लोक संस्कृति की अनूठी विरासत हमारे खेल
प्राचीन काल से ही खेलों एवं सांस्कृतिक गतििवधियों का अपना महत्व रहा है।
जिसमें समय एवं कालखंड के अनुसार बदलाव, तो आए, लेकिन वो आज भी जीवन की
बुनियादी जरुरत के साथ ही शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक
परिपूर्णता के लिए अपना अलग ही महत्व बनाए हुए हैं। सदियों से मनुष्य सुकून की
तलाश में रहा है। खेल एक ऐसी गतिविधि है, जो शरीर को
चुस्त-तंदरुस्त बनाए रखने के साथ ही मन-मस्तिष्क को एक ऐसा सुकून प्रदान करता है,
जो हमारे जीवन के आनंद उत्सव को बनाए रखता है। कई परंपरागत एवं
प्राचीन खेल है, जो आज भी खेले जाते हैं, आज भी लोक संस्कृति की वो अनूठी विरासत हैं। इसमें दड़ा भी एक खेल है,
जो टोंक व बूंदी में मकर संक्रांति के दिन सदियों से खेला जा रहा
है। इसमें खिलाड़ियों की संख्या अनगिनत होने के साथ ही देखने वालों की भी भारी
संख्या आसपास नजर आती है। अर्जेटीना के फूटबाल मैच से कम इसका उत्साह नहीं आंका जा
सकता है। टोंक के आंवा कस्बे में इस खेल को देखने बाहर से भी लोग आते हैं। अपने आप
में रोचक होने के साथ ही इस खेल से कई मान्यताएं भी जुड़ी है।
दड़ा महोत्सव :
जयपुर रियासत के अधीन रहने वाले उनियारा ठिकाने में सेना में भर्ती का कभी
अपना अलग ही तरीका हुआ करता था।। जो देखने में दिलचस्प एवं रोचक भी था। वो आज भी
दड़ा खेल के नाम से खेला जाता है। ये खेल मकर संक्रांति पर टोंक जिले के आंवा कस्बे
में आयोजित होता है। इस संबंध उनियारा रियासत के रावराजा राजेंद्र सिंह का कहना था कि उनके पिता स्वर्गीय रावराजा
सरदार सिंह अपनी सेना में नौजवानों की भर्ती करने के लिए परीक्षा के रुप में यह
खेल आयोजित करते थे, वे देख लेते थे कि कौनसा रणबांकुरा हो सकता है, जिसे
फौज में भर्ती किया जाए।, जिससे ये तो स्पष्ट हो रहा है कि
ये खेल आवां में 100 साल से अधिक पुराना है। राजस्थान की एक अनूठी परंपरा के रुप
में इसे देखा जाता है। यदि ये रावराजा सरदार सिंह प्रथम के कार्यकाल में शुरू हुआ,
तो उनका कार्यकाल 1740 से 1777 के बीच रहा। उल्लेखनीय है कि उनियारा
ठिकाना जयपुर रियासत के अधीन रहा तथा 1843 में स्वतंत्र ठिकाना बना। स्व.रावराजा
सरदार सिंह द्वितीय 1913 में आसीन हुए थे तथा 1952 व 1957 विधायक भी चुने गए।
बहरहाल आवां का दड़ा कभी फौज में भर्ती परीक्षा के रुप में देखा जाता था, वहीं ये सौहार्द्र का प्रतीक आज भी बना हुआ है। इतिहासकार लिखते है कि 17
वीं शताब्दी के मध्य उनियारा पर रावराजा के पूर्वजों ने अपना अधिकार कर लिया था।
इस प्रकार ककोड़, नगर, बनेठा, उनियारा एवं आवां उनियारा के अधिकार में आ गए थे।
टोंक के आवां एवं बूंदी जिले के तालेड़ा स्थित बरुधंन में खेले जाने वाले दड़ा
को ही कई ग्रामीण फुटबाल खेल का जनक मानते हैं। वैसे ये भी कहा जाता है कि पहली
एवं दूसरी सदी में भी इस प्रकार का खेल चाइना आदि में खेला जाता था। दड़ा बूंदी
जिले के तालेड़ा के बरुंधन में भी आवां की तरह ही करीब 50 किलो वजन की फुटबाल यानी
दड़ा खेला जाता है। हाड़ावंशज कहते हैं कि बूंदी जिले के तालेड़ा बरुंधन में हाडावंश
के 60 परिवार 700 साल पहले रहते थे। उन्होंने यहां पर ये परंपरा डाली थी। इस
परंपरा के तहत दड़ा बनाने के लिए कपड़े, टाट आदि चढाकर उसको गोल आकार में गुथकर बनाया जाता है। करीब
70-80 किलो की फुटबाल की तरह बन जाता है। टोंक में ये दड़ा आवां रियासती गढ में
तैयार होता है। फिर उसके बाद उसे गोपाल चौक में रखा जाता है।
टोंक के आवां में बारहपुरो के ग्रामीण जिसमें छह गांव आखनिया दरवाजे एवं छह
गांव के ग्रामीण दूनी दरवाजे की और भारी भरकम दड़ा को भेजने के लिए पसीने में लथपथ
हो जाते हैं। एक दूसरे से जीतने के लिए मूंछे भले ही खींच जाती हो, लेकिन आपसी सौहाद्र का
पूरा ध्यान रखा जाता है। इसमें गांव के सभी वर्ग के लोग जोर आजमाईश करते हैं।
देखने के लिए छतों आदि पर लगा तांता देखकर कहा जा सकता है कि ये खेल अर्जेंटीना की
फुटबाल से अधिक क्रेज रखता है।
इस खेल को कभी जहां रावराजा सेना में भर्ती की परीक्षा के रुप में देखते थे, वहीं इससे कई मान्यताएं
भी जुड़ी हुई है। यदि दड़ा अखनिया दरवाज़े की और चला जाए, तो
ये कहा जाता है कि इस साल अकाल की स्थितियां रहेंगी। और दूनी दरवाजे की ओर जाए,
तो आने वाला साल खुशहाली एवं अमनचैन का होगा। कई ग्रामीण इस आधार पर
बुवाई आदि कार्य भी करते रहे हैं। बहरहाल ये खेल हमारी लोक संस्कृति की वो विरासत
है, जो आज भी लोगों को भावनात्मक जुड़ाव के साथ ही परंपरा से
जोड़े हुए हैं।
कबूतर दौड़ :
कुश्ती, बॉक्सिंग,
कबड्डी, क्रिकेट, वालीबाल,
फुटबाल एथलेटिक्स इवेंट आदि में व्यक्ति एवं टीम स्वयं जोर आजमाईश
करती है। लेकिन कई खेल ऐसे भी है, जिसमें मनुष्य ने
पशु-पक्षियों के माध्यम से भी खेल उत्सव को आगे बढाया हैं। जो हमारे लोक खेल के
रुप में आज भी कहीं ना कहीं जीवंत रुप में नजर आते हैं। कबूतर जहां शांति के
प्रतीक के रुप में देखा जाता है, वहीं ये सबसे प्राचीन पालतू
पक्षी भी है। कबूतर बाजी का भी अपना एक अलग ही अर्थ है। कबूतर बाजी का मतलब लोगों
को अवैध रुप से विदेशों में भेजने का धंधा भी है। लेकिन हम कबूतर से संबंधित उस
खेल का जिक्र कर रहे हैं, जो प्राचीन काल से ही अलग-अलग
रुपों में सामने आता रहा है। जिसे वर्तमान में कबूतर दौड़ भी कहते हैं। दुनिया भर
में करीब साढे 300 किस्म की कबूतरों की प्रजाति मिलती है। कबूतर कभी डाकिए की
भूमिका में देखा गया, तो कभी ये जासूस के रुप में भी काम
आया। कबूतर को लेकर कई पौराणिक गाथाएं प्रचलित भी रही है, तो
कई इसे देवदूत सहित कई रुपों में देखते हैं। पालतू एवं जंगली कबूतरों में काफी
अंतर होता है। अधिकांश लोग पालतू कबूतर को ही खेलों के रुप में उपयोग करते हैं।
उनको उसी हिसाब से खिला-पिलाकर तैयार भी किया जाता है। बहरहाल कबूतर दौड़ सदियों से
मनोरंजन एवं लोक खेल के रुप में आज भी मौजूद है। हालांकि ये खेल दुनिया के कई
देशों में खेला जाता है। लेकिन राजस्थान की मुस्लिम रियासत रही टोंक में इसका अपना
अलग ही मुकाम रहा है। यहां आज भी इसकी प्रतियोगिताएं देखने को मिल जाती है। कबूतर
की परख करने वाले उस्तादों की भी टोंक में एक समय काफी संख्या थी। इसमें ऐतिहासिक
कचहरी में रहने वाले साहबजादा खलीकुल्लाह खां उर्फ भोंदा मियां जाे टोंक के नवाबी
खानदान से तालुक रखते थे। उनके बारे में जानकार बताते हैं कि उनको कबूतरों के बारे
में इतना इल्म था कि वो कबूतर के पंजों एवं नाखून को देखकर ये बता देते थे कि इस
कबूतर में किस-किस किस्म के कबूतर का मेल है। कितने मेल के बाद ये कबूतर बना है।
उनके बारे में एक किस्सा प्रचलित है कि वो जयपुर जब भी जाते थे, तो वहां वो इंद्र जी से मिलते थे। इंद्र जी भी उनसे कई जानकारियां लिया
करते थे। एक दिन इंद्र जी ने भोंदा मियां से कहा कि मेरी दो मादा एवं पांच नर
कबूतर बहुत की कमजोर एवं निठल्ले हैं, जो कुछ दूर उड़कर ही
वापस उतर जाते हैं। इस पर भोंदा मियां ने कहा कि जिसका बाप सुल्तान नहीं होता है,
तो ये जरुरी नहीं की उसका बेटा भी सुल्तान नहीं हो। उन्होंने बताया
कि इस कबूतर से इसका मेल कराओ, इस से उसका कराओ, फिर इनके बच्चों की अच्छी उड़ान भरेंगे। ऐसा ही हुआ उनके बताए मेल से तैयार
हुए कबूतरों ने अच्छी उड़ान भरकर कई प्रतियोगिताओं में जीत भी हांसिल की। भाेंदा
मियां के कई शार्गिद थे, उसमें मुन्ना भाई बिस्मिला होटल
वाले भी बताए जाते हैं। भोंदा मियां ने भी कबूतर दौड़ की कई प्रतियोगिताएं जीती,
उनके घर पर आज भी उनकी जीते इनाम आदि मौजूद है। हालांकि वो 70 साल
की उम्र के बाद इस दुनिया से रुखसत हो गए। लेकिन उनकी कबूतर परवरी आज भी मशहूर
हैं। उनके ही शार्गिदों में माने जाने वाले शाहिद मियां ने एकबार राजस्थान
चैंपियनशिप में भाग लिया। उस में उनके 11 कबूतरों ने 102 घंटे 31 मिनट उड़ानभर कर
चैंपियनशिप जीती। टोंक में एक समय कबूतर प्रतियोगिता के मुकाबले बहुत हुआ करते थे।
जहां प्रतियोगिता होती थी, वहां पर फर्श बिछाकर लोग कबूतर
उड़ाने से लेकर देर शाम तक कबूतरों के वापस नहीं आने तक उनपर नजर बनाए रखते थे।
उनका उड़ने एवं वापस उतरने का समय नोट किया जाता था। जो कबूतर सबसे देर में आता था,
वो विजेता होता था। कई-कई कबूतर तो उस्ताद द्वारा बनाए गए निश्चित
समय पर ही अपने छतरी पर उतरता था।
कबूतर रेसिंग विशेष रूप से प्रशिक्षित घरेलू कबूतरों के उड़ान भरने से जुड़ा
है। जो सावधानीपूर्वक मापी गई दूरी के बाद अपने घरों को लौटते हैं। उनके उड़ानभरने
एवं लौटने का समय ही उसकी जीत हार तय करता है। जानकारी के अनुसार निर्दिष्ट दूरी
को कवर करने के लिए जानवर को लगने वाले समय को मापा जाता है और पक्षी की यात्रा की
दर की गणना की जाती है और दौड़ में अन्य सभी कबूतरों के साथ तुलना की जाती है ताकि
यह निर्धारित किया जा सके कि कौन सा जानवर उच्चतम गति से लौटा।
हालांकि इसबात की पूरी तरह पुष्टी नहीं की जा सकती है कि कबूतर रेसिंग का
खेल कब से शुरू हुआ। लेकिन इसके बारे में एक मजबूत अंदाजे के हिसाब से 200 से 300
ईस्वी पूर्व से ही ये खेल प्रचलन में रहा होगा। कई इतिहासकार एवं इस संबंध में शोध
करने वालों का कहना है कि 19वीं सदी के मध्य में इस खेल ने बेल्जियम में काफी
लोकप्रियता हासिल की। बेल्जियम के कबूतर प्रेमी इस शौक़ में इतने व्यस्त थे कि
उन्होंने कबूतरों को विकसित करना शुरू कर दिया, जिन्हें विशेष रूप से तेज उड़ान और लंबी सहनशक्ति के लिए
वॉयजर्स कहा जाता है । बेल्जियम से खेल का आधुनिक संस्करण और वॉयजर्स जिसे फ्लेमिश
के प्रशंसकों ने विकसित किया, दुनिया के अधिकांश हिस्सों में
फैल गया। एक बार काफी लोकप्रिय होने के बाद, खेल ने हाल के
वर्षों में दुनिया के कुछ हिस्सों में प्रतिभागियों में गिरावट का अनुभव किया है।
हालांकि वर्तमान में इसमें कमी आई है। लेकिन आज भी दुनिया के कई देशों में कबूतर
दौड़ की प्रतियोगिताएं होती है। राजस्थान में भी इस प्रकार की प्रतियोगिताएं होती
रहती है। अधिकांश प्रतियोगिताएं सर्दी के दिनों में होती रही है।
मुर्गा कुश्ती :
मुर्गा लड़ाने का खेल भी काफी प्राचीन रहा है। मुर्गेबाजी के बारे में भी ये
स्पष्ट नहीं है कि ये कब से शुरू हुआ। लेकिन कहा ये जाता है कि मुर्गा लड़ाई एक समय
पूरे भारत में कई जगह प्रचलित था। लेकिन अब ये कुछ क्षेत्रों में ही यदाकदा देखने
को मिलता है। इस खेल को लेकर जनजातीय बहुल क्षेत्रों में इसका काफी महत्व एवं
उत्साह नजर आता है। कई जानकार बताते हैं कि बस्तर में मुर्गा लड़ाई का खेल देखने को
मिलता है। कई सदियों पहले दक्षिण भारत में भी इसी तरह की मुर्गा लड़ाई का खेल होता
था। सोशल मीडिया पर प्रसारित एक जानकारी के अनुसार कर्नाटक के चामराज जिले में
गुंडलूपेट एक छोटा सा कस्बा है, इस कस्बे के एक आस्थ के केंद्र की दीवारों पर मुर्गा लड़ाई का दृश्य अंकित
है। इसमें दो मुर्गें आपस में लड़ रहे हैं, वहीं उसके मालिक
अपने-अपने मुर्गो को जीतने के लिए प्रोत्साहित कर रहे है। आस्था का केंद्र 10 वी
सदी के लगभग पश्चिमी गंग राजाओं के काल में निर्मित माना गया है। इस मंदिर की
दीवारों पर उत्कीर्ण मुर्गा लड़ाई के दृश्य इस बात को प्रमाणित करते है कि एक समय
पूरे भारत में खासकर दक्षिण भारत में भी मुर्गा लड़ाई का मनोरंजक खेल प्रचलन में
था। झारखंड के आदिवासी इलाकों में ग्रामीण हाट-बाजारों के अलावा कई स्थानों पर
परंपरागत खेल मुर्गा लड़ाई लोकप्रिय रहा है। घुड़दौड़ की तरह इस लड़ाई में लाखों
रुपए के दाव भी कई जगह लगाए जाने की सूचना मिलती है।
मुर्गा लड़ाई के दौरान एक घेरा बना लिया जाता है। मुर्गा लड़ाने वाले
आमने-सामने अपने-अपने मुर्गें लेकर खड़े हो जाते हैं, उसके बाद खेल का शुभारंभ करते ही दोनों अपने-अपने मुर्गें
छोड़ देते हैं। और वाे लड़ने लगते हैं। कई बार तो मुर्गें लड़ते-लड़ते इतने जख्मी हो
जाते हैं कि उनका खून इधर-उधर नजर आने लगता है। लेकिन उसके बाद भी वो लड़ते रहते
हैं। कई बार हालत ये हो जाते ही है कि मुर्गें का बचना भी मुश्कल हो जाता है। ऐसे
में कई लोग उसकाे खरीदकर उसको कटकर उसकी दावत भी कर लेते हैं। मुर्गें की
खिलाई-पिलाई भी बच्चों से भी अधिक ध्यान से की जाती है। कई चीजे मुर्गा पालन वाला
अपने बच्चों को नहीं खिला पाता है। वो चीजे वाे मुर्गें को खिलाकर अपने ही अंदाज
में उसको तैयार करता है। ड्राइ फ्रूट आदि भी खिलाएं जाते हैं। उनको रखने एवं सदाने
का भी अपना अलग ही तरीका होता है। जब मुर्गा लड़ाई के मैदान में उतरता है, तो उसको अलग-अलग अवाज के साथ संकेत देते हैं, उनको
प्रोत्साहित करने के लिए भी मुर्गा लड़ने वाला आवाजे निकालता है। इसको देखने का भी
अपना अलग ही मज़ा होता है। अवध, लखनऊ, हैदराबाद
आदि क्षेत्र में मुर्गा लड़ाई का अपना अलग ही अंदाज़ रहा है। कुछ ऐसा ही स्थान
रियासत काल के दौरान एवं रियासत काल के बाद राजस्थान के टोंक में भी देखने को
मिला। हालांकि खेल के आयोजन जयपुर के आसपास सहित कई जगह देखे गए। लेकिन अब यदाकदा
ही इसके आयोजन होते हैं। करीब 21 साल पहले सूचना जनसंपर्क विभाग टोंक की जिला
वार्षिकी में मुर्गा बाजी के बारे में लिखा है कि चाहे अकाल की छाया हो या पीने का
पानी मयस्सर भी ना हो परेशान सूरते हाल में भी रिवायतों को बरकरार रखने की कोशिश
करते रहते हैं। ऐसा ही एक शौक़ मुर्गेंबाजी का भी है। लखनऊ और हैदराबाद के बाद टोंक
में मुर्गेंबाजी अव्वल स्तर पर होती है। टोंक में ऐसे मुर्गेबाज है, जो अपने मुर्गों को बाकायदा प्रशिक्षित कर मुर्गेबाजी की प्रतियोगिता
आयोजित करते रहते हैं। जिन्हें देखने के लिए दूरदराज से भी लोग आते हैं। ऐसा कहा
जाता है कि मुर्गे की सी बहादूरी शेर में भी नहीं होती। मुर्गा मर जाता है,
मगर लड़ाई से मुंह नहीं मोड़ता है, जिनकी वे
बहुत हिफाजत करते हैं। लड़ाई के मुर्गों की तैयारी में मुर्गेबाज का कमाल मुर्गें
की खुराक और देखभाल के अलावा उसके शरीर की मालिश करने, पानी
की फुहार देने व चौंच बनाने में देखने को मिलता है। इस अंदेशे से कि जमीन पर दाना
चुकाने से चौंच को नुकसान न पहुंच जाए। अक्सर दाना उन्हें हाथ पर खिलाया जाता है।
तीतर-बटेर की लड़ाई :
मुर्गें एवं कबूतर ही नहीं तीतर-बटैर को भी बाकायदा ट्रेनिंग देकर उनकी
प्रतियोगिताएं भी कई जगह आयोजित हुई। इसमें टोंक शामिल रहा। तीतर-बटैर की लड़ाई के
बारे में कई जानकार बताते हैं कि ये खेल काफी कम प्रचलन में रहा। इस खेल में जो
तीतर-बटैर मैदान छोड़कर भाग जाता था, वो हार जाता था। तीतर-बटेर को अपने-अपने अंदाज में लड़ाई के
लिए तैयार किया जाता था। इसके मुकाबले कम ही हुआ करते थे। पक्षियों के अलावा
बैलगाडी दौड़, तांगा दौड़, ऊंट दौड,
घोडा दौड़ आदि का भी अपना लग ही आनंद रहा है। मेलों आदि में इसके
आयोजन अधिक हुआ करते थे।
पतंग बाजी प्रतियोगिता :
जहां पक्षियों एवं पशुओं का लोगों ने अपने परंपरागत खेलों के रुप में उपयोग
किया। वहीं पतंग बाजी का भी अपना अलग ही आनंद रहा है। इसकी भी प्रतियोगिताएं हुआ
करती थी। अधिकांश सर्दी के दिनों में इसकी प्रतियोगिताएं अधिक हुआ करती थी। कई
पतंग बाजा अपने पतंग एवं मांझा अपने ही तरीके से तैयार करते थे। खुले मैदानों में
दो पार्टियां अपने-अपने पतंग लेकर जमा हो जाते थे। कुछ दूरी पर जाकर अपने-अपने
पतंग उड़ाते थे। उसके बाद पेंच लड़ाते थे। सबसे अधिक पेच काटने वाला विजेता होता था।
जहां पतंग उड़ाने का अपना मजा हुआ करता था, वहीं कटी पतंग को लूटना भी अपने आप में काफी उत्साहजनक
नजारा पेश करता था। अब इसकी प्रतियोगिताएं तो नहीं होती है, लेकिन
लोग पतंग उड़ाकर पेच लड़ाते हैं। मकर संक्रांति पर काफी संख्या में लोग पतंग उड़ाते
हैं।
ये भी रहे लोक खेल :
रुमाल झपट्टा, आइस-पाइस, गिल्ली-डंडा, आलमजी का आलम कोड़ा, छुप्पन-छुपाई, गुलाम लकड़ी, आंख मिचोली, अंधा भैंसा, इक्की दुक्की, सितोलिया, किल्ली किल्ली कांटा, लंगड़ी टांग का खेल, घोड़ी कच्ची के पक्की, अन्टे, भोरिया, टोल भोरा, जाल झपट, रस्सी कूद, रस्साकशी, पछट्टे, चंपो, चोसर, बोल मेरी मछली कितना पानी, लंगड़ी घोड़ी, चादर छुपाईया, थिरू बाटी थिरू, शतरंज, तांगा दौड़, मोटर दौड़, शोबदा बाजी का खेल, मेरी कमर पर कौन बुगला, जादू मंत्र का तमाशा, रींछ बंदर के तमाशे, कठपुतली का तमाशा, नाटक, चारबैत, नौबत बजना, बेत बाजी आदि खेल प्राचीन काल से ही प्रचलन में हैं। उल्लेखनीय है कि टोंक का मिश्री जैसा खरबूजा एक समय देशभर में अपनी पहचान रखता था। इसकी भी ख़रबूज़ा लड़ाना प्रतियोगिता होती थी। इसमें ख़रबूज़ों के ढेर से एक ख़रबूज़ा छांटा जाता था। ऐसे ही दूसरी टीम एक ख़रबूज़ा छांट लेती थी। और दोनों टीमें ये दावा करती थी, की उनका खरबूजा अधिक मीठा एवं स्वादिष्ट है। इसको जज करने के लिए एक टीम होती थी। वो उसका फैसला करती थी। ये ख़रबूजों की प्रतियाेगिता कई बार जुआं का रुप भी लेती नजर आई। अब बनास नदी में होने वाले मिश्री जैसी मिठास वाले खरबूजें है, और ना ही अब वो खेल ही खेला जाता है।
2 टिप्पणियां:
बहुत शानदार
लोक संस्कृति की अनूठी मिसाल
एक टिप्पणी भेजें