सहनशीलता द्वारा जगत-कल्याण: भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता
डॉ0 रवीन्द्र कुमार*
"ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वं विष्णुना धृता/ त्वं च धारय मां देवी पवित्रं कुरु चासनम्// –हे देवी (पृथ्वी)! सम्पूर्ण विश्व लोक आपके द्वारा धारण किया जाता है और श्रीविष्णु (परमात्मा) द्वारा आपको धारण किया जाता है; हे (पृथ्वी) देवी! आप मुझे भी धारण करो तथा इस आसन (लोक-निवास) को पवित्रता प्रदान करो।"
मानव-एकता, समानता तथा सर्व सद्भावना के लिए सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले चैतन्य महाप्रभु (जीवनकाल: 1486-1534 ईसवीं) के प्रमुख शिष्य सनातन गोस्वामी (जीवनकाल: 1488-1558 ईसवीं) द्वारा रचित श्री हरि-भक्ति विलास (5: 22) में प्रकट उक्त श्लोक, जिसकी जड़ें वैदिक वाङ्गमय के अभिन्न भाग उपनिषदों (विशेषकर कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय उपनिषद्) की मूल शिक्षाओं में हैं; साथ ही, वैदिक मंत्रों से जिनका निकास है, वास्तव में, भारतीय संस्कृति की जगत-कल्याण सम्बन्धी सर्वप्रमुख विशेषता को समर्पित है।
तैत्तिरीय उपनिषद् के शिक्षावल्ली (11: 1) में, जो इस उपनिषद् का बहुत ही महत्त्वपूर्ण भाग है, "सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः... –सत्य बोलो, धर्माचरण करो, स्वाध्याय में आलस्य न करो…" जैसे प्रमुख मंत्र सम्मिलित हैं।
सत्य एक ही है; वही परमसत्य और ब्रह्म है। सत्य का आलिंगन ही धर्म-पालन है; दूसरे शब्दों में, यही धर्माचरण का माध्यम या मार्ग है। पृथ्वी (वसुधा) धर्म-पालन (धर्माचरण) का क्षेत्र है। यह अपने स्वभाव में क्षमा की पर्याय है। यह निरन्तर धारण करती है; सदैव सहनशील रहती है। अपने क्षमाशीलता और सहनशीलता जैसे महागुणों द्वारा स्वयं धर्म का उदाहरण बनकर मानव का धर्म-पालन का आह्वान करती है। मध्यकाल में रचित श्री हरि-भक्ति विलास में प्रकट हुए श्लोक का (हजारों वर्ष पूर्व तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षाओं के माध्यम से) आधार बनती है।
अथर्ववेद के पृथ्वी (भूमि) सूक्त (प्रथम सूक्त, बारहवाँ काण्ड) की यही मूल भावना है। इसका निष्कर्ष मानव में सहनशीलता को (क्षमा-करुणा जैसी विशिष्टताएँ जिसके साथ जुड़ी हैं, सहिष्णुता जिसकी पूरक है और जो आत्मसंयम, उदारवादी तटस्थता व निष्पक्षता की भी द्योतक है) प्रधान गुण के रूप में विकसित करना है। इसे प्रमुख जीवन-संस्कार बनाकर, इसकी मूल भावना के अनुसार मानव को परस्पर व्यवहारों के लिए प्रेरित करना है। यह वास्तविकता और आगे भी जाती है। वैदिक-हिन्दू धर्मग्रन्थों के अतिरिक्त भारतीय मूल के अन्य प्राचीनकालिक विचार-ग्रन्थों, यहाँ तक की तिरुवल्लुवर (जीवनकाल: अनुमानतः छठी-पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व) की नीतिशास्त्र की अद्वितीय रचना ‘तिरुक्कुरल’ में, स्वयं अहिंसा धर्म और उच्चतम मानवीय मूल्य के रूप में जिसका एक प्रमुख विषय है, यही प्राथमिकता से प्रकट होता मनुष्य का आह्वान है। विशेष रूप से, गृहस्थी में अहिंसामूलक नैतिक मूल्यों, प्रमुखतः सहनशीलता जैसी विशिष्टता के अनुरूप व्यवहारों द्वारा दिव्य, पवित्र और शुद्ध जीवन जीया जा सकता है, मानव के लिए यह सन्देश है।
आधारभूत धर्मग्रन्थों में, विशेष रूप से पृथ्वी को केन्द्र में रखकर सहनशीलता के सम्बन्ध में प्रकट उल्लेखों के अनुरूप ही इनके आदिकालिक व्याख्याताओं-प्रसारकों ने अपना जीवन भी जीया। उत्तर-दक्षिण व पूरब-पश्चिम, सम्पूर्ण भारतवर्ष से उन व्याख्याताओं-प्रसारकों ने धैर्य, शान्तता, सन्तोष, संयम, सहिष्णुता, सुशीलता आदि जैसी सहनशीलता की पूरक और इसे दृढ़ करती विशिष्टताओं को अपना एक प्रमुख जीवन-संस्कार बनाया। परस्पर सहयोग, सामंजस्यता तथा स्वीकार्यता का मार्ग प्रशस्तकर्त्री सहनशीलता को अपने जीवन के प्रमुख गुण के रूप में विकसित कर, लोगों को इसके अनुरूप व्यवहारों-आचरणों हेतु प्रेरित और प्रवृत्त करने वाले वे वीर पुरुष ही “वसुधैव कुटुम्बकम" की सत्यता को स्वीकार कर सर्व न्याय के सिद्धान्त साथ जगत-कल्याण को समर्पित भारतीय संस्कृति की नींव रखने वाले थे।
उन संस्थापकों का अनुसरण करते हुए बाद के प्रत्येक काल-खण्ड में धर्म-सम्प्रदायों, मतों-पन्थों की सीमाओं से बाहर आकर निर्भीक, दृढ़संकल्पी और व्यापक जनोद्धार के लिए प्रतिबद्ध आचार्य, कर्मयोगी और महापुरुष इस दिशा में आगे बढ़े।
'संस्कृति' शब्द संस्कार से ही बना है। संस्कार व्यक्ति में गुण (विशिष्टता) के विकास का माध्यम अथवा आधार है तथा उसकी व्यक्तिगत गतिविधियों एवं सजातीयों के साथ व्यवहारों के माध्यम से उसके सभ्य, सकारात्मक एवं समन्वयकारी बनने व कर्त्तव्यबद्ध होकर विकासमार्गी होने में निर्णायक भूमिका का निर्वहन करता है। संस्कार ही सहनशीलता को, उसके विभिन्न पक्षों के साथ, जिनमें से करुणा, क्षमा, सन्तोष, सहिष्णुता, सुशीलता, संयम आदि जैसे कुछेक का हमने उल्लेख भी किया है, व्यक्ति में गुण के रूप में विकसित करता है। यही मनुष्य में धैर्य व संयम को, जिनका वृहद् मानवोत्थान हेतु इसी के परिप्रेक्ष्य में वेदों व अन्य ग्रन्थों में अनेक बार उल्लेख है, सुदृढ़ भी करता है। इसलिए, भारत-भूमि पर उत्पन्न महान ऋषियों-महर्षियों –सनातन सत्यता (“सनता” –सनातन, ऋग्वेद, 3: 3: 1 और“शाश्वत” –सदैव अस्तित्ववान, श्रीमद्भगवद्गीता, 14: 27) के प्रकाशकर्ताओं ने सहनशीलता को प्रमुख मानवीय संस्कार के रूप में स्थापित कर भारतीय संस्कृति की अति सुदृढ़ नींव रखी और इसका विकास किया। यह क्रम हजारों वर्ष से बना हुआ है। भारतीय संस्कृति सहनशीलता प्रधान अपनी पहचान के साथ विश्वभर के लिए आशा व विश्वास से भरपूर एक प्रकाशपुञ्ज की भाँति स्थापित है। सहनशीलता की अपनी सर्वप्रमुख विशिष्टता की अक्षुण्णता के बल पर जगत-कल्याण के लिए आगे भी स्थापित रहेगी।
भारतीय संस्कृति का सहनशीलता वाला पक्ष सनातन सत्यता (“जगत में प्रत्येक जन एक ही मूलोत्पन्न है और सर्व-कल्याण में ही निजोन्नति भी सम्मिलित है") को समर्पित है। सहनशीलता पर-मत अथवा विचार, विश्वास या श्रद्धा की स्वीकृति का सन्देश देती है। इस सन्देश के मूल में "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" (ऋग्वेद, 1: 164: 46) जैसा अतिश्रेष्ठ वेद-मंत्र है। चूँकि सत्य तक पहुँचने का मार्ग या माध्यम किसी एक विचार, ग्रन्थ, अवतार या सन्देशवाहक तक सीमित नहीं हो सकता, इसलिए ऐसा करने वाला कोई भी व्यक्ति, वास्तव में, सहनशील नहीं हो सकता।
सहनशीलता दूसरे की कार्यपद्धति का, यदि वह किसी के लिए अन्यायी नहीं है और उसके मार्ग की बाधा नहीं बनती है, सम्मान करने की अपेक्षा भी रखती है। साथ ही, वैचारिक मतभेद अथवा पृथक कार्यपद्धति की स्थिति में वृहद् कल्याण के लिए सामंजस्य स्थापना के साथ सहयोग का आह्वान करती है।
विश्व-इतिहास के पृष्ठ स्वयं ही इस बात के साक्षी हैं कि सहनशीलता केन्द्रित भारतीय संस्कृति ने गत हजारों वर्षों की समयावधि में उन अनेकानेक मतों, पन्थों एवं धर्म सम्प्रदायों को हृदयंगम किया, जिनका उदय-स्थान हिन्दुस्तान नहीं था। विश्व की सबसे प्राचीन जीवित भारतीय संस्कृति ने उन अभारतीय जन के विश्वासों, उनकी परम्पराओं और श्रद्धाओं को हिन्दुस्तानी भूमि पर सम्मान के साथ फैलने-फूलने का समान अवसर दिया, जिन्हें स्वयं उनके उद्गम स्थानों पर नकारा और उजाड़ा गया।
विशेष रूप से यहूदियों और पारसियों के अपने-अपने देशों में अमानवीय उत्पीड़न, उनकी उपासना पद्धतियों, रीतियों, धार्मिक मान्यताओं व मूल्यों को बलात मिटाने के निरन्तर प्रयास, परिणामस्वरूप उनके प्रथम से सातवीं-आठवीं शताब्दी ईसवीं में मालाबार (वर्तमान केरल प्रान्त) और संजान नगर (वर्तमान गुजरात प्रान्त) में पहली बार और बाद में भी भारत आगमन से जुड़ा घटनाक्रम हमारे सामने है। पर-वैयक्तिकता की सत्यता को स्वीकार कर उसे सम्मान देने वाली सनातन मूल्यों की पोषक हिन्दुस्तानी भूमि द्वारा उन लोगों को अपनी गोद में लेना तथा सहनशीलता प्रधान व समावेशी भारतीय संस्कृति द्वारा उनकी मान्यताओं, श्रद्धाओं और अति विशेष रूप से उनकी उपासना पद्धतियों का आदर व संरक्षण विश्वभर में किसी से छिपा नहीं है।
इस सम्बन्ध में मैं किसी विस्तार में नहीं जाऊँगा। मैं केवल इतना ही कहूँगा कि सहनशीलता का इससे श्रेष्ठ कोई दूसरा उदाहरण भारतीय संस्कृति के अतिरिक्त सम्पूर्ण उपलब्ध मानव-इतिहास में वर्णित किसी अन्य संस्कृति के सम्बन्ध में नहीं मिलेगा। सनातन–शाश्वत मूल्यों से बँधी और पृथ्वीमाता की जगत-कल्याण हेतु सहनशीलता का अनुसरण करती भारतीय संस्कृति पूरे विश्व के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है। एक ओर यही वह शक्ति है, जो सारे भारत को उसकी विभिन्नताओं के साथ एकता के सूत्र में पिरोती है, तो दूसरी ओर "वसुधैव कुटुम्बकम" की सत्यता को स्वीकार कर यह भारत के विश्वगुरु के रूप में स्थापित होने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। अमरीकी इतिहासकार और दार्शनिक विल ड्यूरेंट (जीवनकाल: 1885-1981 ईसवीं) ने ठीक ही कहा है, "भारत हमें परिपक्व मस्तिष्क की सहनशीलता और विनम्रता, समझने की भावना और सभी मनुष्यों की एकता व संतुष्टि हेतु प्रेम सिखाएगा।"
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं।
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