शनिवार, 30 दिसंबर 2023

लोक का आलोक : लांगुरिया - कृष्ण बिहारी पाठक

 

कृष्ण बिहारी पाठक

आलोचक, साहित्यकार

लोक का आलोक : लांगुरिया

 

करौली! भक्ति- शक्ति- अनुरक्ति के प्रदेश राजस्थान का एक संस्कृतिबहुल जिला। संस्कृतिबहुल इसलिए कि इसकी विशेष भौगोलिक- प्राकृतिक स्थिति के चलते यह विविधवर्णी, बहुरंगी संस्कृति को युगों से पोषित पल्लवित करता आ रहा है।

ब्रज प्रदेश की उत्सवधर्मिता और मध्य प्रदेश की प्रकृतिस्थ वन्य संस्कृति का स्पर्श करता यह जिला डांग प्रदेश के  चुनौतीपूर्ण जीवट के बीच एक संधिरेखा खींचता है।

डांग का भूगोल  जीवन की कठोर तपश्चर्या की इबारत लिखता है। अरावली की कठोरतम परतों से बतियाता यहाँ का मानव खनन उत्खनन करते करते पत्थर के हृदय तक पहुँचता है तो पिसता, घुटता पत्थर भी गर्द बनकर इसके हृदय की टोह लेना लगता है। चिकित्सा विज्ञान ने इस मानव और पाषाण के इस मिलन को सिलिकोसिस नाम दिया है। सिलिकोसिस अर्थात अकाल मृत्यु। सिलिकोसिस अर्थात यौवन में वार्धक्य या वैधव्य।

फिर भी मृत्यु, व्याधि और पीड़ा की निरंतरता से यहाँ का मनुष्य हारा नहीं है। आने वाली पीढ़ी फिर से पत्थरों से बात करने निकल पड़ती है, संभवतः उसे गर्द के मोम बनने की प्रतीक्षा और विश्वास है।

 अपनी प्रतीक्षा, अपने विश्वास को यहाँ का सामाजिक अपने लोक उत्सव, गीतों और परंपराओं में फलीभूत आशा और जिजीविषा के साथ चिरंतन बनाए हुए है, दृढतर बनाए हुए है।

लांगुरिया यहाँ का परंपरागत लोक उत्सव है। लांगुरिया के गीत और उन पर नौबत की ताल के साथ लांगुरिया नृत्य। विकट पहाड़ों के बीच बैठी शक्तिपीठ  गुमानो माता, बीजासनी और कैलामाता से कभी आराधना, प्रार्थना, याचना, मनुहार या कभी शिकायत और उपालंभ के स्वर में संगीतमय संवाद करते भक्त और जातरु।

देवी आराधना में गाए जाने वाले इन गीतों को लांगुरिया गीत कहा जाता है और प्रत्येक गीत लांगुरिया को ही संबोधित करके गाया जाता है। लांगुरिया देवी के आंगन में खेलता बालस्वरूप दिव्य विग्रह है जिसे देवी का गण , बाल हनुमान , भैरो जी या अन्य दिव्यस्वरूप का प्रतीक मानकर भक्त अपनी विनय उससे कहता है भक्त की विनयशीलता के रूप में कि अपनी अधिष्ठात्री कुलदेवी से सीधे संवाद उसकी दासानुदास भक्ति का अतिक्रम हो सकता है।

किंवदंतियों और जनश्रुतियों में लांगुरिया या लांगरा  देवी  गण है जो देवी का ध्वजवाहक है। भक्तों की मान्यता है कि लांगुरिया उनकी प्रार्थना देवी तक पहुँचाता है और लांगुरिया गीत नृत्यों से देवी प्रसन्न होती हैं।

यूं तो देवीस्तुति के ये लांगुरिया गीत वर्ष भर पूजा, अनुष्ठानों, उत्सवों, नवरात्रि और जगरातों में गाए बजाए जाते हैं पर चैत्र महीने में जब कैलादेवी का लक्खी मेला भरता है तब इनकी धूम कुछ और ही रहती है।

 मेले में सुदूर क्षेत्रों से पदयात्री इन लांगुरिया गीतों की तुक पर झूमते गाते अपने यात्रा श्रम ही नहीं जीवन के श्रम तम को भी तिरोहित करते हुए देखे जा सकते हैं। यात्रा के पूरे पदमार्ग में यात्रियों के लिए बने स्वागत कक्ष, आश्रय स्थल और भंडारे इस पूरे क्षेत्र की लोकमैत्री भावना को प्रमाणित करते हैं।

लगभग पचास वर्षों से लांगुरिया गायकी से जुड़े कलाकार  छैल बिहारी पाठक बताते हैं कि  परंपरागत लांगुरिया गीतों में लोक संस्कृति की चहल-पहल, आपस की चुहल, हँसी ठिठोली, खेती किसानी के चित्र चरित्र के साथ मानव जीवन के विविध रंग यथा सुख दुख, मान मनुहार, प्रार्थना शिकायत आदि के वर्णन मिलते हैं तो वहीं देखते-देखते आधुनिक विषयों पर, घटनाओं पर, सामाजिक चेतना  और जनजागरण संबंधी गीतों को लांगुरिया गीतों में ढालकर गाए जाने लगा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि परंपरा से प्रयोग का यह आग्रह लांगुरिया की जन मन में पैठी लोकप्रियता से ही उपजा है।

 लांगुरिया गायक छैल बिहारी पाठक बताते हैं कि कि आज परंपरागत भक्ति, संस्कृति के साथ ही जल चेतना, जनसंख्या चेतना, स्वीप मतदान से लेकर कोरोना चेतना आदि समसामयिक प्रसंग संदर्भों तक के लांगुरिया गीत प्रचलन में हैं।

परंपरागत लांगुरिया गीतों में कहीं विकट पहाड़ों की दुर्गमता के साथ - साथ अपनी माँग और मनौतियों का वर्णन  है -

 "लांगुरिया एडी की धमक पायल बाजे

मोपे भवन चढ्यो ना जाय। लांगुरिया..

छोटो सो लांगुर मेरी गोदी में,

रे जापे नागिन रही लहराय। लांगुरिया..

ध्वजा तो चढाऊं देवी भवन पे,

मैं तो नारियल भेंट चढाऊं। लांगुरिया एडी की धमक..

 

तो कहीं मेले की महिमा का वर्णन करते हुए साथ चलने की मनुहार -

 

"लांगुरिया चलैं तो दरशन करि आमें

कैला मईया को जुर् यो है दरबार"

 

एक लांगुरिया गीत में हँसी ठिठोली और चुहल का रूपरंग है -

 

"दो दो जोगनी के बीच अकेलो लांगुरिया।

बड़ी जोगनी यों कहे मोय टीका लाय दै मोल,

छोटी जोगनी यों कहे मोय हरवा लाय दै मोल।

दो दो जोगनी के बीच..

 

वहीं दूसरी ओर एक लांगुरिया में घर के आंगन में खेलते बाल गोपालों की छवियों का रूपराग और लांगुरिया की छवि एकरस हो रही है -

 

" कैला मईया के भवन में घुटुअन खेले लांगुरिया,

खेले लांगुरिया कै सरपट दौड़े लांगुरिया।

माथे तिलक सिंदूर को रे, टोपी पहरी लाल,

पायन बाँधी पैजनी वो चले ठुमक के चाल। कैला..

 

कहीं दुर्गम पर्वत शिखरों के बीच विराजती देवी के दर्शनार्थ जाने में पथ की कठिनाइयों का वर्णन है -

"कैसी बैठी है विकट पहाडन में, जय जगदंबे मईया।

टीका तो मेरो धर् यो री भवन में,

नथली रह गई झारन में, जय जगदंबे मईया..

 

वहीं दूसरी ओर इन कठिनाइयों को गिनाने के बाद माता से विनती है कि माता मनौतियों को पूरी करके फिर से आने की राह बनाए-

 

" दै दै लंबो चौक लांगुरिया बरस दिना में आयेंगे।

अबके तो हम इकले आये,

औजू के दुल्हन लायेंगे। दै दै..

 

इसी के साथ मन में स्पष्ट आश्वस्ति है कि माँ मनौतियों को पूरी करके फिर से अवश्य बुलाएगी-

 

" लांगुरिया फेर बुलावैगी, करौली वारी मईया।

 

भक्ति, प्रार्थना और याचना के साथ लोक जीवन की सरस झांकियां भी यहाँ मिल जाती हैं। नीम के पेड़ का लोक में जो महत्व है वह इन लांगुरिया गीतों में भी रच बस गया है -

 

" लांगुरिया मेरे अंगना में नीमरिया लगाय दीजो

याकी शीतल छाया होय। लांगुरिया..

नीमरिया तो शोभा जब लागै, वाको गोल चौथरा होय..

 

घर, घर का आंगन, आंगन में शीतल वरद छांव नीम, नीम के परितः गोल चबूतरा, चबूतरे पर पचरंग पर्यंक(पलका), पर्यंक पर हँसता मुस्कराता सरल दांपत्य और दांपत्य को दीर्घजीवी बनाते बाल - गोपाल, नीम पर पक्षियों की और आंगन मे बालकों की चहक महक, कैसा मनभावन दृश्य। साधु साधु।

 

बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के महत्वपूर्ण संदेश को हँसते -

 खेलते सिखाने समझाने वाला गीत देखें-

 

"लांगुर दसवीं फैल बिचारौ, जोगन आई एम. ए. पास।"

 

दिनों दिन बढती मंहगाई की शिकायत देखनी हो तो वह भी यहाँ सुलभ है-

 

"डीजल फिर फिर मेंहगो होय

फसल कैसे होयगी लांगुरिया।

 

कोरोना में दो गज की दूरी और सोशल डिस्टेंस रखने का संदेश भला इससे बेहतर कोई दे सकता है -

 

" घर के बाहर फिरै कोरोना, घर में ही रहियो लांगुरिया।"

 

 

 

बदलते समय और समाज के साथ - साथ इस लोक गायन शैली का भी आलोक, लोक मे प्रसारित हो रहा है और आगे भी होता रहेगा कि ये लोक कलाएं जन मन की संजीवनी हैं। आशा, उल्लास, जिजीविषा और उत्सवधर्मिता इनके अनिवार्य अंग हैं। आईये अबके चैत्र में राजस्थान के पूर्वी छोर पर चलते हैं और हवा में घुलती मिठास का आमंत्रण सुनते हैं -

 

'चरखी चल रई बड़ के नीचे रस पीजा लांगुरिया'

 

 

 

 

 

 

संपर्क

कृष्ण बिहारी पाठक

व्याख्याता हिंदी

तिरूपति नगर, हिंडौन सिटी

जिला करौली राजस्थान

पिन 322230

 

 

 

 

 

 

 


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