एसोसिएट प्रोफेसर व हिंदी विभागाध्यक्ष
बेथुन कॉलेज, कोलकाता
प्रेम
का मानकीकरण
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डॉ.
रंजना शर्मा
'तुम्हें मैं
चाँद कहता हूँ, मगर उसमें भी दाग है', 'लिक्खे जो खत तुझे वो तेरी याद में, हजारों रंग के
नज़ारे बन गए,' और 'फूल तुम्हें भेजा
है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है'—ऐसे
असंख्य सदाबहार और दिलकश गीतों में प्यार के इज़हार के लिए जो नज़्में पिरोई गयी
हैं, वे किसी ऐसे प्रेम के लिए मोहताज न थी, जिसमें प्रेम लेन-देन जैसे व्यापार पर टिका हुआ हो। "मन लेहु पै देहु
छटाँक नहीं" प्रेमी कवि की यह शिकायत भी बस उलाहना भर ही है कोई भयानक अपराध
का संकेत नहीं। ऐसा लगता है इन गीतों में नैसर्गिक प्रेम खुद ही किसी पहाड़ी झरने
में तब्दील होकर स्वयं सहज सौन्दर्य लहरी बनकर प्राकृतिक कारणों से बह निकला हो।
लेखिका (महादेवी वर्मा) जब 'सोना' (शावक
हिरणी) को अपने घर लेकर आती हैं। कुछ ही दिनों में सोना उनसे घुल- मिल जाती है।
लेखिका कहती हैं, कुछ महीनों बाद जब उसकी उम्र अपने संगी
हिरण को पाने की होती है, तब उसकी आँखों के कोर अनायास
चमकीले और गहरे काले हो उठते हैं। बड़ी-बड़ी आँखों से वह कभी-कभी गुमसुम सी चुपचाप
जंगल की ओर देखती है, तो कभी खामोश बैठ जाती है, ऐसा लगता है जैसे अपने अजनबी प्रियतम का इंतज़ार कर रही हो कि न जाने कब
उसका प्रिय उससे मिलने उसके पास आ जाए। यही तो स्वाभाविक प्रेम की दशा है। एक
हिरणी के लिए प्रकृति जो रहस्य रचती है,उम्र के एक दौर में
आकर वह उसे पाने के लिए व्यग्र हो उठती है, ललक उठती है।उसकी
व्यग्रता, अपने संगी हिरण को पाने की आकुलता में उसकी बेचैन
तड़प आहें भरती है। ठीक उसी प्रकार प्रकृति द्वारा निर्मित हर नर और मादा में स्वयं प्रकृति ने सहजता से सभी सहजात गुण
दे रखें हैं, जो समय आने पर स्वाभाविक तौर पर उसकी माँग करने
लगते हैं। यद्यपि यह सवाल बहुत जटिल है और कहा जाना तो और भी बहुत मुश्किल है कि
प्रेम किसी उम्र विशेष में ही होता है या प्रेम उम्र का मोहताज है। प्रेम तो
प्रकृति की बनाई हुई अविरल,अफुरंत धारा की तरह है जो अनवरत
किसी न किसी रूप में पहाड़ी नदी की तरह बहती रहती है। मनुष्य के जीवन से प्रेम के
चले जाने का मतलब होता है उसके जीवन का पूरी तरह से सूख जाना। सूखा जीवन एक जैविक ढाँचा भर रह जाता है। जैसे कड़ाके
की सर्दी के बाद बसंत की गुनगुनी धूप अच्छी लगती है, जैसे
पतझड़ के बाद पेड़ों पर निकल आई नई-नई शाखें अच्छी लगती है। ठीक उसी तरह प्रेम का
जीवन में आना प्रकृति के उस आनंदमय स्वरूप को पाने के समान है जिसके आनंद रूपी
सुवास से जीवन भर उठता है। लेकिन इधर प्रेम के उदारीकरण ने अपनी उदारतावश इतने रूप
और अवसर प्रदान किया कि अब पहचानना मुश्किल है कि सही अर्थों में प्रेम है क्या?
दरअसल प्रेम तो वही
रहा पर उसके स्वाद आस्वादन करने वाले चूक गए और अपने जीवन के सबसे बहुमूल्य वस्तु
को कौड़ियों में तब्दील कर दिया। और खुद छूछा बनकर इधर- उधर जीवन भर मुँह मारता
फिरता हुआ एक दिन गोलोकधाम के लिए रवाना हो लेता है। वास्तव में आज का आधुनिक मनुष्य
किसी तरह दूध का स्वाद घोल (छाछ) से पूरा किये जा रहा है।
बहुत दिन तो नहीं,लेकिन
अपने छुटपन की बातें हैं। जब शाम ढलने लगती तो रात का आसमान उसे अपनी आगोश में
लेकर थपकियाँ देकर सुलाने लग जाती। ऐसे समय में ही, न जाने
क्यों हमारी आँखों में भी नींद की झपकियाँ यों भरने को आती, जैसे कूएँ में डूबी बाल्टी में
पानी।लेकिन बड़ों का डर, डाँट खाने का डर, यहाँ तक कि फिर पीटे जाने का डर, आँखों की पपनियों
को पपनियों से मिलने न देता । फिर एक बात
की बड़ी उत्सुकता रहती और जैसे-जैसे शाम की छाया गहराने लगती। ये उत्सुकता ऐसे
हावी होने लगती कि बस पूछो मत। पता नहीं कब काम-काज में ऊलझी घर की सारी बहूएँ,
ब्याही बेटियाँ, बड़ी और थोड़ी कम बुढ़ाती
औरतें आकर यहीं ओसारे पर इकट्ठी हो जायेंगी जिसका हम सब बेसब्री से इंतज़ार करते
थे।और फिर उनका एक एक कर आना और साथ में
गुपचुप और खुसर-पुसर वाली कहानियों के पिटारे का खोला जाना। एक तिलिस्म का जाल बुन
जाता था। जिसमें न चाहकर भी थीरे-धीरे हम सभी जो अध झपकाईं में पढ़- लिख रहे होते
थें,उन सभी में एक अनदेखी,अनोखी बिजली
की करंट माफिक कुछ दौड़ जाती थी। पता नहीं कहाँ-कहाँ से किन-किन जन्मों से ताया,
चाची, बुआ, बड़की भौजी
इन कहानियों को, अनंत घटनाओं को अपने भीतर बड़े अंदाज से
सुरक्षित ढंग से सहेज कर रखे हुए आती और धीरे-धीरे इस तिलिस्म के पिटारे का मुँह
खोलती। हमें इस तिलिस्म संजाल में प्रवेश करने में एको मिनट न लगता था। यही बातें
जब वे आपस में एक दूसरे से बोलने बतियाने लगती हैं तब पता नहीं क्यों और कैसे उसी
वक्त नींद की गहरी-गहरी झपकियाँ आॖँखों से
धीरे से उतर कर किसी कोने में जा बैठती और दोनों कान चौक्कने हो जाते। सिर्फ मेरी
ही नहीं, मंजू दी को तो कई बार मैंने यह भी देखा कि जब सभी
चाचियाँ, ताई, बुआ, ईया, नईकी भौजाई और माँ आपस में धीरे-धीरे गपिया रही
होती थी तो मंजू दी कुछ ज्यादा ही चौक्कनी हो जाती,जैसे वह
उनकी बातें पढ़ने के बहाने सुन नहीं रही हो, सीधे गटक रही
हो। मजा तो खैर सभी को आता था। उनकी बातें ही कुछ इतनी रसीली होती थी कि क्या कहने
? बस एक ही समस्या थी कि सारी बातें इस छोटे से किसमिस
साइज दिमाग में अँट नहीं पाती और अधिकांश
बातें सर के ऊपर से कहीं सूदूर खेतों को पार करते हुए जंगलों के किनारे जाकर
धराशायी होकर चारों खाने चित्त पड़ जाती या एक गहरे काले कृष्ण गह्वर का निर्माण
कर उसमें डूब जाती।
खैर, वे कुछ
ज्यादा अच्छे दिन थे, जिसमें पढ़ने- लिखने का इतना बोझ न था
और अगर ज्यादा पढ़ाई की बात की, तो आजी तुरंत कह उठती थी कि 'इत्ता
पढ़ें क्यों बेटियन? इको का नौकरी करवानी है? अब यही दिन देखन को बाकी रह
गया। जोन मेहरियन नौकरी करिहें तो छोरे घर में बैठे टुकुर- टुकुर रोटियाँ बेलेंगे
औ' तोड़ेंगे का?' खैर आजी को क्या पता
था कि पढ़ना-लिखना सबके वश की बात न थी और दूसरी तरफ पढ़ना-लिखना कितना जरूरी था।
पर शाम ढले जब आँखों के कोनों में नींद की रानी अपना बिस्तर लगा रही होती थी,
तभी न जाने कहांँ से ये सारी औरतें जिन्न के माफिक अपने सारे कामों
-काजों से निपटारा करके लंद-फंद सी ओसारे में सुस्ताने आ बैठती और तब इनकी
खुसर-पुसर कथा बाँचा जाना एक नये इतिहास
के रचे जाने से कुछ कम न होता। कौन जाने ऐसी बातों की झोलियांँ इन्होंने अपने साथ
कब से टाँग रखी थी?और जब शाम घनेरी होती, आसमान जब थोड़े अंधेरे से और गहरा अंधेरा होता, रात
की चाँदनी चारों ओर छिटकने को बेताब होती ऐसे में इनकी रस भरी बातें मायावी संसार
रचने के लिए वृत बनाने लगती जिसमें पड़कर
हम सभी को ऐसा लगता जैसे पृथ्वी के बाहर किसी दूसरी पृथ्वी पर हम सभी एक साथ अपने
आप विचरण करते हुए पहुँचे गए हैं।और यहाँ प्रेम-कथाओं का जैसे अंबार लगा हो। किसे
सुने, किसे चुने, किसे याद रखें,
किसे तह लगाकर अपने सिरहाने रख कर सो जाएँ? बात
दरअसल यह थी कि यह सारी औरतें प्रेम में पगी हुई औरतें थीं। जिनके जीवन में हर रोज
प्रेम के कुछ नए फूल उगते थे और शाम के समय उन फूलों की सुगंधी आपस में बाँटने यह
एक जगह इकट्ठी हो जाती थीं। ऐसा नहीं था कि हर बात में, हर
एक की सहमति होती थी। ऐसा होना स्वाभाविक भी न था। लेकिन संसार के सख्त और रूखी
जमीन के ऊपर दाना-पानी के जुगाड़ वास्ते नौकरी के लिए बाहर गए अपने पतियों की
सलामती के बीच इनके मन के प्रेम के फूल शाम होने तक कुमुदिनी की भाँति खिल उठते
थे। ऐसा लगता जैसे चाँद की रोशनी पाकर मन के भीतर दिनभर की कुभ्लाई कुमुदिनियाँ
अपना-अपना सर उठा कर जी भर अपने सुवास से अपने सांसारिक जीवन के सभी खोह,सारे खंदक, सारे ऊबड़-खाबड़ भर देना चाहती हो। अजीब
सी थी वह दुनिया, अजीब सा था वह माहौल।आसमान आज के जैसा ही
था लेकिन इतनी धुंध न थी। उन रातों में जगमगाते तारे बच्चों को दिखाई देते थे।
वैसे बच्चों को ही क्यों?बड़े-बूढ़े भी आसमान के तारों को
अनायास साफ-साफ देख सकते थे और अक्सर मौसम का मिज़ाज पहले ही सही-सही बता दिया
करते थे। कभी-कभी आसमान को देखकर वे भी रंगीन कल्पनाओं में खो जाते थें। उन दिनों,
आज की तरह आसमान अपना मुँह धुआँ-धुआँ किए नहीं फिरता था। अपनी बेदाग उपस्थिति में
सभी को आसरा दिया करता था और प्रिय तक संदेश पहुँचाने के लिए तो आसमान हमेशा तैयार
रहता था। इसके लिए वह अक्सर बादलों को दौड़ा दिया करता था।
नईकी भौजी पहले चुप
लगा कर बैठी रहती थी। सुना जाता था कि वह कुछ महीनों तक कॉलेज की पढ़ाई भी करके आई
हैं। उनके पिताजी ने उनकी पढ़ाई बीच में
ही इसलिए छुड़वा दिए थे क्योंकि कॉलेज का माहौल ठीक नहीं होता। इस माहौल में लड़कियों
के बिगड़ जाने की बड़ी संभावनाएँ होती हैं।अब पिताश्री को कौन समझाए कि लड़कियाँ
ही नहीं लड़के भी कॉलेज पहुँचकर बौरा जाते हैं। फिर उन पर ब्याह का जुआ यह कहकर
चढ़ा दिया जाता है कि बहुरिया इसे सही रास्ते पर ले आयेगी। पर नहीं महाशय, बात बिल्कुल भी ठिकाने की नहीं लगती। लड़के या लड़कियाँ कॉलेज जाए या ना
जाए अगर बिगड़ना चाहे तो कहीं भी बिगड़ सकते हैं। चाहे वह घर हो या खेत या कॉलेज
हो या दोस्तों की महफिल या चौपाल या नुक्कड़। वैसे हमारे बड़े- बुज़ुर्ग इतने भी
बुरे न थे और न ही इन बातों से अनजान थें। उन्होंने भी तो अपने जवानी के दिनों में
ऐसे ही किसी स्वप्निल रात में आकाश तले कभी न कभी जरूर गुजारे होंगे। खैर बड़ों की
बात चली, तो प्रेम की बात बिल्कुल नहीं होनी चाहिए क्योंकि
हमारे बड़े-बुज़ुर्ग प्रेम करते तो है लेकिन प्रदर्शित नहीं करते। अब बात दूसरी
है। अब तो हर उम्र का छोरा हो या छोरी, बड़ा हो या छोटा, बड़े ताऊ, रामपुरिया
चाचा, सीतामढ़ी के मामा, यहाँ तक की
दादाजी,नानीजी बन चुकी हमारे लखनऊ के दूर के रिश्ते के
रिश्तेदार, प्रेम की गली में सब छुट्टे सांड की तरह घूमते
नजर आते हैं। अजीब माहौल है।अब प्रेम पर कोई बंदिश नहीं। न कोई जाति(तब भी न थी)है
न उमर, न पसंद न नापसंद और न परंपरा का बोझिल तनाव। बस प्रेम
ही प्रेम। देश, काल , कारण किसी चीज से
कुछ लेना देना नहीं। अब प्रेम सार्वभौमिक, सर्वकालिक,
सर्वदेशीय, सार्वजनिक, सबके
हिताय, सबके लिए दुर्लभ से अति सुलभ, सुप्राप्य,
अति सुंदर,अति सामान्य रूप में उपलब्ध होने
वाली वस्तु बनकर सामने आयी है।
अरे, अरे! आप घबराइए नहीं। हमें प्रेम का सरलीकरण नहीं करना हमें तो प्रेम का
मानकीकरण करना है। मानकीकरण दरअसल एक ऐसा शब्द है जिसे भाषाविदों ने बड़े जटिल
सूत्रों में बांध रखा है। और इसे ऐसी भाषा के लिए प्रयोग करते हैं जिनके प्रचलन
में अनेक रूप मौजूद होते हैं, फिर उन्हें तोड़-जोड़ कर हमारे
मुख विवर को उसके अनुरूप ढाला जाना पड़ता है आदि। जैसे अमुक भाषा का मानकीकरण,
तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमुक भाषा स्टैंडर्ड है या उसका
स्टैंडर्डाइजेशन किया गया है।अब बात यह होती है कि स्टैंडर्ड किया जाना भाषा के
अन्तर्गत एक प्रक्रिया है जिसके प्रथम चरण में किसी भाषा को मानक स्वरूप प्रदान
किया जाता है।दूसरे स्तर पर उस भाषा को प्रयोग के संदर्भ में सामान्य प्रकार की आम
सहमति बनाई जाती है और तीसरा स्तर यह होता है कि मानक की गई भाषा का मानकीकृत रूप
ही प्रयोग में लाया जाता है। कुछ इसी प्रकार का प्रावधान भाषाओं के साथ आज हाईटेक
प्रेम ने भी ग्रहण किया है।अब सवाल उठता है कि भाषा के मानकीकरण के साथ प्रेम के
मानकीकरण का क्या संबंध है?
यूं समझिए बंधुवर! कि संबंध तो भई होना ही होना
है। क्योंकि प्रेम भी भाषाओं में ही प्रदर्शित की जाती है। यद्यपि प्रेम प्रदर्शन
के अब अनेक नए-नए हथकंडे, औजार और टूल्स इस्तेमाल किए
जा रहे हैं। तथापि प्रेम को कहीं ना कहीं किसी ना किसी तरह भाषाओं पर निर्भरशील
होना ही पड़ता है। अब सवाल यह उठता है कि जब प्रेम का मानकीकरण की बात चल रही है
तो फिर इसका सरलीकरण कैसा होगा? वास्तव में अगर पड़ताल की
जाए तो हमारे पिछले ओसारे पर बैठी हुई औरतों के प्रेम में एक अजीब किसम का सुवास
हुआ करता था, जिसमें भदेसपन के साथ बड़े जतन से प्रेम को संभालने के लज़ीज़ नुस्खे भी हुआ करते थें।अब जैसे बड़की
भौजी को अगर संझला देवर मन ही मन पसंद करता है तो बड़की भौजी हमेशा ख्याल रखा करती
थी करण बउआ(संझला देवर) के हिस्से में खाने की चीजें और दूसरे जरूरत के सामान सही-सही पहुँची या नहीं, यह
ख्याल ढंग से रखना। ठीक उसी तरह संझला देवर भी अपनी बड़की भौजाई के लिए गाहे-बगाहे
कुछ न कुछ अपनी जेब से या दूसरे की जेब से कुछ चुरा-छुपाकर जरूर ले आते और यह कहते
हुए, चुपके से उनके कमरे में रख जाते कि 'बस उधर से आ रहा था, आँखें पड़ी तो सोचा आपको पसंद
है। तो आपके लिए ले आया।' खैर ऐसे मुहावरेदार अटल प्रेम की
भूमिका ही अलग हुआ करती थी। आजकल की तरह उसमें ओपनिंग के इतने सुअवसर नहीं होते
थे। दरअसल सारा का सारा झमेला हमारी जड़ व्यवस्था में है। अरे, अरे चौंक मत जाइये बंधुवर! व्यवस्था का मतलब हम प्रशासनिक व्यवस्था की बात
थोड़े न कर रहे हैं, हम तो समाज व्यवस्था की बात कर रहे हैं
और इस व्यवस्था पर जिस तरह से गूगल बाबा और सोशल मीडिया दादा हावी हुए हैं तब से पहली कक्षा में छोटका अयनवा
ललमुनिया से कहता है हम तो बिहा तोरे से करेंगे। आई लव यू । अब आप यह बताइए 'आई लव यू'
का मतलब अयनवा को भले ही अंग्रेजी में समझ में आए या ना आए या कि
ललमुनिया के भेजे में आई लव यू का सही अर्थ पहुँचे या कि ना पहुँचे, लेकिन दिमाग के कंप्यूटर में यह बात वाइरस की तरह चिपक जाती है न। उसे
लगता है कि आई लव यू इस संसार का सबसे बड़ा मारक ब्रह्मास्त्र है, जिसके द्वारा वह इस पूरे संसार को एक ओर अपनी शरण में ला सकता है दूसरी ओर
पूरी दुनिया की ईट से ईट बजा सकता है। यह दूसरी बात है की अयनवा कुछ ही दिनों के
बाद यही बात ललमुनिया के अलावा और दस लड़कियों को एक के बाद एक को कहता फिरता है।
अब प्रयोग की स्थिति से अगर देखा जाए तो प्रेम के मानकीकरण का यह दूसरा चरण को भी
हम पार कर लेते हैं। अभी पहले और दूसरे चरण की महिमा गान यद्यपि बाकी है, पर उसे सामान्य मानकीकरण के अंतर्गत रखकर थोड़ी ढीली की जा सकती है।
दरअसल प्रेम नाम की
चिड़िया जो कभी किसी कालखंड में हमारे दिलो-दिमाग में एक खूबसूरत सा माहौल पैदा
किया करती थी या जिसके नाम मात्र से रस की धार से सहृदय का ह्रदय सिहरन से भर उठता था। वहाँ आई लव यू के बहुतेरे तीर दिन भर
में हृदय को इतना वेध जाते हैं कि अब इसके नए इलाज और उपचार की कोई आवश्यकता आन
पड़ती जा रही है। काश ऐसा होता कि प्रेम प्रदर्शित करने के पूर्व हर प्रेमी हर
प्रेमिका,
जो अब तक प्रेमी-प्रेमिका नहीं बने हैं, वे
इसके मानक स्वरूप को अच्छी तरह से अपने हृदय में समा लेते और फिर प्रेमाभिव्यक्ति
के लिए अपनी आतुरता प्रदर्शित करते।परंतु यहाँ एक बहुत बड़ी समस्या है। वह यह कि
आखिर वे कौन से आयोग होंगे जो प्रेम का मानकीकरण करने के लिए चेयरपर्सन और सदस्य
के रूप में चयनित किए जायेंगें। अब हालात तो यह है कि भूतों का निवास सरसों में
है। जिस सरसो से भूतों को झाड़ना, भगाना था उसी में भूत जा
बैठा हैं।महा मुसीबत। आखिर चयनित किए जाएं भी तो कैसे? आखिर
नव पीढ़ी के साथ-साथ पुरातन और अति पुरातन पीढ़ियाँ भी अपने-अपने ढंग से प्रेम के
नए-नए तरीके आजमा रही हैं और कहीं कहीं तो ये ऊंचाई की शिखर तक जा पहुँचती हैं और
कहीं चारों खाने चित्त होकर धराशायी हो जाती हैं। सवाल यह है कि प्रेम का मानक
स्वरूप तय करने के लिए जिन विद्वानों का चयन किया जाना चाहिए उन विद्वानों की
पारंगतता पर पहले सवाल उठाया जाना नव पीढ़ियों के द्वारा बहुत जायज है क्योंकि यह
धारदार चलंतिका जब से उनके हाथों में आई है तब से इस चलंतिका ने हमारे-आपके जीवन
के हर आयाम को एकदम आमूलचूल बदलकर रख दिया है। आज का हर व्यक्ति बदला बदला सा नजर
आता है। वह नये-नये, चोखे-चोखे इश्तहारों में अपने को तलाश
करता फिरता है। जैसे कुंभ में खोया हुआ सगा भाई खोज रहा हो। उसे अब शाम- सवेरे,
रात-दिन, घर-बाहर, ऑफिस,
बस स्टैंड, टैक्सी स्टैंड, रेलवे प्लेटफार्म कहीं पर भी या तो आप चलंंतिका में लगे हुए देखेंगे या
फिर किसी कल्पना लोक में विचरण करता हुआ
पायेंगे। नए-नए यूनिवर्सिटी के नए-नए प्ले बमों का अध्ययन करने में वह मशगूल दिखाई देगा।
अमुकबाबा, संतदेव,
महंतदेव सारे देवों की देवतागिरी
भी इसी मंत्र पूरित चलंतिका के कारण अलग-अलग तरह से हमेशा डोलता ही रहता
है। इनका हृदय भी हमेशा ऐसे ही परमासाराम बापू बन जाने को आतुर दिखाई देता है जो
अपने भक्त मंडली के सामने भक्तगिरी करते हुए परम ब्रह्मचर्य के दृष्टिकोण से
संकटमोचन जी को भी पीछे छोड़ने का दावा करते हैं। परंतु वक्त आने पर,संध्या ढलते ही इनकी आँखों में भी नींद की हसीन रानियाँ नींद के सदन में
प्रेम के गोते लगाने उतर आती है। आश्चर्यमय है यह दुनिया।आखिर प्रेम से लबालब इस
दुनिया में मानक प्रेम की आवश्यकता ही क्यों आन पड़ी है? प्रेम
तो आवेग की नदी है जिसका मन जब चाहे, जिस ओर चाहे अपनी
वेगवती धारा के प्रवाह से बह निकले। ऐसे प्रेम को मानक के रूप में बाँधकर हीन करना,
उसकी अवहेलना नहीं तो और क्या है? "प्रेम
गली अति सांकरी जामैं दो न समाय"। वह एक समय था जब ऐसी अनमोल बोल बोले जाते
थे लेकिन अब इसे बुडवकपन न कहा जाएगा तो और क्या कहा जाएगा? अब
तो प्रेम सिक्स लेन हाईटेक रोड है। एक साथ कई गाड़ियाँ एक दूसरे का या तो पीछा
करती हुई या एक दूसरे को पीछे छोड़ती हुई आगे दौड़ती चली जा रही है। इस दौड़ में
जो सबसे पहले आगे निकल गया तो वह सिकंदर।नहीं, नहीं सरजी!
सिकंदर तो वह कभी हो ही नहीं सकता। हाँ, यह भले हो सकता है
कि इस दौर में उसे मानक प्रेम के प्रथम चरण को छूने का अवसर जरूर प्राप्त हो जाए।
लेकिन कौन जाने ओसारे पर बैठी हुई औरतों के गपशप की तरह इस प्रेम में, प्रेम की कितनी कुमुदिनियाँ खिलती हैं और कितनी मुरझा कर असमय ही काल
कवलित हो जाने को हैं। यह तो राम जाने।आने वाला समय ही बताएगा क्योंकि अभी
केंद्रीय प्रेम आयोग के सामने चुनौतियों के रूप में समाप्त करने के लिए बहुत सारे
काम पड़े हुए हैं। सामने वैलेंटाइन डे है और वैलेंटाइन डे पर इस प्रेम देवता के
कारण पूरे विश्व में प्रेम का अनायास जो बुखार चढ़ने वाला है उससे तो शायद ही कोई
किसी को बचा पाए।अब आयोग क्या करती है? यही देखने का विषय
है। हम अपनी सारी जिम्मेदारियाँ आयोग के सर मढ़कर लंबी चादर तान कर सोने वाले
हैं।आप भी घबराए नहीं।आप भी सो जाइए क्योंकि ओसारे पर बातचीत करती हुई औरतें अब
धीरे-धीरे करुण स्वर में गुनगुनाने लगी हैं "अबहूँ न आए बालमा सावन बीता जाये,
जाये रे, सावन बीता जाये, हाय रे।
ओसारे में बैठी सरी
औरतें धीरे-धीरे रात के स्वप्निल नींद में जाने से पहले, अंतिम काम के लिए अपने-अपने रसोई घरों में व्यस्त हो गई हैं।
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