भरत प्रसाद (कवि,कथाकार और आलोचक प्रोफेसर,हिंदी विभागपूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,शिलांग मेघालय )
कैसी आग उठी है भीतर?
◆◆◆◆
फिर बह चली हैं प्रकाश-रश्मियाँ
पत्तियों की नस-नस में।
फिर झुक गये पेड़ आदर में
झुके आकाश के आगे।
फिर भागा अंधेरा
उजाले की आहट पाकर।
फिर कोई कृतज्ञ कर गया
अपनी निर्झर रोशनी से
आत्मा का अणु-अणु सींचकर।
कैसी आग उठी है ?
कैसी प्यास मची है?
भोर की मीठी आहट
पलकें सराबोर कर देती है
अपूर्व आह्लाद से।
सुबह ,संध्या,रात की आंख मिचौली
चैन से सोने कहाँ देती है ?
सिसकता हूँ-
क्यों नहीं पूछा कभी ?
गुमनाम पक्षियों का हालचाल
बुत बनकर क्यों खड़ा रहा ?
दरख्तों को खड़ा देखकर।
कैसे सह गया अपनी चुप्पी ?
जड़ों की चुपचाप मौत पर।
(भरत प्रसाद : दिसंबर-023)
4 टिप्पणियां:
Best
बहुत अच्छी रचना
बहुत शुक्रिया
धन्यवाद अनु जी
एक टिप्पणी भेजें