रविवार, 31 दिसंबर 2023

अथ स्त्री कथा-- तुम फिर आना माई- प्रियंवदा पाण्डेय

प्रियंवदा पाण्डेय

अथ स्त्री कथा-- तुम फिर आना माई

वे स्त्रियाँ;जिनकी युवावस्था प्याज सी गला दी गई गृहस्थी के कोरमे में,जिन्होंने रसोई और पाल्यों की उदरपूर्ति को ही अपना भविष्य बना लिया;सुबह जाँत पर पीसते वर्तमान की परिणति शाम को उद्खल में कूटते   भविष्य में फलीभूत होती थी।

दिनभर कोल्हू के बैल की तरह उनके जीवन का चर्रकचूँ चलता रहता;ऐसी स्त्रियों में प्रथमतः जिसे देखा वह मेरी मातामही थी।

अलभ्य सुंदरी,नन्हीं-मुन्नी;रबर की गुड़िया सी;स्पर्श से मलीन हो जाए ऐसी।

दुलार में हम लोग उसे कभी माई तो कभी मावा भी कहते थे।

होश संभालने बाद के बाद जब मैंने माई को देखा,वह सूर्योदय से पूर्व बिस्तर त्याग देती,जब तक हम जगते वह स्नानोपंरात सूर्य को जलार्पण कर अगरबत्ती दिखाती,उसे पूजा की पद्धति न आती थी न कोई मंत्र।लेकिन पूजा का उसका यह क्रम कभी न टूटता,हमने माई को कभी स्नान करते न देखा,जगने के पश्चात उसकी भींगी साड़ी यह बात बताती।

इस उद्योग के पश्चात वह

अपने कार्यस्थल रसोईकक्ष में मिट्टी के चूल्हे के समीप बैठी चाय बनाती मिलती,केतली और अन्य पात्र के रहते हुए वह प्रायः कड़ाही में चाय बनाती।

और सबको चाय सर्व करती, उसके बाद वह छाछ विलोती और हम भाई बहन उसके पास बर्तन लेकर गोल घेरा बनाकर बैठते,छाछ विलोने के पश्चात हम लोग सबसे पहले अपने कटोरे गिलास जो भी पात्र रहता उसमें नवनीत ग्रहण करते उसके बाद माठामृत पीते।

उसके बाद माई की अनन्य भक्त उसकी सेविका कम सखी प्रकट होती जिन्हें वह झलमल की माई बोलती,साथ-साथ हम सब भी,झलमल की माई लंबी छरहरी कोयल के रंग को मात देते रंग की चेचक के दाग से शोभित मुखाकृति की फुर्तीली दिमागदार औरत थी।  जब से आती वह हमारी माई की दायीं भुजा हो जातीं रसोई से लेकर दालान जहाँ सब भोजन ग्रहण करते,तक निरन्तर दौड़तीं,उनकी उपस्थिति में मजाल कि आप भोजनोपरान्त थाली रख छोड़ें,आपके हाथ निकालते ही झलमल की माई लपक लेतीं,इस उपक्रम के बीच धोबिन आतीं,वह कपड़े धुलने में लग जातीं,सबके भोजनोपरांत झलमल की माई हमारी मावा को भोजन परसती और स्वयं भी साथ बैठकर भोजन करतीं,सारा दिन वे दोनों गृहस्थी के काम में जुती रहतीं।

इस तरह उस लंबे देवर भसुर नन्दादि और पुत्र-पुत्रियों से युक्त कुनबे की पालनहार थी हमारी माई।

पूरा परिवार उस पर किस तरह आश्रित था,उसे स्वयं इसका बोध न था।

वह सबके भोजन नाश्ते के परिचर्या के चक्कर में स्वयं को भूल जाती,साड़ी कहीं से फट जाए तो वह सिल न पाने का समय न होने के कारण उसे गाँठ लगा काम में लग जाती।

कहने में कोई अत्युक्ति न होगी कि वह व्यवहार कुशल और सर्वप्रिय थी।

उसकी पाककला के तो क्या ही कहने आज भी उसके भोजन का स्वाद नहीं भूलता इन दिनों वह मेथी,सोया और आलू की सब्जी बनाती जो दही के साथ खाकर मन मस्त हो जाता।

उसके काम में कमी निकालने वाला व्यक्तित्व एक था, वह थे उसके पतिदेव और हमारे मातामह!

तेजस्वी इतने कि उनके तेज से वह भूकंप में काँपती हुई धरती सी काँपती थी।

नाम "श्री दयासागर मिश्र"आँख के अंधे नाम नयनसुख से थे।

माई के लिए कोई दया नहीं उनके मन में,उनके स्कूल से आने के पहले माई चैतन्य हो जाती उन्हें खराब लगने जैसा कुछ रह न जाय,फिर भी उन्हें कुछ न कुछ मिल ही जाता,जिसपर वह माई को खूब लंबी चौड़ी सुनाते,वह जो कहते माई हाँ नहीं तक न बोलती,सुनती रहती,

मामला भी कुछ ऐसा कि वह जितने व्यवस्थित माई उतनी ही अव्यवस्थित।

वह सलीकेमंद माई अस्तव्यस्त।

उनके कोप का विषय यही रहता,माई ने एकबार सूर्प रास्ते में रख दिया था, नानाश्री आए,स्वभावतः उन्होंने कहा---अरी उल्लू यह सूप रखने की जगह है,तुझे पता नहीं,यह रास्ते में पड़ रहा?

माई ने कुछ नहीं कहा--उन्होंने कहा तोड़ दूँ?अबकी उसने सहमति में सिर हिलाया।

नाना बाकायदा उसपर चढ़कर उसे तोड़कर ही हटे।

इसतरह की घटनाएँ आम थीं वहाँ।

इसतरह माई बराबर भय के साये में जिया करती कभी लालटेन का शीशा फूट जाता तो किसी अन्य से चोरी से नाना के स्कूल से लौटने के पहले ही भयाक्रांत होकर मँगा लिया करती।

कालांतर में नाना गठिया जैसी पीड़ादायक बीमारी से ग्रस्त हो गये और लगभग 16 वर्ष तक प्रतिवर्ष अक्तूबर से लेकर मार्च तक आनबेड रहा करते,माई की दुर्दशा और अधिक बढ़ गई वह दिनभर उनकी परिचर्या में ही लगी रहती।

जब लोग तरह-तरह की वनौषधियाँ पीसकर लेपकरने की सलाह देते उन्हें पीसते कूटते माई के हाथ में गाँठ पड़ जाती।

वह अत्यंत सरल थी अशिक्षित होने के बाद भी परिवार चलाने का अद्भुत हुनर था उसके पास।

वह जब तक जीवित रही पाँच भाइयों का वह परिवार एकत्र रहा जो उसके मरते ही बिखर गया।

माई जैसी अपनी देवरानी -जेठानी के लिए थी बिलकुल वैसी ही बहूओं के लिए भी वह जब तक शरीर से समर्थ रही बहूओं से कोई काम न लिया,एकबार जब मैंने कहा--माई तुम्हारी बहूएँ क्या शोकेश में सजाने के लिये आईं हैं तुम इनसे काम क्यों नहीं लेती?

तो उसने कहा ऐसी बात नहीं है चाय बनातीं हैं सब।

अपने-अपने पति के लिए ठीक हैं सब वही ठीक है।

अपने निर्मल और श्रमशील स्वभाव के कारण माई सबको प्रिय रही,उसकी अनन्य सखी झलमल की माई दुर्दिन में हमारी माई ने जिनकी अनाज आदि से मदद की थी,उन्होंने धनागम के बाद भी उसका साथ निभाया अंतकाल तक जब उसका बोलना बंद हो गया था, तब भी उन्होंने उसकी परिचर्या न छोड़ी।

जब वह संपन्न हो गई थीं उन्होंने हमारे घर से कुछ भी लेना बंद कर दिया था।

बस भोजन किया करतीं थीं।

जब भी आतीं बर्तन आदि साफ करने के पश्चात सबको खाने का पूछकर जो व्यक्ति बिन भोजन बचा रहता,उसे भोजन परोसती और स्वयं भी भोजन किया करतीं।

वह अंत तक माई की हमसाया रहीं।

श्रम और सुख-दुःख की साझेदार।

 माई जबतक शरीर से समर्थ रही श्रम करती रही,आखिरी मुलाकात में माई बीमार हो गई थी,उसे ब्रेनट्यूमर हो गया था,उससे मिलकर जब मुझे आँसू आने लगे,उसने कहा अभी जिन्दा हूँ बेटा!

इस तरह ब्रेनट्यूमर जैसी असाध्य बीमारी से पीड़ित होकर 2011 में माई ने देहत्याग किया।

प्रियंवदा पाण्डेय

जनपद---मऊ/उत्तर प्रदेश

शिक्षा परास्नातक- संस्कृत/हिन्दी/मनोविज्ञान। बी एड।

लेखन की विधाएँ कविता , कहानी , सामयिक लेख ,साक्षात्कार और समीक्षा

प्रकाशित अंग्रेजी अनुवाद साझा संकलन - फोर स्टार्स

प्रकाशित पुस्तकें

कविता संग्रह-बंद दरवाजे का मकान

कविता संग्रह-समय के अश्व

प्रतिष्ठित  पत्र पत्रिकाओं में कविता एवम आलेख प्रकाशित।

संप्रति अध्यापन एवम स्वतंत्र लेखन

संपर्क

देवरिया उत्तर प्रदेश

priyambdapandey1170@gmail.com

 

 


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