को जन्म
देती है। दाई मजदूर पिता से कहती है कि वह तुरंत ओझा को बुलाकर लाए। नवजात शिशु पर
छठ मैया का प्रकोप है। इसलिए टेढ़ा-मेढ़ा
पैदा हुआ है।
मजदूर भागकर ओझा के पास
पहुंचा और सारा हाल बताया। बच्चे की अद्भुत बनावट ओझा के दामाद को वरदान लगी। वह
बीस रुपए में शिशु को खरीद लेता है। ओझा परिवार बच्चे को पालता है और उसे ईश्वर का
अवतार घोषित कर देता है। उसके दर्शन के लिए टिकट तय कर दी गई। जनता की रोज लंबी
कतार लगने लगी। चर्चा सुनकर वह मजदूर पिता भी टिकट लेकर दर्शन करने आता है और अपने
बेटे को पहचान लेता है । ओझा परिवार देव शिशु के बाप को डराकर भगा देता है।
इसी से
मिलती जुलती कहानी स्वदेश दीपक की 'बाल भगवान' है। जहां तक याद है, एक गरीब ब्राह्मण के घर गणेश जी
की शक्ल में बच्चा पैदा होता है। बाप बहुत चिंतित रहता है और उसे मारने की भी
सोचता है। बच्चा बड़ा होकर गणेश जी की तरह सारे दिन खाना मांगता है। बोली नहीं आती
, इशारा ही करता है। एक दिन एक धनी सेठ दंपति की नजर पड़ती
है। उसे गणेश जी का अवतार घोषित कर दिया गया। लड्डुओं का चढ़ावा आने लगा। पूरे
परिवार के दिन फिर गये । बच्चा अधिक खाने से एक दिन भर जाता है। लेकिन उसके नाम पर
भव्य मंदिर का निर्माण होता है।
३६ साल पहले की ये दोनों
कहानियां आज याद आ गई।
बहरहाल,चलो , अयोध्या चलें, विष्णु के
अवतार बुला रहे हैं।
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