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एम.असलम.
टोंक
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टोंक
के उस्ताद शायरों में हजरते सौलत का नाम आज भी बड़े अदब से लिया जाता है। वो ग़ज़ल
के शायर थे, लेकिन उन्होंने शायरी की हर
विधा में लिखा। ज़िंदगी में उनका कोई दीवान प्रकाशित नहीं हो सका। लेकिन उनकी
शायरी के दीवाने जमाने में बहुत हैं। वो उर्दू, फारसी एवं
अरबी के जानकार होने के साथ ही एक ऐसे शायर थे, जिनकी महफिल
में मौजूदगी ही महफिल की कामयाबी का बाइस हुआ करती थी। उन्होंने हज़ारों शेर कहे,
सैंकड़ों ग़ज़लें लिखी। लेकिन उनको अपनी हमदर्दी व काबिलियत के सिले
में दुश्वारियों के सिवाए कुछ मिलता नज़र नहीं आया।
"बाम
व दर मतला ए अनवार नज़र आते हैं,
उनके
आने के से आसार नज़र आते हैं। '
हजरते
सौलत का नाम सैयद महमूदुल हसन सौलत टोंकी था। जो अरब में जनवरी 1898 में पैदा हुए।
बचपन में ही उनके वालेदेन का इंतकाल हो गया था। बताया जाता है कि साहबजादा
इकरामुद्दीन खां की वालिदा उनको हज पर जाने के दौरान वहां से कम उम्र में ही टोंक
ले आई थी। 11 साल की उम्र में वो शायरी करने लगे।
"बहुत
से रंज उठाए है ज़िंदगी के लिए,
हजार
बार में रोया हूं इक हंसी के लिए।
ये बात
क्या है कि तारीक है मेरी महफिल,
चराग़
लाख जलाए हैं राेशनी के लिए।'
टोंक
के शायरों पर लिखी स्व. हनुमान सिंह की पुस्तक अंजुमन में लिखा है कि "जब भी
टोंक में उर्दू शेरो शायरी का जिक्र आएगा हजरते सौलत का नाम अपने आप जुबान से फिसल
जाएगा, एक जमाना था जब उर्दू शेरों शायरी की कोई भी महफिल
तब तक मुकम्मल नहीं मानी जाती थी, जब तक कि हजरत सौलत तशरीफ
नहीं ले आते थे।
"ये
कैसी दिल रुबाई है निगाहें नाज़ कातिल में,
के
पैदा कत्ल होने की तमन्ना हो गई दिल में'
सौलत
साहब के निधन के बाद साहबजाद शौकत अली खां ने उनकी याद में ऑल इंडिया मुशायरा टोंक
में करवाया तथा अपने इंस्ट्यूशन से एक जनरल उनको केंद्रीत करते हुए प्रकाशित भी
करवाया था। दिल्ली के एक रिसाले शाने हिंद ने भी उनके कलाम को प्रकाशित किया।
"किसी
करवट तो चैन आए किसी पहलू तो कल आए,
इलाही
कोई सूरत तो तसल्ली की निकल आए। '
हजरते
सौलत 1968 में दुनिया से रूखसत हो गए। लेकिन उनकी शायरी आज भी लोगों को प्रेरित
करती है। उनकी शायरी की तारीफ कई नामवर शायर करते नहीं थकते हैं। उनके शार्गिदों
की भी एक लंबी फेहरिस्त रही।
"यह
किसी की याद ने ली चुटकियां दिल में मेरे "सौलत',
यह इक
दम बैठे बैठे क्यो मेरे आंसू निकल आए।
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