बुधवार, 3 जनवरी 2024

आरज़ू ग़ज़ल संग्रह- मेहबूब अली 'मेहबूब' समीक्षा— एम.असलम

                                                                            एम.असलम


    कला-साहित्य के क्षेत्र में टोंक किसी से कम नहीं है। यहां पर शायरी के क्षेत्र में कई नामवर, बा-कमाल शायर पैदा हुए। जिनका लौहा आज भी देश-दुनिया मानती है। अख़्तर शीरानी, मुश्ताक़ अहमद युसूफ़ी, बिस्मिल सईदी, मख़्मूर सईदी, जगन्नाथ शाद, उत्तमचंद चंदन जैसे शायरों की शायरी यहां परवान चढी तथा कई नामवर शायर यहां हर दौर में पैदा होते रहे हैं। उर्दू जगत में उनका नाम बड़े ही अदब से आज भी लिया जाता है। आज भी टोंक के शायर डा. जिया टोंकी देश-दुनिया में अपनी शायरी की महक बिखेरते नजर आते है। हाल ही में एक शायर जो टोंक जिले के छोटे से गांव पचेवर, मालपुरा में पैदा हुए तथा टोंक की शायराना तहज़ीब को परवान चढा रहा हैं। जिले के वो मेहबूब शायर के रुप में अब देखा भी जाने लगा है। उनका नाम मेहबूब अली तथा तख़ल्लुस मेहबूब है। वर्तमान में मेहबूब अली 'मेहबूब' जयपुर ग्रामीण के दूदू में शिक्षक के पद पर कार्यरत है। लेकिन उनकी शायरी के ज़रिए दी जा रही शिक्षा प्रेरित होने के साथ ही ग़ज़ल को एक नई दिशा भी देती नजर आती है। हालांकि शायरी का क्षेत्र इतना पुराना एवं तवील है, जहां ऐसा लगता है कि नया कुछ भी नहीं है, चाहे कोई ख़्याल, अशआर व अभिव्यक्त किए गए शब्द नई ज़मीन पर ही लिखे क्यों ना गए हो। वो भी ऐसे लगते है कि पहले लिखे जा चुके हैं। लेकिन मेहबूब अली 'महबूब' ने पुरानी ज़मीन पर भी नई महक देने की आरज़ू के साथ अपनी शायरी का सफर शुरू किया है। 28 जून 1981 में पैदा हुए मेहबूब अली 'मेहबूब' का शायरी का सफर हालांकि उनके स्कूल समय में ही शुरू हो गया था। लेकिन अब वो पुख़्तगी के साथ मंजरे आम पर आने लगा है। वो लिखते हैं :-

दोस्त, चाहत, निस्बतें सब ही फ़साना हो गया,

गाँव की गलियों से गुजरे इक ज़माना हो गया।

मालो ज़र से हो रही हैं रिश्तों की पैमाइशें।

कितना मुश्किल आजकल रिश्ते निभाना हो गया ।।

अब नसीहत बाप की भी लगती है उसको फ़िज़ूल ।

दो किताबें क्या पढी बेटा सयाना हो गया ।।

चाहता है गाँव कौन अपना खुशी से छोड़ना,

क्या करूँ जब शहर में ही आबो दाना हो गया ।

क्या चला दौर-ए-तरक्की शहर से ये गाँव तक,

था जहाँ गुलशन कभी अब कारख़ाना हो गया ।

उसकी आँखों में था जादू और बातों में ग़ज़ल ,

जो भी उसके पास बैठा वो दीवाना हो गया।।

    मेहबूब अली 'महबूब' का एक ग़ज़ल संग्रह हाल ही में राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हुआ है। उसमें कई साहित्कारों एवं शायरों ने उनके बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं। इस ग़ज़ल संग्रह में पेश की गई 80 ग़ज़लों में शायर ने बदलते दौर, जिंदगी की हकीक़त के साथ ही वर्तमान हालत पर जो कटाक्ष किए हैं, वो काबिले तारीफ़ रहे हैं। उर्दू व हिंदी में उनकी अच्छी पकड़ हैं, इस बात को ये ग़ज़ल संग्रह बखूबी बयां करता नज़र आता है। हिंदी व उर्दू में मास्टर डिग्री प्राप्त मेहबूब अली 'मेहबूबको गत वर्ष 2023 में अदबी उड़ान आठवां राष्ट्रीय पुरस्कार एवं सम्मान समारोह जो अक्टूबर 2023 में उदयपुर में आयोजित हुए था। इसमें मेहबूब अली 'मेहबूब' को अदबी उड़ान विशिष्ठ साहित्यकार सम्मान 2023, असम के राज्यपाल गुलाबचंद कटारिया की मौजूदगी में प्रदान किया गया। उनको जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी जयपुर राजस्थान द्वारा एकता पुरस्कार, बाल साहित्य सृजन पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। उनकी ग़ज़ल -

टूट जाता हूँ मैं अश्क बहने के बाद ।

जब तुम आते नहीं मेरे कहने के बाद ।।

बिन तेरे दिल ये लगता नहीं है कहीं।

क्या कहूँ हाल अब दर्द सहने के बाद।।

आके बस जाओ तुम मेरी साँसों में अब।

और जाना नही मेरे कहने के बाद।।

अब बयाँ क्या करूँ धड़कनों का सबब ।

लब ये रुक जाते हैं कुछ भी कहने के बाद ।।

आके बस जाओ महबूब दिल में मेरे।

क्या रहोगे मकाँ के ही ढहने के बाद ।।

    उपवन के फूल बाल काव्य संग्रह पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित, जज़्बात ग़ज़ल संग्रह का उप संपादन  का कार्य भी मेहबूब अली कर चुके हैं। उनके लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ ही उनकी रचनाओं को अब दूर-दूर तक पहचान मिलने लगी है। मुशायरों एवं कवि सम्मेलनों में भी उनकी उपस्थित रहने लगी है। धीरे-धीरे वो अदब के क्षेत्र में कदम बढ़ाने लगे हैं। उनकी एक ग़ज़ल : -

मस्जिद की बात कर न शिवालों की बात कर ।

तूं आज निर्धनों के निवालों की बात कर।।

वादे तो खूब कर लिए तूने जहान से ।

बीते हुए समय के उजालों की बात कर ।।

तूने अमीरे शहर की करली है पैरवी ।

कुछ गाँव के किसानों के छालों की बात कर।।

कितने परीशाँ लोग ग़मे रोज़गार से।

हर नौजवाँ के ख़्वाबों-ख़यालों की बात कर ।।

मेहबूब यूँ चुरा न तूं नज़रे जहान से।

अहले जहाँ के सारे सवालों की बात कर ।

क्या कहते हैं मेहबूब अली 'मेहबूब' :-

    मेहबूब अली 'मेहबूब' अपनी पुस्तक के बारे में लिखते हैं कि अदब (साहित्य) समाज का आईना होता है, समाज में जो मसाइल चलते रहते हैं अदब में वही नमुदार होते हैं। आरज़ू जो कि मेरा पहला ग़ज़ल का मज़मुआ है। यह किस मौजू पर है बताने के पहले मैं बताना चाहूंगा कि मैं किस तरह अदब की दुनिया में आया। अदब का तलबा (student) होने के सबब में शुरू से ही अदब की नशिस्तों और मुशायरों में जाता रहता था। मीर और ग़ालिब मेरे पसंदीदा शाइर हुआ करते हैं। उनको पढ़कर मैं भी लिखने की कोशिश किया करता था। और टीचर्स और दोस्तों को दिखाया करता था, कवियों और शाइरों को सुनता और अपनी ग़ज़लों के अशआर आदि को दिखाता। कई बार मुझे भी ग़ज़ल कहने का मौका मिलता और दाद भी मिली। शुरुआती दौर में मेरी ग़ज़लों में रदीफ़ काफ़िया तो होता था पर बहर मैं लिखने में मुश्किलें आई तब दोस्त शाइरों से मदद भी ली। मुसलसल नशिस्तों और मुशायरों में जाने से और कई मारूफ शायरों की सोहबतों में मेरी ग़ज़लों में निखार आने लगा। आरजू ग़ज़ल के मजमुए से पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी राजस्थान के सहयोग से प्रकाशित मेरे बाल कविता संग्रह 'उपवन के फूल' का जिक्र करूंगा बाल साहित्य के लिए मुझे सत्यदेव संवितेंद्र जोधपुर संपादक (सतरंगा बचपन) आर एल दीपक वरिष्ठ साहित्यकार (मालपुरा) राजेंद्र मोहन शर्मा (बाल साहित्यकार) यशपाल शर्मा यशस्वी पहुना (चित्तौड़गढ़) का मार्गदर्शन मिला है आरजू ग़ज़ल के मजमुए में मैंने जो ग़ज़लें शामिल की है, वे आम लोगों की जिंदगी से वाबस्ता होने के साथ-साथ वतन परस्ती, इंसाफ, मुहब्बत, अमन, भाईचारे को इंगित करती है।,,

 जिंदगी को रफ़्ता रफ़्ता मुस्कुराना आ गया ।

आजकल हमको पुराने ग़म भुलाना आ गया।।

मुस्कुराओ तुम सदा के नूर चेहरे पर रहे ।

अब मेरे लब पे दुआओं का ख़जाना आ गया ।।

दोस्तों में दोस्ती सी आदते जाती रही।

जब नए अंदाज़ से दिल को दुखाना आ गया ।।

कर रहे हो मालो ज़र से रिश्तो की पैमाइशे ।

आपको भी आजकल रिश्ते निभाना आ गया।।

सह लिया करते थे तुम महबूब हर इक बात को।

दिल हुआ ज़ख्मी तो तुमको तमतमाना आ गया ।।

    बहरहाल मेहबूब अली के अपने ये विचार ही उनको एक मुकम्मल शायर होने की तस्दीक़ करने के लिए काफी है। वहीं उनका कलाम में भी काफी पुख़्तगी से वो आगे इस क्षेत्र में बुलंद मुकाम हासिल करेंगे। ऐसी मेरी कामना है। मेहबूब अली की मेहबूब ग़ज़ल ,:-

कहीं सुकूँ की फ़िज़ा नहीं है। वो पहले जैसी हवा नहीं है ।।

ये सज्दे कैसे क़बूल होंगे । झुका है सर दिल झुका नहीं है ।।

ये मयक़शी तो है मर्ज़ यारों । है जहर ये कुछ दवा नहीं है।।

कहाँ हवन अब मुहब्बतों का । तो अम्न की भी दुआ नहीं है ।।

मिलो जो तुम तो क़रम तुम्हारा। ना मिल सको तो गिला नहीं है।।

 आप भी मेहबूब अली 'मेहबूब' की आरज़ू ग़ज़ल संग्रह जरुर पढे तथा साहित्य एवं साहित्यकारों को प्रोत्साहित करें। 

एम.असलम

टोंक स्थिति इबादुल्लाह रखां की कचहरी के आगे, खातियों का घेर, काली पलटन टोंक में पैदा हुए। एम.ए. एवं बीजेएमसी करने के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में पिछले करीब 23 साल से कार्यरत।

है । प्राचीन रहस्यों का जिला टोंक पुस्तक से पहले शान-ए-बनास प्रथम व द्वितीय प्रकाशित।


1 टिप्पणी:

महबूब अली महबूब ने कहा…

बहुत बहुत आभार

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...