बचपन से ही वह बेहद भोली-भाली लड़की थी।दुबली-पतली काया,चपटा चेहरा असमय ही सिर में केशौर्य की चुगली करती श्वेत केशराशि, नाक नक्श से सुदर्शन तो नहीं पर उसे बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था ।
वह किसी भी काम के लिए किसी को भी मना
नहीं करती थी,इसीलिए कई बार पास-पड़ौस में
जाने-अनजाने उससे बेगार भी करवा ली जाती थी।उसे पलटकर जवाब देना नहीं आता था,इसीलिए
हँसी-मजाक का पात्र बनाकर उसका मजाक भी खूब बनाया जाता था। कोई पन्नी नाम की एक
लावारिश और पागल महिला वर्षों पहले गाँव में रही थी, इसी
कारण से गाँव की हर मानसिक रूप से कमजोर महिलाओं को यह उपाधि दी जाने लगी। धीरे-धीरे सीता को भी कई बार इस नाम
से पुकारा जाने लगा।हालाकि सीता मंदबुद्धि नहीं थी,भोली-भाली
थी। जैसे–तैसे करके वह पाँचवीं पास कर पाई और उसने अटक-अटक कर पढ़ना और कुछ लिखना
भी सीख लिया था ।
युवावस्था में प्रवेश के साथ ही पिता ने
धूमधाम से पास ही के गाँव के ही एक धनी परिवार में रामस्वरूप नामक युवक के साथ
सीता का विवाह कर दिया। खूब नेग-दहेज भी दिया पर दुर्भाग्य से वैवाहिक जीवन दो साल
ही चला। रामस्वरूप ने उसे छोड़ दिया।समाज के पंच-पटेलों के हस्तक्षेप से दहेज का
कुछ सामान तो वापस आ गया, पर
सीता भी फिर से अपने पिता के घर वापस आ
गयी।
नियति का चक्र मानकर परिवार ने
जैसे-तैसे अपने मन को समझा लिया, पर
सीता अनमनी और उदास रहने लगी। ‘माँ, मेरा
कसूर क्या था?’—एक दिन उसकी रूलाई
फूट पड़ी।
‘बेटा, सीधापन
और सुंदर नही होना ही इस समाज में तेरे जैसी स्त्री का कसूर माना माना जाता
है।भेडि़यों को मांसल शरीर चाहिए।चालाकी और फरेब से भरे लोगों की उनकी प्रकृति के
लोगों से ही बनती है। अच्छा है, तू
उन जानवरों के बीच से निकल आई।‘ ‘पर माँ अब हम क्या करेंगे’ ?
माँ
ने सिर पर हाथ रखकर आश्वासन दिया—‘बेटा, तू
चिंता मत कर,यहाँ तेरे लिए क्या कमी है?
तेरे
तीन-तीन समर्थ भाई हैं।सब तुझे पलकों में रखेंगे।तू चिंता मत कर।
इसी तरह से चार-पांच साल और गुजर गए।
……………. ........
एक दिन सीता के दूर
के रिश्ते के मौसी और मौसाजी की कार आठ,दस
महिला पुरूषों के साथ घर के बाहर आकर रुकी।
उन्होनें सीता की उस मौसी के देवर के पुत्र
रामराज से सीता के पुनर्विवाह का प्रस्ताव रखा। ‘एक ही लड़का है और उसने जयपुर में
ही सैलून की नई दुकान खोली है। अपना समझकर आये हैं,सीता
हमारी भी बेटी जैसी है‘जैसे अनेक तर्कों से उन्होनें समझाने का प्रयास किया ।
आखिरकार बेटी के हित में ठीक समझकर
पिता ने एक बार फिर सीता का धूमधाम से पुनर्विवाह कर दिया। बैंड-बाजे बजे,नाच-गान
हुआ,वर-वधू ने एक दूसरे को माला
पहनाई।सांयकाल भव्य भोज हुआ और सीता की एक बार फिर से विदाई हो गई ।
आठ-दस महीने तो ठीक से गुजर
गए। उधर रामराज की दुकान भी परवान चढ़ने लगी। सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक
ग्राहकों की लाइन लगी रहती।धीरे-धीरे एक अदना सा रामराज सेठ रामराज में तब्दील हो
गया और सीता घर के काम करने की मशीन में ।सब उसे सुबह से शाम तक काम में लगाए
रखते।
रामराज के पास अब शानदार गाड़ी,
नौकर-चाकर
और सभी सुख -सुविधाएं थी, पर
सीता को देखकर उसका मन उद्वेलित हो उठता था।रात साढ़े ग्यारह बजे तक आना फिर शराब
पीना और खाना खाकर सो जाना।सुबह देर तक दिन चढ़ने पर उठना और दुकान पर चले जाना।
यह उसकी रोज की दिनचर्या थी। सीता को भी इन सब बातों से कोई शिकायत नहीं थी।उसे तो
काम करना था ,रोटी खानी थी,और
जीये चले जाना था।
एक दिन सीता स्नान करके भीतर जा रही थी कि माँ
बेटे की जोर- जोर से बोलने की आवाज सुन वह ठिठक कर खड़ी हो गयी। बेटा माँ से कह
रहा था —‘‘माँ अब मैं इसे अपने साथ नहीं रख सकता। मेरी शान-शौकत पर धब्बा लगता है
।
न तो इसे मॉडर्न तरीके से सजने- संवरने
में रूचि है, न ही इसे बोलने,
बैठने
और चलने के तौर तरीके आते हैं। किसी पार्टी में ले जाता हूँ तो लोग मेरी मजाक
बनाते है। हां मंदिर में बैठकर यह कीर्तन कर सकती है। मशीन की तरह बिना रुके खूब
काम कर सकती है । मुझे मशीन नहीं एक मॉडर्न बीबी चाहिए। और अब मुझे कोई नहीं रोक
सकता है।‘’
जब सीता ने यह सब सुना तो सन्न रह गयी । उसके भीतर मानो ज्वालाएं
उठने लगी।
धीरे-धीरे प्याज के छिलकों की तरह रहस्य
की परतें उघड़ने लगीं। दरअसल रामराज जब बेरोजगार था और गाँव की ही एक लडकी के साथ
भागकर जाने की तैयारी में था तब पिता ने उसे रोकने के लिए सीता नाम की बेड़ी उसके
पैरों में बाँध दी थी और व्यस्त रखने के लिए जयपुर मे सैलून की दुकान खुलवा दी थी।
उसे उम्मीद थी कि समय के साथ सब कुछ ठीक हो
जाएगा।पर रामराज के पैरों में ये बेड़ी अब चुभने लगीं थी। उसके पंख अब खुले
उन्मुक्त आकाश में अपनी परी-प्रेयसी के साथ उड़ने को व्याकुल थे।
राखी के त्योहार पर जब सीता अपने पीहर गई तो
न तो वह वापस आई और न ही रामराज ही उसे वापस लेने गया।
एक बार फिर सारा परिवार दु:ख के सागर में
डूब गया जब समाचार मिले कि रामराज उसी लड़की को अपने घर ले आया है जिसके साथ वह
सीता से विवाह के पहले भागकर जाने वाला था। ऐसे ही दु:ख का ऐसा ही दौर तब भी आया था जब रामस्वरूप ने सीता का परित्याग
किया था। अंतर यही था कि सीता की कोख में इस बार दो माह का गर्भ पल रहा था।
अब किसी काम में उसका मन नहीं लगता था ।
सारे दिन गुमसुम बनी रहती ।माँ दिलासा देती तो उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग
जाती—‘बेटा ,तू चिंता मत कर,
हम
हैं ना तेरे साथ, तुझे
तिल मात्र की भी परेशानी नहीं आने देंगे।
‘’लेकिन मेरा कसूर क्या था माँ…’’……?
लंबे
समय बाद उसका मौन टूटा, भीतर
भरा गुबार आँसू बनकर फूट निकला और वह फूट-फूटकर रोने लगी।खूब रो लेने के बाद जब वह
चुप हुई तो माँ ने कहा—‘ बेटा,अच्छा
बता उस सीता माता का कसूर क्या था जिसको भगवान राम वन में ऋषि वाल्मिकी के आश्रम
में छोड़कर आ गए थे ?पर सीता माता ने अपने
आप को टूटने नहीं दिया था। तू भी चिंता मत कर, जो
होगा सही होगा। हम सब परछाई की तरह तेरे साथ खड़े हैं।
..................
समय पंख लगाकर उड़ता गया। सीता का जीवन
पीहर में ही बसर होने लगा। रात कितनी ही लंबी हो सवेरा भी होता ही है ।
पतझड़ गुजर चुका था। दिन की धूप में
तेजी और रात में गुलाबी ठंड का अहसास होने लगा था। पलाश पर लाल पुष्प और
पेड़़ो पर नये पत्ते आ रहे थे। चारों ओर
खेत सरसों के फूलों की पीली चूनर ओढे थे।कोयल की कूक रह रहकर सुनाई पड़ने लगी थी।
सीता के आंगन में भी किलकारी गूँजी ।
प्यारा सा शिशु लवेश उसकी गोद में आ गया था।संसार सागर की उत्ताल लहरों के बीच
उसके डूबते मन को तिनके की तरह एक सहारा तो मिल ही गया था।
सीता ने अब अपना पूरा ध्यान अपने बच्चे की
परवरिश पर केन्द्रित कर दिया ।अपने घर के पास की स्कूल में वह मिड-डे मील कुक के
रूप में कार्य करने लगी थी । लवेश पढ़ाई में बहुत ही कुशाग्र बुद्धि निकला।
प्रतियोगी परीक्षाओं की जमकर तैयारी के बाद उसका सब इंस्पेक्टर के पद पर चयन हो
गया । जयपुर के पास ही एक थाने में उसको नियुक्ति भी मिल गई ।
भगवान की दया से आज सीता के पास कुछ भी
कमी नहीं थी । जयपुर के बाहर की एक कॉलोनी में ही उसने एक मकान ले लिया था और बेटे
के साथ वहीं रहने लगी थी।
पर लवेश ने गत रात उसे जो घटना सुनाई उससे
उसके मन में एक बार फिर भूचाल सा आ गया।
लवेश कह रहा था— ‘माँ हमारे थाने में एक
व्यक्ति गिरफ्तार हुआ है और इस समय कस्टडी में है। रात को बातचीत में पता चला कि
यह वही व्यक्ति था जिसने तुम्हारा परित्याग किया था— सेठ रामराज ! किसी कॉलोनी
में प्लॉट काटने से संबधित किसी धोखाधड़ी के मामले में अभी वह कस्टडी में बंद है ।
परसों सुबह कोर्ट में उसका चालान पेश किया जाएगा।
वह रो रोकर बता रहा था कि उसकी पत्नी के
काफी समय से कैंसर है और अब बिस्तर पर
पड़ी रहती है । उसके न तो कोई बाल-बच्चा है और न हीं घर पर कोई संभालने वाला बचा
है।मां-बाप को मरे अरसा हो गया है ।अगर परसों सुबह भी उसकी जमानत नहीं हुई तो उसकी
पत्नि को पानी पिलाने वाला भी कोई घर पर नहीं रहेगा। वह जमानत के लिए कई लोगो के
सामने गिड़गिड़़ाया भी पर कोई तैयार नहीं हुआ।
किसी तरह उसने मेरे बारे भी जानकारी
प्राप्त कर ली और वह रात को दोनो हाथ जोडकर मुझसे बोला कि उसने तुम्हारी माँ के
साथ जो भी अन्याय किया था उसकी सजा ईश्वर उसे दे रहा है।वह इस मामले में कुछ करे
ताकि वह अपनी मरती हुई पत्नि की कुछ दिनो तक ही सही, सेवा
कर सके।
सीता कुछ न बोली।परिस्थितियों के
थफेड़ों ने उसे बहुत संवदेनशील, भावुक
और समझदार बना दिया था। वह शून्य में दूर क्षितिज की ओर पथराई आँखों से देखती रही
और सोचती रही।
दूसरे दिन जब लवेश वर्दी पहन कर ड्यूटी के
लिए पुलिस स्टेशन जाने को तैयार हुआ तो सीता ने कहा —‘’बेटा,कल
मै भी तुम्हारे साथ कोर्ट में चलूंगी। हालाकि मेरा उससे कोई सम्बधं नहीं रहा और
तलाक हो चुका है। पर उसने तुमसे मदद की गुहार लगाई है, वह
पश्चाताप से भी भरा है इसलिए इंसानियत के
नाते ही सही एक बार तो मैं उसकी जमानत दूंगी ताकि वह कुछ समय तक ही सही वह अपनी
पत्नि की सेवा कर सके ।
लवेश ने खूब समझाया पर वह जिद पर अड़ी
रही । आखिरकार लवेश ने उस दिन की छुट्टी
ले ली और सादा वर्दी मे माँ को साथ ले जाना पड़ा।
लवेश की देखरेख में कोर्ट में जमानत के
कागजों पर साइन और आवश्यक कानूनी प्रक्रिया पूरी कर सीता चुपचाप बाहर आ गई। बहुत
दूर खड़े रामराज को अब उसने गौर से देखा जो सचमुच दयनीय हालत में लग रहा था। उसे
विश्वास नहीं हो रहा था कि बढ़ी हुइ दाढ़़ी,झुर्रियों
से भरा चेहरा, पुलिस कस्टडी में
खड़ा यह वही रामराज है, जिसका
गरूर कभी सातवें आसमान पर हुआ करता था ।
‘ पर इसमें मेरा तो क्या दोष है ?‘
सीता
ने मन ही मन अपने आप से कहा और आगे बढ गई ।
जब लवेश भी वापस सीता के पीछे जाने के
लिए मुड़ा और रामराज के पास से गुजरा तो रामराज ने हाथ जोड़कर कहा— बेटा,
इतना
कुछ करने के लिए तम्हारा और तुम्हारी मां का बहुत बहुत धन्यवाद।
लवेश एक बार पलटकर वापस मुड़ा ।
‘उस समय तो अपने स्वार्थ में अंधे होकर
आपने मेरी मां का परित्याग किया था,उसे
और मुझे ऐसी हालत में मझधार में छोड़ दिया
था। अभी आज भी आपका ही स्वार्थ सिद्ध हुआ है।मानता हूं कि आप मेरे जैविक पिता हैं,
पर
रिश्ते केवल शरीर से ही तो नहीं बनते बल्कि आत्मा से बनते हैं ।हाँ शरीर तो एक
अवसर देता है आत्मिक रिश्ता बनाने का। उस अवसर को आप बहुत पहले ही गंवा चुके हो।‘
मैं और मेरी मां ने,जितना आपके लिए कर
सकते थे,किया है।पर यदि समय आपसे
बदला ले रहा है और यह हमारा भी दुभार्ग्य है कि इस बदले हुए समय के हम साक्षी बन
रहें है ।समय पर हमारा भी बस नहीं है — कहकर लवेश तेजी से आगे बढ़ गया।
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