शायर, पत्रकार.
स्कूप : पत्रकारिता के सरोकारों पर बड़े सवाल
एशियन
एज के लिए ईस्टर्न एज, मिड-डे के लिए न्यूज़ डे और मुंबई मिरर के लिए सिटी मिरर जैसे
नामों का इस्तेमाल तो तकनीकी बात है पर जिग्ना वोरा के रोल के लिए 'जागृति पाठक' नाम चुनना, नामों के प्रति लेखकीय समझ और
आग्रह दिखाता है. यह कितना सार्थक और रूपक गढ़ता हुआ नाम है. अस्ल किरदारों के लुक
की बात हो या फिर फैक्ट्स और फिक्शन का तालमेल बिठाना, कॉेसेप्ट और कहानी के लेखन में
बारीक़ विवरण हमेशा कारगर साबित होते हैं. कलात्मक सार्थकता, विमर्शों की प्रधानता, विषय को साहस के साथ उठाने और
अपने क्राफ़्ट की बुनाई के साथ ही यह चित्र किन समस्याओं और चिंताओं के लिहाज़ से
विमर्श में आता है?
पत्रकारिता
पर हमले होना कोई नयी बात नहीं है. यह होता रहा है. सत्ताओं को निर्भीक एवं
ईमानदार पत्रकारिता हमेशा ख़तरा लगती रही है. युद्ध हो, आपातकाल या सत्ता के वर्चस्व को
बचाये रखने की चुनौतीपूर्ण स्थिति. पत्रकारों पर हमले हों या पत्रकारिता के
मूल्यों के संकट, युद्धग्रस्त इलाकों से लेकर भारत तक चर्चा बनी हुई है. लोकतंत्र की
स्थापना के बड़े उद्देश्यों में एक यह था कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' सुनिश्चित करवायी जा सके.
भारतीय लोकतंत्र राज्य के 75 सालों बाद क्या स्थिति है? तीन तरह की तस्वीरें हैं. एक
सत्ता द्वारा निर्भीक पत्रकारिता का दमन, दो मुख्यधारा की पत्रकारिता का सत्ता का पक्षधर हो जाना (यह एक
प्रकार की घात ही है) और तीन, पेशेवर बाध्यताओं के चलते पत्रकारों का मोहरा बन जाना.
'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के आदर्श का उल्लंघन होने पर
पहली स्थिति का विरोध किया जाना उचित है. दूसरी स्थिति चाटुकारिता और अवसरवाद की
है, जिसकी
निंदा ही की जा सकती है और तीसरी पेचीदा है. ऐसा कभी पत्रकार पर दबाव के कारण होता
है, कभी
पत्रकार की अनभिज्ञता तो कभी महत्वाकांक्षा के कारण भी. इस पक्ष को एक कसी हुई
पटकथा और एक आत्मकथात्मक आख्यान के माध्यम से एक वेब सीरीज़ का विषय बनाया गया है, जो 2023 में चर्चित और प्रासंगिक
भी रही है.
अंडरवर्ल्ड
के साथ मुंबई (महाराष्ट्र) पुलिस के रिश्तों/साठ-गांठ को लेकर क़िस्से, थ्योरीज़ और अफ़वाहें कम नहीं
रहीं. इस संबंध में किसी ने जड़ तक जाकर पड़ताल की और बड़े ख़ुलासे किये तो वह थे, खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे, जिनकी हत्या 2011 में कर दी गयी थी. कहते
हैं जे. डे ने उस 'डार्क अलायन्स' का पर्दाफ़ाश कर दिया था, जिसे छुपाने के लिए पूरा 'सिस्टम' हर वक़्त मुस्तैद रहता था. एक
तरफ जे. डे क्राइम रिपोर्टिंग के मेयार को उठा रहे थे, नये बेंचमार्क बना रहे थे, तो दूसरी तरफ़ 'मीडिया' में तब्दील हो रहा 'जर्नलिज़्म' ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव की
अंधी दौड़ में तमाम नैतिकताओं को बेचने के लिए उतावला हो रहा था. इसी बीच, उस दौर में कई टकराव और थे.
संगठित अपराध, अख़बारों और पुलिसिंग के इसी समय को क़रीने से दर्ज करती हुई वेब
सीरीज़ है, स्कूप.
21वीं सदी के दूसरे दशक से सोशल
मीडिया भारत में ज़ोर पकड़ने लगा था, स्मार्ट फ़ोन की सेल भी; 2010 में क़रीब 5.70 लाख पर्यटक कश्मीर पहुंचे जबकि 2011 में! तब तक बीते 22 सालों में ऐसा किसी बरस नहीं
हुआ था कि 10 लाख से ज़्यादा टूरिस्ट कश्मीर गये हों; 2008 के आतंकी हमले में दाऊद
इब्राहीम और उसके गिरोह की तरह-तरह की भूमिका को लेकर थ्योरीज़ चल रही थीं; छोटा राजन गैंग और डी-कंपनी के
बीच टकराव बना हुआ था. संगठित अपराध सिस्टम के ख़िलाफ़ चुनौती बन चुका था; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण
पत्रकारिता के नये मायने स्थापित हो रहे थे और प्रिंट मीडिया के नये संकट भी.
क़रीब
एक युग पहले के मीडियाई दौर से एक महत्वपूर्ण कहानी लेकर आती है हंसल मेहता
निर्देशित 'स्कूप'. जब तथ्यपरक से ज़्यादा ख़बर का सनसनीख़ेज़ होना ट्रेंड बना था, जब तथ्यों की खोजबीन व पड़ताल
नहीं, अहम थी खलबली पैदा कर देने वाली ख़बर पेश कर देने की हड़बड़ी. जब
मैनेजमेंट के दबाव में पत्रकार अपनी भूमिका भूल रहे थे. 'स्कूप' में पत्रकारिता को लेकर स्पष्ट
मत है - "एक कहे कि बारिश हो रही है और दूसरा कहे कि नहीं, तो मेरा काम दोनों को कोट कर
देना भर नहीं है. मेरा काम है कि मैं कमबख़्त खिड़की खोलूं और देखकर बता दूं कि
फ़ैक्ट क्या है." यह कहा इसलिए गया क्योंकि कथानक इसकी उलट स्थितियों से बुना
जा रहा है.
'स्कूप' में लेखक और निर्देशक का
माउथपीस कैरैक्टर है मूल्यों पर अड़ा हुआ एक संपादक. अधपकी ख़बरों को ख़ारिज करता
हुआ. लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और उसके कर्णधारों के पतन पर आंसू बहाता हुआ. मुख्य
पात्र है इस संपादक की टीम में एक महिला क्राइम रिपोर्टर. 'एक्सक्लूसिव' की रेस में ख़ुद को स्थापित
करने की होड़ में. पुलिस और अपराध जगत में अपने सूत्रों को साधती हुई. कुछ मूल्य
बचाती हुई पर पत्रकारिता के सिद्धांतों के बजाय शोहरत चुनती हुई. दुनिया उसकी इस
तेज़ रफ़्तार कामयाबी को उसके चरित्र के साथ किस तरह बांच रही है, यह नज़रअंदाज़ करती हुई. कई
किरदारों की भरपूर कहानी कहती 'स्कूप' के इस केंद्रीय पात्र का नाम है जागृति पाठक.
क्या-क्या
बयान करती है 'स्कूप'?
'बिहाइंड बार्स इन भायखला : माय
डेज़ इन प्रिज़न' किताब में पूर्व पत्रकार जिग्ना वोरा ने जिस तरह आपबीती बयान की, उसी पर आधारित 'स्कूप' वास्तव में, जागृति के सफ़र की कहानी है.
खोजी पत्रकार जयदेब सेन उर्फ़ दादा (जे. डे का सिनेमाई किरदार) की हत्या के
षडयंत्र में जागृति को आरोपी बनाया जाता है और उसे कई महीने जेल में रहना पड़ता
है. फिर तमाम तकलीफ़ों के बाद वह कोर्ट से राहत पाती है. यह चित्र स्त्री विमर्श
के कुछ पहलू भी छेड़ता है.
आदमियों
के समझे जाने वाले काम में तेज़ी से नाम के साथ दुनियादार रवैये से पूंजी भी जोड़
रही, अपने
पति से तलाक़ ले रही, अपने बच्चे और मां, नाना-नानी आदि को पाल-संभाल रही, एक गुपचुप एक्स्ट्रा मैरिटल
अफ़ेयर कर रही, अपराधियों व पुलिस अफ़सरों के बीच से अपना काम निकलवा रही और
प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में न जाने कितने लोगों को अपना 'राइवल' बना रही जागृति को जेल जाने पर 'क्या पाया क्या खोया' के साथ ही यह अहसास भी होता है
कि उसने 'क्या सही किया क्या ग़लत'. हमदर्द के नाम पर उसके साथ उसके परिवार के अलावा सिर्फ़ एक आदमी, उसका संपादक. और उसके ख़िलाफ़? वो अपराधी, जिनके एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के
लिए वह मरी जा रही थी; वो पुलिस अफ़सर, जो उसके ज़रिये अपना एजेंडा सेट करवाते रहे थे; और वो मीडिया, जो उसे कल तक हाथो-हाथ ले रहा
था.
क्या
है इस विमर्श की फ़िल्मी परंपरा?
माइकल
क्वेस्टा निर्देशित 2014 की फ़िल्म 'किल द मेसेंजर' की थीम से प्रभावित दिखती 'स्कूप' को देखते हुए अनेक फ़िल्मों के
दृश्य या संदर्भ यादों में कौंधने लगते हैं. मसलन, जेल में किसी मासूम को
क़दम-क़दम पर किस तरह प्रताड़नाएं झेलना पड़ती हैं, भंडारकर ने अपनी फ़िल्म 'जेल' में दिखाने की कोशिश की थी. 'स्कूप' में नयापन यह है कि यह महिलाओं
की जेल के वो दृश्य लेकर आती है, जो पहले न के बराबर देखे गये (श्रीराम राघवन निर्देशित 'एक हसीना थी' भी याद कीजिए). अस्ल में, 'स्कूप' के कई तत्व पिछली कई फ़िल्मों
या चित्रों की याद तो दिलाते हैं लेकिन अपने विचार, विस्तार, प्रभाव या गढ़न में नयापन भी
रखते हैं.
'किल द मेसेंजर' की तरह यह सिनेमा भी बड़ा
प्रश्न उठाता है कि मीडिया को किस तरह 'यूज़' किया जाता है. बिली विल्डर निर्देशित 'ऐस इन द होल' का विषय भी यही है. किस तरह
मीडिया रिपोर्टिंग को तोड़-मरोड़कर रैटिंग के चक्कर में 'न्यूज़' को कॉर्पोरेटिया प्रोडक्ट बनाता
है और कैसे सच से परे नैरैटिव रचने का खेल खेला जाता है, विल्डर इसे बख़ूबी दिखा पाये
हैं. 'स्कूप' का एक संवाद है - "हम सस्ती हेडलाइन्स के लिए मौत को भी बेचते
हैं. पाठकों को हम उपभोक्ता बना चुके हैं... पहले होता था कि पत्रकारिता अच्छी हो
तो उसका विवादास्पद होना तय था, अब उल्टा है. विवादास्पद हो तभी अच्छी पत्रकारिता है."
दि
इनसाइडर और एब्सेन्स ऑफ़ मलाइस जैसी क्राइम रिपोर्टिंग आधारित हॉलीवुड फ़िल्मों के
बहुत मामूली प्रभाव भी 'स्कूप' में नज़र आते हैं. रैटिंग और नैरैटिव के खेल के प्रति समझ पैदा
करने में रामगोपाल वर्मा की फ़िल्म रण ने भी एक स्तर पर कोशिश की थी. एक और क्राइम
रिपोर्टर की संस्मरणों पर आधारित टीवी शो 'टोक्यो वाइस' 2022 में आया पर भारत में उतना
चर्चित नहीं रहा. यह शो जापान के 'यकूज़ा' (संगठित अपराधियों) की सिस्टम के साथ मिलीभगत का पर्दाफ़ाश करने की
भयानक कहानी अनूठे ढंग से बुनता है.
रमेश
शर्मा निर्देशित और सराही गयी फ़िल्म 'न्यू दिल्ली टाइम्स' (1986 में प्रदर्शित) पहली हिंदी फ़िल्म थी, जिसने सियासत और जुर्म की
मिलीभगत और उसमें मीडिया को इस्तेमाल किये जाने का षडयंत्र हिंदी दर्शकों को
संभवत: पहली बार दिखाया था. जिस तरह इस फ़िल्म के मुख्य पात्र पत्रकार विकास पांडे
को समझ आता है (किल द मेसेंजर में गैरी को कुछ अलग ढंग और मोड़ पर) कि अनजाने ही
सिस्टम ने उसको अपने एजेंडे के लिए इस्तेमाल कर लिया, उसी तरह स्कूप में भी जागृति
पाठक को यह बात तो समझ में आती ही है, यह पछतावा भी उसे होता है कि एक पत्रकार की तो नहीं लेकिन उसने
पत्रकारिता की हत्या ज़रूर की. वास्तव में, पत्रकारिता उस असहज लेकिन
समाजोपयोगी सच को सामने लाने का नाम है, जिस पर परदे या मुलम्मे चढ़ाये जा रहे हों. होता यह है कि सच इकहरा
नहीं होता इसलिए जाने-अनजाने पक्षधरता ही उभरकर आती है और नैरैटिव रचने वाली
पॉलिटिक्स यहीं अपने पैर जमा लेती है.
'स्कूप' में जागृति के ख़िलाफ़ ही
मीडिया एकजुट होकर कथित 'मसालेदार' ख़बरें बेचता है और उसकी चारित्रिक हत्या पर उतारू हो जाता है. 'मीडिया ट्रायल' संबंधी इस तरह के संकेत 'किल द मेसेंजर' में भी हैं. ये दोनों ही
चलचित्र सुरक्षा एजेंसियों की अंतर्राष्ट्रीय अपराध जगत के साथ मिलीभगत के विषय को
प्रमुखता से उठाते हैं. समाज और सिस्टम के निगेटिव्स से भरे दोनों ही चित्रों में
पॉज़िटिव है, कठिन समय में परिवार का साथ बने रहना. कुछ हद तक अवास्तविक भी लगता
है लेकिन एक उम्मीद देना ज़रूरी भी है. एक इत्तेफ़ाक और भी. उस समय क्लिंटन और
मोनिका लेवेंस्की सेक्स कांड के चलते गैरी वेब के महत्वपूर्ण ख़ुलासे विमर्शों और
जनता के बीच पुरज़ोर ढंग से नहीं पहुंच सके. इधर, अन्ना हज़ारे के आंदोलन की आंधी
के दौर में जे. डे की हत्या और जिग्ना के जेल जाने की घटनाएं चर्चा में टिक ही
नहीं सकीं.
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