रविवार, 31 दिसंबर 2023

जीवन में सहजता की तलाश बनाम 'सिवान में बाँसुरी'- प्रशांत जैन, मुंबई




                                                                  प्रशांत जैन, मुंबई 

कवि, लेखक, शिक्षाविद् और शोधकर्ता


जीवन में सहजता की तलाश बनाम 'सिवान में बाँसुरी'

----------------------------------

'सिवान में बाँसुरी' यदि किसी कविता संग्रह का शीर्षक हो तो सबसे पहले आपके मानस-पटल पर कौन सी छवि उभरेगी? निश्चित ही किसी गाँव की सरहद पर स्थित किसी खेत की मेड़ पर बैठ बाँसुरी बजाते एक ग्रामीण युवक की। यहाँ मैं ‘नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु’ की बात नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि वह छवि हमारे मन-मस्तिष्क में एक ईश्वरीय लीला की तरह रूढ़ हो चुकी है। वैसे बीती सदियों में 'सिवान में बाँसुरी' जैसे मिलते-जुलते विषय पर विश्व भर के अनेक चित्रकारों ने अपनी कूची चलाई है। इन कविताओं का रचयिता पिछले साठ सालों से मुंबई में रह रहा है, लेकिन हज़ार मील की दूरी के बावजूद अब भी उसके गाँव की सरहद मुंबई की सरहद से मिलती है। इन्हें मिलाने वाले तत्व एवं कारक कई हो सकते हैं, लेकिन उनमें से एक कारक निश्चित ही कवि की स्मृति में रची-बसी बाँसुरी की धुन भी है।

 

संग्रह की भूमिका में हृदयेश कहते हैं कि मुंबई के मीरा रोड क्षेत्र में जहाँ वे रहते हैं, अक्सर एक बाँसुरी बेचने वाला पुरानी  हिंदी  फिल्मों  की  धुनें बजाते हुए फेरी लगाता है। बाँसुरी का यही स्वर कवि को औचक अपने अतीत में ले जाता है। 'सिवान में बाँसुरी' शीर्षक कविता की पंक्तियाँ देखें - हृदय तल में/ सिवान में बजती बाँसुरी की तरह/ बजता रहता है गाँव …।  भूमिका में वे आगे कहते हैं कि शहर की बाँसुरी और गाँव के सिवान का क्या रिश्ता है मुझे पता नहीं, पर दोनों मुझे असहज कर देते हैं। निश्चित ही यह असहजता कोई असुविधा या आराम में ख़लल नहीं बल्कि मनुष्य की अपनी स्वाभाविक सहजता की तलाश है, जो उसकी लक्षित विश्रांति भी है। वैसे भी असहजता श्रम है और सहजता विश्राम। हृदयेश मयंक की कविता सहजता की इसी तलाश की कविता है।

 

जीवन में सहज आख़िर क्या है? तनिक विचारने पर हमें अपने ही अंदर से उत्तर मिलता है कि जो प्रकृति सम्मत है वह सहज है । जो प्रकृति के विभिन्न तत्वों, यथा - पदार्थ, वनस्पति, प्राणी एवं मनुष्य के स्वभाव एवं नैसर्गिक आवश्यकताओं के अनुकूल है वह सहज है। अपने अस्तित्व को बनाए रखने हेतु इन तत्वों में अंतर्निहित जो साहचर्य है वह सहज है। जीवन में इसी सहजता की अपेक्षा, आशा, आग्रह अथवा आवश्यकता ही संभवत: वे तत्व हैं जिनकी वजह से हृदयेश मयंक की कविताएँ प्रकृति, पर्यावरण एवं मानव के अत्यंत निकट हैं। ये कविताएँ प्रकृति के इन तत्वों की परस्पर पूरकता एवं सहअस्तित्व-पूर्ण संबंध को लगातार चिन्हित एवं परिभाषित करती हैं। बदले हुए समय ने सबसे अधिक बदला है मनुष्य की उस नैसर्गिकता को जो उसे मनुष्य बनाती है। आज  जीवन में सादगी और आपसी संबंधों में सहजता नहीं रही। संग्रह की कविताओं में शायद इसीलिए गाँव बार-बार आता है, बचपन बार-बार आता है, भूले-बिसरे साथी, गली-मोहल्ले-चौबारे, खेत-खलिहान-सिवान बार-बार आते हैं. यही नहीं ग्रामीण जीवन के सहचर वृक्ष-पशु-पक्षी भी बार-बार आते हैं। कुल मिलाकर हृदयेश मयंक की कविताओं का यह गुलदस्ता एक भलेमानस की सहजता एवं सरलता के उत्सव सा प्रतीत होता है, जिसमें संबंधों की उष्मा एवं माटी का सोंधापन रचा-बसा है।

 

पहली नज़र में ये कविताएँ वर्तमान समय के लंपट एवं स्वार्थी शहरी जीवन से मोह-भंग की कविताएँ जान पड़ सकती हैं, किंतु ध्यातव्य है कि इन कविताओं में जिजीविषा का एक अंत:प्रवाह लगातार मौजूद है। ये कविताएँ पलायन में त्राण नहीं ढूंढतीं, बल्कि परिस्थितियों से दो-दो हाथ करती दिखाई देती हैं। स्वप्नों और उम्मीदों के टूटने का दर्द निश्चित ही अनेक कविताओं में झलकता है, लेकिन इसके बावजूद ये कविताएँ भविष्य के प्रति राग, उत्साह एवं आस्था से लबरेज़ हैं। किसी भी कालखण्ड में जीवन-मूल्यों का यदि कल्पनातीत तरीके से पतन हो और मनुष्य का मानव-पद से हद से ज़्यादा स्खलन हो तो उस काल के कवि-लेखकों-कलाकारों के लिए ऐसे वीभत्स दृश्यों को देखना और उस शापग्रस्त समय को जीना निश्चित ही मृत्यु के अनुभव से कम न होता होगा। वर्तमान समय भी शायद ऐसा ही है कि जब हर सच्चे कवि को रोज़ अपनी ही राख से जी उठना होता है, फीनिक्स पक्षी की तरह। हृदयेश अदम्य जिजीविषा से भरपूर ऐसे ही एक कवि हैं। ‘हम जियेंगे साथी’ की पंक्तियाँ देखें - हम जियेंगे साथी/ उन मौसमों के लिए/ जिन्हें अभी आना है धरती पर/ और हरना है जन-जन की पीड़ा …।

 

संग्रह में नॉस्टैल्जिया के भाव से संपृक्त अनेक कविताएँ हैं। लेकिन ये कविताएँ वर्तमान के प्रति किसी असंतोष, हताशा या विवशता का उत्पाद नहीं, बल्कि अपने वर्तमान को बीते हुए जीवन की सकारात्मकता से समृद्ध करने का एक उपक्रम अथवा पुरुषार्थ हैं। ‘जी करता है’ कविता देखें - जी करता है/ दूर कहीं जाकर छुप जाऊँ/ और ढूँढ़ने माँ आ जाए/ जी करता है/ संगी-साथी बिछड़ चुके जो/ मिल जाएँ फ़िर लड़ें-भिड़ें हम …। यह कविता किस सहृदय पाठक के अंतर्मन को भिगो नहीं देगी? भावनाओं की यही गहनता एवं तीव्रता हृदयेश मयंक की कविताओं का अनिवार्य गुण है। ‘चिट्ठी’ कविता की चार ही पंक्तियों में गाँव अपनी संपूर्णता में  प्रतिबिंबित होता है - चिट्ठी में पिता के आशीष थे/ गाँव-पड़ोस की विपदाएँ/ ताज़ा ब्याई भैंस के फेनिल दूध की महक थी/ कुटे धान की ख़ुशबू …। देखें कि इन पंक्तियों में मात्र घर, पड़ोस, गाँव, खेत, भैंस आदि ही अपनी-अपनी इयत्ता, महत्ता एवं पूरकता के साथ अनुनादित एवं प्रतिबिंबित नहीं  हैं, बल्कि फेनिल दूध और धान भी अपनी दृश्य छवि एवं सुगंध के साथ शामिल हैं। ‘गाँव में जाना’ कविता में कवि अपने पोतों को भी गाँव जाने एवं चीज़ों को अच्छी तरह से देख-समझ आने की प्रेरणा देता है - जाना, गाँव/ तो सूप, दौरी, चूल्हा, मूसर, चकरी, हल, कुदाल/ पूजते देखना दादी, गोतिन पड़ोसिनों को/ श्रम संस्कृति के औजारों को जी भर, देख आना …।

 

आज के पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में मौजूद परस्पर विश्वास के संकट को कवि ने अत्यंत सशक्त ढंग से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। 'घर में’ कविता की इन पंक्तियों की चमत्कारी शब्द-योजना देखें - घर में/ सब कुछ ठीक-ठाक था/ एक भरोसे को छोड़कर/ जो धीरे-धीरे टूट रहा था…। मनुष्य के आपसी व्यवहार में जहाँ भावना एवं बुद्धि में संतुलन नितांत आवश्यक है, बुद्धि बड़ी तेज़ी से भावना की स्थानापन्न होती जा रही है, और वह भी स्वार्थ-बुद्धि। बँटवारा कविता देखें - बँटवारा ज़मीन का था/ भाइयों ने सबसे पहले बाँट लिए रिश्ते/ स्त्रियों ने बाँट लिया आँगन/ बंद कर लिए घर में प्रवेश के रास्ते/ बँटवारा सिर्फ़ ज़मीन का था/ बँट गया सबका आकाश भी न जाने कैसे ...।  इसके बरअक्स संग्रह में ऐसी अनेक कविताएँ हैं जो विश्वास जगाती हैं कि अभी सहेजे जाने लायक बहुत कुछ बाक़ी है। पिता को याद करती एक कविता ‘गाँव का होना गाँव में जैसे पिता का होना है’ अपने शीर्षक से ही बहुत कुछ कह देती है।  ‘यातना भरी रातें’ शीर्षक श्रृंखला की आठ कविताएँ कवि की हाल ही की गंभीर अस्वस्थता एवं उससे उबरने की व्यथा-कथा का यथार्थ आख्यान हैं। इन कविताओं में आशा, निराशा, उत्साह, अवसाद, हर्ष, विषाद आदि विभिन्न स्याह-सफ़ेद रंग मौजूद हैं। पुत्र एवं पुत्रवधु के सेवा-शुश्रूषा से बहुत आगे बढ़कर अंगदान तक पहुँच जाने वाले कर्तव्य-बोध एवं स्वयं के  धर्मसंकट का मार्मिक चित्रण कवि ने इन कविताओं में किया है। इस अर्थ में कविताओं की यह श्रृंखला पाठकों के लिए अत्यंत प्रेरक भी है। वैसे भी कवि या लेखक का यथार्थ काफी हद तक समाज का भी यथार्थ होता है। या कहें एक रचनाकार अपनी रचना में, उपलब्ध ज्ञान एवं सूचनाओं के आधार पर, अपने अनुभवों को ही एक्स्ट्रापोलेट करता है, और इसीलिए रचना सार्वजनीन महत्व की वस्तु बन जाती है।

 

वर्तमान समय के यक्ष प्रश्नों को हृदयेश मयंक ने अपनी कविता में अत्यंत प्रभावकारी ढंग से संबोधित किया है। नए और पुराने का द्वंद ऐसा ही एक प्रश्न है। नए की खोज मनुष्य का एक स्वाभाविक एवं सकारात्मक गुण है। लेकिन वर्तमान में नए की यह खोज किसी नए विचार नहीं बल्कि नई वस्तु या नए अनुभव की प्राप्ति के रोमांच तक ही सीमित रह गई है। नए को जाने बिना, उसका मूल्यांकन एवं हिताहित का विचार किए बिना सिर्फ़ उसे हासिल करने की होड़ मची हुई है। यह नए की खोज नहीं, बल्कि अपनी ऐंद्रिक संवेदनाओं, आवेगों, एवं भौतिक इच्छाओं की असंभव संतुष्टि हेतु अंतहीन उद्यम मात्र है। इस होड़ में लोग समय की कसौटी पर खरी उतर चुकी सार्थक परंपराओं, अनुभव-सिद्ध मान्यताओं ही नहीं बल्कि वर्तमान का मार्ग प्रशस्त करने वाली स्मृतियों तक से स्वयं को वंचित कर ले रहे हैं। ‘दीवार पर टँगा सितार’ की पंक्तियाँ देखें – जब तक दीवार पर/ टँगा था सितार/ लोग याद करते रहे नाना को/ …सितार का न होना / कोई बड़ी बात नहीं / पर स्मृतियों का न होना/ बहुत ही घातक है ...।

 

पुरखों और धरोहरों को भुला देने के अनेक सर्वनाशी प्रकल्प सरकारी स्तर पर भी भयंकर निर्लज्जता, ग़ैर-ज़िम्मेदारी, और फूहड़ता के साथ चल रहे हैं। हम गवाह हैं कि किस तरह से विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर काशी विश्वनाथ परिसर एवं उसके आसपास के घरों, दुकानों, गलियों और मंदिरों के इकोसिस्टम को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया है। ‘खेवली से लौटकर’ शीर्षक कविता में कवि ने धूमिल के साथ ही काशी के उपरोक्त प्रसंग को भी याद किया है - कुछ लोग कहते हैं लक-दक हो गया है बनारस/ कुछ कहते हैं कि लुप्त हो रहा है बनारस का खांटीपन/ ग़ायब हो जाएंगे सांड, रांड और संन्यासी सड़क से …। ये पंक्तियाँ प्रभावी इसलिए भी बन पड़ी हैं कि ये काशी में सदियों से प्रचलित एक लोकोक्ति - 'रांड, सांड, सीढ़ी, संन्यासी/ इन से बचे तो सेवे काशी' से प्रेरित हैं। अँधे विकास का बुलडोजर किस तरह से पर्यावरण का विनाश कर रहा है, ‘मानुष गंध’ की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है - हवा में ज्यों ही पसरती है/ किसी मानुष की गंध/ चौकन्ने जाते हैं/ पशु-पक्षी नदी नाले/ नदियों में शामिल होता है ज्यों ही धरती का तापमान/ कसमसा कर रह जाता है जल…।

 

प्रतिरोध हृदयेश मयंक की कविताओं का एक प्रमुख स्वर है, जिसकी विशिष्टता यह है कि यहाँ कवि अपनी ज़मीन पर मजबूती से खड़े रहकर आक्रामक भाषा का प्रयोग न करते हुए संयत स्वर में सत्ता-तंत्र को चुनौती देता हुआ दिखाई देता है। ‘आओ सूरज स्वागत है’ कविता देखें - आओ सूरज स्वागत है/ गाँव की चुंगी/ और महलों के बीच बनी/ झुग्गियों पर/ ... पर, अबकी/ बहरों के देश में/ आँखें खोल कर आना …। महामारी की विभीषिका के दौरान प्रशासन की लज्जास्पद लापरवाही एवं आम जन की मर्मांतक पीड़ा पर भी कवि ने अपनी लेखनी चलाई है। ‘कैसे हो मित्र’ में कवि कहता है - जब नहीं बची रही सत्ताधारियों के पास लाज/ मेडिकल स्टोर्स पर नहीं बची रही दवा/ दलालों ने दबोच ली सारी ऑक्सीजन/ फिर भी कैसे बचे रह गए मित्र ...। महामारी के दौरान अनगिनत लाशों को गंगा में बहाए जाने की हृदय-विदारक घटना पर आधारित कविता ‘गंगा सिर्फ एक नदी भर नहीं है’ जितनी प्रतिरोधात्मक है उतनी ही मार्मिक भी।

विडंबनाओं से भरपूर  इस नृशंस समय में देश के लोकतंत्र को बिल्कुल भिन्न एवं नए ख़तरे का सामना करना पड़ रहा है, और वह है वर्तमान सत्ता-तंत्र द्वारा लोकतंत्र की आवश्यकता को ही सिरे से नकारा जाना। इस नई व्यवस्था के स्थायीकरण के लिए  विरूपित इतिहास, अनर्गल साहित्य एवं अपसंस्कृति के सूक्ष्म औजारों से जनता के  दिमागों की सर्जरी की जा रही है। इस महाषड्यंत्र के विरुद्ध कवि के प्रतिरोध का स्वर ‘बौखलाई नदी’ में देखें - आओ मिलजुल तलाशें/ अपने आस्तीन में छिपे/ सभ्यता और संस्कृति के बिल में घुसे/ ज़हरीले साँपों को/ और कुचल दें उनके फन …। कवि के सरोकार का दायरा आर्थिक रूप से निचले पायदान पर खड़े शोषण के शिकार आम आदमी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसमें दलित एवं स्त्री भी उसी शिद्दत के साथ आते हैं। इन तबकों के लिए कवि के मन में मात्र संवेदना अथवा सहानुभूति नहीं बल्कि गहरी तदनुभूति भी है। ‘माई-बाप’ कविता में एक दलित का संघर्ष औऱ स्वाभिमान देखें – मुझसे, मेरे पुरखों से नहीं हुई बेअदबी/ पर बच्चों से भी नहीं होगी/ कहा नहीं जा सकता …। इसी तरह नौकरीपेशा महिलाओं पर कविता ‘एक दिन’ की पंक्तियाँ हैं - एक दिन/ पूरा विश्राम का हो/ जब घर न आए कोई मेहमान/ पतिदेव उपवास रख लें/ एक दिन/ जब बच्चे नींद में हों/ उतर कर आए कोई परी/ टिफ़िन में भर जाए नाश्ते का सामान…।

 

साहित्यिक व सांस्कृतिक क्षेत्र के पाखंडियों की भी कवि ने अच्छी खबर ली है। ‘तुम चुप क्यों हो’ कविता देखें – तुम गुनिया हो/ जोड़ते घटाते रहते हो/ संबंधों का हिसाब-किताब/ तुम एक शातिर जालसाज़ हो/ तुम्हारे बहीखाते में मक्कारी है …। इसके बरअक़्स एक ईमानदार कवि किस हद तक असहाय है, यह ‘जगह’ शीर्षक कविता में कुछ इस तरह से अभिव्यक्त हुआ है - मैं ख़ामोशी को उतारना चाहता था कविता में/ उतर आया शोर/ मैं अमन को उतारना चाहता था/ कविता में  उतर आई आग/ मित्रो यह कैसा समय है कि/ जो हम चाहते हैं वह नहीं हो पाता …। इस परिदृश्य में एक संवेदनशील कवि का अपराध-बोध से भर जाना एवं पुरखों से क्षमा याचना करना स्वाभाविक ही है। ‘पिता क्षमा करना’ कविता देखें - पिता क्षमा करना/ हम नहीं सँभाल पाए तुम्हारी विरासत/ बच्चों के लिए हम नहीं छोड़ पाए अमन-चैन/ हमने बाँट डाली मानवता/ कहने को तो चाँद तक हो आए हम/ पर नहीं रख पाए शुद्ध हवा जल तक भी …।

 

जहां तक शिल्प का सवाल है, संग्रह की कविताओं में अलग-अलग पैटर्न देखने को मिलते हैं। बीच-बीच में तुकांत कविताएँ भी हैं। कुछ उर्दू नज़्म सी तहरीरें  भी हैं। अभिधा की बहुलता में लक्षणा और व्यंजना का भी प्रयोग खूब हुआ है। विषयों में पर्याप्त विविधता है। बिंब-विधान में ताज़गी है। ‘गिरना’ कविता में तो गिरना भी उत्सव बन जाता है - गिरना ऐसे/ जैसे गिरते हैं वृक्ष से फल/ गिरना ऐसे/ जैसे गिरती हैं बूँदें/ रेत पर…। ‘ईंट की आत्मकथा’ कविता रहीम के दोहे की याद दिलाती हैं जिसमें ‘पानी’ अपने श्लेषार्थ  के साथ प्रयुक्त हुआ है। अंतर मात्र यह है कि इन पंक्तियों में रहीम के मोती, मानुष, चून की जगह ईंट, सोना और मानुष हैं, और ‘पानी’ के स्थान पर ‘ताप’ है - तपना ज़रूरी होता है/ ईंट, सोना, मानुष तीनों के लिए …। ‘अथ श्री चावल कथा’ तो नज़ीर अकबराबादी की ‘रोटियाँ ’ की याद दिलाती है।

 

हृदयेश मयंक की भाषा शब्दाडंबर से  रहित सामान्य बतकही की भाषा है। सघन आत्मीयता भरे सीधे-सरल शब्द पाठक के हृदय में सहज ही बहुत गहरे उतर जाते हैं। कविता पढ़ते हुए पाठक को महसूस होता है मानो वह  कवि का पड़ोसी हो, और कवि देहरी पर बैठ उसके साथ सुख-दुख की बातें कर रहा हो। एक तरह से देखा जाए तो ये कविताएँ गहन ऐंद्रिक अनुभूतियों से भरपूर हैं। भावनाएँ इन कविताओं में अपने  हर रंग में नमूदार होती हैं। मनुष्य के मनुष्य एवं प्रकृति के साथ स्वाभाविक संबंधों की तरंगें जिस तरह से अनुभूतियों की उत्कटता के साथ पाठक को संवेदित करतीं हैं, वह निश्चित ही इस विशिष्ट भाषा-शैली की वजह से ही सम्भव होता है। हृदयेश मयंक की कविताओं में देश-काल एवं कथ्य के अनुसार देशज शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। शायद इसीलिए दो सौ से अधिक पृष्ठों के इस संग्रह में प्रारंभ से अंत तक कविता की पुरवाई सी बहती प्रतीत होती है।

 

कुल मिलाकर ‘सिवान में बाँसुरी’ विविध मानवीय भावनाओं, कल्पनाओं और स्वप्नों को स्वर देने वाली कविताओं का ऐसा कोलाज है जिसमें ग्रामीण से लेकर नागरी जीवन का हर रंग शामिल है। संग्रह की अंतिम कविता ‘हमारे पूर्वज’ जो कि मानव की वनमानुष से मनुष्य बनने की यात्रा को संबोधित है, इस बात को रेखांकित करती है कि सभ्यता की यह यात्रा सहजता और नैसर्गिकता के नकार और कृत्रिमता के स्वीकार पर आधारित रही है। और यही आज के मनुष्य के दुखों और मनुष्य जाति के समक्ष मुँह बाए खड़ी तमाम समस्याओं का कारण है। सभ्यता की यात्रा में मनुष्य जाति ने क्या खोया है, इस चर्चा के बीच अंतिम उद्धरण के तौर पर भविष्य के प्रति आशा एवं उत्साह से भरपूर ‘बड़ी नहीं यह रात’ कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं - देख रहा आकाश/ ज़मीं है देख रही/ खुद विपदा स्तब्ध भाव से निरख रही है/ हम में दम है/ हम में बल है/ हमको नेह अपार धरा से/ इसीलिए यह विपदा आकर टल जाएगी/ बड़ी नहीं यह रात सुबह तक ढल जाएगी …।

इस शब्द-बहुल समय में जबकि शब्द अपनी अर्थवत्ता एवं जीवन-मूल्य अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं, मीडिया मानवीय चेतना के एक बड़े हिस्से पर क़ाबिज़ है, सारा आकाश  दृश्यों और ध्वनियों की तरंगों से ठसाठस भरा हुआ है, सूचनाओं के अंबार में दबकर व्यक्ति की अंत:प्रज्ञा लगातार क्षीण एवं निष्प्रभावी होती जा रही है, संभवतः कविता ही मनुष्य की अंतिम शरण है। और कविता यदि मनुष्य से अपनी जड़ों की ओर लौटने का आह्वान करती हो, उसे अपने वास्तविक-निर्मल-नैसर्गिक स्वरूप की याद दिलाती हो, जीवन संघर्ष में अपनी पूरी क्षमता, आशा, उत्साह, एवं विवेक के साथ टिके रहने का संदेश और संबल देती हो, और अंततः उसमें स्वयं के प्रति विश्वास जगाती हो, तो निश्चित ही वह व्यक्ति ही नहीं समाज को भी आमूल-चूल परिवर्तित अथवा रूपांतरित कर देने का माद्दा रखती है। हृदयेश मयंक का नया कविता संग्रह 'सिवान में बाँसुरी' कविता की इसी परिवर्तनकारी शक्ति को रेखांकित करता है।

प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन, मुंबई           मुखपृष्ठ: विज्ञान व्रत

पुस्तक प्राप्ति हेतु लिंक: https://amzn.eu/d/hZCIXwf


कोई टिप्पणी नहीं:

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...