योग क्या है? भारतीय दर्शन की एक प्रमुख शाखा 'योग' के प्रतिपादक व योगशास्त्र
(योगसूत्र) के रचनाकार पतञ्जलि के विचारानुसार, संक्षेप में, चित्त-एकाग्रता द्वारा एक ही अविभाज्य समग्रता में
अपने को विलीन करने की प्रक्रिया को योग कहते हैं। योग, इस प्रकार, मन-स्थिरता –यम, नियम, आसन (योग मुद्रा) प्रक्रिया द्वारा चित्तवृत्ति
निरोध है। योग की यह एक श्रेष्ठ और अति संक्षिप्त व्याख्या है।
पतञ्जलि, भारतीय दर्शन के आधारभूत स्तम्भों में से एक हैं। सनातन-शाश्वत मार्ग, जो अन्ततः सत्य को समर्पित है और अविभाज्य समग्रता पर
टिका है, पतञ्जलि-विचार के बिना पूर्ण नहीं होता। सनातन-शाश्वत
भारतीय दर्शन के आधारभूत स्तम्भों में स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, जिनका सर्वकालिक सन्देश है, “योगः कर्मसु कौशलम्/” (श्रीमद्भगवद्गीता: 2: 50)
योग मानव-जीवन को अर्थपूर्ण
–सार्थक बनाने का मार्ग है; जीवन के उद्देश्य को प्राप्त करने
का माध्यम है। जीवन का उद्देश्य क्या है?
एक ही अविभाज्य समग्रता की सत्यता
की अनुभूति करते हुए व स्वयं को सार्वभौमिक एकता का अनिवार्य भाग या अंश स्वीकार
करते हुए, निरन्तर सर्वकल्याण में रत रहना। इस हेतु सत्कर्मों
में संलग्न रहते हुए उसी एक शाश्वत अविभाज्य समग्रता के साथ एकरूप हो जाना।
मानव-कल्पना से भी परे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उसकी परिधि से बाहर कुछ भी नहीं है, उससे पृथक कोई भी चल-अचल अथवा दृश्य-अदृश्य नहीं है।
सर्वकल्याण भावना से सत्कर्मों में संलग्न रहते हुए उससे एकाकार ही जीवन का
उद्देश्य है।
जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति में
काया का अत्यधिक महत्त्व है। कर्म, काया द्वारा ही सम्भव हैं।
जीवन-उद्देश्य की प्राप्ति कर्मों से ही हो सकती है। इसीलिए, योगेश्वर ने अपरिहार्य कर्मों के सुकर्मों में
रूपान्तरण का सन्देश दिया। सुकर्म, अर्थात् उत्तरदायित्व केन्द्रित
सर्वकल्याण को समर्पित कर्म।
कर्म-प्रक्रिया का माध्यम, काया, शुद्ध हो, आत्मतत्त्व से निर्देशित होकर सुकर्मों –शुद्धाचरणों में संलग्न हो, इसलिए योग के सभी आसनों, प्राणायाम आदि के साथ ही व्यायाम व शरीर श्रम भी काया-शुद्धता के साधन हैं।
कर्मों को सुकर्म बनाने का माध्यम हैं। इस प्रकार, जीवन-सार्थकता का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
मोरारजीभाई देसाई (29 फरवरी, 1896-10 अप्रैल, 1995) का जीवन, शुद्धाचरणों –सुकर्मों द्वारा
जीवन-सार्थकता की दिशा में बढ़ता –सतत प्रयासरत यात्रा के समान रहा।
सादगी, सरलता, स्वच्छता, स्पष्टता, शाकाहार और पर-सेवा जैसी विशिष्टताओं से युक्त एक सौ वर्षों से कुछ
ही कम अवधि का उनका जीवन शुद्धाचरणों –सुकर्मों से बँधा रहा। वे सार्वभौमिक एकता की सत्यता को स्वीकार करते थे। इस
एकता का निर्माण करने वाली अथवा एकमात्र आधार, अविभाज्य समग्रता को समर्पित थे। ऐसा मेरा विश्वास है।
सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने
वाली अविभाज्य समग्रता में उनके अटूट विश्वास को स्वयं इस लेखक को उनके द्वारा कहे
गए शब्दों, “मैं परमेश्वर मैं अटूट विश्वास रखता हूँ तथा उसी को
समर्पित सत्कर्मों में संलग्नता मेरा सतत प्रयास होता है; इससे मैं भय व चिन्ता मुक्त रहता हूँ और तकिए पर सिर
रखते ही मुझे नींद आ जाती है।” मोरारजीभाई का यह विश्वास और आचरण, निस्सन्देह, योग से, जिसकी सर्वोत्कृष्ट व्याख्या श्रीकृष्ण ने की है, जुड़ा था।
योग, सत्य से जुड़ा है। यह सत्य से एकाकार करने का माध्यम है। इसीलिए, जीवन में सत्याचरण अपरिहार्य हैं।
मोरारजीभाई का एक लम्बा सार्वजनिक जीवन रहा। वे दीर्घकाल तक राजनीति में रहे।
राजनीति में सदा सत्याचरण कठिन प्रतीत हो सकता है। लेकिन, अहिंसा से बँधे गाँधी-मार्ग को समर्पित मोरारजीभाई इस सम्बन्ध में भी
अधिकाधिक सचेत रहे।
वे भारत के प्रधानमंत्री थे। वर्ष 1979 में उनकी सरकार पर भीतराघात हुआ। सरकार अल्पमत में आ
गई। उनके और श्री चरण सिंह के समर्थक सांसदों की दो पृथक-पृथक सूचियाँ बनाई गई
थीं। दोनों में कुछ नाम कॉमन थे। अन्ततः उन कॉमन नामों में से कई एक दूसरी ओर थे।
मोरारजीभाई को जब इस वास्तविकता का पता चला, तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसे अपनी त्रुटि माना और यह भी कहा कि उनकी
सूचि में सम्मिलित प्रत्येक सांसद से उन्हें स्वयं पूछना चाहिए था। ऐसी थी उनकी
दृढ़ता, निर्भीकता और सत्य को स्वीकारने की शक्ति।
इसी प्रकार के कई और उदाहरण भी
उनके सार्वजनिक जीवन से जुड़े हैं। निर्भीकता के साथ सत्यता का आलिंगन उनके सत्याचरण का लक्षण था, जो योग की मूल भावना व वृहद् परिप्रेक्ष्य से जुड़ा एक पक्ष है।
गाँधी-मार्ग के अनुसरणकर्ता और
प्रसारक श्री मोरारजीभाई शरीर श्रम के समर्थक थे। जीवन शुद्ध रहे, एकाग्रता स्थिति को प्राप्त हो और काया स्वस्थ रहकर
मानसिक संतुलन के साथ वृहद् कल्याण को समर्पित हो, मोरारजीभाई इस दृष्टिकोण को स्वीकारने व इसका अनुसरण करने वाले थे। स्वयं
काया को योग की परिधि में, इसकी मूलभावना के अनुसार, जितना भी अनुकूल बनाया जा सके, उस दिशा में व्यवहार उनके जीवन का भाग था। इसमें योग
से जुड़ी गतिविधियाँ, कायिक व्यायाम आदि सम्मिलित थे। अन्ततः इसका विशुद्ध
उद्देश्य भौतिक का आध्यात्मिक से संयोग था। यही योग की मूल भावना है।
टहलते हुए मितभाषी रहना, क्रियाओं में एकाग्रचित्तता व परम सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास के साथ जीवन
में वृहद् कल्याण भावना के साथ आगे बढ़ना मोरारजीभाई देसाई के दीर्घकालिक, व्यसन-मुक्त व समर्पित जीवन का सार है।
इसलिए मैं उनके जीवन को योग तथा सदाचार को समर्पित एक आदर्श जीवन मानता हूँ।
*पद्मश्री
और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0
रवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय,
मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान
में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ
(उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं।
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