इक्कीसवीं शताब्दी का सामाजिक- सांस्कृतिक परिदृश्य
संस्कृति
की अवधारणा बहुत संश्लिष्ट और व्यापक है। इसके दायरे में वे सभी व्यक्तिगत एवं
सामाजिक क्रियाकलाप आ जाते हैं जो मनुष्य को उत्तरदायी स्वतंत्र- चेतना, सकारात्मक निर्माण एवं सृजनशीलता की ओर अग्रसर करते हैं और अन्ततः सुंदर
एवं परिष्कृत जीवन- शैली का संस्कार प्रदान करते हैं, जो उसे
मनुष्य होने का अहसास दिलाते हैं। संस्कृति आदमी के अदब से जुड़ी वह नफासत और
तहजीब है, जो मनुष्य को प्रेम, दया,
नम्रता, सद्भाव, शांति
एवं करुणा से सराबोर कर देती है। संस्कृति जीवन एवं समाज के प्रत्येक पक्ष को
आलोकित कर उसमें श्रेष्ठता तथा सम्पूर्णता का भाव जगाती है और पीढियों तक ऐसे
संस्कारों के अनुसरण के प्रति गौरव का अनुभव कराती है।
वैसे आसान शब्दों में
कहें तो यह जीवन जीने का तरीका है- और इसके अन्तर्गत जीवन के सभी पक्ष आ जाते हैं.
जैसे- खानपान, रहन- सहन, धार्मिक मान्यताएँ आदि। यह मूलतः जीवन के मूर्त पक्ष में न्यस्त अमूर्त
पक्ष से सम्बंधित होती है। सबसे खास बात यह है कि इसका विकास एक स्वाभाविक
प्रक्रिया के तहत होता है और यह पीढी- दर- पीढी हस्तान्तरित होती है। सभ्यता और
संस्कृति में अन्तर को लेकर अंग्रेजी में एक उक्ति प्रचलित है- सिविलाइजेशन इज
व्हाट वी यूज, कल्चर इज व्हाट वी आर यानी हम जो उपभोग करते हैं वह हमारी सभ्यता है, मगर
हम जो हैं, वही वास्तव में हमारी संस्कृति है।
यह
माना जाता है कि श्रेष्ठ सांस्कृतिक परंपराओं के बिना किसी राज्य अथवा राष्ट्र की
सर्वांगीण प्रगति का सपना अधूरा होता है। सांस्कृतिक परंपराओं से मनुष्य एवं समाज
दोनों ही समन्वित एवं संगठित रहते हैं तथा उन्ही से वे अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित
करते हैं। उच्चतर सांस्कृतिक परंपराओं के बिना आर्थिक सम्पन्नता तुच्छ एवं अर्थहीन
मानी गयी है क्योंकि संस्कृति इतिहास बनाती है और वर्तमान एवं भविष्य का दिशा-
निर्देश बनकर मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढाती है। संस्कृति समाज को निरंतरता का
आधार प्रदान करती है।
संस्कृति के बारे में
वृहत चिन्तन तथा प्रचलित व्यवहार की दो प्रमुख धाराएं हैं- पहली वह अविरल धारा जो
हमारी प्राचीन काल से चली आ रही बहुरूपी पारम्परिक संस्कृति से संबंधित है तथा
दूसरी वह धारा है जो हमारी आधुनिक संस्कृति के विकास एवं उत्थान से जुड़ी है। सांस्कृतिक
मानदंडों में संदर्भ और प्रसंग के अनुसार परिवर्तन भी आते हैं और यह सामाजिक
संकटों से प्रभावित होती है। अंतर- सांस्कृतिक संबंधों ने इसके आयामों को गुणात्मक
रूप से प्रभावित किया है।
संस्कृति मनुष्य के समूचे
जीवन में व्याप्त है। कहीं यह मूल्यों के रूप में अदृश्य है, तो विभिन्न मानवीय व्यवहारों, रीति- रिवाजों व कलाओं में दृश्यमान है। सहजीवन और सहिष्णुता जैसे मूल्य,संभवतः,उस समय ही विकसित हो गये थे,जब मनुष्य ने समूहों में रहना शुरू किया था। इन्हें लंबी और विकट
चुनौतियां भी झेलनी पडीं,जिनमें सामूहिकता और सामाजिकता के
अन्य मूल्यों का विकास हुआ इस तरह संस्कृति एक प्रक्रिया के रूप में सतत् गतिमान
है।
यहाँ पहले हमने संक्षेप
में संस्कृति का वह उज्ज्वल सार- तत्व प्रस्तुत किया है जिसे दुनिया भर में थोडा
अलग- अलग तरह से उल्लिखित किया जाता है। लेकिन संस्कृति के न तो सभी पक्ष उजले हैं
और न ही उसकी गति सदैव उन्नत होती है। मसलन दुनिया में अनेक रक्त- रंजित संघर्ष
धर्म के नाम पर हुए हैं और संस्कृति की धर्म के साथ आनुषंगिक भूमिका रही है।
विभिन्न वस्तुगत कारकों और बाह्य संस्कृतियों से अन्तर्क्रियाओं के चलते यह उन्नत
या अवनत होती रही है।
2. संस्कृति
एक गतिमान और परिवर्तनशील प्रत्यय है और देश- काल एवं समाज- सापेक्ष है। संस्कृति
की मूल इकाई संबंधित समुदाय के प्रसंग और संदर्भ में देखी जाती है जो उसका भोक्ता
और संवाहक है। इस समुदाय का रूपाकार बहुत छोटा अथवा वृहद हो सकता है। संस्कृति में
परिवर्तन की प्रक्रिया दो स्तरों पर घटित होती है। एक तरफ तो समुदाय के विभिन्न
घटकों में होने वाली क्रिया- प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप और दूसरे स्तर पर किसी
अन्य संस्कृति से अन्तर्क्रिया की परिणति में। दुनिया
की विभिन्न संस्कृतियां मानव- समूहों के जरिए परस्पर
संपर्क में आती है और उनमें संक्रमण घटित होता है। समुदायों की राजनैतिक और
सामाजिक वर्चस्व और अधीनस्थता के ही अनुरूप सांस्कृतिक वर्चस्व और अधीनस्थ
स्थितियां होती हैं।
दुनिया
भर में मुख्यतः चार प्रकार की सांस्कृतिक प्रक्रियाएं घटित होती हैं - उत्संस्करण
( acculturation ), सांस्कृतिक पुनरुत्थान ( cultural
revival ), विसंस्कृतिकरण अथवा अपसंस्कृतिकरण ( deculturization
) और सांस्कृतिक नवोन्मेष ( cultural innovation )। इससे इतर यदि कुछ होता भी है तो
सामान्यतः वह इन्ही में से किसी प्रक्रिया से जुड जाता है।
अंग्रेजी
पद अकल्चरेशन के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए अधिक उपयुक्त शब्द तो पर- संस्कृति
ग्रहण है जिसमें कोई व्यक्ति अथवा समूह अपनी संस्कृति का परित्याग कर किसी दूसरी
संस्कृति को ग्रहण कर लेता है। हिन्दी की अधिकृत पारिभाषिक शब्दावली में इस
प्रक्रिया को उत्संस्करण नाम दिया गया है। संस्कृति का यह ग्रहण और परित्याग आंशिक
भी हो सकता है। प्रायः अधीनस्थ स्थिति वाले अनेक लोग वर्चस्वशील संस्कृति को अपना
लेते हैं। इसे हम ब्रिटिश काल में कुछ भारतीयों द्वारा अपनाये गये अंग्रेजी तौर-
तरीकों के जरिए समझ सकते हैं जिन्हें प्रायः काले अंग्रेज कह दिया जाता था। यह
प्रवृत्ति कई बार चेतना के स्तर पर भी असर डालती है। गांधी इसे मानसिक गुलामी कहा
करते थे। अभी अनेक लोग अमेरिकी संस्कृति का इसी तरह अनुकरण करते नज़र आते हैं।
सांस्कृतिक
पुनरुत्थान में माना जाता है कि किसी दूसरी संस्कृति अथवा अन्य संस्कृतियों ने
संस्कृति को किसी हद तक विकृत कर दिया है और उसके शुद्धिकरण की आवश्यकता है। इसके
लिए प्रायः उसे मूल की ओर लौटाया जाता है। सांस्कृतिक पुनरुत्थान वादियों के पास
सदैव एक स्वर्णिम अतीत होता है और उनकी संस्कृति को आघात पहुंचाने वाली कोई शत्रु
संस्कृति अथवा संस्कृतियां होती हैं। शत्रु संस्कृति से संघर्ष को वे अपना कर्तव्य
मानते हैं तथा यह संघर्ष प्रायः साम्प्रदायिक विद्वेष और हिंसा के रूप में सामने
आता है। कोई भी संस्कृति कभी अतीत की अनुकृति नहीं हो सकती, इसलिए
ऐसे उपक्रम भी उसे अंततः विकृति की ओर ही ले जाते हैं।
सांस्कृतिक
विसंस्कृतिकरण या अपसंस्कृतिकरण सामान्यतः उन व्यक्तियों व समूहों के साथ घटित
होता है जो विपन्न और निम्नतर सामाजिक स्थितियों में रहते हैं। उनके लिए अपनी मूल
संस्कृति की परंपराओं का निवर्हन मुश्किल हो जाता है। दूसरी ओर वे लोकप्रिय
संस्कृति- रुपों को भी अपनाने की चेष्टा करते हैं क्योंकि जिस प्रकार वायु- मंडल
में रिक्तता नहीं रहती, वहाँ यदि शुद्ध हवा नहीं होगी तो
प्रदूषित हवा होगी, उसी प्रकार मनुष्य- समूह के परिक्षेत्र
में कभी सांस्कृतिक शून्य नहीं रहता। वहाँ अगर सामान्य संस्कृति नहीं है तो
अपसंस्कृति होगी। इस प्रक्रिया को समझने के लिए आप महानगरों में बसी मलिन बस्तियों
अथवा आप्रवासियों की बसाहटों को देख सकते हैं। इनमें अधिकांश लोग गाँव अथवा छोटे
शहरों से आये होते हैं जिनकी अपनी मूल संस्कृति तो छूटती जाती है और शहरी संस्कृति
को पूरी तरह अपना नहीं पाते।
सांस्कृतिक नवोन्मेष एक
सकारात्मक प्रक्रिया है जो दो भिन्न संस्कृतियों की अन्तर्क्रिया में तब सम्पन्न
होती है, जब वे बराबरी के स्तर पर पारस्परिक आदान-
प्रदान करती है। वहाँ किसी की वर्चस्व और अधीनस्थ की स्थिति नहीं होती और एक-
दूसरे की संस्कृति में उन्हें जो बेहतर लगता है, उसे वे
स्वेच्छा से अपना लेती हैं। सांस्कृतिक अध्ययन बताते हैं कि दुनिया भर की संस्कृति
में हुए उन्नयन में इस प्रक्रिया का योगदान सर्वाधिक रहा है और यह परिघटना अपनी
प्रकृति में लोकतांत्रिक है।
दुनिया भर में घटित इन
चार प्रमुख सांस्कृतिक प्रक्रियाओं का वैश्विक मानचित्रण किया जाये तो हम
संस्कृति- संक्रमण की प्रवृत्तियों का ठोस आकलन कर सकते हैं। हालांकि ऐसे प्रयास न
हुए हैं और न हमारी जानकारी में हो रहे हैं। बहरहाल, हम इसके विस्तार में नहीं जाकर कुछ घटनाओं-
परिघटनाओं का आगे संदर्भगत उल्लेख करेंगे।
३.
विगत शताब्दी की ऐतिहासिक घटनाओं में से एक रूसी साम्यवादी क्रांति
और सोवियत संघ का गठन था। दुनिया के वामपंथी आन्दोलन के लिए सोवियत संघ एक
प्रेरणा- स्रोत और यूटोपिया था। लेकिन शताब्दी के अंत से पहले सोवियत संघ ढह गया
और संघर्षरत वामपंथ के उस स्वप्न को भीषण धक्का लगा जो समता और न्याय पर आधारित एक
बेहतर व्यवस्था निर्माण के लिए देखा जा रहा था। अगर बात इतनी ही होती तो भी कोई
विशेष बात नहीं थी। रूसी की राजनीति एक आक्रामक सर्वसत्ता में तब्दील हो गयी।
यूक्रेन से एक वर्ष से अधिक जारी युद्ध में हम
नये रूस का क्रूर चेहरा देख रहे हैं। वह एक ओर अपने ही युद्ध- विरोधी नागरिकों का
भीषण उत्पीड़न कर रहा है, वहीं जनता को प्राचीन महान रूसी
साम्राज्य का गौरवगान कर अपने विस्तारवाद का औचित्य प्रतिपादित करता है।
चीन
ने जड सामंतवाद के उन्मूलन और देश के व्यापक आधुनिकीकरण के लिए एक समय सांस्कृतिक
क्रांति का नारा दिया था। वह सर्वहारा गणतंत्र अब अपने ही विद्रूप में बदल गया है।
वह जबरन कब्जाये हुए तिब्बत और उईगर मुस्लिमों की संस्कृति के सफाये में लगा है
ताकि उन्हें हमेशा के लिए अपने गुलामों में बदला जा सके। वह ताइवान और हांगकांग
जैसे छोटे देशों के लिए नित नये खतरे खडे कर रहा है। उसने म्यांमार की सैनिक जुंटा
सरकार को समर्थन दे रखा है जिसने रोहिग्वाओं के सफाये का काम किया है और जो
लोकतंत्र समर्थक छात्र- युवाओं का क्रूर दमन कर रही है। उल्लेखनीय है कि चीनी
वर्चस्व के विरुद्ध ताइवान, हांगकांग और म्यांमार के छात्र-
युवा शानदार संघर्ष कर रहे हैं लेकिन विश्व जनमत उनका नोटिस नहीं ले रहा है। चीन
अपने तानाशाह रवैये के समर्थन में दुनिया द्वारा उसके शताब्दियों से किये जा रहे
अपमान का हवाला देता है।
अमेरिका
अपने को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है, यद्यपि
दुनिया में लोकतंत्र को कुचलने के पीछे उसकी दुरभि- संधियों की एक लंबी फेहरिस्त
है। लेकिन वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 24/11 के आतंकी हमले के बाद
अमेरिका संकीर्ण राष्ट्रवाद के नये अवतार में सामने आया। हमने ट्रंफ के रूप में
अमेरिका का विकृत चेहरा देखा है। जो बाडेन सांस्कृतिक बहुलवादी लोकतंत्र की बहाली
के वादे पर सत्ता में आये थे। लेकिन इजराइल द्वारा गजा के विरुद्ध चल रही नृशंस कार्रवाई
को उनके समर्थन ने अमेरिका के चेहरे से सहिष्णुता की वह परत उतार दी है।
आतंकवादी संगठन हमास ने 7 अक्टूबर, 2023 के हमले
में 1200 इजराइली लोगों को मार डाला, 240 को बंधक बना लिया था। इजराइल की जबावी कार्रवाई में 20 हजार से ज्यादा फिलीस्तीनी मारे गये और 53 हजार लोग
घायल हुए हैं और गजा में उसका विध्वंस जारी है। अमेरिका और उसके समर्थक देश वहाँ
रेडक्रास जैसे शांति-संगठनों के राहत- कार्य सुनिश्चित नहीं करवा पा रहे हैं।जाहिर
है कि अमेरिका अभी भी सेमुअल हटिंगटन की अवधारणा-सभ्यताओं की टकराहट-पर चल रहा हैजिसकी
आधार-भूमि सांस्कृतिक विभेद है।
हमारे
अपने देश में लोकतांत्रिक संस्थानों और प्रक्रियाओं का अनवरत क्षरण जारी है। सीएए
और एनआरसी के जरिए यहाँ संरचनात्मक हिंसा की जमीन को व्यापक रूप दिया जा रहा है।
भारत में कई दशकों से चल रही सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी प्रक्रिया का मौजूदा सत्ता
और उसकी कार्य- प्रणाली राजनैतिक प्रतिफलन है। वर्षों से शांत मणिपुर में मैतेई और
कुकी जो को सांस्कृतिक अस्मिता के आधार पर बांट कर राज्य को जिस प्रकार भयंकर
हिंसा की आग में धकेल दिया गया, स्त्रियों के प्रति वहशीपन
की तसवीरें पूरी दुनिया ने देखी हैं उन्हे अंतिम नहीं माना जाना चाहिए। वहाँ एक
समुदाय द्वारा की जा रही हिंसा को निर्वाचित राज्य सरकार खुला समर्थन ही दे रही
बल्कि दूसरे समुदाय को किसी भी तरह के राजकीय संरक्षण से वंचित किया जा रहा है।
इतिहास के अत्यंत कठिन दौर में भी कोई संस्कृति कैसे नवोन्मेष करती है, इसके एक प्रसंग के साथ हम अपनी बात खत्म करेंगे। यह न्यूज फीचर हाल ही दुनिया भर में जारी हुआ है : यूक्रेनी संस्कृति में फूलों का हमेशा एक विशेष स्थान रहा है। लेकिन, रूस यूक्रेन युद्ध के दौरान उनका महत्व और व्यवसाय ज्यादा बढ गया है। युद्ध की शुरुआत में सोशल मीडिया पर एक वीडियो काफी वायरल हुआ था। वीडियो में एक यूक्रेनी महिला भारी हथियारों से लैस रूसी सैनिक को सूरजमुखी के बीज जेब में रखने के लिए देती हुई कहती है कि जब वो वहाँ युद्ध में मारा जायेगा, तो कम से कम उस जगह पर सूरजमुखी उगेंगे। यूक्रेन के लोगों के लिए फूल प्रतिरोध का प्रतीक, सामूहिक दुख व्यक्त करने का साधन और सामने खडी मुश्किलों के बावजूद दृढ रहने के लिए संकल्प का एक प्रमाण बन गये हैं।
वहाँ
दिव्यांग होने के कारण पैट्रो बराश अपने दो भाइयों के साथ युद्ध में शामिल नहीं हो
सकते हैं। इस कमी को पूरी करने के लिए उन्होंने कीव के बाहरी इलाके में फूलों का
उत्पादन शुरु किया है। पैट्रो कहते हैं कि किसी को यहाँ रहकर यह काम करना होगा।
इसी तरह वो जीत में योगदान दे सकते हैं। पैट्रो को फूल उगाने का कौशल पिता से
विरासत में मिला है। उसका मानना है कि फूलों में युद्ध के घावों को ठीक करने की
शक्ति होती है। फूल यूक्रेन के शहीद सैनिकों और रूसी हमलों के पीड़ितों का सम्मान
करते हैं। युद्ध- ग्रस्त शहरों में जब सैनिक लाल गुलाबों के बड़े गुलदस्ते के साथ
रेलवे स्टेशनों पर पहुंचते हैं तो उनके आसपास के लोगों के चेहरे पर मुस्कान आ जाती
है। यहाँ तक कि यूक्रेनी शहरों को रूसी कब्जे से मुक्त कराने के बाद, आभारी निवासियों द्वारा सेना को फूल भेद किए जाते हैं।
पूरे
देश में फूलों की दुकानें हमेशा खुली रहती हैं। इसमें सीमावर्ती फ्रंटलाइन शहर भी
शामिल है। हवाई हमलों से लगातार खतरे के बावजूद इन शहरों में स्थित दुकानें इन
प्रतीकात्मक फूलों से भरी और खुली रहती हैं।
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