शनिवार, 18 मई 2024

वेद: राष्ट्रवाद और मानवता- डॉ0 रवीन्द्र कुमार


 

वेद: राष्ट्रवाद और मानवता 

              अनेक समकालीन-आधुनिक इतिहासकारों द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद पर अपने विचार अथवा दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए यह कहा गया है कि इसका इतिहास प्राचीन नहीं है। ऐसे ही इतिहासकारों द्वारा यह भी कहा जाता है कि अँग्रेजी दासता से देश की मुक्ति के लिए संघर्ष के समय, विशेषकर उन्नीसवीं शताब्दी ईसवीं और उसके बाद के समय में भारतीय राष्ट्रवाद का उदय हुआ; उसका विकास और प्रसार हुआ। ऐसे लोगों  के विचार, वास्तव में, भारतीय राष्ट्रवाद को, जाने-अनजाने में न समझने के साथ ही उनके आधे-अधूरे ज्ञान का परिणाम हैं। इसी के साथ, यह उनके आधारभूत और प्रचीनकालिक भारतीय धर्मग्रन्थों, अतिविशेष रूप से वेदों के ज्ञान के पूर्णतः अभाव का भी परिणाम है। वेदों की लिपिबद्धता का इतिहास ही, यह सर्वमान्य और स्थापित सत्यता है, शताब्दियों प्राचीन है।

            प्रथम वेद, ऋग्वेद (दस मण्डल, एक हजार अट्ठाइस सूक्त और लगभग दस हजार छह सौ मंत्र) की लिपिबद्धता का समय लगभग दो हजार ईसा पूर्व का स्वीकारा जाता है। यह विश्व का प्रचीनतम धर्मग्रन्थ है। अध्यात्म-दर्शन, विज्ञान सहित जीवन के लगभग समस्त क्षेत्रों में ज्ञान के स्रोत होने के साथ ही इतिहास की सूचना भी इससे प्राप्त होती है।    

ऋग्वेद के साथ ही यजुर्वेद और अथर्ववेद में अतिविशेष रूप में, मातृभूमि को केन्द्र में रखते हुए राष्ट्रवाद की परिकल्पना तथा उसके माध्यम से स्वराज्य, स्वदेशी और सजातीय सेवा-भावना प्रकट होती है। राष्ट्रवाद के विकास और उसके माध्यम से मानवता की रक्षा और समृद्धि के लिए कार्य किए जाने का आह्वान सामने आता है। अन्ततः मानवता अथवा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद को समर्पित अति प्रचीनकालिक और अतिविशिष्ट भारतीय राष्ट्रवाद की मूल भावना को, जो, निस्सन्देह पश्चिमी जगत के समकालीन-आधुनिक राष्ट्रवाद-सम्बन्धी विचार अथवा अवधारणा से पूर्णतः भिन्न है, इस प्रकार, वैदिक ऋचाओं से भली-भाँति जाना और समझा जा सकता है।  

प्रथम वेद, ऋग्वेद (10: 18: 10) में मानवाह्वान है:

"उप सर्प मातरं भूमिमेतामुरुव्यचसं पृथिवीं सुशेवां/"

अर्थात्, "हे मानव! तू मातृतुल्य व आदरणीय इस आकाश सम विशाल सुखदायी भूमि की सेवा कर।"

इस आह्वान में मातृभूमि के प्रति मानव के कर्त्तव्यों एवं समदेशियों से अटूट भ्रातृत्व के साथ व्यवहारों की अपेक्षा है। सहयोग, सामंजस्य और सौहार्द के वातावरण में सबके समान कल्याण के उद्देश्य से साथ-साथ आगे बढ़ने की कामना है। ऋग्वेद के मंत्रों "यतेमहि स्वराज्ये" (5: 66: 6) और "सासह्याम पृतन्यतः" (1: 8: 4),  अर्थात्, "हम स्वराज्य (जिसमें स्वदेशी भी सम्मिलित है) के लिए सदैव प्रयत्न करें"  एवं "आक्रान्ताओं पर विजय प्राप्त करें" की मूल भावना के अनुरूप विकसित यह भारतीय राष्ट्रवाद का वह श्रेष्ठ स्वरूप है, जो अपेक्षानुसार, मातृभूमि से प्रारम्भ कर सम्पूर्ण मानवता के कल्याण हेतु कदम आगे बढ़ाने का सन्देश देता है।

सर्वत्र राष्ट्रोत्थान, सुरक्षा और समृद्धि को समर्पित यजुर्वेद के मंत्र (22: 22) में प्रार्थना है:

"आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्//"

अर्थात्, "हे ब्रह्मन्! हमारे राष्ट्र (राज्य) में विद्या से प्रकाशमान (तेजस्वी) विद्वान हों, वीर-योद्धा-शूरवीर (क्षत्रिय) महारथी हों, जो शत्रु दमन करें, दुधारू गाय और समर्थवान पशु (अश्व आदि) हों, गुणवान स्त्रियाँ एवं सभ्य जन हों, अपेक्षानुसार (पर्याप्त) वर्षा हो, फलों-फूलों से लदे (वृक्ष) और अन्न-औषधियाँ प्राप्त हों।"

राष्ट्र को समर्पित राष्ट्रवाद की सीमाओं से आगे बढ़ते हुए, राष्ट्रोन्नति के माध्यम से सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए समान रूप से कल्याणकारी स्थिति के निर्माण हेतु यजुर्वेद ही के मंत्र (9: 22) में  प्रबल कामना की गई है, नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्याऽइयं ते राड्यन्तासि यमनो ध्रुवोऽसि धरुण:/ कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्ये त्वा पोषाय त्वा//"

अर्थात्, माता समान पृथ्वी को हमारा नमस्कार, बारम्बार नमस्कार; परस्पर उपकार के लिए (राष्ट्र से) आगे जाकर (मित्र भावना के साथ) स्वयं के साथ ही (हम) समष्टि कल्याण हेतु कार्य सिद्धि के लिए समर्पित हों।"

अथर्ववेद (12: 1: 62) में जहाँ एक ओर यह कामना है, "दीर्घ न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम/", अर्थात्, "दीर्घकाल तक अपने जीवन से हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों", वहीं दूसरी ओर इससे भी पहले अथर्ववेद के ही एक मंत्र (12: 1: 12) द्वारा यह प्रतिबद्धता भी प्रकट है कि "तासु नो धेह्यभि नः पवस्व माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः/", अर्थात्, "चारों ओर से हमें शुद्ध करने वाली भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।

 ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के उक्त वर्णित उद्धरणों से यह पूर्णतः स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रवाद का उदय और इसका विकास अँग्रेजी दासता से देश की मुक्ति हेतु संघर्ष के समय ही नहीं हुआ। भारतीय राष्ट्रवाद का इतिहास अतिप्राचीन है और इसकी जड़ें वेदों में हैं। वेद ही मूलतः इसके आधार हैं। वेद अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता के उद्घोषक हैं। अविभाज्य समग्रता की परिधि से बाहर कुछ भी नहीं है। सार्वभौमिक एकता में सब कुछ समाहित है। भारतीय राष्ट्रवाद, जिसकी जड़ें वेदों में हों, वह पश्चिमी जगत में विकसित समकालीन-आधुनिक राष्ट्रवाद की भाँति संकुचित अवधारणा वाला कदापि नहीं हो सकता।   

भारतीय राष्ट्रवाद, भारत-भूमि पर उत्पन्न प्रत्येकजन का, मातृभूमि के प्रति कर्त्तव्यबद्ध होकर, इसकी हर रूप में सुरक्षा, समृद्धि और उत्थान हेतु आह्वान करता है; इस हेतु समदेशियों में अपरिहार्य वृहद् सहयोग, सामंजस्य और सौहार्द के वातावरण के निर्माण पर बल देता है। लेकिन, साथ ही भारत की सुरक्षा, समृद्धि और चहुँमुखी विकास के माध्यम से विश्व जन के कल्याण के लिए भी यही भावना रखता है। प्रत्येक धरावासी के उत्थान और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्धता प्रकट करता है। इस हेतु सकारात्मक और शुद्ध विचारों के पोषण और कार्यों की प्रबल अपेक्षा रखता है। 

ऋग्वेद के मंत्र (10: 191: 4) "समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:/ समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति//", अर्थात्,  "हमारा उद्देश्य एक हो,  हमारी भावनाएँ सुसंगत हों, हमारे विचार एकत्रित हों, उसी प्रकार जैसे  ब्रह्माण्ड के विभिन्न पहलुओं एवं क्रियाकलापों में एकता तथा तारतम्यता है से लेकर  अथर्ववेद के मंत्र (12: 1: 62 के प्रथम भाग) "उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूता:", अर्थात्, हे पृथ्वीमाता! हम क्षय आदि समस्त रोगों से मुक्त रहकर सदैव ही तेरी सेवा में उपस्थित रहें" की मूल भावना मातृभूमि के माध्यम से मानवता की सेवा, सुरक्षा और समृद्धि के लिए समर्पित रहना है।

देश को केन्द्र में रखकर पर्यावरण-प्रकृति, आर्थिक-राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी मंत्र, जो वेदों में प्रकट हैं; विशेष रूप से जो अथर्ववेद के माध्यम से हमारे सामने आते हैं, उन सभी की मूल भावना अन्ततः समष्टि कल्याण है। यही नहीं, राष्ट्रभक्ति, जो राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्यों से सम्बद्ध है, उसकी कसौटी भी वृहद् मानव कल्याण है। अथर्ववेद (12: 1: 1) में प्रबल मानवीय कामना है, "सत्यं बृहद्दतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति/स नो भूतस्य भव्यस्य पत्य्युरुं लोकं पृथिवी नः कृणोतु//", अर्थात्, सत्य, परम ज्ञान, स्थानों, ऋतुओं आदि को धारण करने वाली, अन्न, औषधियाँ और बल आदि प्रदान करने वाली पृथ्वी हमारे (समस्त जन के) लिए विशाल हो तथा मानव-कल्याण करे।

वास्तव में, यही भावना मानवतावाद को समर्पित भारतीय राष्ट्रवाद का मूल आधार है, और इसे अतिविशिष्ट भी बनाती है। यही भावना स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' (जीवनकाल: 1824-1883 ईसवीं), स्वामी विवेकानन्द (जीवनकाल: 1863-1902 ईसवीं), लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (जीवनकाल: 1856-1920 ईसवीं), ईश्वर चन्द्र विद्यासागर (जीवनकाल: 1820-1891 ईसवीं), देवेन्द्रनाथ टैगोर (जीवनकाल: 1817-1905 ईसवीं), केशव चन्द्र सेन (जीवनकाल: 1838-1884 ईसवीं), लाला लाजपत राय (जीवनकाल: 1865-1928 ईसवीं), महात्मा गाँधी, सरदार वल्लभभाई पटेल (जीवनकाल: 1875-1950 ईसवीं) और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस (जीवनकाल: 1897-1945 ईसवीं) सहित उन अग्रणियों के विचारों और कार्यों के मूल में रही थी, जो भारतीय पुनर्जागरण आन्दोलन और अँग्रेजी उपनिवेशवाद से देश की स्वाधीनता के लिए संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे। इसी भावना को केन्द्र में रखते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को समझने की आज भी नितान्त आवश्यकता है। युवा पीढ़ी को इससे परिचित कराने के साथ ही इसकी मूल भावना के अनुरूप वृहद् मानव-कल्याणार्थ कार्य किए जाने की अपेक्षा भी है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश)        के पूर्व कुलपति हैं I 

डॉ0 रवीन्द्र कुमार सुविख्यात भारतीय शिक्षाशास्त्री, समाजविज्ञानी, रचनात्मक लेखक एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैंI डॉ0 कुमार गौतम बुद्ध, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य, गुरु गोबिन्द सिंह, स्वामी दयानन्द 'सरस्वती', स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और सरदार वल्लभभाई पटेल सहित महानतम भारतीयों, लगभग सभी राष्ट्रनिर्माताओं एवं अनेक वीरांगनाओं के जीवन, कार्यों-विचारों, तथा भारतीय संस्कृति, सभ्यता, मूल्य-शिक्षा और इंडोलॉजी से सम्बन्धित विषयों पर एक सौ से भीअधिक ग्रन्थों के लेखक/सम्पादक हैंI विश्व के समस्त महाद्वीपों के लगभग एक सौ विश्वविद्यालयों में सौहार्द और समन्वय को समर्पित भारतीय संस्कृति, जीवन-मार्ग, उच्च मानवीय-मूल्यों तथा युवा-वर्ग से जुड़े विषयों पर पाँच सौ से भी अधिक व्याख्यान दे चुके हैं; लगभग एक हजार की संख्या में देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एकता, बन्धुत्व, समन्वय-सौहार्द और सार्थक-शिक्षा पर लेख लिखकर कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैंI भारतीय विद्याभवन, मुम्बई से प्रकाशित होने वाले भवन्स जर्नल में ही गत बीस वर्षों की समयावधि में डॉ0 कुमार ने एक सौ पचास से भी अधिक अति उत्कृष्ट लेख उक्त वर्णित क्षेत्रों में लिखकर इतिहास रचा हैI विश्व के अनेक देशों में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के अवसर पर शान्ति-यात्राओं को नेतृत्व प्रदान करके तथा पिछले पैंतीस वर्षों की समयावधि में राष्ट्रीय एकता, विशिष्ट भारतीय राष्ट्रवाद, शिक्षा, शान्ति और विकास, सनातन मूल्यों, सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और सदाचार एवं भारतीय संस्कृति से सम्बद्ध विषयों पर निरन्तर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ-कार्यशालाएँ आयोजित कर स्वस्थ और प्रगतिशील समाज-निर्माण हेतु अभूतपूर्व योगदान दिया हैI डॉ0 रवीन्द्र कुमार शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान की मान्यतास्वरूप ‘बुद्धरत्न’ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय तथा भारत गौरव, सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान, साहित्यवाचस्पति, साहित्यश्री, साहित्य सुधा, हिन्दी भाषा भूषण एवं ‘पद्म श्री‘  जैसे राष्ट्रीय सम्मानों से भी अलंकृत हैंI

 

 


 

 

 

 

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