बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

मोरारजी देसाई: सत्य और सेवा के योगिक पथ पर विचरता एक जीवन- प्रोफेसर डॉ. रवीन्द्र कुमार


  मोरारजी देसाई: सत्य और सेवा के योगिक पथ पर विचरता एक जीवन

योग क्या हैभारतीय दर्शन की एक प्रमुख शाखा 'योगके प्रतिपादक व योगशास्त्र (योगसूत्र) के रचनाकार पतञ्जलि के विचारानुसारसंक्षेप मेंचित्त-एकाग्रता द्वारा एक ही अविभाज्य समग्रता में अपने को विलीन करने की प्रक्रिया को योग कहते हैं। योगइस प्रकारमन-स्थिरता यमनियमआसन (योग मुद्राप्रक्रिया द्वारा चित्तवृत्ति निरोध है। योग की यह एक श्रेष्ठ और अति संक्षिप्त व्याख्या है। 

पतञ्जलिभारतीय दर्शन के आधारभूत स्तम्भों में से एक हैं। सनातन-शाश्वत मार्गजो अन्ततः सत्य को समर्पित है और अविभाज्य समग्रता पर टिका हैपतञ्जलि-विचार के बिना पूर्ण नहीं होता। सनातन-शाश्वत भारतीय दर्शन के आधारभूत स्तम्भों में स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण हैंजिनका सर्वकालिक सन्देश हैयोगः कर्मसु  कौशलम्/” (श्रीमद्भगवद्गीता: 2: 50)

योग मानव-जीवन को अर्थपूर्ण –सार्थक बनाने का मार्ग हैजीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने का माध्यम है। जीवन का उद्देश्य क्या है?

एक ही अविभाज्य समग्रता की सत्यता की अनुभूति करते हुए व स्वयं को सार्वभौमिक एकता का अनिवार्य भाग या अंश स्वीकार करते हुएनिरन्तर सर्वकल्याण में रत रहना। इस हेतु सत्कर्मों में संलग्न रहते हुए उसी एक शाश्वत अविभाज्य समग्रता के साथ एकरूप हो जाना। मानव-कल्पना से भी परे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसकी परिधि से बाहर कुछ भी नहीं हैउससे पृथक कोई भी चल-अचल अथवा दृश्य-अदृश्य नहीं है। सर्वकल्याण भावना से सत्कर्मों में संलग्न रहते हुए उससे एकाकार ही जीवन का उद्देश्य है।

जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति में काया का अत्यधिक महत्त्व है। कर्मकाया द्वारा ही सम्भव हैं। जीवन-उद्देश्य की प्राप्ति कर्मों से ही हो सकती है। इसीलिएयोगेश्वर ने अपरिहार्य कर्मों के सुकर्मों में रूपान्तरण का सन्देश दिया। सुकर्मअर्थात् उत्तरदायित्व केन्द्रित सर्वकल्याण को समर्पित कर्म।

कर्म-प्रक्रिया का माध्यमकायाशुद्ध होआत्मतत्त्व से निर्देशित होकर सुकर्मों –शुद्धाचरणों में संलग्न होइसलिए योग के सभी आसनोंप्राणायाम आदि के साथ ही व्यायाम व शरीर श्रम भी काया-शुद्धता के साधन हैं। कर्मों को सुकर्म बनाने का माध्यम हैं। इस प्रकारजीवन-सार्थकता का मार्ग प्रशस्त करते हैं।  

मोरारजीभाई देसाई (29 फरवरी, 1896-10 अप्रैल, 1995) का जीवनशुद्धाचरणों –सुकर्मों द्वारा जीवन-सार्थकता की दिशा में बढ़ता –सतत प्रयासरत यात्रा के समान रहा।

सादगीसरलतास्वच्छतास्पष्टताशाकाहार और पर-सेवा जैसी विशिष्टताओं से युक्त एक सौ वर्षों से कुछ ही कम अवधि का उनका जीवन शुद्धाचरणों –सुकर्मों से बँधा रहा। वे  सार्वभौमिक एकता की सत्यता को स्वीकार करते थे। इस एकता का निर्माण करने वाली अथवा एकमात्र आधारअविभाज्य समग्रता को समर्पित थे। ऐसा मेरा विश्वास है।

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता में उनके अटूट विश्वास को स्वयं इस लेखक को उनके द्वारा कहे गए शब्दोंमैं परमेश्वर मैं अटूट विश्वास रखता हूँ तथा उसी को समर्पित सत्कर्मों में संलग्नता मेरा सतत प्रयास होता हैइससे मैं भय व चिन्ता मुक्त रहता हूँ और तकिए पर सिर रखते ही मुझे नींद आ जाती है। मोरारजीभाई का यह विश्वास और आचरणनिस्सन्देहयोग सेजिसकी सर्वोत्कृष्ट व्याख्या श्रीकृष्ण ने की हैजुड़ा था।

योगसत्य से जुड़ा है। यह सत्य से एकाकार करने  का माध्यम है। इसीलिएजीवन में सत्याचरण अपरिहार्य हैं। मोरारजीभाई का एक लम्बा सार्वजनिक जीवन रहा। वे दीर्घकाल तक राजनीति में रहे। राजनीति में सदा सत्याचरण कठिन प्रतीत हो सकता है। लेकिनअहिंसा से बँधे गाँधी-मार्ग को समर्पित मोरारजीभाई इस सम्बन्ध में भी अधिकाधिक सचेत रहे।

वे भारत के प्रधानमंत्री थे। वर्ष 1979 में उनकी सरकार पर भीतराघात हुआ। सरकार अल्पमत में आ गई। उनके और श्री चरण सिंह के समर्थक सांसदों की दो पृथक-पृथक सूचियाँ बनाई गई थीं। दोनों में कुछ नाम कॉमन थे। अन्ततः उन कॉमन नामों में से कई एक दूसरी ओर थे। मोरारजीभाई को जब इस वास्तविकता का पता चलातो उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसे अपनी त्रुटि माना और यह भी कहा कि उनकी सूचि में सम्मिलित प्रत्येक सांसद से उन्हें स्वयं पूछना चाहिए था। ऐसी थी उनकी दृढ़तानिर्भीकता और सत्य को स्वीकारने की शक्ति। 

इसी प्रकार के कई और उदाहरण भी उनके सार्वजनिक जीवन से जुड़े हैं। निर्भीकता के साथ सत्यता का आलिंगन उनके सत्याचरण का लक्षण थाजो योग की मूल भावना  वृहद् परिप्रेक्ष्य से जुड़ा एक पक्ष है।

गाँधी-मार्ग के अनुसरणकर्ता और प्रसारक श्री मोरारजीभाई शरीर श्रम के समर्थक थे। जीवन शुद्ध रहेएकाग्रता स्थिति को प्राप्त हो और काया स्वस्थ रहकर मानसिक संतुलन के साथ वृहद् कल्याण को समर्पित होमोरारजीभाई इस दृष्टिकोण को स्वीकारने व इसका अनुसरण करने वाले थे। स्वयं काया को योग की परिधि मेंइसकी मूलभावना के अनुसारजितना भी अनुकूल बनाया जा सकेउस दिशा में व्यवहार उनके जीवन का भाग था। इसमें योग से जुड़ी गतिविधियाँकायिक व्यायाम आदि सम्मिलित थे। अन्ततः इसका विशुद्ध उद्देश्य भौतिक का आध्यात्मिक से संयोग था। यही योग की मूल भावना है।

टहलते हुए मितभाषी रहनाक्रियाओं में एकाग्रचित्तता व परम सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास के साथ जीवन में वृहद् कल्याण भावना के साथ आगे बढ़ना मोरारजीभाई देसाई के दीर्घकालिकव्यसन-मुक्त व समर्पित जीवन का सार है। इसलिए मैं उनके जीवन को योग तथा सदाचार को समर्पित एक आदर्श जीवन मानता हूँ।    

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं।

 

 

 

 

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