वैश्विक पूंजीवाद /तकनीकी / सरकारों
और सामाजिक संगठनों का
समूह और आम जनता @ * विकास जारी रहता है , लेकिन
नहीं मिटती गरीबी और समस्याएं *
* अमिताभ शुक्ल
अविकसित ( पिछड़े ) और विकासशील देशों में समाज और सत्ता पर काबिज
वर्ग द्वारा सुनियोजित और संगठित रूप से
मिथक और नारों को प्रचारित किया जाता है।
इससे
समाज का नेतृत्व और सत्ता पर पकड़ बनाए रखने में आसानी होती है।
यह
संपूर्ण विश्व का दृश्य रहा है/ है।
विकसित
देशों द्वारा प्रारंभिक रूप से सरकारी और गैर सरकारी सहायता द्वारा इन दोनों प्रतिष्ठानों
का उपयोग किया जाता रहा / अभी भी किया जा रहा है।
फिर , पूंजीवाद के प्रसार और इस शक्ति का वैश्विक कॉकटेल सुदृढ़ हो जाने के बाद यह
दायित्व इनके पास आ गया .
फिर , पूंजीवादी लॉबी की पकड़ तकनीकी पर मजबूत हुई ,तो यह कार्य इनके द्वारा और सुगठित रूप से ऊपर के स्तर ( सरकारों के
माध्यम से ) किया जाने लगा ।
दूसरा
वर्ग : सामाजिक क्षेत्र / स्वयं सेवी संस्थाएं विदेशी और उनके देशी आकाओं से भरपूर
आर्थिक लाभ परियोजनाओं के रूप में लेते रहे हैं/ ले रहे हैं।
लेकिन , जैसा पूर्व में उल्लेख किया आर्थिक सहायता का स्वरूप और
उद्देश्यों की प्राप्ति की प्रविधि बदल जाने से इनको मिलने वाली आर्थिक सहायता कम
होने लगी है।
लेकिन ,पूर्व में भी और अभी भी इन स्वयं सेवी संगठनों द्वारा सत्ता
और पूंजीपतियों के एक वर्ग से अदृश्य रूप से अदभुत तालमेल बना कर रखा जाता रहा है।
अपवाद
स्वरूप जो संस्थाएं , संगठन अथवा
समूह कार्य करते थे / हैं उनके स्वरूप और संघर्ष की शक्तियों में भी कमी आई हैं।
इन
स्थितियों में वैश्विक स्तर पर पूंजीपति लॉबी को जो एजेंडा चलाना होता है
अथवा सरकारों को जो एजेंडा प्रचारित करना
और चलाना होते हैं वह और भी अधिक सुघड़ता से होने लगे हैं।
भारत
में संस्थाओं रूपी मठों की स्थिति को भी उपरोक्त प्रक्रिया के कारण आघात लगे हैं ।
लेकिन , बीज पूंजी और इमारतों ,अधिसंरचनात्मक
सुविधाओं और कुछ दान और आर्थिक क्रियाओं के कारण इन पर काबिजों को अधिक परेशानी
नहीं है.
सरकारें
वास्तविक रूप में न्यायकारी, सुधारात्मक
और कल्याणकारी नहीं होती हैं लेकिन , इन तीनों तत्वों के
बिना भी अकूत बजट ( बढ़ते टेक्सों से प्राप्त अजगर जैसी राशियों और देशी , विदेशी कर्जों से प्राप्त आर्थिक संसाधन ) से ऐसे गैर विकास के कार्य और
दिखावटी विकास कार्य करती रहती हैं जो बोते के लिए प्रचार के कार्य में आते हैं लेकिन ,ठेकों से अकूत रकमें पहुंचती उस पूंजीपति वर्ग की जेब में ही हैं।
तकनीकी
प्रगति से आकाश ,तारों ,
चंद्रमा ,मंगल की बातें और यात्राएं भी होती
रहती हैं जिनके आविष्कारक वही होते हैं जो दीर्घकालीन व्यापार की योजनाएं बनाते
हैं ।
इसे
विकास और आने वाले समय में " आपकी दुनिया ही बदल जाएगी " जैसे मुहावरों
से सजा कर प्रस्तुत किए जाने से आम जनता
को खुश होने और वाह , वाह करना
पढ़ जाता है।
इन
सबके साथ मध्य : सुविधा प्राप्त वर्ग भी रहता है जिसे उनकी
उपयोगिता और छमता अनुसार राशियां / लाभ प्राप्त होते रहते हैं।
इस तरह
पूंजीवाद ,तकनीकी पूंजीवाद ,
सरकारों ,सुविधा प्राप्त वर्गों के एजेंडे /
कार्य / लाभ / हिस्सेदारियां जारी रहती हैं।
विकास
के नाम की योजनाएं भी और दीर्घकालीन योजनाओं के अनुसार " बिल्कुल नए ब्रांड
के ओरिजनल मुहावरे ,मिथक और
सब्ज बागों " का सिलसिला भी जारी रहता है।
जो
सत्ता में हैं वह अच्छे ,जो विपक्ष
में हैं उनके लिए सरकारें खराब / प्रतिगामी ।
बिना
कुछ ठोस ,सार्थक और जन कल्याण कारी किए विपक्ष भी खोज करता रहता है
नारों और वायदों की ताकि ,सत्ता मिले अगली बारी ।
इन
सबके बीच वास्तविक जनता रहती है बेचारी ,जिनकी समस्याएं कभी समाप्त नहीं होती.
विश्व
से गरीबी ,भुखमरी और समस्याएं भी
कभी समाप्त नहीं होती।
कभी
पर्यावरणिक संकट आ जाते हैं ,कभी महामारी
और कभी युद्ध । जिनके जनक भी होते हैं विश्व के संचालक पूंजीपति ।
वैश्विक
और राष्ट्रीय सम्मेलनों का सिलसिला भी सदा रहता है जारी क्योंकि , समस्याओं के निवारण की दिशा में नई योजनाओं और नियमों की
जिम्मेदारी भी उन पर ही होती हैं।
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