मंगलवार, 9 जनवरी 2024

बन्दा सिंह बहादुर: एक अद्वितीय जन-रक्षक, परम योद्धा और चरित्रवान सेनापति- डॉ0 रवीन्द्र कुमार, श्रीमती कमलेश कुमारी


    बन्दा सिंह बहादुर: एक अद्वितीय जन-रक्षक, परम योद्धा और चरित्रवान सेनापति

बन्दा सिंह बहादुर (बाल्यकाल नाम: लछमन देव; जीवनकाल: 1670-1716 ईसवीं), जो एक परम योद्धा, सच्चे सिख और चरित्रवान खालसा सेनापति थे, का जन्म 27 अक्टूबर, 1670 ईसवीं को राजौरी, पुंछ (जम्मू-कश्मीर) के एक दीन किसान राम देव के सुपुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माता का नाम सुलखनी देवी था।

बाल्यकाल से ही घुड़सवारी, व्यायाम एवं शस्त्रविद्या में रुचि रखने वाले लछमन देव ने मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में वर्ष 1685 ईसवीं में अपना घर त्याग दिया; जानकी प्रसाद बैरागी नामक एक साथी संन्यासी की प्रेरणा से वे संन्यासी बन गए तथा माधोदास बैरागी के नाम से जाने गए। वर्ष 1686 ईसवीं में वे कसूर (पंजाब) क्षेत्र के प्रसिद्ध बैरागी राम दास के शिष्य बन गए। उनसे अध्यात्म और धर्म की शिक्षा ली। उसके बाद लगभग चार वर्षों तक शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुए 1691 ईसवीं में वे प्रसिद्ध पंचवटी (पाँच वट वृक्ष स्थल), नासिक पहुँचे। नासिक में वे तंत्रविद्या के लिए प्रसिद्ध योगी औघड़ नाथ के संपर्क में आए और उनसे योग विज्ञान का ज्ञान लिया।  उसी वर्ष उनके निधन के बाद वे नांदेड़ आ गए।

माधोदास बैरागी ने गोदावरी नदी के तट पर नांदेड़ (वर्तमान महाराष्ट्र) में एक मठ की स्थापना की और अब वे अपने तपस्वी-जीवन धर्म-अध्यात्म ज्ञान तथा योग व तंत्र में अभ्यासरत हो गए थे। वहीं, दूसरी ओर, दसवें सिख गुरु गोबिन्द सिंहजी भी उन दिनों उसी क्षेत्र में थे; वे औरंगजेब की मुगल सत्ता की धार्मिक असहिष्णुता की नीति, कट्टरता और अत्याचारों के विरुद्ध धर्मयुद्ध लड़ रहे थे।  

सितम्बर, 1708 ईसवीं के अन्तिम सप्ताह में गुरूजी ने माधोदास बैरागी से, जिनके सम्बन्ध में कुछ माह पूर्व ही उन्हें अपनी यात्रा के समय दादू-द्वारा (नारायणा, जयपुर) के महन्त जैतराम से परिचय मिल चुका था, भेंट की। गुरु गोबिंद सिंह के धर्म, संस्कृति व मानव-रक्षा के लिए दिए गए एक-से-बढ़कर-दूसरे बलिदान से माधोदास बैरागी इतने प्रभावित हुए कि वे गुरुजी के शिष्य बन गए और एक धार्मिक समारोह में उन्हें गुरबख्श सिंह नाम दिया गया। गुरु गोबिन्द सिंह के प्रति अपने समर्पण, "मैं आप (गुरु गोबिन्द सिंह) का बन्दा (दास) हूँ" की घोषणा व संकल्प एवं अमृत संस्कारोपरान्त वे बन्दा सिंह नाम से प्रसिद्ध हुए।

अमृतपान कर गुरु-शिष्य बन जाने के उपरान्त बन्दा सिंह के जीवन में तुरन्त ही एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। उन्होंने अविलम्ब गुरु गोबिन्द सिंह से धर्मयुद्ध के लिए पंजाब की ओर कूच करने की आज्ञा माँगी, ताकि वहाँ वे अत्याचारियों-आततायिओं से जन-रक्षा के स्वयं गुरुजी द्वारा प्रारम्भ किए मिशन को आगे बढ़ा सकें और उसे लक्ष्य तक पहुँचा सकें।

तैयारी पूर्ण हो जाने पर बन्दा सिंह गुरु गोबिन्द सिंह के समक्ष उपस्थित हुए। गुरुजी ने उन्हें 'बहादुर' की उपाधि दी। उन्होंने बन्दा सिंह बहादुर को अपने तूणीर से पाँच बाण, 'निशान साहेब' तथा एक नगाड़ा  दिया। उनकी सहायता व परामर्श के लिए बिनोद सिंह, काहन सिंह, बाज सिंह, दया सिंह तथा राम सिंह नामक 'पाँच प्यारों' की एक टोली और बीस अन्य सिख वीर दिए। साथ ही, देशभर के सिखों को सम्बोधित एक पत्र भी दिया, जिसमें बन्दा सिंह बहादुर के नेतृत्व में एकत्रित होकर जनता व धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष का आह्वान था।

गुरु गोबिन्द सिंह ने बन्दा सिंह बहादुर को प्रस्थान करते समय विशेष रूप से यह कहा कि वे प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ 'वाहेगुरु' (ईश्वर ) का स्मरण करते हुए ही करें; वे व्यक्तिगत रूप से शुद्धाचरण और जीवन-पवित्रता बनाए रखें तथा महिलाओं का सम्मान करें। वे अपने को गुरु नहीं, अपितु एक नेतृत्वकारी मानें तथा 'पाँच प्यारों' के साथ परामर्श करने के उपरान्त ही कोई निर्णय लें। मानवता की रक्षा के लिए धर्म-युद्ध में उनकी सफलता इन बातों पर निर्भर करेगी। एक सिंह की भाँति सुसज्जित बन्दा सिंह बहादुर ने उत्तर की ओर प्रस्थान किया। वे मार्ग में ही थे कि 7 अक्टूबर, 1708 ईसवीं को नांदेड़ में गुरु गोबिन्द सिंह का स्वर्गवास हो गया।  

अविचलित बन्दा सिंह बहादुर आगे बढ़ते रहे; हजारों की संख्या में साथ आ खड़े हुए वीर सिक्खों के साथ दिल्ली के निकट उस समय मुगल साम्राज्य के ही एक भाग सोनीपत को विजित करने के बाद 26 नवम्बर, 1709 ईसवीं को गुरु तेगबहादुर के जल्लाद रहे रलाउद्दीन और सरहिन्द में गुरु गोबिन्द सिंह के दोनों छोटे सुपुत्रों के जल्लादों शशाल बेग और बशाल बेग के निवासस्थल समाना पर उन्होंने आक्रमण किया और उस पर अधिकार करने के बाद  वे आगे बढ़े।     

समाना से लेकर, जनवरी 1712 ईसवीं में जम्मू, मार्च, 1714 ईसवीं में किरी पठान (गुरदासपुर) आदि तक बन्दा सिंह बहादुर ने एक दर्जन से भी अधिक युद्ध किए। इसमें मई, 1710 ईसवीं में मोहाली के निकट चप्पड़ चिड़ी का युद्ध –सरहिन्द की घेराबन्दी, जिसमें गुरु गोबिन्द के दोनों सुपुत्रों को दीवार में जिन्दा चुनवाने वाले वजीर खान की पराजय और उनकी मृत्यु भी सम्मिलित है। गुरदास नंगल में आठ माह की मुगल घेराबन्दी के बाद दिसम्बर, 1715 ईसवीं में बन्दा सिंह बहादुर के बन्दीकरण और अन्ततः 9 जून, 1716 ईसवीं को धर्म, मानवता, मूल्यों व संस्कृति की रक्षा हेतु वीरतापूर्वक दिए गए उनके सर्वोच्च बलिदान से जुड़ा घटनाक्रम इन युद्धों से हमारे सामने आता है।

बन्दा सिंह बहादुर ने गुरु गोबिन्द सिंह के मानवाह्वान, "जब प्रत्येक उपाय निष्फल हो जाए, तो हाथों में तलवार उठाना ही धर्म है", के पालनार्थ अत्याचारियों, आततायियों और धर्मान्धों से धर्म एवं जन-रक्षार्थ युद्ध का मार्ग चुना। उनके द्वारा लड़े गए युद्धों का इतिहासकार अपने-अपने विचारों के अनुसार विश्लेषण करते हैं। लेकिन, यह सत्य है कि बन्दा सिंह बहादुर ने एक परमवीर सेनापति के रूप में जीवन पर्यन्त ईमानदारी, निस्स्वार्थता और निजी पवित्रता को बनाये रखा। बिना भेदभाव के महिला-सम्मान को सर्वोपरि रखा। उनका उद्देश्य शासक बनना नहीं था; इसलिए उन्होंने आमजन को नहीं लूटा। युद्धों में अत्याचारियों व आततायियों से प्राप्त धन-सम्पदा को दीनजन में बाँटा। जहाँ-जहाँ उन्होंने विजय प्राप्त की, वहाँ-वहाँ जमींदारी जैसी रक्त चूसने वाली कुप्रथा को समाप्त किया। 'जो जोते, भूमि उसकी', ऐसी व्यवस्था को लागू कर एक सच्चे गुरु (श्री गोबिन्द सिंह जी) के सच्चे शिष्य होने का उदाहरण प्रस्तुत किया।           

गुरु गोबिन्द सिंह के अन्याय-समाप्ति, संस्कृति, राष्ट्रीय मूल्यों और धर्म-रक्षा के मिशन को आगे बढ़ाने वाले और इस हेतु अपने जीवन का बलिदान करने वाले बन्दा सिंह बहादुर एक महान जन-रक्षक, परम योद्धा और चरित्रवान सेनापति के रूप में समकालीन भारत के इतिहास के सुनहरे पृष्ठों में अंकित हैं। असहाय लोगों की रक्षा के लिए अपने वीरता भरे कृत्यों, खून-पसीना बहाने वाले घोर अन्याय के वशीभूत व विवश जन को कई अन्यायी व्यवस्थाओं से मुक्त कराने वाले, और, जैसा कि कहा है, राष्ट्रीय संस्कृति, मूल्यों और धर्म-रक्षा के लिए अपना बलिदान देने के साथ ही भावी पीढ़ियों के लिए एक विरासत छोड़ जाने हेतु वे दीर्घकाल तक प्रेरणा स्रोत भी रहेंगे।   

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं। **श्रीमती कमलेश कुमारी हरियाणा राज्य शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं।

            

 

 

 

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