गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

स्वावलम्बन-  केदार शर्मा,”निरीह’’ सेवानिवृत व्याख्याता (अंग्रेजी)


 स्वावलम्बन

 श हर की फैक्ट्री बंद हो जाने के कारण  जमना और विनोद को वापस एक अरसे बाद गाँव आना पड़ा । पति विनोद दमें का मरीज था। वहाँ निगरानी और माल की गिनती  के काम में नियुक्त था । जमना का काम मीटर के डिब्बों को ट्रकों में लादना था।

           शहर से वापस आने पर उसने पाया कि उसका वह छोटा सा घर आज बदरंग हालत में हो गया था। बरसात की सीलन से लकडी के दरवाजे अकड़े हुए थे । घर के भीतर चूहों के बड़े-बड़े बिल थे। जमना की दो दिन की अथक मेहनत के बाद घर रहने लायक स्थिति में आ गया था। सच  में बिन घरनी घर भूत का डेरा जैसा हो गया था ।

तभी बाहर किसी  पाँवों की आहट सुनाई पड़ी। ‘आज शहर वालों के यहाँ क्या बन रहा ?’ छोटी देवरानी भीतर आ गयी थी।

‘कुछ नहीं बहन, चटनी-रोटी बनी हैं । क्यों मजाक उड़ाती हो? शहर वाले बनना तो हमारी मजबूरी थी। ‘

‘ऐसी क्या मजबूरी थी ,हम तो नहीं गए गाँव छोड़कर ।‘कहते हुए वह सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गयी।

‘’ न जाते तो क्या करते बहिन ? ससुरजी की मौत के बाद सारी जिम्मेदारी रतन के पापा के कंधों पर आ गयी थी। दोनो देवरों और तीन ननदों का खर्चा उठाया ,पढ़ाया-लिखाया ,विवाह किया । उसके बाद गाँव से शहर के बीच की भागम-भाग से परेशान होकर  साथ मुझे भी उनके साथ शहर जाना ही पड़ा । यहाँ सब कुछ सीधा मिल गया,इसलिए तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।

        ‘जो कुछ किया होगा तुम्हारे देवरों के लिए किया होगा,अब हमें गिनाने से क्या होगा ?’ कहते हुए देवरानी बड़बड़ाती हुई धीरे-धीरे  बाहर चली गई ।

खाना खाने के बाद रतन,रतनी और धन्नी तीनों पुत्रियाँ तो सो गई  पर जमना की आँखों में नींद नहीं थी। ‘इस तरह से चेहरा लटकाए क्या सारी रात जागत रहोगी ?’— विनोद ने टोका तो जमना की रूलाई फूट पड़ी ।

            ‘’अपने भाग्य को कोस रही हूँ—भीतर भरा गुबार मानो निकलने की प्रतीक्षा में था । ‘’ कैसे यहाँ नई जिन्दगी की शुरूआत होगी ? किसी उखड़े हुए पौधे की सी हालत हो गई है हमारी । नकद पैसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है । कैसे हम परिवार का खर्च चलाएँगे ।‘’ कैसे तीनों संतानों को पढ़ाने का और विवाह का खर्च उठाएँगे ?

‘तू चिंता मत कर,ईश्‍वर सब सही करेगा ।‘ विनोद ने सांत्वना देने का प्रयास किया ।

         ‘ ईश्‍वर क्या आकर मुँह में खाना डाल देगा ?आपने शहर जाकर क्या कर लिया ?’

       ‘ शहर की महँगाई कुछ करने देती तब न । वहाँ तो बस दाल-रोटी खाकर जिंदा रहा जा सकता है।‘

 पति से बहस करते करते जमना की न जाने आँख लग गई ।

                       मुर्गा बोलने की आवाज से उसे पता चला कि सुबह होने वाली है। आवाजाही शुरू होने से पहले ही पड़ौस की औरतों ने घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाना शुरू कर दिया था। उधर हरिबोल कीर्तन वालों की प्रभात-फेरी ढोल-मजीरों के साथ चल पड़ी थी।हेण्‍डपंप चलाने की आवाज भी रह रहकर वातावरण की इस हलचल में अपना अलग ही सुर बिखेर रही थी। अभी.अभी  मस्जिद की अजान बंद हुई थी और मंदिर की आरती शुरू हो गई थी । जमना भी अपने नित्य-कर्म में जुट गयी। विनोद कब का नहा-धोकर पूजा-पाठ में लग गया था ।

भोर का उजाला हो चुका था। बाहर कोई आवाज लगा रहा था।उत्सुकता का भाव लिए दोनो पति-पत्नी बाहर निकल आए।  यह तो चौधरी रामलाल था —“खेत से सब्जियाँ तोड़कर शहर भिजवानी है,दो मजदूरों की जरूरत है,चलोगे?”

विनोद  कुछ कहता इसके पहले ही जमना ने घूँघट नीचे सरका कर अपने पति से कहा—“हाँ, चले चलेंगे।“

पति और बच्चों सहित जमना आधे घंटे में चौधरी के खेत में पहुँच गई । लोकी,भिण्‍डी,बैंगन,गवार की फलियाँ और टमाटर प्लास्टिक के कट्टों में पैक करके जुगाड़ में लाद दिया गया । विनोद भी रामलाल के साथ थोक-मंडी पहुँच गया। उसने एक-एक कर सभी कट्टे उतरवाए ।  हिसाब-किताब करके दोपहर बाद दोनों  वापस गाँव के लिए रवाना हो गए।

           आज मिली दोनो की मजदूरी से जमना ने किराने का  जरूरी सामान मंगवाया।

शाम को  विनोद को अपने बचपन का घनिष्‍ट मित्र नानगराम जाता हुआ दिखाई दिया।जिस समय विनोद जयपुर गया था उन्ही दिनों नानगराम ने ठेले पर कुल्फी बेचने का काम संभाल लिया था।उसने जोर से आवाज देकर उसे बुला लिया । नानगराम भी चौंका—“अरे भैया कब आए शहर से ?सब ठीक-ठाक तो है न भाई ?कहता हुआ वह चारपाई पर बैठ गया ।कहने लगा-‘’मैंने भी अब फेरी लगाकर कुल्फी बेचना बन्द कर दिया भैया, अब बुढा़पे में कमर ने जवाब दे दिया है । सो यह ठेला बेचने का मन था । यहाँ भी पड़े -पड़े खराब हो जाएगा --  नानगराम ने पास में ही अपने बाड़े में पड़े ठेले की ओर इशारा करते हुए कहा।

           ठेले की बात आते ही जमना के मष्तिष्‍क में कोई विचार कौंधा —‘’हमें दे दो भैया । हम मजूरी करके खा लेंगे ।‘’चाय का कप सौंपते हुए जमना ने कहा । विनोद चौंका — ‘’किसके लिए ले रही हो तुम ?,मेरी तो कमर का पहले ही हाल बेहाल है । मुझसे नहीं लगेगी फेरी-वेरी ।‘’

‘’ आपको फेरी लगाने के लिए कौन कह रहा है  जी ? आड़े वक्त में चीज काम आ ही आती हे ‘’ कहकर जमना चुप हो गयी ।

  थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया । फिर जमना ही बोली-  भैया , आप तो यह बताओ —‘’कितने रूपए लोगे ? विनोद मन ही मन चकरा रहा था । आखिर जमना को हो क्या गया  है ? एक दिन तो मजूरी की है ओर ठेले का सौदा  कर रही है। कहाँ से इसके पैसे देगी यह ? पर प्रत्यक्ष में वह चुप ही रहा ।

‘वैसे तो एक हजार से कम का नहीं है पर तुम नौ सौ रूपए दे देना  ‘’ नानगराम ने जवाब दिया

‘’ ठीक है भैया , सौदा पक्का । दो महीने की मोहलत दे दो । हम बिना माँगे हिसाब चुकता कर देंगे ।‘’

 नानगराम को नकद की उम्मीद थी । पर वह कुछ कह नहीं सका ।

          दूसरे दिन जमना ठेला उठाकर चौधरी के खेत पर चली गई । वहl सीधी रामलाल की पत्नि के पास गई और उससे अनुमति लेकर ,सब्जियाँ शहर के लिए लदवाने से पहले तौलकर अपने ठेले में रख ली । उसने चोधराईन से कहा—“ जो भाव थोक मंडी में हो उसी भाव से मैं भी हर दूसरे रोज दाम दे दिया करूंगी ।“

             इस तरह रोज विनोद रामलाल के साथ शहर चला गया और जमना तराजू और सब्जीका ठेला लेकर गाँव में चल पड़ी।           शाम तक जमना की सारी सब्जी बिक गयी थी ।ठेले पर अनाज का ढेर ओर पल्लू में नकदी बंधी हुई थी । अब चिंता ओर अनिश्चितता की धुंध छट  चुकी थी । दिन भर का परिश्रम और  आत्मविश्‍वास का  आलोक  उसके चेहरे पर  दिपदिपा रहा था ।उसे  आत्मनिर्भरता के लिए एक  नया संबलन  मिल गया था और गाँव वालों को घर बैठे सब्जी  की सुविधा । धीरे-धीरे जमना सब्जी का धंधा चलने लगा ।एक दिन रामलाल ने लकड़ी की केबिन बनवाकर गाँव के बीच चौराहे के पास रखवा दिया । अब जमना वहाँ बैठकर सब्जी बेचने लगी । दूसरे दिन ही वहाँ पर ताश खेलने वाले लोगों में से किसी ने पंचायत में शिकायत कर दी कि विनोद और जमना ने सरकारी जमीन पर कब्जा करने की नीयत से केबिन रख दी है ।

  रात को पंचायत का नुमाइंदा घर आया और एक कागज दे गया । कहा --- ‘’संरपंच साहब ने भेजा है । और कल तुम्हें पंचायत घर मे बुलाया है ।‘’

          देर रात तक जब विनोद घर पर आया तो जमना क्रोध में थी —‘’जब ठेले से काम चल रहा था तो क्या जरूरत थी केबिन बनवाने की ? अब दो जवाब पंचायत को। अब भरो जुर्माना । ‘’ जमना के स्वर में जोरदार आक्रोश था।

    ‘’ पर जुर्माना किस बात का ?   कोनसा कागज आया है ? मुझे भी तो बताओ ।‘’ विनोद चकराया ।

   ‘’ कागज तो मैं कहीं रखकर भूल गई पर जहाँ आपने केबिन रखी है वह उसी सरकारी जमीन का लगता है । किसी ने हमारी शिकायत की है ।  मैंने उड़ती हुई खबर मेरे कानों में पड़ी थी ।मुझे लगता है वह कागज इसीलिए आया है और इसीलिए सरपंच साहब ने कल पंचायत घर में बुलाया होगा ।

      ‘’देखो मैने तुम्हारी भलाई के लिए ही यह काम किया था। तुम शाम तक बुरी तरह से थक जाती थी । यह गाँव के बीच आम चौराहा है इसलिए बिक्री भी खूब हो रही है ।जो होगा सो देखा जाएगा।

       सुबह जब विनोद उठा तो पलगँ के नीचे एक कागज नजर आया । पता चला तो वह आश्‍चर्य चकित रह गया । जल्दी से उसने जमना को बुलाया —‘’यह नोटिस नही आमत्रंण पत्र है, शहर से आकर तुमने अपने संघर्ष के बलबूते पर स्वावलम्बन  का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है उसके लिए स्वतंत्रता- दिवस पर तुम्हें  पंचायत द्वारा सम्मानित किया जाएगा, साथ ही मुख्‍य चौराहे पर रखी केबिन की जमीन का अनुमति पत्र भी तुम्हारे नाम जारी किया जाएगा ।‘’

          सामने स्वर्णिम सूर्य क्षितिज पर थोड़ा ऊपर तक चढ़ आया था । जमना के चेहरे पर गिरती किरणें उसके  चेहरे के आत्मविश्‍वास  की आभा  में रंग भर रही थी ।

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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