

पुस्तक
समीक्षा
लेखक- संतोषी
समीक्षक- डॉ.धूल चन्द मीना
चेतना का नव संचार करता : 'पाती' काव्य संग्रह
संतोषी
ग्राम्य जीवन की नव उभरती संवेदनशील कवयित्री है। इन्होंने इन दौरान सोशल मीडिया
पर तीव्रतम गति से अपनी पहचान स्थापित की हैं। अभी हाल ही में संतोषी का 'पाती' काव्य, गीत संग्रह
कलमकार पब्लिशर्स, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इन्होंने इस काव्य
संग्रह में विविध कविताएँ, गीत रचे हैं। जिसमें वह समाज, देश में नाना
प्रकार के हो रहे बदलाव, परिवर्तन को लेकर चिंतित हैं। पूर्ण
सजग हैं। इनके कविताओं, गीतों में ग्रामीण जीवन संस्कृति व
दर्शन की झलक भी बखूबी देखने को मिलती हैं।
चिंतनशील कवयित्री संतोषी के 'जीवन फिर
सरसाया है'
गीत
में ग्रामीण संस्कृति की बानगी देखते ही बनती हैं। कवयित्री ने दिनोदिन शुष्क हो
रहे मानवीय जीवन-मूल्य, संवेदना, आदर्श, नैतिकता, इंसान द्वारा
प्रकृति के अत्यधिक दोहन आदि पर अपनी चिंता जाहिर की हैं। जो लाजमी भी हैं।
कवयित्री की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
ताल तलैया और
सरवर
नहीं बैठ
सुस्ताएँ राही
छितराई सी
छाँव तरवर
खग आसमां
झाँक रहे हैं
बैठ बैठ कर
नीड़ से
जीव जगत है
बहुत दुःखी
उष्णता की
पीड़ से
बहुत दिनों
तक मेघा रूठा
रह-रहकर
तरसाया है।"
करती कागा से
मनुहार
याद बहुत आता
है
चिट्टी पत्री
वाला प्यार
आता था
संवदिया
लेकर नेह
निमंत्रण ज़ब
पूरित होती
आशा
हँसकर मुख
मंडल तब
खिल उठते थे
भाव मन के
घर होता
गुलजार
याद बहुत आता
हैं
...............प्यार।"
वही पिता
सत्य की सूरत
सुंदर अहसास
इसमें भी
ममता का वास
इसमें भी।"
"द्वेष
ईर्ष्या के शैवाल
नफ़रत मन में
बो गए
सद्भाव के
मोती खो गए
प्रेमघन ज़ब
ज़ब भी बरसे
बंधक बना लिए
जाते हैं
संकीर्णता के
बहुपाश
रह-रहकर जीये
जाते हैं
निश्चय
निर्मल भाव अब
मनमाने से हो
गए
सद्भाव के
मोती खो गए।"
बार-बार यह
चंचल मन
सब हँसी
ठिठोली याद
मर्यादा का
ज्ञान नहीं
कब नज़रों से
गिर चले
इतना भी यह
ध्यान नहीं
तजता रहा निज
चिंतन
बार-बार यह
चंचल मन।"
"बदला-बदला सा
लगा
आज मुझे यह
गाँव
बदले-बदले पथ
लगे
बदले-बदले
भाव
एकदूजी दहलीज
से
नहीं रहा
समभाव
यादों में
सिमटी रही
बरगद की अब छाँव।"
अत: कवयित्री संतोषी के गीत, कविताओं में
नैतिक मानवीय जीवन-मूल्य, आदर्श, संस्कार, नैतिकता व
ग्रामीण संस्कृति के दर्शन होते हैं। यह गीत संग्रह मन, मस्तिष्क की
परते खोलने के साथ ही चेतना का नव संचार भी करता है। इनके गीतों में बिम्ब, प्रतीक भी
देखने को मिलते हैं। ग्रामीण, देशज, तत्सम व
तद्भव शब्दों का प्रयोग भी बहुतायत में किया है। भाषा ग्रामीण सौन्दर्य से ओतप्रोत
सहज,
सरल
व सुबोध है तथा शिल्प विधान भी गढ़ा हुआ है। इनमें शब्दानुशासन अच्छा है व लय, पद्य, भाव साम्यता
भी हैं।
अस्तु! आपकी लेखन में अनवरत निखार हो। संतोषी
जी को इस नूतन,
मौलिक
सृजन हेतु अकूत बधाई व शुभकामनाएँ।
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