बुधवार, 27 दिसंबर 2023

हीरामन चौधरी - भूमिका द्विवेदी अश्क


 भूमिका द्विवेदी अश्क

अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत साहित्य की गहन अध्येता, 
हिन्दी साहित्य रचना-जगत में एक बहुचर्चित, प्रशंसनीय और प्रतिष्ठित .
विगत डेढ़ दशक से दिल्ली में रहते हुए स्वयं का मुक्त लेखन/चिंतन.
 हिंदी साहित्य जगत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार,
 स्त्री-विमर्श समेत विविध विषयों पर निरन्तर लेखन..
उर्दू और हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर 
उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ साहित्यकार नीलाभ अश्क की पत्नी
 भूमिका क़रीब डेढ़ दशक से दिल्ली में रहकर
 ‘अश्क रचना संसार’ गौरवशाली परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं.

हीरामन चौधरी

“बाबू जी आज तो आपको आना ही नहीं था.. कितना तेज़ बुख़ार है देखिए तो.. पूरा बदन जल रहा है...” चौकीदार रामबली ने हीरामन को अपनी कुर्सी पर बैठाते हुए कहा. हीरामन की कांपती हुई बुज़ुर्ग देह और उसके लड़खड़ाते कदमों को गिरने से बचाकर रामबली आश्वस्त था. हीरामन को तेज़ हवा से बचाने के लिए रामबली ने उसी के अंगोछे को उढ़ा दिया था. हीरामन ने सारा प्राण लगाकर एक लंबी सांस खींच ली और संभलते हुए बोला, “अरे नहीं रामबली.. अभी बहुत जान बाक़ी है मुझमें.. मेरे शरीर में अभी कूबत है बच्चे.. पहलवानी करता था मैं जवानी में.. ये बुखार, ये बुढ़ापा ये सब तो आनी-जानी चीज़...” कहते कहते वो ज़ोर से खांसने लगा और अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाया. रामबली ने अपनी बोतल से निकालकर चौधरी साहब को साफ़ पानी पिलाया.

“आप बैठिए साहब, मैं आपके लिए औटो लेकर आता हूं... बादल घेरे हुए हैं.. ना जाने कब बरस जाएं.. सर उठिएगा नहीं जब तक कि मैं ना लौटूं.. कृपा करिएगा मुझपर, वरना मैं चौधरानी को क्या जवाब दूंगा.. उनका सवेरे से कई बार फोन आ चुका है... मैं अभी आया साहब औटो लेकर...” इतना कहते हुए रामबली अपने एक साथी को दरवाज़े की रखवाली सौंपकर सड़क की ओर निकल गया.

औफ़िस का टाइम ख़त्म हो गया था, कई और कर्मचारी भी निकले. जुलाई का महीना था. सभी को बारिश शुरु होने से पहले घर पंहुचने की हड़बड़ी थी. सभी ने हीरामन चौधरी को असहाय फाटक पर चौकीदार की कुर्सी पर अधमरा-सा सांस लेने के लिए संघर्षरत् देखा. लेकिन किसी की हिम्मत नहीं पड़ी कि आगे बढ़कर हीरामन को सहारा दे दे.

सभी जीवन से ‘हारे’ हीरामन को ‘हरिनाम’ के हवाले करके आगे बढ़ गए.

वैसे उन सभी की इस लाचारी की वजह अपना अपना स्वार्थ तो था ही, लेकिन उससे भी बढ़कर सबसे बड़ी वजह दफ़्तर का मालिक रमन बेन्द्रे था. जिस बाबू की नौकरी पर चौधरी हीरामन आकर इस बुढ़ौती में क़ाबिज़ हुआ था, वो बेन्द्रे ने अपने साले के लिए सुरक्षित रखा था. अब ना सही, साले कम से कम उसके अपने “पक्के चिड़ी के ग़ुलामों” को तो वो ये कुर्सी दे ही देता. कुछ नहीं तो जी-हजूरी तो मिलती ही. लेकिन बेन्द्रे लाख कोशिशों के बाद भी इसमें सफ़ल ना हुआ. हीरामन की योग्यता, उसकी प्रतिभा के चलते बड़े बाबू का ओहदा उसे ही मिला. बेन्द्रे की हीरामन के आगे एक न चली. टकले बेन्द्रे का “ईगो” तो जो हर्ट हुआ सो हुआ ही, औफ़िस में उसकी एकछत्र राज चलाने वाली छवि भी धुंधली हुई. इसका बदला वो हीरामन की बीमारी से ले रहा था. अब मालिक और उसके तीखे बदले के बीच में किसकी ज़ुर्रत जो टांग फ़ंसाए, अपना जी हलकान करे. दया-मया, रहम-इबादत ये सब चोचले रोज़ी-रोटी के बीच नहीं देखे जाते. यही दुनिया-जगत का सदा चलने वाला दस्तूर है. इस दस्तूर को सभी कर्मचारी निभा रहे थे, और हीरामन चौधरी और उसकी असहनीय हालत से आंख बचाकर निकलते जा रहे थे. उन सब की ख़ुदग़र्ज़ और चोर आंखें आसमान में बादलों की बेकली का जायजा लेने में लगीं थीं, ख़ासकर कि जब वे हीरामन के सामने से गुज़र रहे थे. इनमें से हर एक बन्दा हीरामन चौधरी के कुल-खानदान को भली तरह जानता भी था.

हीरामन चौधरी की उम्र होगी यही कोई साठ-पैंसठ बरस. बड़े ख़ानदान में जन्मा हीरामन को ऐसी कोई बड़े आदमियों वाली लत नहीं थी, जो ना लगी हो. एकलौती सन्तान हीरामन चौधरी ने पैसे-रुपए को ता-ज़िन्दगी मिट्टी बराबर समझा और पूरी जवानी शबाब, कबाब और शराब को जी भर छका था. अब बुढौती में देह का मलिन और कमज़ोर होना कोई अनोखी बात नहीं थी.

बे मां-बाप का रमन बेन्द्रे, बड़े खानदानों और उनके सपूतों से वैसे ही खार खाता था. वो चौधरी खानदान, उसकी मिल्कियत और ठाठ-बाट से भी जनम से स्वाभाविक जलन रखता था. जिस वक़्त रमन फ़ुटपाठ पर रहकर पढ़ाई कर ता था, उस समय हीरामन विलायत के अपने मकान में रंग-रेलियों में डूबा हुआ था. लेकिन अब जब हीरामन जैसी ‘विपदा’ उसके सिर, उसके दफ़्तर, उसके कामकाज के दायरे से आ चिपकी तो वो हरसम्भव कोशिश करता रहा, कि हीरा को इतना सता दे, कि हीरा ख़ुद ही इस्तीफ़ा देकर नौकरी छोड़कर चला जाए. लेकिन हीरामन भी एक ही फ़ौलाद जैसी औलाद था, जो ना तीन में न तेरह में. अड़ गया तो बस अड़ा रहा. न नौकरी छोड़ रहा था, और न बेन्द्रे का पिण्ड. वो सबकुछ सहकर नौकरी से चिपका हुआ था. अब उसका घर-ख़ानदान, रुपए-पैसे, हवेली-बंगला सब नष्ट हो चुका था. इस नौकरी के सिवा अब उसके पास कोई दूसरा आसरा बचा ही नहीं था. उसकी बीवी राधिका चौधरी दुआ-मिन्नत करके, ऊपरवाले का नाम लेकर किसी तरह टूटी-फूटी गृहस्थी चला रही थी. उसे पूरा भरोसा था, कि एक न एक दिन उसकी सेवा, लगन और रखरखाव हीरा को वापस भला-चंगा कर देगी. राधिका हीरा की और हीरा राधिका की जान थी.

राधिका चौधरी का फोन फिर से टिनटिनाया. रामबली एक बार फिर से चौधराइन को वस्तुस्थिति बताने लगा, “जी मयडम, सर के लिए औटो खोजने आया हूं.. जाम ना मिला तो साहेब एक घण्टे में घर पंहुच जाएंगे.. बारिश से पहलेपहल वो आप तक पंहुच जाएं बस, यही प्रार्थना है मयडम...” रामबली ने आगे बताया, “औफ़िस से बीमार या ज़रूरत के लिए गाड़ी मिलती है.. लेकिन सर को बेन्द्रे कभी नहीं देंगे.. आप तो जानती हैं सब मयडम..”

अगले दिन हीरामन और परेशान था. उसकी तबियत पहले से ज़्यादा बिगड़ गई थी, बुखार था जो उतरने का नाम नहीं ले रहा था. एक नोटिस उसकी टेबल पर इन्तज़ार करती मिली. एक भी छुट्टी उसकी बाक़ी नहीं थी. बायोकेमेन्ट्री पर इन्ट्री अपरिहार्य हो गई थी. यानी हीरामन को ठीक दस बजे दफ़्तर पंहुचना होगा, और अपने रेटीना और हाथ के पंजे से इन्ट्री करके शाम छ: बजे दोबारा दफ़्तर छोड़ने की इन्ट्री भी ख़ुद करनी होगी. एक वक़्त भी ऐसा ना करने पर उसकी पूरे दिन की तनख्वाह काट ली जाएगी. इस नए कायदे ने हीरामन की हालत पर कोढ पर खाज का काम किया. वो जो पहले ही शारीरिक आंधियां झेल रहा था. अब मानसिक रूप से और त्रस्त हो गया. उसके सिर पर कई उधार और घरेलू खर्चों सहित दवा-टेस्ट-डौक्टर्स का दबाव भी था. थोड़ी बहुत रियायत वो देर-सबेर आने की ले लिया करता था, अब इस नए फ़रमान के चलते वो नामुमक़िन हो गई थी.

कुर्सी पर बैठने में वो पूरी तरह समर्थ नहीं था. फिर भी बैठना था. जिसके चलते उसकी जांघों और पिछवाड़े की खाल छिलने लगी. वो आठ घण्टा एक ही कुर्सी पर गिरा रहता. बैठे-बैठे अपनी कमज़ोर देह को कभी इस करवट, कभी उस करवट डुला लेता. पेशाब जाने के लिए चपरासी, उसका असिसटेण्ट, चौकीदार सब मिलकर उसे शौचालय तक पंहुचाने में मदद करते. वो जब भी अपनी कुर्सी से उठता कुर्सी पर खून के धब्बे साफ़ दिखाई देते थे.

समय हमेशा किसी का भी एक सा नहीं रहता. ज़माना करवटें बदलता रहता है. दुनिया के रंग-ढंग भी बदलाव का जामा पहनते हैं.

लेकिन टुच्चे हमेशा एक जैसी ‘टुच्ची मानसिकता’ रखते हैं, ‘टुच्ची ज़बान’ ही बोलते हैं.

चौधरी ख़ानदान से जलने-कुढ़ने वाले लोग, जिन्होंने हीरामन को उरूज़ पर बैठा देखकर हमेशा हाथ मला था. वे खिसियानी बिल्ली सरीखे रंगे सियार पीठ पीछे हीरामन की इस बुरी दैहिक स्थिति को देखकर हंसी उड़ाने से बाज नहीं आते थे, “औरतों की माहवारी तो सुना था, बड़े खानदान में बुढ़वों की भी माहवारी आती है, ये राज़ आज जाना...”

अर्दली लोग इन बातों को अनसुना करके, वापस हीरामन को उसकी उसी लहूलुहान कुरसी पर बैठा जाते. उन आठ घण्टों में वो बहुतेरी फ़ाइलें निपटा देता था. निस्संदेह काम करने में वो उस्ताद था. लेकिन हांफ़ती-कराहती-डूबती सांसों के आगे उसका बस नहीं चल रहा था. वो बेदम होकर कई बार फ़ाइलों पर गिर जाता. चपरासी “बाबू जी, बाबू जी” कहकर हरकारा लगाते, वो फिर उठता, चपरासी की ओर देखकर जीवित होने के अहसास के साथ मुस्कुरा देता, दो घूंट चाय-पानी पीता और अनमना सा होकर फिर फ़ाइलों में खो जाता.

कभी-कभार वो दफ़्तर के फाटक पर औटो के इन्तज़ार में जब उससे बैठा नहीं जाता था. वो अपने सिर पर ओढ़े अंगोछे को पेड़ के नीचे बिछाकर लेट जाया करता था. किसी की दया की भीख स्वीकारना उसके चौधरी खून को ग़वारा नहीं था, जो फ़िलवक़्त रिस रिस कर उसके पायजामे को भिगो रहा था.

 कई दिन तक यही उपक्रम चलता रहा. हीरामन का बुखार से तपता जिस्म फ़ाइलें निपटाता रहा. एक दिन तरस खाकर उसके असिस्टेण्ट प्रकाश वर्मा ने हीरामन चौधरी की जानकारी के बग़ैर, उसके लिए औफ़िस की गाड़ी का इन्तज़ाम करने के लिहाज़ से दरख्वास्त डाल दी. प्रकाश ने इसकी मौखिक अनुमति राधिका से ली थी. हालांकि उन दोनों को यक़ीन था, हीरामन का नाम देखते ही रमन, अर्ज़ी कूड़ेदान में डाल देगा. फिर भी प्रकाश ने ये दरख्वास्त माह के आख़िर हफ़्ते, बीस तारीख़ को डाल दी थी. क्योंकि पूरे महीने वो हीरामन को औटो के लिए फ़ाटक पर बेदम इन्तज़ार करता देखता रहा था. उसने कई बार हीरामन से अपनी मोटर-साइकिल पर बिठाने का प्रयास किया लेकिन हीरामन को बिठा नहीं पाया. हीरामन चौधरी ताउम्र कार से चलता रहा. अब बाइक पर बैठने की ना तो उसकी हालत थी, न ही आदत.

कई लोगों की मदद से औटो में वो कुछ यूं बिठाया जाता, जैसे कोई भारी-भरकम सामान संभाल कर रख दिया गया हो, दूसरे दिन वापस उतारने के लिए. औफ़िस जाते वक़्त हीरामन की बीवी घर के दरवाज़े तक औटो बुलाकर लाती थी, दोपहर के खाने, छाते, दवाइयों और ज़रूरी कागज़ात के साथ उसे दफ़्तर रुख़्सत करती. जब वो वापस आता, फ़ाइलों समेत पकड़कर उसे घर के भीतर लिवा ले जाती. कई हफ़्ते ये सिलसिला चलता रहा. तेइस की सुबह पांच बजे हीरामन बिस्तर से नहीं उठा. रात दो बजे तक राधिका उसके पांव दबाती रही, माथा सहलाती रही. डक्टर-नर्स उसे नियमित दवा देते रहे. लेकिन वो बाइस की रात वो ऐसा सोया, कि तेईस की सुबह नहीं उठ सका. उसके पीछे से रिसता खून जम गया था. उसके पाजामा अब गीला नहीं रहा. उसका मुंह खुला का खुला रह गया. अगली सांस वो बहुत कोशिशों के बाद भी ना ले सका. औफ़िस से फोन आने लगा, कि वक़्त हो गया और हीरामन अब तक क्यूं नहीं पंहुचा. राधिका रोने लगी. हर रोज़ औटो में बिठाने के लिए मदद को आगे आए पड़ोसियों ने औफ़िस में इत्तिला दे दी कि हीरामन अब इस दुनिया में नहीं रहा. औफ़िस में बैठे रमन बेन्द्रे को कुछ तसल्ली मिली. फिर भी उसके जी में ये खुन्नस बाक़ी रही, कि वो जीते-जी हीरामन का कुछ बिगाड़ नहीं सका. लिहाजा उसने मौजूदा माह की उसकी तनख्वाह रोक दी. कर्मचारी जो मातमपुर्सी और अंतिम-यात्रा के लिए हीरामन के किराए के मकान पंहुचे थे, उन्होंने लिफ़ाफ़े में महज शोक-सन्देश रखकर राधिका को थमा दिया, ये कहकर कि, “बेन्द्रे सर ने भेजा है..”

कई बाक़ी बिलों और उधारी के बोझ से दबी राधिका ने हीरामन की आख़िरी तनख्वाह का चेक समझकर लिफ़ाफ़ा थाम लिया. लेकिन वो महज शोक-सन्देश निकला. जिसे देखकर रमन का कुटिल-कमीना चेहरा राधिका की आंखों में पानी के साथ तैर गया, और वो निर्विकार भाव से हीरामन की गतिहीन देह देखने लगी.

बहरहाल, हीरामन अपने तमाम सुख-दुख भुगतकर विदा हुआ. राधिका उस प्रेमी जीव हीरामन की आख़िरी मोहब्बत थी, जिसे वो ईश्वर प्रदत्त  आख़िरी तोहफ़ा समझता था, और बड़ी शिद्दत से उसकी ग़ुलामी करता था. हीरामन ने पूरी दुनिया से बग़ावत की लेकिन अपनी नई ब्याही ख़ूबसूरत बीवी से कभी नहीं उलझा. हीरामन के लिए राधिका के वचन किसी हदीस से कम नहीं थे. जाते-जाते वो राधिका को बिलखता छोड़ के जा रहा था, जिसका उसे सबसे बड़ा मलाल था.

रमन बेन्द्रे ने राधिका को भी हीरामन की आख़िरी तनख्वाह के लिए बहुत परेशान किया. ठीक उसी माह की तनख्वाह, जब हीरामन खून की उलटियां करता वक़्त से पाबन्द होकर कुर्सी पर बैठा करता था. एक दिन छब्बीस तारीख़ को राधिका को उसी दर्ख्वास्त के पास होने की सूचना मिली, जो प्रकाश ने हीरामन के आने-जाने के वास्ते औफ़िस की गाड़ी के इन्तज़ाम के लिए लिखी थी. राधिका ने जवाब में कहा, “उनके शरीर को घाट तक पंहुचाने के लिए ऐम्बुलेन्स आई थी, औफ़िस की गाड़ी रमन बेन्द्रे को ढोती रहे, वही बेहतर है..”

रमन ये सब सुनकर और कुढ़ गया. वो जानता था, राधिका किसी भी लहजे में अपने पति की ख़ुद्दारी में कमतर नहीं है. लेकिन फिर भी राधिका को सताकर रमन को वो सुख नहीं मिलता जो हीरा को सताने में मिलता था. उसने भरसक कोशिश करके हीरा की आधी-अधूरी तनख्वाह रिलीज़ करवाई. इस तरह हीरामन का अध्याय अपनी ओर से सदा के लिए बन्द कर दिया.

कहते हैं, वक़्त की लाठी का वार बहुत दमदार होता है. उसकी गूंज ज़माने भर में सुनाई देती है.

समय गुज़रा, रमन बेन्द्रे पर भ्रष्ट्राचार के बड़े-बड़े आरोप लगे.

मंत्रालय में उसकी शिकायतें बराबर पंहुचती रहीं थीं.

जांच बैठी.

आरोप सही पाए गए.

बेन्द्रे को ना केवल पद से हटाया गया, बल्कि आने वाले वक़्त में उसे लंबी सज़ा मिलने के आसार भी दिखने लगे.

लोगबाग उसके विरोध में ज़बान खोलने लगे थे.

अन्तत: एक दिन उसे औफ़िस को विदा कहना ही पड़ा.

इस आख़िरी दिन रमन बेन्द्रे बहुत झल्लाया हुआ था.

बेवजह कभी चपरासी को डांट रहा था, तो कभी अपने पी.ए. को.

गाड़ी जब दरवाज़े तक पंहुची, तो रामबली ने फ़ाटक खोला.

रमन तैश में अपनी व्यक्तिगत गाड़ी में बैठने ही चला, कि उसके पांव लड़खड़ा गए. रमन उसी जगह गिरते-गिरते बचा, जहां पेड़ के नीचे कभी हीरामन औटो के इन्तज़ार में अपने अंगोछे को बिछाकर लेट जाता था.

रामबली ने दौड़कर बेन्द्रे को संभाला. वो अचकचाकर संभलते हुए फ़ौरन कार के अन्दर जा बैठा. रमन बेन्द्रे ने रामबली से “शुक्रिया” कहते हुए फाटक पार किया.

रामबली ने जवाब में बस इतना कहा, “लड़खड़ाते कदमों को संभालने की मेरी आदत है सा’ब.. आप तो अभी अच्छे-भले हैं...”

औफ़िस के दो-एक लोगों ने रामबली के शब्द सुने और बहुत द्रवित होकर हीरामन चौधरी को याद करने लगे. 


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