"ईसा के जन्म के बाद पहली सहस्त्राब्दी और उससे
पहले के भारत की जो तस्वीर हमारे सामने आती है, वह उस तस्वीर
से भिन्न है, जो बाद को मिलती है। उन दिनों भारतवासी बड़े
मस्त, बड़े जीवंत, बड़े साहसी और जीवन
के प्रति अद्भुत उत्साह से युक्त थे तथा अपना संदेश वे विदेशों में दूर-दूर तक ले
जाते थे। विचारों के क्षेत्र में तो उन्होंने ऊँची से ऊँची चोटियों पर अपने कदम
रखे और आकाश को चीर डाला। उन्होंने अत्यंत गौरवमयी भाषा की रचना की और कला के
क्षेत्र में उन्होंने अत्यंत उच्चकोटि की कारयित्री प्रतिभा का परिचय दिया। उन
दिनों का भारतीय जीवन घेरों में बंद नहीं था, न तत्कालीन
समाज में ही जड़ता या गतिहीनता की कोई बात थी। उस समय एक छोर से दूसरे छोर तक,
समग्र भारतवर्ष में सांस्कृतिक उत्साह भी लहरें ले रहा था।"
जवाहर लाल नेहरू : दिनकर की पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' की प्रस्तावना में उदृत
एक
भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत इसकी 5000 वर्ष पुरानी संस्कृति एवं सभ्यता से आरंभ होती
है। डा. ए० एल० बाशम ने अपने लेख 'भारत का सांस्कृतिक इतिहास'
में यह उल्लेख किया है कि जबकि सभ्यता के चार मुख्य उद्गम केंद्र
पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ने पर, चीन, भारत,
फर्टाइल क्रीसेंट तथा भूमध्य सागरीय प्रदेश, विशेषकर
यूनान और रोम हैं भारत को इसका सर्वाधिक
श्रेय जाता है क्योंकि इसने एशिया महाद्वीप के अधिकांश प्रदेशों के
सांस्कृतिक जीवन पर अपना गहरा प्रभाव डाला है। इसने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप
से विश्व के अन्य भागों पर भी अपनी संस्कृति की गहरी छाप छोड़ी है।'
"प्रत्येक देश की संस्कृति एक निरंतर बहने वाली
धारा के समान होती है, जिसमें कई धाराएं उसमें मिलकर उसे
उन्नत बनाती है। भारतीय संस्कृति इसका पुख्ता प्रमाण है। भारतीय संस्कृति के
महासमुद्र में कितनी ही धाराएं आकर मिली और उसमें समाहित हो गई या उसकी साझीदार हो
गई। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में-'हेथाय आर्य,
हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़, चीन, शक, हूण दल, पठान, मुगल एक देने होलो लीन।' इसके उत्तर-पश्चिमी मार्ग से विशाल झुण्ड के झुण्ड अपनी-अपनी मूल्यवान
संस्कृतियाँ लेकर आये जिससे यहां नई, ताजा और समृद्ध संस्कृति
ने जन्म लिया। निश्चित रूप से हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक विरासत अति प्राचीन रही
है और इसने विश्व की अन्य संस्कृतियों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है और अन्य
संस्कृतियां यहाँ की संस्कृति में समाहित हो गई।"
"दो महान नदी प्रणालियों, सिंधु तथा गंगा की घाटियों में विकसित हुई सभ्यता, यद्यपि
हिमालय की वजह से अति विशिष्ट भौगोलीय क्षेत्र में अवस्थित, जटिल
तथा बहुआयामी थी, लेकिन किसी भी दृष्टि से अलग-थलग सम्यता
नहीं रही। ऐसी अवधारणा कि यूरोपीय ज्ञान, विज्ञान एवं
प्रौद्योगिकी के प्रभाव में आने से पहले चीन तथा भारत सहित पूर्व के देश
शताब्दियों तक विकास एवं प्रगति की दृष्टि से बिल्कुल अपरिवर्तित रहे, गलत है और इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय सभ्यता हमेशा से ही
स्थिर न होकर विकासोन्मुख एवं गत्यात्मक रही है। भारत में स्थल और समुंद्र के
रास्ते व्यापारी और उपनिवेशी आए। अधिकांश प्राचीन समय से ही भारत कभी भी विश्व से
अलग-थलग नहीं रहा। इसके परिणामस्वररूप, भारत में विविध
संस्कृति वाली सभ्यता विकसित हुई, जो प्राचीन भारत से आधुनिक
भारत तक की अमूर्त कला और सांस्कृतिक परंपराओं से सहज ही परिलक्षित होती है,
चाहे वह गंधर्व कला विद्यालय का बौद्ध नृत्य हो, जो यूनानियों के द्वारा प्रभावित हुआ था, या उत्तरी
एवं दक्षिणी भारत के मंदिरों में विद्यमान अमूर्त सांस्कृतिक विरासत हो। इसमें
आश्चर्य की कोई बात नहीं कि भारतीय संस्कृति की विविधताओं से आकर्षित होकर अनेक
लेखकों ने इसके विभिन्न पक्षों एवं अवधारणाओं का बखूबी वर्णन किया है। इन लेखों
में भारतीय संस्कृति के जटिल तथा प्रायः विरोधी वर्णन पढ़ने को मिलते हैं। इसकी
सर्वोत्तम व्याख्या अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार विजेता डा. अमर्त्य सेन के
लेखों में मिलती है। उनके अनुसार, आधुनिक भारतीय संस्कृति
इसकी ऐतिहासिक परंपराओं का जटिल सम्मिश्रण है-जिस पर शताब्दियों से शासन करने वाले
औपनिवेशिक शासन तथा वर्तमान पश्चिमी सभ्यता का व्यापक प्रभाव पड़ा है। पश्चिमी
लेखकों ने प्रायः महत्वपूर्ण तरीके से भारतीय संस्कृति एवं परंपराओं और इसकी
विविधताओं के महत्व को नकारा है। भारत के विभिन्न भागों में भारतीय परंपराओं की
गहरी पैठ वाली विषमता, का वर्णन भारत के इन सादृश्य वर्णनों
में कहीं नहीं मिलता है। भारत कभी भी एक समरूप सम्यता वाला राष्ट्र नहीं रहा है और
न ही हो सकता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण इसकी अमूर्त विरासत है।
डॉ० अर्पण सेन अपने एक लेख में संस्कृति को निम्न प्रकार समझा
है-संस्कृति से अर्थ होता है कि किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र
रूप जैसे जो उस समाज के सोचने, विचारने,
कार्य करने, खाने-पीने, बोलने,
नृत्य, गायन, साहित्य,
कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। 'संस्कृति' शब्द संस्कृत भाषा की धातु 'कृ' (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं
'प्रकृति' (मूल स्थिति), 'संस्कृति' (परिष्कृत स्थिति) और 'विकृति' (अवनति स्थिति)। जब 'प्रकृत'
या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब
यह बिगड़ जाता है तो 'विकृत' हो जाता
है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के 'कल्ट या
कल्ट्स से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद
हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का
शब्द 'संस्कृति'।
संस्कृति का शब्दार्थ है-उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य
स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक
परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज, रहन-सहन,
आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और आविष्कार,
जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊंचा उठता है तथा सभ्य बनता
है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization)
से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति
(Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।
भारतीय संस्कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान अलग-अलग है।
यहां के लोग अलग-अलग भाषाएं बोलते है, अलग-अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, भिन्न-भिन्न धर्मों
का पालन करते हैं, अलग-अलग भोजन करते हैं किन्तु उनका स्वभाव
एक जैसा होता है। तो चाहे यह कोई खुशी का अवसर हो पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं,
एक साथ या कोई अनुभव करते हैं। एक त्यौहार या एक आयोजन किसी घर या
परिवार के लिए सीमित नहीं है। पूरा समुदाय या आस-पड़ोसी एक अवसर पर खुशियाँ मनाने
में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेलजोल का
आयोजन है. जिसमें न केवल वर और वधु, बल्कि दो परिवारों का भी
संगम होता है। चाहे है उनकी संस्कृति या धर्म का मामला हो। इसी प्रकार दुख में भी
पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारतीय
नागरिकों की सुंदरता उनकी सहनशीलता, लेने और देने की भावना
तथा उन संस्कृतियों के मिश्रण में निहित है जिसकी तुलना एक ऐसे उद्यान से की जा
सकती है जहां कई रंगों और वर्णों के फूल है, जबकि उनका अपना
अस्तित्व बना हुआ है और वे भारत रूपी उद्यान में भाईचारा और समरसता बिखेरते हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार ए० एल० बाशम लिखते हैं- 'पुरातन संसार के किसी भी भाग में मनुष्य के मनुष्य
से तथा मनुष्य के राज्य से ऐसे सुंदर एवं मानवीय सम्बन्ध नहीं रहे जितने भारत में।
किसी भी अन्य प्राचीन सभ्यता में गुलामों की संख्या इतनी कम नहीं रही जितनी भारत
में रही, न ही 'अर्थशास्त्र के समान
किसी प्राचीन न्याय ग्रन्थ ने मानवीय अधिकारों की इतनी सुरक्षा की। हिंदूकालीन
भारत के युद्धों के इतिहास में कोई भी ऐसी कहानी नहीं है जिसमें नगर के नगर मौत के
घाट उतारे गए हों अथवा शांतिप्रिय नागरिकों का सामूहिक वध किया गया हो। असीरिया के
बादशाहों की भयंकर क्रूरता जिसमें वे बंदियों की खाल खिंचवा लेते थे, प्राचीन भारत में पूर्णतः अप्राप्य है। प्राचीन भारत की सर्वाधिक
महत्वपूर्ण विशेषता उसकी मानवीयता है। प्राचीन भारत के बारे में हमारा दूसरा मत यह
है कि उसके निवासियों ने भौतिक और आत्मिक दोनों प्रकार के पदार्थों का लालसापूर्ण
आनंद लेते हुए जीवन व्यतीत किया।" वे आगे लिखते हैं "भारत
हर्षोल्लासपूर्ण देश था, जिसके निवासियों ने विशेष प्रकार की
मानसिक स्थिति तथा शनैः-शनैः विकसित होने वाली सामाजिक प्रणाली में अपना स्थान
बनाए हुए पारस्परिक संबंधों के सहारे दयालुता और सौजन्य के उस स्तर को प्राप्त
किया जो किसी भी प्राचीन जाति के स्तर से अपेक्षाकृत उच्च था। इसके लिए धर्म,
साहित्य, कला और गणित की सफलताओं के निमित्त
एक यूरोपीय विद्वान निश्चय ही प्राचीन सभ्यता की प्रशंसा करेगा 3
क्रमश: ...
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