सोमवार, 25 दिसंबर 2023

अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती के बहाने- डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय

     डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय

अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती के बहाने


संघर्ष के आभामंडल से दीप्त हैं कविताएँ


           एक दौर था जब कमल से जुड़ना, लेखन के क्षेत्र में खतरा मोल लेना था। माने, ताउम्र कविता के हाशिए पर पड़े रहने के लिए अभिशप्त। पायनियर के तत्कालीन संपादक विनोद मेहता ने वाजपेयी जी के कविता संग्रह को समीक्षार्थ निर्मल वर्मा के पास भेजा। कविता संग्रह महीनों उनके पास पड़ा रहा। अंत में उन्होंने संग्रह को सखेद वापस कर दिया । यही काम उस समय के दो-तीन बड़े लेखकों ने भी किया। सबको साहित्यिक बिरादरी से बाहर निकाले जाने का भय था। 

               आलोचक प्रभात रंजन जी ने लिखा है कि प्रधानमंत्री बनने से पूर्व महरौली स्थित प्रवीण प्रकाशन में अटल बिहारी वाजपेयी जी ने अपनी कविताएँ प्रकाशनार्थ भेजी। प्रकाशक ने प्रूफ के लिए पांडुलिपि को एक बड़े लेखक के पास भेजा। उन दिनों लेखक के पड़ोस में बाबा नागार्जुन भी रहते थे। एक दिन दोपहर में घूमते-घूमते वे अचानक उनके घर पहुँच गए। लेखक महोदय ने सकपकाकर पांडुलिपि को तकिए के नीचे दबा दिया। बाबा नागार्जुन स्थिति को भाँप गए, उन्हें लगा, उनसे कुछ छिपाया जा रहा है। कई बार पूछने पर लेखक  ने बताया कि यह वाजपेयी जी की कविता संग्रह की पांडुलिपि है। प्रकाशक ने प्रूफ के लिए मेरे पास भेजा है, पेट के लिए करना पड़ता है।" कवि नागार्जुन ने बड़ी सहजता से कहा, "इसमें छिपाने जैसी क्या बात है! अटल बिहारी भी अपने ढंग का अच्छा कवि है, जो मन में आता है बिना बनावट के लिख देता है।" यह घटना जब लेखक ने वाजपेयी जी को बताई तो उन्होंने दुबारा पूछा कि नागार्जुन जी ने क्या कहा? लेखक ने वही बात पुनः कही। अटल जी दूसरे कमरे में चले गए। बाहर आकर फिर वही प्रश्न पूछे कि नागार्जुन जी ने क्या कहा?  लेखक महोदय का धैर्य जवाब दे चुका था। झल्लाकर बोले, "एक ही सवाल आप बार-बार क्यों पूछ रहे हैं?" वाजपेयी जी ने बड़ी विनम्रता से कहा, "आज तक किसी इतने बड़े कवि ने मेरी रचनाओं को अच्छा नहीं कहा। इसलिए आप के मुँह से बार-बार सुनना अच्छा लगता है।" 

             वाजपेयी जी बड़ी साफ़गोई से अपनी रचनात्मक सीमा स्वीकार करते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि राजनीति ने उनके सृजन को हल्का कर दिया। तथापि उनके संवेदनशील मन का स्थायी ठीहा कविता है। अटल जी की कविताओं का मूलस्वर राष्ट्रप्रेम है जिससे संघर्ष स्वयमेव जुड़ गया है। व्यक्ति-विकास के साथ-साथ राष्ट्रीय उत्थान में से भी संकल्प की महती भूमिका होती है। इसी बात को कवि ने बड़ी प्रबलता से रखा है - 

"शुद्ध हृदय की ज्वाला से, विश्वास दीप निष्कंप जलाकर

कोटि-कोटि पग बढ़े जा रहे, तिल-तिल जीवन गला - गलाकर 

जब तक ध्येय न पूरा होगा, तब तक पग की गति न रुकेगी

आज कहे चाहे कुछ दुनिया, कल को बिना झुके न रहेगी।"

               कवि का दृढ़ संकल्प सच की कोख से उपजा है। इसलिए उसमें न तो कोई झिझक है और न ही असमंजस। वह अपने पथ एवं लक्ष्य को लेकर आश्वस्त है। कवि की आक्रमकता में भी एक नैतिक मर्यादा है। बेवजह वह दूसरों की संप्रभुता में हस्तक्षेप नहीं करता लेकिन वह उन्हें ललकारता है जो अपनी सीमा-रेखा तोड़ दूसरों की शांति भंग करते हैं। ऐसे लोगों को लगभग चेतावनी देते हुए कवि अटल जी लिखते हैं - "हार नहीं मानूँगा / रार नहीं ठानूंगा / काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ / गीत नया गाता हूँ ।" वाजपेयी जी कभी 'एकला चलो' के पक्षधर नहीं थे। अपने संघर्षों एवं संकल्पों में सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं। संभवतः यह उनकी नेतृत्व-क्षमता का प्रभाव था। एक बड़े रचनाकार की यह विशेषता होती है कि उसकी अपनी अनुभूति भी बहुस्याम में रूपांतरित हो जाती है। उसकी रचना का परिसर बृहद होता है। अटल जी की ऐसी ही एक रचना जो उत्स में लघु किंतु अपने गंतव्य तक पहुँचते-पहुँचते विराट होती चली गई है -

"बाधाएँ आती हैं आए

घिरे प्रलय की घोर घटाए

पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाए

निज हाथों से हँसते-हँसते,

आग लगाकर जलना होगा

कदम मिलाकर चलना होगा।"

          कवि को यकीन है कि राष्ट्र में सकारात्मक परिवर्तन युवाओं की पहल से संभव है। इसके लिए उनकी सहभागिता और समर्पण ज़रूरी है। उन्हें यह भी ज्ञात है कि देश का युवा सुप्तावस्था में है। उन्हें उसी स्थिति में बनाए रखने के लिए कई शक्तियाँ सक्रिय हैं। अटल जी कविता की शक्ति से वाकिफ़ थे। राष्ट्र में तरुणाई लाने के लिए वे नव दधीचियों को अपनी हड्डियाँ गलाने के लिए आहूत करते हैं - 

"आहुति बाकी यज्ञ अधूरा

अपनों के विघ्नों ने घेरा

अंतिम जय का वज्र बनाने

नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।

आओ फिर से दिया जलाएँ।"

                निष्कर्षत: अटल बिहारी वाजपेयी जी की कविताओं में राष्ट्रीय चेतना, स्वाभिमान, दृढ़ इच्छाशक्ति, संघर्ष, जिजीविषा और सत्संकल्प की बहुलता है। ये ऐसे तत्व हैं जिनसे किसी भी रचना का सामाजिक सरोकार बनता है। इस प्रकार का सृजन प्रेरणाप्रद होता है। वाजपेयी जी की कुछ कविताएँ तो इतनी समर्थ हैं जो निराशा के तम में भटकते मनुष्यों का पथ आलोकित करती रहेंगी। काल के कपाल पर ये लंबे समय तक अपनी मौजूदगी बरकरार रखेंगी। अस्तु।



1 टिप्पणी:

अनु ने कहा…

जितेंद्र जी जानकारी और रोचकता से भरे लेख के लिए साधुवाद

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