प्रोफेसर हिंदी विभागपूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय,शिलांग मेघालय )
जनजातीय विमर्श का
पुनर्पाठ : पूर्वोत्तर भारत
प्रभाती सौन्दर्य की
महाकाव्यात्मक जमीन
मानव
जीवन और अनगढ़ प्रकृति के आश्चर्य में डूबा हुआ पूर्वोत्तर भारत विविधताओं का खजाना
कहा जा सकता है। इसके चारों तरफ 05 देश उपस्थित
हैं-बांग्लादेश, भूटान, चीन, बर्मा और थाईलैण्ड। भारत भूमि के लगभग 8 प्रतिशत
भू-भाग में अवस्थित पूर्वोत्तर अपनी संरचना में विकास की असीम संभावनाएं छिपाए हुए
हैं। यहाँ लगभग 400 समुदायों के आदिजन 220 प्रकार की जनजातीय भाषाओं का व्यवहार करते हैं।
सांस्कृतिक
वैविध्य और विस्तार की दृष्टि से नजर में पहला नक्शा खिंचता है असम का। ‘असम’ शब्द संस्कृत के असोमा’ से
बना है। पिछली कई सदियों पूर्व यहाँ आस्ट्रिक, मंगेालियन
द्रविड़ और आर्य आए बस गये। प्राचीनकाल में यह प्रभाती सौन्दर्य का महाकाव्यात्मक
प्रांत ‘प्राक्ज्योतिष’ कहलाता था और
बाद में ‘कामरूप’ भी। जिस तरह मैदानी
भारत की मनमोहिनी सरिता गंगा नदी है, वैसे ही असम में
ब्रह्मपुत्र। यहाँ गंगा से भी अधिक लम्बी है-2900 किमी0,
जबकि गंगा इससे 400 किमी कम है। बराक, बलसिरि, बरगंग, बोरनदी,
भोगदई, बेकी, चम्पावती,
दिबांग, दिसांग, धनसिरी,
दिगारू, दिहिंग, दिखौ,
गाभरू, गदाघट, जांजी,
जिनरी और लोहित नदियाँ असम के भौगोलिक शरीर में धमनियों की तरह बहते
हुए जीवधारियों में प्राणों का संचार करती हैं।
जनजातीय
वैविध्य कुछ इस तरह प्रतिष्ठित है कि एक सिरे को निगाह में लाइए, दूसरा सिरा पहुंच से दूर चला जाता है। बोड़ो, कार्बी,
डिमाशा, राभा, मिरि,
तिवा, मिसिंग, ताइआहोम,
ग्वालपड़िया, कामरूपिया, चुतिया,
सोनोवाल, मेज, सरणिया,
हाजोंग, देउरी, होजाई,
कोच, कछारी, मैतेक,
कुकी, मांगते और चकमा के अलावायहाँ करीब 30 जनजातियों का अस्तित्व देखा जा सकता है।
‘मिसिंग’ या ‘मिरि’ यहाँ की प्रमुख जनजाति है। इनका निवास स्थल ‘भैयाम’ कहलाता है। ‘मिसिंग’
का शाब्दिक अर्थ होता है-‘अच्छा इंसान’। मिसिंग आदिवासी समाज आठ (08) उपजातियों में
विस्तृत है-1. मिसिङ, 2. मयेंगिया,
3.डेलु, 4. तायुताये, 5. पागर, 6. दांबुक, 7. सामुगुरिया
और 8. तामर।
11वीं सदी के अरबी इतिहासकार अलबरुनी की पुस्तक में ‘कामरूप’ वर्णनमय हुआ है। यहाँ का दैनिक जीवन दो
प्रकार के धार्मिक केन्द्रों में घूमता है-सत्र और नामघर। करीब 1228 ई0 में अहोमों के तिब्बत से यहाँ आने के पहले बोड़ो
जनजाति ने बृहदतर भू-भाग पर शासन किया। आहोम शाखा के लोग दक्षिणी चीन से आकर असम
में स्थापित हो गये और 1200-1700 ई0 के
बीच असम के इतिहास में अपनी अमिट पहचान छोड़ी। ‘बिहू’ यहाँ का कृषिपर्व है, जो कि वर्ष में 03 बार मनाया जाता है। पहला और सर्वप्रमुख बिहूपर्व ‘बोहाग’
है। नये साल के आगमन के स्वागत में इसे मनाते हैं। इसे ‘रंगाली बिहू’ भी कहते हैं। दूसरा है-भोगाली और तीसरा
है-कंगाली। यहाँ के चाय बागान भी जनजातियों से भरे हुए हैं। जैसे-चाउताल, असुर, उराव, कौंध, कामार, किचान, खारिया, बराईक, नायक और पानिक इत्यादि। चाय बागान के गीत आज
भी ओसमय पारदर्शी फिजाओं को जीवंत बनाते हैं, जिन्हें ‘बागानी’ गीत कहा जाता है। ये गीत संस्कारपरक,
उत्सवधर्मी और प्रेमपरक होते हैं। असम में नृत्य के भी दो रूप
हैं-बिहू नृत्य और सत्रिय नृत्य। बिहू लोकनृत्य है, जबकि
सत्रीय-शास्त्रीय नृत्या बिहू पर्व के मौके पर ‘हुसरी’
नृत्य भी प्रस्तुत किया जाता है। ‘ढुलिया’
और ‘भावरिया’ भी यहाँ के
प्रमुख लोकनृत्य हैं। यहाँ ‘नटुआ’ नृत्य
भी लोकमय है।
नये ज्ञान के अन्वेषण की
प्रयोगशाला
पूर्वोत्तर का अरूणांचल, अर्थात्
भारत के उत्तर पूर्वी क्षितिज में खोया स्वर्ण शिखर। यहाँ पांच नदियां याद की जाती
हैं-तिराप, सियांग, ड्रागमेछे, पपुमपारे और कामेंगे। लगभग 30 जनजातियों की
सांस्कृतिक विविधता से जीवंत यह प्रांत नये ज्ञान के अन्वेषण की प्रयोगशाला है।
प्रमुख जनजातियों में गालो, मिशमी, तांगसा,
नोक्ते, वांचो, आपातानी,
तागिन, मिनियोग, इद,
मिलांग आदी, हिलमिरी, सिंह
को, आका और खंबा उल्लेखनीय हैं। यहाँ की जनता वर्षा ऋतु में
एक उत्सव मनाती है, जिसे ‘मोह’ कहते हैं। इसे ‘ताङसा’ जनजाति
के लोग मनाते हैं। इस उत्सव में ताङसा प्रकृति और ईश्वर से प्रचुर अन्न की
प्रार्थना करते हैं। ‘चाउलाङ’ जिले के
नामटक क्षेत्र में ‘ताडसा’ की कई
उपजातियाँ हैं-तिराक, मुकलोम, रनराङ,
पानठाई, लङरि, तङलिम,
हाखुन, हावई और किमसिङ। ‘बुढ़ीदीहिन’ नदी के किनारे भी इनके गांव अवस्थित हैं।
‘नामसिक’ और ‘रिमा’
नदी के तटों पर भी ताङसा बस्तियां हैं। ‘मोंपा’
यहाँ की बौद्धधर्मावलंबी जनजाति है। ये बौद्ध धर्म की महायान शाखा
को जीवित किए हुए हैं। ‘मोपां का अर्थ होता है-निम्न भूमि का
निवासी। तवांग जिले का ‘गोम्पा’ बौद्ध
धर्मावलंबियों का सर्वप्रमुख केन्द्र है।
‘दोन्यी पालो’ पूजा यहाँ अत्यन्त
लोकप्रिय है। दोन्यी अर्थात् चन्द्रमा। यहाँ की जनजातियां इन्हें सत्य, न्याय, ईमान और पुण्य का प्रतीक मानती हैं। यहाँ की
आदी, न्यिशी, आपातानी, हिलामिरी, तागिन, मिश्मी
इत्यादि के हृदय में ‘दोन्यी-पोलो’ के
प्रति अटूट आस्था है। गालो जनजाति दोन्यी (सूर्य) को स्त्री और पोलो (चन्द्रमा) को
पुरुष के तौर पर प्रतिष्ठित किये हुए हैं। यहाँ की बेहद उल्लेखनीय जनजाति आदी है,
जो कि पूर्वी सियांग, पश्चिमी सियांग, अवर सुबनसिरि एवं दिबांग जिलों में बसी है। ‘आदी’
का शाब्दिक अर्थ होता है-पर्वत। आदी की अनेक उपजातियाँ हैं-जिनके दो
भाग हैं-मिन्योग और गालो। ये बांस की कोपलों का उपयोग व्यंजन के तौर पर करते हैं।
सूखी मछली का चूरा, भुने मक्के का चूरा, भूने चावल का चूरा (अमतीर) इनका प्रिय व्यंजन है। प्रायः 03 बार भोजन करते हैं। इनकी प्रियपेय मदिरा चावल की बनी होती है, जिसे ‘अपोंग’ कहते हैं। ‘सिंहफो’ एक और विशिष्ट जनजाति है जो कि लोहित,
चांगलांग, और तिरप जिलों में है। यहाँ की ‘मीजी’ जनजाति का निवास अरूणांचल के पश्चिमी कामेंगे
जिले का ‘नाफ्राअंचल है जो कि बीचम नदी घाटी में है।
जीवित पहाड़ियों का अमर
आश्चर्य
बौने
मनुष्यों की कद्दावर मनुष्यता की तरह कुल 22 छोटे-छोटे जिलों
से बना हुआ राज्य मेघालय है। यहाँ ईसाई बौद्ध और हिन्दू के अलावा गै़र ईसाई समूह
की जनजातियां भी हैं जिन्हें ‘संेगखासी’ कहते हैं। ‘मुर्गा’ यद्यपि
इनकी हिंसावादी भूख का शिकार होता है, बावजूद इसके वह पवित्र
पक्षी है, जो कि नम्रता, सच्चाई और
विनय का प्रतीक माना गया है।
मेघालय
के पूर्वी पहाड़ी क्षेत्र में खासी जनजाति के लोग हैं। ये ‘प्रोटोआस्ट्रायड’
समूह की ‘मोनएमेर शाखा’ से
सम्बद्ध हैं। इनका मूल निवास कम्बोडिया और आस-पास का स्थल था। मेघालय में प्रवेश
करने के पूर्व ये असम के ‘कलाङ’ और ‘कुपली’ नदियों के तट पर बसे थे। ‘लाहो’ नृत्य मेघालय का सर्वप्रमुख नृत्य है। साथ ही ‘शाद नोंगकरेम’ भी एक प्रिय नृत्य है। यह लगातार 05 दिनांे तक चलता है। पुरुषों के द्वारा ‘शादलिम्मो’
नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। अन्य खासी नृत्य हैं-दोरो राता और ‘पो मेला’।
पान या
तांबुल खासी संस्कृति का अंग है-जिसे ‘उक्काई’ कहते हैं। इनकी पारम्परिक पोशाक ‘जिम्फोंग’ है। ये तीरंदाजी करते समय तयपूर्वक अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। मृत्यु के
बाद महीनों तक कर्मकांड चलता है, अन्ततः समाधि स्थल पर बैल
की बलि दी जाती है। खासी जनजाति के 3 अंग हैं-1. सितेंग, 2. वार, 3. लिंग्गम्।
इनका समाज 04 श्रेणियों में बंटा है-राजवंश, पुरोहित, मंत्री और सामान्य जन। कबीले के मुखिया को ‘लिंगडोह’ कहते हैं।
खासी समाज के मातृ सत्तात्मक
होने के कारण बच्चे के नाम के साथ माता का नाम जुड़ता है। यहाँ मातृकुल को ‘कुर’
और पितृकुल को ‘खा’ कहते
है।। खासी लोग अपने मूलधर्म को ‘नियाम’ कहते हैं। निया अर्थात् कारण इम अर्थात् जीवन। इनके बीच सम्पत्ति का
अधिकार सबसे छोटी बेटी को मिलता है जिसे ‘खातूदूह’ कहते हैं। ‘संेग खासी’ यहाँ का
अल्पसंख्यक समाज है, जो कि मूल खासी माने जाते हैं। ‘संेग कुटनेम’ इन्हीं का उत्सव है। इस उत्सव में एक
प्रसिद्ध खासी उक्ति दुहराई जाती है-‘अपना भी सम्मान करो और
दूसरों का भी।’
मेघालय का पश्चिमी भाग गारों
पहाड़ियों की आश्चर्यपूर्ण दुनिया है। गारो खुद को पर्वतीय जन या ‘आचिक
भंडे’ कहते हैं। यहाँ के पुरुष मुर्गे के पंखों वाला मुकुट
धारण करते हैं। ‘अचकि भंडे’ का अर्थ
होता है-‘पर्वतवासी अचिक अर्थात् पर्वत भंडे अर्थात् मानव।
गारो भाषा तिब्बती बर्मी परिवार की है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे ‘बोड़ो वर्ग’ की भाषा कहा है। गारो जनजाति के 03 वर्ग हैं-1. मराक, 2. मोमिन
और 3. संगमा। गारों युवतियों और बिहार के मुस्लिम युवाओं के
साथ विवाह के कारण मोमिन वर्ग सामने आया। गारो समाज में सबसे छोटी बेटी को ‘नोकना’ कहते हैं जिसका अर्थ होता है-‘उत्तराधिकारिणी’। पहली पत्नी से सहमति लेकर पुरुष
बहुविवाह कर सकता है। गारो समुदाय का मूल निवास ‘तिब्बत’
माना जाता है। चावल, खीरा, प्याज और नमक इनका पसंदीदा भोज्य है। गारो युवक नृत्य के लिए अलग घर बनाते
हैं जिसे ‘नोकोपांटे’ कहते हैं। यहाँ
भी सबसे छोटी बेटी सम्पत्ति की स्वामिनी होती है, जिसे ‘नोकना’ कहते हैं। पति को ‘नोकराम’।
‘वंगाला’ उत्सव के दौरान गारो
नृत्यों का आयोजन होता है। ‘वंगाला’ कृषिपरक
उत्सव है। गारो वर्ग के अन्य उत्सव है-ओपाता, डेन, बिलासिआ, आसिरोका, अगलमाका,
आहइया और रूसहोता। ‘दानी दोका’ बुजुर्ग गारो पुरुष का उत्सव है। इनका सबसे प्रिय वाद्ययन्त्र है-दागा।
इनके बीच लोकप्रिय ‘नाग्रा’ वाद्य एक
प्रकार की ढोलक है। गारो का पारंपरिक खेल ‘तीर’ चलाना है। झूम खेती और मत्स्य पालन इनकी आजीविका के दो प्राचीन साधन हैं।
जंगलों को काटकर आग लगाते हैं, फिर फसल उगाते हैं। पश्चिमी
गारो पहाड़ियों में ‘नोकरेक नेशनल पार्क है। ‘नोकरेक’ गारो पहाड़ियों का सबसे ऊंचा स्थान है। इस
पार्क में ‘सिट्रस इंडिका’ की दुर्लभ
प्रजाति है। ‘गारो’ तिब्बती-चीनी
परिवार की भाषा मानी गयी है।
शिलांग के पूरब में जयतियां
पहाड़ियां अवस्थित हैं। यह खासी की ही उपजाति मानी गयी है। इसका एक समूह ‘भोई’
उत्तरी मेघालय में बसा है। दूसरा समूह ‘ख्योरियम’
मध्य मेघालय में। ‘पनार’ जनजाति जयंतिया पहाड़ियों में और वार जनजाति दक्षिण मेघालय में बसी है। इस
समाज की अन्य जनजातियां हैं-लालुंग, वाइफे, विआते और हमास। ‘नाङ्क्रेम’ जयंतिया
वर्ग का प्रसिद्ध नृत्य है।
बसंत ऋतु में थिरकने को सजी
धरती
कुल अठारह (18) आदिवासी
समूहों से परिपूर्ण ‘त्रिपुरा’ राज्य
बंगाली जन के सांस्कृतिक वैविध्य को भी समेटे हुए है। त्रिपुरी, रियांग, नोआतिया, अमातिया,
चकमा, हालाम, मग,
कुकी, गारो, लुशाई,
उच्चोई, काकबरक, भिल,
चाइमल, मिजेल और लामते यहाँ की जनजातियाँ हैं।
यहाँ बोली जाने वाली प्रमुख भाषाएं हैं-देववर्मा, मुंडा,
ओरांग, बंग्ला और काकबरक। भूमि और जल के मिलन
की धरती अर्थात् त्रिपुरा। यहाँ की जनजातीय आबादी 19 पर्वतीय
क्षेत्रों में विस्तृत है। इनमें से अधिकांश तिब्बती-बर्मी मूल के हैं।
‘होजागिरी’ त्रिपुरा का ऐसा नृत्य
है, जिसमें बंगाली और आदिवासी संग-साथ नाचते हैं। यहाँ
मानस-मंगल और कीर्तन खूब प्रचलित हैं। ‘हाईहाक’ हलाम जनजाति का प्रमुख नृत्य है। इस जनजाति में समाज का मुखिया-‘सांगनाकाम’ कहलाता है और समाज का पुजारी-कामा।
त्रिपुरा की धरती बसंत ऋतु
में थिरकने को तत्पर भूमि है। इस ऋतु में हलाम जनजाति में बड़ी पूजा, त्रिपुरी
जनजाति में हंगराई पूजा, मग जन में ओवा और त्रिपुरी
आदिवासियों में केर एवं खर्ची पूजा का आयोजन होता है। मानसून का आह्वान ये गरिया
उत्सव मनाने के दौरान करते हैं। यहाँ की ‘चमका’ जनजाति के बीच संक्रांति के मौके पर बीजूनृत्य का आयोजन होता है। विवाह के
अवसर पर यहाँ गीत प्रस्तुत किया जाता है, जिसे ‘धमैल’ कहते हैं। प्राचीन काल में ‘त्रिपुरा’ नरबलि प्रथा के लिए कुख्यात था, जिसे 17वीं सदी में गोविंद मानिक्य ने बंद करवाया।
फिर भी मिट्टी से बने नर की प्रतीकात्मक बलि दी जाने लगी। ‘रियांग’
यहाँ की सर्वप्रमुख जनजाति है। यह म्यांमार के शान राज्य के पर्वतीय
अंचलों से आकर त्रिपुरा में बस गयी। त्रिपुरा के अलावा रियांग की उपस्थिति मिजोरम,
असम, मणिपुर और बांग्लादेश में भी है। ‘त्रिपुरी’ के बाद इस प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति ‘रियांग’ ही है। ‘मेस्का’
और ‘मोलसोई’ इसके दो भाग
हैं। त्रिपुरी महिलाएं एक खास तरह का स्कार्फ पहनती हैं, जिसे
‘पाचरा’ कहा जाता है। ये हथकरधे पर एक
वस्त्र बुनती हैं, जिसे ‘रिशा’ कहते हैं। जब यहाँ की जनजातियाँ खेतों में बीजों को अंकुरित होता हुआ
देखती हैं, तो ‘गरिया’ उत्सव का आयोजन होता है और झूम नृत्य प्रस्तुत होता है। यह निरंतर सात
दिनों तक चलने वाला उत्सव है। वहाँ के सामाजिक जीवन में ‘बांस’
का विशेष महत्व है। बांस से बने अनेक वाद्य यंत्रों का प्रयोग यहाँ
होता है। जैसे-खमब, बांसुरी, सरिंदा,
लेबांग और सिम्बल। लेपचा जनजाति सिक्किम और सीमास्थ भारतीय
क्षेत्रों में पायी जाती है। मणिपुर, त्रिपुरा और चटगांव के
पर्वतीय क्षेत्रों से लेकर बर्मा की अराकान पहाड़ियों तक कुकी, लुशाई, लाखेर और विन आदि जनजातियां विस्तृत हैं।
यहाँ की ‘चमका’ जनजाति कैलाशहर,
अमरपुर, सबरूम, उदैपुर,
बेलौनिया और कंचनपुर जिलों में बसी हुई है। चमका जनजाति का मुखिया
देवांस कहलाता है। बंगाली पंचाग के अनुसार वर्ष के अंत में और नववर्ष के आरम्भ में
चैत्र संक्राति के अवसर पर ‘बीज उत्सव’ का आयोजन होता है। सिक्कों के गहने पहनने की प्रथा यहाँ बहुत पुरानी है।
यहाँ की हलाम जनजाति 12 छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित है।
हलाम कुकी जनजाति का ही एक भाग है।
कंचनजंघा की आदिभूमि
सिक्किम
सरकार ने यहाँ की ग्यारह भाषों को राजभाषा घोषित किया है। यहाँ की सम्पर्क भाषा
नेपाली है। पूर्वोत्तर भारत का एक मात्र नेपाली बहुल राज्य सिक्किम है। नेपाली के
अलावा यहाँ बोली जाने वाली अन्य भाषाएं हैं-भूटिया, लेच्चा,
शिवाय, लिंबू, नेवारी,
राई, गुरुंग, मंगर,
शेरपा और तमांग। लेप्चा यहाँ की प्रमुख जनजाति है। ये लोग चीन की
सीमा से सटे ‘जोंगू’ में रहते हैं। ये
बौद्ध भी हैं और ईसाई भी। इनका निवास ‘लाचेन’ और ‘लाचुंग’ नदियों के तट पर
है। ‘लेप्चा’ मूलतः नागा जनजाति से
साम्यता रखते हैं। ये प्रत्येक पर्वत को साकार देवता मानते हैं। अपने लोक साहित्य
को ये ‘जोंगू’ कहते हैं। पुरुष
लेप्चाओं का मनपसंद पहनावा-पागी है। इसे राज्य के उत्तर में तिब्बत के पठार हैं।
पूर्व में तिब्बत की चुंबी घाटी और भूटान अवस्थित हैं। राज्य की कुल आबादी में 78 प्रतिशत गोरखा-नेपाली, 9 प्रतिशत लेप्चा, 11 प्रतिशत भूटिया लोग हैं। पश्चिमी सिक्किम के तार्शदिंग मठ को यहाँ बौद्ध
मठों में विशेष दर्जा हासिल है। कंचनजंघा पर्वत के पीछे तार्शडिंग मानेस्ट्री को
हृदय के आकार वाली पहाड़ी का रूप दिया गया है। ‘ताशिडिंग’
छोरटेन स्तूप के लिए प्रसिद्ध है। उत्तरी सिक्किम में एक ऐतिहासिक
झील है-काबीलंग चोक। सिक्किम के इतिहास में इस जगह का अन्यतम महत्व है। सिक्किम की
राजधानी गंगटोक से 78 किमी0 की दूरी पर
‘नामची’ मौजूद है। जिसका अर्थ है-आकाश
जितना ऊँचा। टेंडोंगहिल एक पर्वतीय भूमि है, जो कि बौद्ध
लामाओं की साधना स्थली मानी जाती है। लेपचा समुदाय आज भी इस स्थल की पूजा करते
हैं।
यहाँ बौद्ध धर्म की वज्रयान
शाखा का विकास विशेष रूप से हुआ। पारम्परिक ‘गुंपा नृत्य’ यहाँ का सबसे
प्रसिद्ध नृत्य है। लेपचा जनजाति सिक्किम के मूलनिवासी हैं। ये चीन की सीमा से लगे
हुए क्षेत्र ‘जोंगू’ में रहते हैं।
ईसाई धर्म को अपनाने से पूर्व लेपचा दो सम्प्रदायों में बंटे हुए थे-बोन सम्प्रदाय
और मून सम्प्रदाय में। ये पर्वत, नदी, जंगल,
वृक्ष आदि की पूजा देवताओं की तरह करते हैं। इनका निवास भी लाचेन और
लाचुंग नदी के तट पर प्राकृतिक वातावरण के बीच होता है। लेप्चा खुद को ‘रोंगप’ अर्थात् ‘रोंग’ जनजाति के बच्चे मानते हैं। एक मान्यता के अनुसार लेप्चा मूलतः ‘जिनदर’ और ‘मेच’ इत्यादि नेपाली कबीलों से भटककर इधर स्थानान्तरित हो गये। लेपचा खुद को
मायल राज्य का वंशज मानते हैं जो कि एक समय में कंचनजंघा पर्वत श्रंृखलाओं के बीच
विद्यमान था। लेपचाओं ने यहाँ के पर्वतों को दैवीय नाम दे रखा है-जैसे-सिम्बु,
सिनिलोचु, कानचेंजुआ आदि। लेप्चा अपने
लोकसाहित्य को ‘जोंगू’ कहते हैं। पुरुष
लेपचाओं का पारम्परिक पहनावा ‘पागी’ है।
लेपचाओं का वार्षिक उत्सव तेंदोंग पर्वत की प्रार्थना में आयोजित होता है जो कि
प्रतिवर्ष 07 अगस्त को गनाया जाता है। लेपचाओं में एक स्त्री
अनेक पुरुषों के साथ और एक पुरुष कई स्त्रियों के साथ विवाह करने के लिए स्वतन्त्र
है।
भूटिया सिक्किम की एक प्रमुख
जनजाति है। यह तिब्बत से आकर यहाँ बसी है। भूटिया खुद को नामग्याल राजघराने का
वंशज मानते हैं।
देवताओं की रंगशाला
मणिपुर को देवताओं की
रंगशाला कहा गया है। यहाँ की भूमि का 2/3 भाग वनाच्छादित है। यहाँ तीन प्रकार के जनजातीय
समूह हैं-मैतेई, नागा और कुकी। मैतेई यहाँ की प्रमुख भाषा
है। मणिपुरी भाषा की लिपि को ‘मैतयी मएक’ कहते हैं। यहाँ 29 प्रकार की जनजातीय बोलियां
प्रचलित हैं-तंगखुल, भार, पाइते,
लुशाई, काबुई, थडोऊ और
माओ आदि। प्रमुख आदिवासी समुदायों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से प्रचुर है-ऐमोल,
अनल, अंगामी, चिरू,
चैथे, गंगते, हमार,
लुशाई, काबुई, कचानगा,
खरम कोईराव और कोम इत्यादि। पूर्वोत्तर भारत में स्वच्छ जल की सबसे
बड़ी झील-‘लोकतक यही’ है।
यहाँ के लोकगीतों को ‘खुनुंगइशेई’
कहते हैं। यहाँ अनेक प्रकार के श्रमगीत प्रचलित हैं, जिन्हें लौटरोल, फिशाइशेई, हिजिन
हिराव आदि नामों से पुकारा जाता है। यहाँ के संस्कारपरक गीतों को ‘औगरी’ या ‘खेमको’ कहते हैं। यहां असंख्य प्रेमगीत हैं, जिनकी
अपनी-अपनी शैलियां भी हैं। यहाँ के आध्यात्मिक गीतों में चैतन्य महाप्रभु के जीवन
दर्शन की झांकी उपलब्ध होती है। ‘लाई हराओबा’ यहाँ का नृत्य है और गीत की एक शैली भी। इस गीत का केन्द्रीय विषय
है-प्रेम। जो कि खेतों में श्रम करते समय गाया जाता है। यहाँ नृत्य को एक पवित्र
कर्म की मान्यता प्राप्त है।
18वीं सदी के उत्तरार्ध में यह प्रदेश मणिपुरेश्वर के
नाम से जाना जाता था 59 प्रतिशत जनसंख्या घाटियों में बसी
हुई है। पहाड़ी इलाकों में नागा, कुकी, पाइते
इत्यादि जनजातियों का प्रभुत्व है। मणिपुर के मैदानी भागों में पाइते का।
इस प्रदेश की मुख्य भाषा ‘मेइतीलोन’
है, इसे ही मणिपुरी कहा जाता है। यहाँ 29 जनजातीय समूह हैं-आइमोल, अनल, अंगामी, चिरू, चोटे, गंगते, हमार, काबुई, कचानागा, काइरो, कोइरंग,
कोम, लम्गंग, माओ,
मरम, मोंसांग, मोयोन,
पाइते, पुरुम, राल्ते,
समा, सिम्ते, सब्ते,
तांखुल, थाडाऊ, वाइपा और
जौऊ। ये सभी तिब्बत-बर्मी-मंगोलियन मूल के लोग हैं। इन सभी में मैतेई, पांगल, कूकी और आइमोल सर्वप्रमुख हैं। ये जनजातियां
एक ही स्थान पर बसाहट के विपरीत आस-पास के अलग-अलग स्थानों पर स्थानान्तरित होती
रहती हैं। नागा जनजाति के अन्तर्गत आइमोल, अंगामी, कबुई, कचानागा, कईरो, कोइरांग, लम्गंग, माओ मराम,
मरिंग, मिजो, मोसंग,
मोयों, राल्ते, समा,
सबते और तांखुल जनजातियों की गणना की जाती है।
यहाँ 65
प्रतिशत जनसंख्या मैतेई जनजाति की है। महाभारत के वीरयोद्धा अर्जुन की पत्नी
चित्रांगदा को मणिपुर के मैत्रेयी समाज का माना जाता है। वर्तमान में ये वैष्णव मत
को मानने वाले लोग हैं।
म्यामांर से जुड़ने वाले
राज्य मणिपुर के जिले ‘उखरूल’ का नाम उलूपी कुल का
अपभ्रंश है। यहां बसने वाली जनजातियों को ‘तान्खुल’ कहते हैं। जिनका सम्बन्ध अर्जुन की पत्नी ‘उलूपी’
से है। यहाँ की जनजाति है-देवरी। यदि प्रेमी-प्रेमिका भागकर शादी कर
लें, तो समाज को कोई आपत्ति नहीं होती। बशर्ते कि दोनों का
गोत्र अलग-अलग हो। ‘थोंग्जाओ’ यहाँ की
वह जनजाति है-जो मिट्टी के बर्तन बनाने का व्यवसाय करती है। यहाँ के कुकी आदिवासी
मूलतः दक्षिण चीन और चिन पर्वत के निवासी हैं। काकी जनजाति के युवक-युवती अपने
गोत्र से बाहर ही शादी करने को स्वतन्त्र हैं। कई जनजातियों में बहुविवाह प्रथा आज
भी है।
पर्वतवासियों की भूमि
‘मिजो’ का शाब्दिक अर्थ होता
है-पर्वतवासी। मि-लोग, जो-पर्वत। यहाँ की प्रमुख जनजातियां
हैं-राल्ते, पाइते, दुलियन, पोई, सुक्ते, फलाई, मोलबेम, ताउते, लखेर और दलाङ।
मिजो के अलावा-जाहू, लखेर, हमार,
पाइते, लाई और राल्ते यहाँ की प्रमुख जनजातीय
भाषाएं हैं। ‘लाखेर’ इन सबमें प्रमुख
हैं। लाखेर असम और मेघालय दोनों राज्यों मंे बोली जाती है। गृह निर्माण में लाखेर
समुदाय निपुण माना जाता है। ‘चेरव’ मिजोरम
का विशिष्ट नृत्य है, जिसे बांस नृत्य भी कहते हैं। ‘खललाभ’ यहाँ का एक त्योहार है। यह नृत्य भी है,
जिसकी प्रस्तुति युवक-युवतियाँ साथ-साथ करते हैं। यह नृत्य पूरी रात
चलता हैै। मिजोरम में 100 प्रकार के लोकगीत प्रचलित हैं। ‘बावहला’ यहाँ का युद्धगीत है। विजयी योद्धा ही
बावहला गाने का अधिकारी होता है। ‘मिजो’ भाषा में ‘हमर’ का अर्थ होता
है-उत्तर। इसलिए मिजो पर्वतमाला के उत्तर में रहवासियों को ‘हमर’
कहते हैं। मिजोरम अर्थात्-मिर (लोग) $ जो
(लुशाई जनजाति) $ राम (भूमि)।
आइजोल के अतिरिक्त इस राज्य
में कुल आठ जिले हैं-कोलासिब, चम्फाई, ममित, लुंगलेई, लांगतलाई, सइहा और
सेरछिप। चम्फाई जिले के बारे में प्रसिद्ध है कि मिजो के पूर्वज सदियों पहले यहाँ
आकर बस गये। गुरलेन राष्ट्रीय पार्क, रिहडील झील, फवंगपुरई पीक, लेंगतेंग वन्य जीव अभ्यारण्य आदि
मिजोरम के प्राकृतिक प्रतिमान हैं। आइजोल के बाद लुंगलेई मिजोरम का दूसरा सबसे बड़ा
शहर है। यह नामकरण एक चट्टान के नाम पर हुआ। आइजोल से कुछ फासले पर ‘तामदिल’ नामा झील है। ‘वानतांग’
मिजोरम का सबसे ऊँचा और सुंदर जल प्रपात है। ‘छिमतुई
पुई’ या कलादान इस प्रदेश में बहने वाली सबसे बड़ी नदी है।
यहाँ बोली जाने वाली भाषाओं में लुशई, जहाओ, लखेर, हमार, पैते, लई और राल्ते हैं। यहाँ की जनजातियाँ किसी उत्सव के मौके पर एक विशेष ड्रम
का प्रयोग करती हं, जिसे ‘खौंग’
कहते हैं। बसंत के आगमन पर मनाया जाने वाला त्योहार है-‘चापचुर कुट’ जो कि बांस नृत्य है। यहाँ के समाज में 85 प्रतिशत ईसाई, 8 प्रतिशत बौद्ध और 7 प्रतिशत हिन्दू हैं। यहाँ के लोग कुशल बुनकर होते हैं। बांस और बेंत की
हस्तनिर्मित वस्तुएं भरपूर हैं। ‘द ब्लू माउन्टेन’ मिजोरम की सबसे ऊँची चोटी है। राज्य में सदा प्रवाहमान नदियाँ हैं-तवांग,
सोनाई, तुईवल, कोलोडाइन,
और कामाफुली। इनका एक नृत्य है-चेरराव नृत्य, जिसमें
लम्बे बांसों का इस्तेमाल करते हैं। यह चार समूहों का नृत्य है। ऐसी मान्यता है कि
मिजो लोग चीन के ‘हुनान’ प्रांत का
हिस्सा थे। किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद चेरावल नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। ‘चैंगलैजान’ एक और नृत्य है जो कि ‘पाविजनजाति’ में सम्पन्न होता है। यदि किसी विवाहिता
स्त्री की मृत्यु हो गयी तो अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करने के लिए पति यह नृत्य
प्रस्तुत करता है। जब तक कि वह थककर गिर नहीं जाता। मेहमान नवाजी के मौके पर किया
जाने वाला नृत्य-‘खुल्लम’ है। इस नृत्य
में हरे, पीले, लाल और काले रंग की
धारियों वाले पोशाक धारण किए जाते हैं, जिसे ‘पौंडन’ कहते हैं। इसमें ‘गबरू’
नामक एक घंटा बजाया जाता है। ‘सौलकिन’ नामक नृत्य को यहाँ योद्धा का नृत्य कहा जाता है। जो कि ‘पहिटे जनजाति’ में प्रचलित है। ‘मरास’ और ‘पावि’ जनजाति का नृत्य है-‘सरलंकाई’ या
सोलकै।
छिद्रयुक्त कान वाले जनों की
कर्मभूमि
नागालैंड की जनजाति मंगोलियन
नस्ल की मानी जाती है। यह भी सघन जनजातीय प्रदेश है। चाकेसाङ, अंगामी,
जेलियाङ, आओ, सङतम,
यिमचंुगर, चाङ, सेमा,
लोथा, खेमुंगन, रेंगमा,
कोन्याक, फोम, सुमी यहाँ
की मुख्य जनजातियाँ हैं। ‘नागामिज भाषा समूह में 08 भाषाएं हैं-असमिया, नागा, बांग्ला
और हिन्दी। ‘नागमीज’ की अपनी लिपि नहीं
है, न ही कोई सुनिश्चित व्याकरणिक नियम। ‘नागा’ शब्द की उत्पत्ति बर्मी शब्द ‘नाका’ से हुई, जिसका अर्थ
है-छिद्रयुक्त कान वाले लोग। ‘मुर्गा’ और
भालू नुत्य यहाँ खूब लोकप्रिय है। भालू नृत्य को ‘हेतातेउतवी’
कहते हैं। यहाँ 32, अलग-अलग जनजातीय कबीले हैं
और 32 प्रकार की जनभाषाएं भी। यहाँ के अविवाहित युवाओं के
आराम घरों को ‘मोरुंग’ कहते हैं। कानों
में बाली पहनने के कारण इन्हें नागा (नग) कहा जाता है। ‘मोकोकचुंग’
यहां की सांस्कृतिक राजधानी है। प्रत्येक जनजाति के अपने त्योहार
हैं, जिसे ‘गेन्ना’ कहते हैं। ‘मोकोकचुंग’ में ‘आओ’ जनजाति है।
नागालैण्ड के निवासी
मंगोलियाई नस्ल के हैं जो तिब्बती बर्मी परिवार की भाषाएं बोलते हैं। भीम की पत्नी
और घटोत्कच की माता हिडिम्बा इसी प्रदेश की थीं। ‘उलूपी’
को भी नाग-कन्या कहा गया है।
नागा कबीलों में आओ कबीला
सबसे प्रभावशाली माना जाता है। अब्राहम ग्रियर्सन ने यहाँ की आओ भाषा सीखी और इसका
पहला व्याकरण तैयार किया, जिसका नाम है-‘तेतन जक्बा आओ
ग्रामर।’
नागालैंड के जनजातीय संगठन
में कोल्याक, सेमा व चांग के मुखियाओं से लेकर अंगामी, आओ, ल्होरा और रेंगमा की लोकतान्त्रिक विशेषताएं भी
मिलती हैं। युवा अविवाहित युवकों का आरामघर ‘मोरुंग’ कहलाता है। प्रत्येक जनजाति के अपने त्योहार होते हैं, जिसे ‘गेन्ना’ कहते हैं।
इस प्रदेश का ‘मोकोकचुंग’
शहर आओ जनजाति की मुख्य भूमि है। मोकोकचुंग शहर के उंगमा गांव में
आओ जनजाति की दंत कथाओं, रीति-रिवाजों और परम्पराओं को सजीव
रूप में देखा जा सकता है। ‘उंगमा गांव’ नैसर्गिक संग्रहालय जैसा है। ‘लोंगवा’ गांव घने जंगलों के बीच म्यांमार की सीमा से लगा हुआ भारत का आखिरी
पूर्वोत्तरी गांव है। ‘कोंयाक’ को बेहद
खूंखार माना जाता है। इन्हें ‘हेड हंटर्स’ भी कहा जाता है। हेड हंटिंग (सिरच्छेद) इनका प्रिय खेल तक हुआ करता था। 1969 के बाद ‘हेडहंटिग’ की घटना इन
आदिवासियों के गांव में नहीं हुई। इन आदिवासियों का मुखिया एक से अधिक पत्नियां
रखता है। भारत और म्यामांर की सीमा इसके मुखिया के घर के बीच से होकर गुजरती है।
शरीर पर टैटू बनाए हुए कोन्याक जनजाति बहुल ‘मोन’ शहर की खूबसूरती देखते ही बनती है। कोन्यक हस्तशिल्प में बेहद कुशल होते
हैं। झेलियांग जनजाति अपनी कबीलाई विशिष्टताओं के कारण जानी जाती है। इस कबीले में
‘हरका’ नामक सुधारवादी आंदोलन का आरंभ ‘जादोनांग’ ने किया। ‘हरका’
का अर्थ-तन और मन की शुद्धता लिए हुए सत्यपथ पर चलना। ‘पूर्णिमा’ की रात का बहुत महत्व है-झेलियांग जनजाति
में। नागालैंड का ‘वोखा’ शहर लोथा जनजाति
के लिए प्रसिद्ध है।
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