भरत प्रसाद (कवि,कथाकार और आलोचक)
प्रोफेसर,हिंदी विभागपूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,शिलांग मेघालय )
मिटता जा रहा हूँ इसी
मिट्टी में!
पांव रखते ही
धड़कनें सुनता हूँ
तलुओं में रोज-रोज।
धरती छूते ही
सदियों के सूखे आंसुओं की
गंध
भर उठती है हथेलियों में।
दिन को ध्यान से निहारते
हुए
कृतज्ञता लगती है नाचने
पलकों पर।
कैसे बचाऊं ? कैसे संभालूं ?
बिखर रहा हूँ तिल-तिल कर
लुटता ही जा रहा
सांस-दर-सांस
छूटता जा रहा अपने हृदय से
मिटता जा रहा इसी मिट्टी
में
जीते जी।
बिछ जाने को जी करता है
झुकी फसलों के लिहाज में।
आदमी होने के लिए
हर अन्न से हार जाना
कितना जरूरी है?
कितना जरूरी है लुट जाना
हर फूल के आगे।
कोई कृतज्ञता नाच उठी है
कायनात के नीचे।
हजार बार मिटना चाहता हूं
रोज-रोज
मां जैसी किसी सत्ता के
आगे।
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