शनिवार, 6 जनवरी 2024

भारत की सांस्कृतिक परम्परा- डॉ.प्रकाश चंद जैन

                                                                   डॉ.प्रकाश चंद जैन

दो

भारत में वाद-संवाद एवं सहिष्णुता की अदभुत लम्बी परम्परा रही है। यहाँ की वैचारिक विविधता और वाद-संवाद की परम्परा को सभी सम्प्रदायों द्वारा सर्व सहमति प्राप्त रही है। सदियों से इस देश की विविधता में एकता का प्रसार और जड़ों का जमाव अपने आप में विलक्षण रहा है। विचारों की अभिव्यक्ति की परम्परा चार हजार वर्ष पूर्व वेदों में भी पाई गई है। ऋग्वेद में इस परम्परा के अनुसार विश्व निर्माण को लेकर ही शंका उठाई गई है, क्या कोई ईश्वर है जो ऊँचे स्वर्ग में बैठा सब देख रहा है जो जानता है कि विश्व को किसने रचा था, कब रचा गया था, कैसे इसकी रचना हुई या अनायास ही यह पैदा हो गया ? इसी प्रकार बहुमतीयता और नास्तिकता या विधर्मिता की अभिव्यक्ति तो-रामायण महाकाव्य में जाबालि ब्राह्मण को भी सम्मान मिला है जो राम को भगवान नहीं मानता बल्कि एक नायक मानता है जिसमें अनेक सदगुण है किन्तु राम के अपनी पत्नी पर संदेह करने को एक समझदार व्यक्ति के लिए अव्यावहारिक कृत्य कहता है। जाबालि राम को यह सलाह देता है कि वे अपने पिता के अजीबोगरीब वचन का पालन न करें। जाबालि का मानना था कि कोई उहलोक नहीं है, उसे पाने का कोई धार्मिक विधान भी नहीं है, शास्त्रों में देव पूजन, बलि कर्म, दान, व्रतानुष्ठान आदि बातें पुरोहित वर्ग द्वारा सामान्य जन पर अपना प्रभाव जमाने के लिए भर दी है। अंत में जाबालि प्रत्यक्ष को प्रधान कर्म मानने का व्यवहारवादी ज्ञान राम को देते हैं, यथा :

'स नास्ति परमित्येत्त् कुरु बुद्धिं महामते ।

प्रत्यक्षं यत्तदानिष्ठ परोक्षं पृष्ठतय कुरू।।"

 

अर्थात, महामते ! मन में यह निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो प्रत्यक्ष (राज्यलाभ) है, उसका आश्रय लीजिए, परोक्ष (पारलौकिक लाभ) को पीछे ढकेल दीजिए। इस प्रकार हमें देखने को मिलता है कि रामायणकार ने जाबालि को अपने विचारों की व्याख्या विस्तार से करने का पूरा अवसर दिया है, भले ही वह जाबालि के तर्कों से सहमत न हो।

हमारे देश के विद्वान भरपूर रूप से संदेहवादी रहे हैं और इसीलिए प्राचीन काल में हमारे देश में ज्ञान-विज्ञान ने उन्नति की थी। 'तैत्तिरीय ब्राह्मण (2/8/9) में साफ-साफ कहा गया है कि यह विविध सृष्टि किस से उत्पन्न हुई, किसलिए हुई, इसे वस्तुतः कौन जानता है ? देवता भी पीछे से हुए, फिर जिससे यह सृष्टि उत्पन्न हुई, उसे कौन जानता है ? जिससे ध्यावा-पृथ्वी बनी वह वृक्ष

कौन सा था, और किस वन में था, इसे कौन जानता है ? इन सबका अध्यक्ष परमाकाश में है, वही इसे जानता है, अथवा वह भी जानता है या नहीं, इसे कौन जाने ?" और ऋग्वेद का एक ऋषि तो सीधी चुनौती देता है: इह ब्रवीतु य उ ताच्चिकेतात्। अर्थात यह सब जानने वाला यदि कोई है तो वह यहां आकर बतावे।

मैगस्थनीज जिसने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सैल्यूकस राजदूत के रूप में पाटलिपुत्र में दस वर्ष बिताए थे, के द्वारा लिखी गई 'इंडिका' को भारत पर किसी विदेशी की प्रथम पुस्तक माना जा सकता है। इस पुस्तक में अनेक विलक्षण चीजों और उपलब्धियों की प्रशंसा भरी पड़ी है। ग्रीक साहित्य में तीसरी शताब्दी ई० में टायना निवासी अपोलोनियस की जीवनी में उनकी जिज्ञासा को पूर्ण संतुष्टि भारत में ही मिलने का उल्लेख मिलता है। जर्मन दार्शनिक और यूरोप की ज्ञानोदय विचारधारा से सम्बद्ध हर्डर ने भारत की प्रशंसा में लिखा है कि हिंदू तो मानवता की सबसे सौम्य प्रशाखा है, उनके कार्यों, आनंद, नैतिकता, और पुराणगाथाओं तथा कलाओं में सभ्यता और शांतभाव, मृदुता और मूक आत्मिक गहराइयों के दर्शन होते हैं।" रोमांटिक विचारधारा के चिंतक फ्रीडरिख श्लेगल ने भारतीय संस्कृति के विराट रूप से प्रभावित होकर लिखा है कि "जहाँ पश्चिम में मानव एक मशीन जैसा हो चला है-वह इससे नीचे और कहाँ जाएगा-पूर्व, विशेषकर भारत से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।" उनका यह भी कहना था कि "फारसी और जर्मन भाषाएँ तथा संस्कृतियां ही नहीं बल्कि ग्रीक और प्राचीन रोमन के मूल मन्त्र भी अंततः भारत तक ही पहुँच कर रूकते हैं।" इसी सूची में शॉपनहावर का कहना है कि "यदि पुरानी और नई बाइबिल की तुलना करें तो निश्चय ही नई बाइबिल भारतीय मूल की प्रतीत होगी। इसका नीतिशास्र पूर्णतः भारतीय है। इसी ने नैतिक तत्वों को साधुवृत्ति में परिवर्तित कर दिया है। वहीं से दुःखवाद और अवतार (ईसा मसीह) आए हैं।"7

ई० पू० तीसरी सदी में सम्राट अशोक ने सहिष्णुता और विचारों की अभिव्यक्ति पर काफी जोर दिया था और वाद-संवाद द्वारा विवादों को सुलझाने की आचार संहिता की रचना भी की थी। देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा विविध दान और पूजा से गृहस्थ और सन्यासी सब सम्प्रदाय वालों का सत्कार करते थे, किंतु देवानां प्रिय दान या पूजा की इतनी परवाह नहीं करते जितनी इस बात की कि सब सम्प्रदायों के सार ( तत्व ) की वृद्धि हो। (सम्प्रदायों के) सार की वृद्धि कई प्रकार से होती है, पर उसकी जड़ वाक् संयम है अर्थात लोग सभी सम्प्रदायों का आदर करें व निंदा आवश्यक हो तब भी संयम के साथ। हर दशा में दूसरे संप्रदाय का आदर करना ही चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। इसके विपरीत जो करता है वह अपने सम्प्रदाय की जड़ काटता है और दूसरे सम्प्रदायओं का भी अपकार करता है। क्योंकि जो कोई अपने सम्प्रदाय की भक्ति में आकर इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदायों की निंदा करता है, वह ऐसा करते समय वास्तव में अपने सम्प्रदाय को ही गहरी क्षति पहुँचाता है। इसलिये समवाय (परस्पर मेलजोल से रहना) ही अच्छा है अर्थात् लोग एक दूसरे के धर्म को ध्यान पूर्वक सुने और उसकी सेवा करे। क्योंकि देवानां प्रिय (राजा) की यह इच्छा है कि सब सम्प्रदाय वाले बहुश्रुत (भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों से परिचित) तथा कल्याणकारक ज्ञान से युक्त हो। इसलिये जो लोग अपने-अपने सम्प्रदाय में ही अनुरक्त है उनसे कहना चाहिये कि देवानां प्रिय दान या पूजा को इतना बड़ा नही समझते जितना इस बात को कि सब सम्प्रदायों के सार (तत्व) की वृद्धि हो।

समकालीन भारत में अशोक की तस्वीर के इर्दगिर्द, साधारण जनमानस में अपना ही पूजित रूप निर्मित हुआ है। 'अहिंसा' और 'पंचशील' नीति सदृश अवधारणाएं उनके विचारों के साथ जोड़ी जाती है। विश्वास किया जाता है कि सचेत हिंसा और राजनीतिक और धार्मिक, सब विश्वासों के प्रति सहिष्णुता की एक लम्बी परम्परा अशोक से शुरू होती है, जो शताब्दियों के दौरान अटूट बनी रही और जिसका चरम विकास गाँधी के राजनीतिक दर्शन में हुआ। इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि एक सम्राट के नाते किए गए अशोक के कार्य, भारतीय इतिहास और विचारधारा से प्रायः मिटा दिए गए। अशोक के विचारों का राजनीतिक महत्व सफलतापूर्वक अतीत की विस्मृति में दबा दिया गया। भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्त्रोतों में अशोक मुख्यतः वंश-तालिकाओं का एक नाम मात्र रह गया।

भारत में वाद-संवाद परम्परा में केवल पुरूष वर्ग का ही एकाधिकार मान लेना उचित नहीं होगा, यह अधिकार लिंग, वर्ण और जाति के बंधनों से भी मुक्त रहा है। भारत में बौद्धमत के तीव्र प्रसार के वर्गाधार का विश्लेषण भी रूढिवादी समाज में सापेक्ष पिछड़ेपन को स्पष्ट करता है। जैन-मत और बौद्ध-मत दोनों ही पुरोहितों को तिरोहित करने वाले धार्मिक विद्रोह कहे जा सकते हैं। इन्होंने न केवल मानवमात्र की समानता के सन्देश का प्रसार किया बल्कि इनके साहित्य इसी प्रतिवाद और विरोध की अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। अतीत में झाँकने से ज्ञात होता है कि वाद-संवाद की प्रक्रिया में नारी की भागीदारी स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाएगी। बृहदारण्यक उपनिषद में विद्वान शिक्षक याज्ञवलक्य से नारी विद्यार्थी गार्गी द्वारा शास्त्रार्थ करने एवं उनसे संतुष्ट होने पर उनको साधुवाद देने का वर्णन मिलता है। मीराबाई, आंडाल, दयाबाई, सहजोबाई, क्षेमा, ललद्यद और न जाने कितनी ही महिलाओं ने भी भक्तिकाल में अपना योगदान दिया है।

स्वामी विवेकानंद ने बड़े गर्व के साथ घोषणा करते हुए कहा था कि-हिन्दू धर्म के कुछ उच्च कोटि के ऋषि-मुनियों और धर्मग्रंथों के ज्ञाताओं में स्त्रियों का अत्यंत सम्मानजनक स्थान था। वेदों के उद्घाटन और सृजन से जुड़ी 21 ऋषिकाएँ स्त्रियां थी।" 'गार्गी' और मैत्रेयी' जैसे नाम आज दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुछ कॉलेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं। विश्वपारा, घोषा और अपाला अन्य प्रमुख ऋषिकाएँ थी। आदि शंकराचार्य ने अपने प्रसिद्ध आलोचक मण्डन मिश्व के साथ शास्त्रार्थ के दौरान उसकी विदुषी पत्नी सरसवाणी को नियुक्त किया था।

 

महाकाव्यों में जाति विरोधी और रूढ़िवादी विचारों को चुनौतियां तर्को के सहारे ही दी जाती रही है। महाभारत के एक प्रसंग में भृगु ने भारद्वाज ऋषि से प्रश्न किया: यदि हम सभी कामना, क्रोध, भय, दुःख, चिंता, भूख और थकान अनुभव करते हैं तो हमारे वर्ण कैसे अलग-अलग हो गए? लेकिन उसी महाभारत के अंश श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं: चातुर्वर्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः अर्थात् समाज के अंदर चारों वर्ण है वे गुणों के आधार पर मेरे ही सृजित किये गये हैं। भविष्यपुराण में भी वर्ण-विभाजन पर प्रश्न उठाया गया है कि "जब सभी मानव एक ही पिता (ईश्वर) की संतान है तो इस नाते उनका वर्ण भी एक ही होना चाहिए। मध्ययुगीन भक्ति काल में भक्त और सूफी दोनों ने समाज में प्रचलित धार्मिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है। अक्सर धार्मिक रूढ़ियों को समाज के अभावग्रस्त वर्गों ने ही चुनौती दी है। इनमें अधिकाँश निम्न एवं दरिद्र वर्ग से थे। जैसे कबीर जुलाहे, दादू रूई धुनने वाले, रविदास चर्मकार और सैन एक नाई थे। 14वीं सदी के संत चोखामेला एक दलित थे और मंदिर में प्रवेश से वर्जित होने के बावजूद ये ईश्वर मक्ति में डूबे रहे।12

भारत में संशयों और असहमतियों को सहन करने की एक लम्बी परम्परा रही है। ईसा पूर्व चौथी सदी में विश्व विजय अभियान पर निकले सिकंदर को भी राजनीति पर जैन साधुओं से साम्राज्यवाद विरोधी शिक्षा मिली थी। साम्राजयवाद विरोधी शिक्षा यह थी- "राजा सिकंदर ! प्रत्येक व्यक्ति का पृथ्वी के उतने ही भाग पर अधिकार दिखाई देता है जिस पर उसके दो पाँव रखे हो। आप भी हमारी ही तरह है। हॉं, आप सदा व्यस्त रहते हैं, अपने घर से इतनी दूर निकल आये हैं और अपने तथा अन्य लोगों के लिए कुछ न कुछ गड़बड़ ही कर रहे हैं - शीघ्र ही आपकी भी मृत्यु होगी - फिर आपका अधिकार भी मात्र उतनी ही जमीन पर रह जाएगा जिसके नीचे आप दफन होंगे। बौद्धों की जनसंवाद के प्रति गहरी निष्ठा को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने विश्व में संभवतः पहली खुली जनसभाओं के आयोजनो को जन्म दिया। भारतीय इतिहास में संशयवादी, नास्तिकतावादी, अनीश्वरवादी और भौतिकतावादी लोगों की उपस्थिति दार्शनिक महासम्मेलनों में मिलती है। उनके दृष्टिकोण को भले ही नकारा गया हो किन्तु उनको अपना पक्ष प्रस्तुत करने से कभी भी वंचित नहीं किया गया। ई० पू० दूसरी सहस्त्राब्दी में अन्य धार्मिक व्याख्याओं के साथ संशयवादी तर्कशास्त्र पनपने के प्रमाण धर्मग्रंथों में मिल जाते हैं। हिन्दू धर्म में संशयों और असहमतियों को सहन करने की लम्बी परम्परा रही है। संशयवादी और भौतिकतावादी विचारधारा, बुद्ध के समय से ही प्रचलित थी और कुछ, साक्ष्य तो उपनिषदों में भी मिल जाते हैं। संस्कृत और पाली भाषा में अनीश्वरवादी या नास्तिकतावादी साहित्य की रचनाएं भी प्रचुर मात्रा में मिल जाएंगी। चौदहवीं सदी में माधवाचार्य द्वारा अपनी रचना 'सर्वदर्शन संग्रह' में चार्वाक के नास्तिकता और भौतिकतावादी व्यवस्था का मंडन किया गया है। 13

                                                                        क्रमश: ...    

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