शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

घाट का खामोश पत्थर हूं - विजय सिंह नाहटा


                                                                     विजय सिंह नाहटा

 घाट का खामोश पत्थर हूं

नदी जबसे नदी है
देखता ही आ रहा
जल की हजारों भंगिमाएं
और उसके वेग से जो गूंजता संगीत
उसका नाद मुझमें गूंजता है
रात को जब ठहरती है नदी
लहरों पर दमकती ज्योत्सना के
अनगिनत चित्राम मेरी देह पर
उत्कीर्ण हैं गोया
नदी बहती रहे गतिमान
है इसी में साधना का फलित
जैसे हो गया साकार
जब वह स्पर्श से जल की
अजाने रास्तों को नापती है
और उन सुनसान सी वन वादियों से
गुजरता है एक जीवन
उन विहंगम से पथों की ओर
जिन पर पसरता ही जा रहा है मौन
कोटि सागर झिलमिलाते हैं नदी में
और मुझमें झिलमिलाती है नदी
घाट का खामोश पत्थर हूं
मुझी से बह निकलता है नदी के संग
पूरी सभ्यता का दौर।

कोई टिप्पणी नहीं:

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...