मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

जड़ों की ओर लौटना मनुष्य का मूल स्वभाव है - विवेक कुमार मिश्र

जड़ों की ओर लौटना मनुष्य का मूल स्वभाव है

- विवेक कुमार मिश्र

 

हम किस तरह चलें कि अपने मूल तक - अपनी जड़ों तक पहुंच जाएं । हर आदमी के लिए जरूरी होता है कि वह अपनी जड़ों तक पहुंचे । अपने उस संसार को जाने , देखें जहां से निकला है । आज हम कहां हैं ? इसका बहुत कुछ श्रेय इस पर निर्भर करता है कि हम कहां से आए हैं । हमारी बुनावट कहां से हुई है । हम सब जहां कहीं भी जाएं पर अपनी जड़ों को भुलाकर जड़ों को काटकर या जड़ों से कट कर कदम ना बढ़ाएं । जड़ों से कटकर कोई भी कहीं नहीं पहुंचता । यदि इस तरह जाते हैं तो हम कहीं पहुंच नहीं पाएंगे । संसार में हमारा विस्तार कितना भी क्यों ना हो जाए कोई अर्थ नहीं । यदि आप जड़ों को भूल कर आगे बढ़ते हैं यदि आपके पास अपनी जड़ों की स्मृतियां नहीं है तो फिर जीवन की कोई सार्थकता नहीं हो सकती । हमारी जड़ें कितनी व्यापक हैं हम जड़ों को कितना विस्तार दे पा रहे हैं यह सब जब हम देखते हैं सोचते हैं तभी सही ढंग से समाज के लिए अपना कुछ श्रेष्ठ दे पाते हैं । यह  सब अपनी जड़ों के कारण ही हो पाता है । जड़ों की ओर लौटना मूल स्वभाव बन जाता है । वह अपने को खोजना शुरू करता है कि हम कौन थे ? हम कहां से आए ? हमारी शुरुआत कहां से हुई ? और हम जहां हैं क्या यह हमारी शुरुआत से मेल खाता है या हम इतना बदल गये हैं कि कुछ भी पूर्व जैसा नहीं है या हमारी जड़ें सूख गई हैं और यदि कुछ बचा ही नहीं तो फिर होने के क्या मायने ? यहीं पर यह कहा जा सकता है कि अपनी जड़ों को पहचानते हुए अपने उद्गम के स्रोत को जानते हुए आगे बढ़ना चाहिए । अपने समय अपने मूल का पता लिए चलते रहना चाहिए । मूल स्रोत की बातें जीवन व्यवहार व समाज में चलती रहती हैं । पूरी दुनिया ही घूम आये पर मूल स्रोत को कैसे भूल सकते । अपनी दुनिया इतनी दूर न हो कि आप उसे पहचान ही न पाएं । यदि आप अपनी दुनिया के साथ चलते हैं तो अन्य दुनिया भी आपके साथ चलती है । यानी आप अपनी जड़ों के साथ हैं और जड़ें हैं तो सब कुछ है ।

जड़ें  परिवार से आती हैं । परिवार के प्रति हमारी भावना क्या है ? परिवार को हम किस तरह देखते हैं ? परिवार के साथ समाज को किस तरह देखते हैं और अपने समय के साथ हम कहां तक पारिवारिक धरातल पर जुड़े हैं ? यह पारिवारिक लगाव जुड़ाव ही समाज में हमें नए सिरे से जुड़ने और जीने के लिए कहता है । परिवार का अर्थ केवल निजी परिवार भर नहीं है वल्कि जिस समाज में, जिस दुनिया में जिस परिसर में आप रहते हैं उसके साथ आपका भाव तंत्र जुड़ा है कि नहीं , उसके साथ आप कितना पारिवारिक हो पाते हैं यह आपके सांसारिक जीवन और सांसारिक कदम को आगे बढ़ाने का कारक बनता है । पारिवारिक भाव , मित्र भाव और समभाव समाज के बीच जीवन जीने से मिलते हैं ।

समाज में होने का अर्थ है कि समाज की खुशियों में सुख में , दुःख में , संकट काल में हर समय समाज के साथ चलने के लिए दो कदम आपके पास हो , इतना समय निकालिए कि अपने अलावा अन्य के लिए भी चल सकें । लोगों के साथ कुछ देर बैठे कुछ समय निकालें , बातें करें तब जाकर सही में आप सामाजिक व्यक्ति हो पाते हैं । मनुष्य यदि यह सोचता है कि समाज के बीच मेरा घर है तो वह सामाजिक नहीं होता । कॉलोनी में आपका मकान / घर है । ठीक है । यह एक तथ्य भर  है पर कॉलोनी में आप लोगों से मिलते हैं लोगों से संवाद करते हैं । कभी उनकी बातों को सुनते हैं कभी उनके सुख-दुःख पर चर्चा करते हैं । तो बात बनती है । तीज़ त्योहार पर साथ खुशियां मनाते हैं तो आप समाज में रहते हैं । अन्यथा आप और आपका मकान तो अपनी जगह पर है ही पर आपके साथ समाज कहीं नहीं है । न ही किसी के साथ आप हैं । समाज आपके लिए दूर की कौड़ी हो जाता है । परिवार भी इस तरह लोगों के पास नहीं होता । परिवार से भी वे केवल भौतिक दूरी पर नहीं भावकोश से भी मिलों मील दूर रहते हैं । इस तरह के लोगों के पास कोई भी चीज नहीं होती , सब दूर होता है ।

ऐसे लोग कहीं पर जाएं किसी भी तरह की बातें करें किसी भी तरह का दिखावा करें संसार इनके लेखें कुछ नहीं होता । ये संसार से दूर होते हैं । सांसारिक दूरियां अपनी जगह पर हैं । ये केवल तथ्य भर है पर जब बातचीत करते हैं या बातचीत के बहाने निकलते हैं तो दूरियां भौगोलिक तो दूर होती ही हैं भावनात्मक दूरी भी दूर हो जाती है । इस तरह मानवीय ऊर्जा को हम न केवल समझने में समर्थ होते हैं बल्कि उस ऊर्जा से जीवन का विस्तार करते हैं । संवाद के लिए रास्ता निकालते हैं । समय निकालना और चलना महत्वपूर्ण होता है ।

किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है पर इसी संसार में यदि और समय निकाल पाते हैं तो आप क्यों नहीं निकल पा रहे हैं । ऐसा क्या कर रहे हैं या कर भी रहे हैं कि नहीं यह समझ से परे है । आप कुछ करें या ना करें पर अपने आसपास की दुनिया के लिए अपने परिवार समाज के लिए पड़ोसी के लिए अपनी सत्ता से इतर अन्य लोगों के लिए कुछ समय निकालें । यदि आप अन्य के लिए समय निकाल पाते हैं तो अन्य के साथ-साथ आपके भीतर भी खुशियां जन्म लेती हैं । हमारा आंतरिक भाव मजबूत होता है ।

केवल शारीरिक बल या शारीरिक स्वास्थ्य ही काफी नहीं होता । शारीरिक स्वास्थ्य से आगे मानसिक स्वास्थ्य के लिए अपने भाव तंत्र के लिए जीवन पथ पर सामाजिक पथ पर बंधुत्व का भाव एक दूसरे की सत्ता को स्वीकार करने की सदिच्क्षा का होना हमारे भीतर अनिवार्य होता है । यह कोई दवा की गोली नहीं है कि लिया और गटक लिया । कुछ देर बाद इसका प्रभाव दिखने लगेगा । यह धीरे-धीरे जीवन जीने की प्रक्रिया में विकसित भाव प्रणाली तंत्र है जिससे मनुष्य का स्वभाव निर्मित होता है । यह सहज गति से चलने का परिणाम है । जीवन पथ पर जब अतियों से बचकर निकलते हैं तो हमारे सामने सहजता व सरलता का पाठ होता है । कहना आसान है कि सहज हो जाए या सहज रहें । हर कोई सहज रहना चाहता है पर सहज रह नहीं पता । बहुत ज्यादा अपनी दुनिया अपनी माटी और अपने लोगों पर विश्वास के बाद यह सहजता अर्जित होती है ।

स्वयं को पहचानते हुए अन्य लोगों की गति को देखें और अन्य को पहचाने । अन्य को छोड़कर अन्य से किनारा करते हुए न चलें । अपनी गति में अन्य का सहयोग निश्चयात्मक रूप से लेते रहें , जो लोग भी आगे जाते हैं या कुछ अच्छा कर पाते हैं उसमें अन्य की भी भूमिका होती है । अन्य को लेने का अन्य को स्वीकार करने की क्षमता भी आपके भीतर होनी चाहिए । यह सीखने की प्रक्रिया के साथ होती है । जो लोग भी नई बात , नए संदर्भ और नई तकनीक को स्वीकार करते हैं वे सहज रूप से अपनी क्षमता का विकास करते रहते हैं । उन्हें अलग से इसके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता । हमारे सामाजिक ढांचे में इसी तरह  एक दूसरे से समझने , सीखने और जानने की सहज परंपरा रही है । एक दूसरे के ज्ञान के प्रति आदर सम्मान का भाव  जब विकसित होता है तो स्वाभाविक रूप से हम अपना विकास करते हैं। इस क्रम में समाज का विकास होता है, सामाजिक गति को बढ़ावा मिलता है । कुछ भी अपने आप में पूर्ण नहीं है सब एक दूसरे के साथ अपनी अपूर्ण स्थिति को दूर करते हैं ।

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एफ -9समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002

 

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