ब्रेल लिपि के जादू ने
बढ़ाया हौसला...…
फांस के लुई ब्रेल की
आंख बचपन में ही जूते गांठने का सुआं लगने से चली गई थी। वो ठीक नहीं हुई। और
दूसरी आंख भी खराब हो गई। कहते हैं कि लुई
ब्रेल ने उसी सुएं से ब्रेल लिपि का अविष्कार कर दिया। जिसने कई दृष्टिबाधित बच्चों
को हौसला दिया। वो आज भी किसी चमत्कार की भांति हमें प्रेरणा देते नज़र आते हैं।
ब्रेल लिपि से पढ़कर देश और समाज को बुलंद हौसले का संदेश देने वाले टोंक के वकील
भरत सिंह नरूका व आगरा की शायरा डा आरेफा शबनम का जिक्र करना ऐसे समय प्रासंगिक
हैं।आज भी ये ब्रेल लिपि की चमत्कारिक सफलता के जीवंत उदाहरण है।
आगरा की नाबिना (दृष्टि
बाधित) शायरा डा. आरेफा शबनम देश का वो प्रेरित चेहरा बन गई। जिसकी शायरी ही नहीं
नाबिना बच्चों की शिक्षा में दिए जा रहे योगदान की अब लोग मिसाले भी देने लगे हैं।
दृष्टि बाधित होने के बावजूद उनका हौसला देखकर भी लोग दांतों तले उंगलियां दबा
लेते हैं।
जो दुनिया को देख, तो
नहीं सकती, लेकिन उसका दर्द बहुत करीब से महसूस कर सकती है।
और इस नामवर शायरा ने बहुत ही करीब से महसूस भी किया। एक ऐसी ही शख्सियत काे आज
आरेफा शबनम के नाम से जाना जाता है। टोंक महोत्सव पर आयोजित ऑल इंडिया मुशायरे में
आई आरेफा शबनम का कहना था कि जब वो बचपन में स्कूल पढ़ने गई, तो
वहां मौजूद कई बच्चों ने कहा कि अंधे भी क्या कोई पढ़ते हैं। बस ये बात दिल को कचौट
गई। बस, मन में ठान लिया की मुझे पढकर कुछ करना है। और घर पर
शिक्षा ग्रहण करके सीधे 9 वीं कक्षा में प्रवेश लिया तथा एमए
कर के एज्यूकेशन डिर्पाटमेंट में प्रिंसिपल तक बनी। मुझे जो दर्द मिला वो किसी
नाबिना बच्चें को नहीं मिले, वो शिक्षा से वंचित ना हो। इसके
लिए डा. शबनम ने आगरा-मथुरा के समीप एक नाबिना बच्चों के लिए स्कूल खोला। वहां पर
वो ऐसे बच्चों को निशुल्क शिक्षा भी दिलाती है। उनको यूपी में गर्वनर एवार्ड व मदर
टरेसा के नाम से भी सम्मान मिल चुका है। शिक्षका एवं शायरा डा. शबनम यूपी में
इंटरकॉलेज की प्रिंसिपल भी रही। वो अपनी शायरी का जादू देेश ही नहीं अमेरिका,
कनाडा, दुबई, पाकिस्तान,
जद्दा आदि में भी बिखेर चुकी है। डा. आरेफा शबनम का कहना है कि वो
एज्यूकेशन डिपार्टमेंट में 1988 में आ गई थी। कोरोना से पहले
2020 में उन्होंने वीआरएस लेकर नेत्रहीन बच्चों की सेवा करना
शुरू कर दिया है। अब वो उनके लिए ही काम भी करती रहती है। मुशयरों के जरिए मिलने
वाली राशि भी उनपर ही खर्च करती है। डा. आरेफा शबनम ने ब्रेल लिपि के माध्यम से
अपनी पढ़ाई पूरी की। उन्होंने कई जगह से ब्रेल लिपि की किताबें आदि मंगवाई। उनको
पढाई में काफी कठिनाई आई। लेकिन उनकी मां ने कभी उनको लक्ष्य की ओर जाने से नहीं
रोका तथा उनकी हर क़दम पर मदद की। हालांकि वो एक शिक्षित परिवार से संबंध रखती है।
जो उनको कभी आर्थिक परेशानी नहीं आई। लेकिन नाबिना होने के कारण वो कदम-कदम पर
संघर्ष ही करती रही। वो अपने अशआर के जरिए भी अपनी उलझनों को इस तरह बयान करती है।
कटी उलझनों में थी जिंदगी, मुझे हर क़दम मिली बेकली, मैं किताबे सब्र थी आरेफा, मेरा हरफ-हरफ बिखर गया।
बचपन से ही डा. आरेफा शबनम को गीत सुनने का शौक़ रहा है। वो रेडियों पर गीत सुना
करती थी तथा उसको गुनगुनाते-गुनगुनाते वो पेरोडी कहने लगी। बस शौक़ बढता गया। 9 कक्षा में स्टेल पर उन्होंने अपनी पहली प्रस्तुति दी। जब से अब तक वो
शायरी की दुिनया में अपना कलाम पेश कर रही है। आज देश की मक़बूल शायरा होने के साथ
ही अंधेरी जिंदगी में भी उजाले का संचार करती नजर आती है। मौलाना अबुल कलाम आजाद
अरबी फारसी शोध संस्थान में 23दिसंबर 2023 को ऑल इंडिया मुशायरा आयोजित हुआ। इसमें आगरा से आई नाबिना (दृष्टि
बाधित) डा आरेफा शबनम ने तरन्नमु के साथ अपनी ग़ज़ल पेश कर सबकी आंखें खोल दी।
हालांकि वो बचपन से ही देख नहीं सकती है। लेकिन उनकी तालीम व इल्म काफी पुख्ता था।
उन्होंने अपना कलाम पेश करते हुए,
मैंने कोई सूरज, कोई तारा नहीं देखा,
किस रंग का होता है, उजाला नहीं देखा,
सुनते हैं कि अपने ही थे घर लुटने वाले, अच्छा
हुआ मैंने ये तमाशा नहीं देखा। हालांकि मुझे शौक़ सवरने का बहुत है,
और मैंने कभी अपना
चेहरा नहीं देखा..
पेश कर सर्दी के इस
माहौल में जोश भरने के साथ ही आंखों को भी नम कर दिया। मुशायरे में मौजूद हर कोई
उनको दाद देता नजर आया।
ऑल इंडिया इस मुशायरा
में आगरा से आई नाबिना शायर आरिफा शबनम ने जहां मोहब्बत का संदेश दिया, वही
टोंक महोत्सव का उजाला ना देखते हुए भी टोंक के उज्जवल भविष्य की कामना भी की।
दृष्टि बाधित होने के
बावजूद 27 साल
से कर रहे हैं वकालत.….
ब्रेल लिपि से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त 59
वर्षीय दृष्टिबाधित भरत सिंह नरुका उसी प्रारंभिक शिक्षा के हौसले के बल पर आज भी
जिला अदालत में वकालत कर रहे हैं। वो नियमित रुप से पिछले 27
साल से वकालत कर रहे हैं। उनका कहना है कि वो फौजदारी केस अधिक लड़ते हैं। अब तक
करीब 800 से अधिक केस लड़ चुके होंगे। हालांकि उनको
दृष्टिबाधित होने के कारण कई लोग उनको अपना केस देने में झिझकते हैं। लेकिन वो अब
तक पूरे आत्मविश्वास एवं हौसले के साथ वकालत कर रहे हैं तथा उनको कोई परेशानी नहीं
है। सहायक के रुप में एक दिव्यांग एवं एक अन्य वकील भी कार्यरत है। जो उनसे वकालत
का हुनर सीख रहे हैं। टोंक के एक छोटे से ग्राम निबोला में पैदा हुए दृष्टि बाधित
भरत सिंह नरुका पुत्र शिव सिंह नरुका का कहना है कि वो जब 4
साल के थे तो उनकी नेत्रज्योति किसी कारणवश चली गई थी। उनके अभिभावकों को पता चला
की अजमेर में ऐसे बच्चों को भी पढाया जाता है, देख नहीं सकते,
तो उनको भी अजमेर में स्थिति दृष्टिबाधित विद्यालय में प्रवेश
दिलाया। वहां पर उन्होंने कक्षा 1 से 8
तक की शिक्षा ब्रेल लिपि से की। उसके बाद वो 9वीं-10वीं सामान्य निजी स्कूल में पढे। उसके बाद कोठी नातमाम में हायर सैकंडरी
स्कूल में प्रवेश लिया। साथियों की मदद से वो अागे की पढाई पूरे उत्साह के साथ कर
पाए। पिछले 27 साल से वो टोंक में वकालत कर रहे हैं। साथ ही
समाज को संदेश दे रहे है कि हौसला बुलंद हो, तो कोई मंजिल
आसान नहीं होती है। वो सभी को आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा देते हैं। उनका कहना है
कि उन्होंने सरकारी कोई सुविधा तक नहीं ली। अपने ही बल पर वो अपना कार्य करना
चाहते हैं। वो अपने दो जूनियर सहायकों को भी उनसे बढकर आगे कार्य करने का संदेश
देते हैं। टोंक के मेहंदवास गेट के समीप रहने वाले वकील नरुका खाना बनाना सहित कई
कार्य भी जानते हैं। वो पैदल ही अपने घर से अदालत तक आ जाते हैं।
भरत सिंह नरुका कहते
हैं कि उनके साथियों एवं कृषि का कार्य करने वाले उनके परिवार ने उनका हर कदम पर
सहयोग किया। हालांकि वो अपनी अपेक्षा के अनुरुप कार्य नहीं कर पाए। लेकिन जो भी कर
रहे हैं, उससे
वो पूरी तरह संतुष्ठ है। पहले उनकी रुचि राजनीति में थी, वो
वकीलों आदि के साथ भी रहते थे। ऐसे मे उन्होंने अपना कैरियर वकालत में भी बनाया।
भरत सिंह नरुका ने राजस्थान यूनिवर्सटी से 1994 में अपनी
वकालत की शिक्षा पूरी की तथा 1996 से वो नियमित रुप से वकालत
कर रहे हैं। उनकी माने तो वो राज्य के वर्तमान में ऐसे पहले वकील है, जो नियमित रुप से वकालत करते रहे हैं।
ब्रेल के बारे में
विभिन्न स्त्रोतों से मिली जानकारी के अनुसार-
अंधेपन के शिकार लोगों
के बीच लुई ब्रेल मसीहा के रूप में जाने जाते है। चार जनवरी का दिन उन्हीं की याद
में ब्रेल दिवस मनाया जाता है।
1809 में
फ्रांस के एक छोटे से कस्बे कुप्रे के एक साधारण परिवार में जन्मे लुई ब्रेल के
पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोड़ों के लिए काठी बनाने का काम करते थे। उनके साथ
लुई बचपन से ही काम करने लगे। एक दिन पिता के साथ काम करते वक्त वहां रखे औजारों
से खेल रहे लुई की आंख में एक औजार लग गया। ये औजार सउआं था। चोट लगने के बाद उनकी
आंख से खराब हो गई। परिवार के लोगों ने इसे मामूली चोट समझ कर आंख पर पट्टी बांध
दी और इलाज करवाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। वक्त बीतने के साथ लुई बड़ा होता गया
और घाव गहरा होता चला गया. आठ साल की उम्र में पहुंचते पहुंचते लुई की दुनिया में
पूरी तरह से अंधेरा छा गया। परिवार और खुद लुई के लिए यह एक बड़ा आघात था। लेकिन
आठ साल के बालक लुई ने इससे हारने के बजाए चुनौती के रूप में लिया. परिवार ने बालक
की जिज्ञासा देखते हुए चर्च के एक पादरी की मदद से पेरिस के एक अंधविद्यालय में
उनका दाखिला करा दिया।
16 वर्ष
की उम्र में लुई ब्रेल ने विद्यालय में गणित, भूगोल एवं
इतिहास विषयों में महारथ हासिल कर शिक्षकों और छात्रों के बीच अपना एक स्थान बना
लिया. 1825 में लुई ने एक ऐसी लिपि का आविष्कार किया जिसे
ब्रेल लिपि कहा जाता है. लुई ने लिपि का आविष्कार कर नेत्रहीन लोगों की शिक्षा में
क्रांति ला दी।ब्रेल लिपि का विचार लुई के दिमाग में फ्रांस की सेना के कैप्टन
चार्ल्स बार्बियर से मुलाकात के बाद आया. चार्ल्स ने सैनिकों द्वारा अंधेरे में
पढ़ी जाने वाली नाइट राइटिंग और सोनोग्राफी के बारे में लुई को बताया था. यह लिपि
कागज पर उभरी हुई होती थी और 12 बिंदुओं पर आधारित थी. लुई
ब्रेल ने इसी को आधार बनाकर उसमें संशोधन कर उस लिपि को 6
बिंदुओं में तब्दील कर ब्रेल लिपि को इजात कर दिया. लुई ने न केवल अक्षरों और
अंकों को, बल्कि सभी चिन्हों को भी लिपि में सहेज कर लोगों
के सामने प्रस्तुत किया। चार्ल्स बार्बियर द्वारा जिस लिपि का उल्लेख किया गया था,
उसमें 12 बिंदुओ को 6-6
की पंक्तियों में रखा जाता था. उसमें विराम चिन्ह, संख्या और
गणितीय चिन्ह आदि का समावेश नहीं था. लुई ने ब्रेल लिपि में 12 की बजाए 6 बिंदुओ का प्रयोग किया और 64 अक्षर और चिन्ह बनाए। लुई ने लिपि को कारगार बनाने के लिए विराम चिन्ह और
संगीत के नोटेशन लिखने के लिए भी जरुरी चिन्हों का लिपि में समावेश किया।
ब्रेल ने अंधेपन के
कारण समाज की दिक्कतों के बारे में कहा था, "बातचीत करना मतलब एक-दूसरे के
ज्ञान को समझना है, दृष्टिहीन लोगों के लिए यह बहुत
महत्वपूर्ण है और इस बात को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते." उनके अनुसार विश्व
में अंधेपन के शिकार लोगों को भी उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना साधारण
लोगों को दिया जाता है। 1851 में उन्हें टीबी की बीमारी हो
गई जिससे उनकी तबियत बिगड़ने लगी और 6 जनवरी 1852 को मात्र 43 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया.
उनके निधन के 16 वर्ष बाद 1868 में
रॉयल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड यूथ ने इस लिपि को मान्यता दी। लुई ब्रेल ने न केवल
फ्रांस में ख्याति अर्जित की, बल्कि भारत में भी उन्हें वहीं
सम्मान प्राप्त है जो देश के दूसरे नायकों को है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा
सकता है कि भारत सरकार ने 2009 में लुई ब्रेल के सम्मान में
डाक टिकिट जारी किया था। ब्रेल दिवस को
शुभकामनाएं। अपने भी मन-मस्तिष्क ऐसी भावनाएं विकसित करें, जो
जरूरतमंद का सहारा बने। वास्तव में धर्म आस्था ऐसी ही जरूरतमंद का सहारा व हौसला
बने। जय हिन्द।
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