रविवार, 18 फ़रवरी 2024

पहाड़ आ रहे हैं!- -हूबनाथ

 


पहाड़ आ रहे हैं!

 

पहाड़ आ रहे हैं

सभ्य बनाने की ख़ातिर

शहर लाए जा रहे हैं

 

पहाड़ आ रहे हैं

 

पहाड़ों की खाल खींचकर

छोटी-बड़ी बोटियों में बाँटकर

धरती के जिस्म से काटकर

 

शैतानी ट्रकों ट्रेलरों में

लादकर

विशाल मशीनों में पीसकर

 

ख़ूबसूरत बोरों में भरकर

शहरों में भेजे जा रहे हैं

हरे भरे ख़ूबसूरत पहाड़

 

पहाड़ों की कब्र पर

पहाड़ों के लोग

बिदाई गीत गा रहे हैं

 

पहाड़ आ रहे हैं

 

चमचमाती लंबी सड़कों

उड़ते हुए लहराते पुलों

दैत्याकार भवनों की शक़्ल में

बिछ रहे हैं

ऊँचाई से गिरकर

घिसट रहे हैं

 

जब रात गहराती है

लोहे की गाड़ियाँ

सरसराती गुज़र जाती हैं

 

ठीक उसी वक़्त

हराहराते झरने

लहलहाते दरख़्त

चहचहाते पंछी

सरसराती घासें

 

पहाड़ों की साँसों से

निकलकर

आसमान पर छा जाते हैं

 

सारी कायनात सो रही है

पहाड़ों को पहाड़

याद आ रहे हैं

 

जिनके पेट भरे हैं

वे विकास के गीत गा रहे हैं

 

पूरी तरह सभ्य होने

पहाड़ शहर आ रहे हैं

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“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

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