सोमवार, 25 दिसंबर 2023

कैसी आग उठी है भीतर? - भरत प्रसाद (कवि,कथाकार और आलोचक प्रोफेसर,हिंदी विभागपूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,शिलांग मेघालय )

भरत प्रसाद (कवि,कथाकार और आलोचक प्रोफेसर,हिंदी विभागपूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,शिलांग मेघालय )  

कैसी आग उठी है भीतर?

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फिर बह चली हैं प्रकाश-रश्मियाँ
 पत्तियों की नस-नस में।
 फिर झुक गये पेड़ आदर में
झुके आकाश  के आगे।
फिर भागा अंधेरा
उजाले की आहट पाकर।
 फिर कोई कृतज्ञ कर गया 
अपनी निर्झर रोशनी से
आत्मा का अणु-अणु सींचकर।
कैसी आग उठी है ?
कैसी प्यास मची है?
भोर की मीठी आहट
पलकें सराबोर कर देती है
अपूर्व आह्लाद से।
सुबह ,संध्या,रात की आंख मिचौली
चैन से सोने कहाँ देती है ?
सिसकता हूँ-
क्यों नहीं पूछा कभी ?
गुमनाम पक्षियों का हालचाल
बुत बनकर क्यों खड़ा रहा ?
 दरख्तों को खड़ा देखकर।
कैसे सह गया अपनी चुप्पी ?
जड़ों की चुपचाप मौत पर।

       (भरत प्रसाद : दिसंबर-023)


 

4 टिप्‍पणियां:

Dosi ने कहा…

Best

अनु ने कहा…

बहुत अच्छी रचना

बेनामी ने कहा…

बहुत शुक्रिया

बेनामी ने कहा…

धन्यवाद अनु जी

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