आपके
मेरे सवाल : क्या आदर्शवाद और निष्ठाएं सजावटी संज्ञाएं हैं?
आदर्शवाद और निष्ठाएं हमारी सांस्कृतिक पहचान की धरोहर है। क्योंकि इन्हीं शब्द संज्ञाओं से जुड़ी है हमारी सामाजिकता और संपूर्ण जीवन शैली। अगर हम हमारी आज की जीवन शैली पर पारदर्शिता के साथ नजर डालें तो यही सत्य उभर कर आता है कि हम आदर्शवाद से जुड़ी सभी संज्ञाओं को सिर्फ एक वाचक (शाब्दिक) परंपरा की तरह इस्तेमाल करते हैं और स्वयं को आदर्शवादी कहलाए जाने का स्वांग भरते हैं। इसमें सफल होकर हम स्वयं ही अपनी पीठ ठोकते हैं इस स्वांग में हम इतने रच बस चुके हैं कि बाहरी जीवन में ही नहीं, अपने पारिवारिक जीवन में भी खूब प्रदर्शित करते हैं हमारे इस दोहरे चरित्र को बाहरी दुनिया से चाहे जितना छुपा छुपा लें पर हम अपने इस दोहरे चरित्र से खूब परिचित हैं।
प्रश्न
उठता है कि क्या हम अपने इस दोहरे चरित्र से सहमत हैं, क्या हम अपनी सुविधाओं के लिए इस दोहरे
चरित्र को ओढ़ते ओढ़ते इस आदर्शवाद और निष्ठा पूर्ण जीवन शैली को दरकिनार कर चुके
हैं और अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए यदा-कदा इन शब्द संज्ञाओं का
प्रयोग बेधड़क वाचक परंपरा में इस्तेमाल करते हैं।
निसंकोच
यह सोच का विषय है कि हमने निष्ठाओं से अपना पल्ला क्यों झाड़ लिया, अपने सभ्य कहलाने और अपने विकास में क्या
आदर्शवाद आपके रास्ते में बड़ी रुकावटें पैदा कर रहा। था या फिर आयातित रंगीन
रोशनीयो के सम्मोहन में तर्क और विवेकशीलता को छोड़कर पछुआ हवाओं के साथ वह निकलें
हैं।
मेरे
एक लेखक मित्र अपने उपन्यास और कहानी (प्रकाशाधीन) में आदर्श प्रेम को पुनः
स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। सवाल करने पर कहते हैं यूज एंड थ्रो कब तक
चलेगा? बात पूरी तरह गंभीरता से कही गई है। इस यूज
एंड थ्रो ने सिर्फ हमारे वस्तु बाजार पर ही नहीं हमारी संपूर्ण जीवन शैली का रूप
रंग बदल दिया है हम सिर्फ अपनी जरूरतों के मद्देनजर ही रिश्तो की उम्र भी तय करने
लगे हैं ऐसे में अब कहां जगह बची है आदर्शवाद और निष्ठाओं की।
आदर्शवाद
जो हमें स्वस्थ समाज की ओर ले जा सकता था, निष्ठाए हमारे रिश्तो को सच्चाई से भरे आत्मविश्वास से लब्ध रख सकती थी।
इतनी बड़ी निधि खोकर आज हम किस संपन्नता और समृद्धि की बात करते हैं। कितना खोखला
है हमारे सभ्य हो जाने का दंभ।
हमारी
युवा नस्लें ने तो सबसे पहले प्रेम पर ही प्रहार किया है युवक- युवती प्रेम को
अल्प समय में ही वस्तुगत आधार पर ही भोग कर छिटक जाना चाहते हैं। निष्ठा का इतना
अभाव है कि वहां प्रेम की उम्र ही नहीं रह गई है ऐसी ही परिस्थितियां वैवाहिक
दम्पत्तियों के आपसी रिश्तो में तेजी से उभर रही हैं। ऐसे परिवेश में जहां निष्छ
पूर्ण प्रेम के लिए जगह ही नहीं बची हो, ऐसे में जी रहे मनुष्य से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह सद्भावना पूर्ण
व्यवहार से समाज को कुछ दे सकेगा।
मेरा
यह मानना है कि जीवन में हम जब तक प्यार, मधुरता एवंम एक दूसरे के प्रति सम्मानीय व्यवहार को विस्तार नहीं देंगे यह
आदर्शवाद और निष्छएं जैसे शब्द संज्ञाएं सिर्फ शाब्दिक धरोहर से अधिक कुछ नहीं
रहेंगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें