बुधवार, 17 अप्रैल 2024

दुख: वास्तविकता और निदान - डॉ0 रवीन्द्र कुमार

 

दुख: वास्तविकता और निदान

डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

दुख (संस्कृत में दुःखतथा पाली में दुक्खा’) जीवन की सत्यता है, अपरिहार्यता भी है। अवतारीपुरुष, मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण और तथागत गौतम बुद्ध के  जीवन भी दुख-स्थिति का अपवाद नहीं रहे।

कष्ट, पीड़ा, वेदना व सन्ताप, दुख के समानार्थी हैं। व्याकुलता, व्यथा, विपदा, क्षोभ, अवसाद व अशान्ति दुख के साथ ही जुड़ी हुई स्थितियाँ हैं। व्युत्पत्ति के दृष्टिकोण से विश्लेषण के बाद निष्कर्ष रूप में जो परिणाम सामने आता है, वह यह कि दुख असहजता, असुविधा, अप्रियता, उदासीनता, कठिनाई आदि उत्पन्नकर्ता है।

'जीवन में दुख', एक ऐसा विषय है, जिस पर संसार भर के चिन्तनों में, और अति विशेष रूप से भारत के प्रत्येक धर्म-दर्शन में चर्चा हुई है। हर दर्शन की प्रत्येक शाखा में इस पर विचार किया गया है। प्रत्येक विचार-चिन्तन में दुख अन्ततः सुख-विपरीत स्थिति के रूप में सामने आता है।

ऐसी स्थिति में 'सुख' के अर्थ को जान लेना, यद्यपि, आवश्यक प्रतीत हो सकता है, लेकिन इस बात को अभी एक ओर रखकर 'जीवन में दुख क्यों', इस चर्चा पर ही आगे बढ़ेंगे, तो अच्छा होगा। मेरा यह मानना है कि इससे ही अन्ततः सुखावस्था की सत्यता सामने आ जाएगी।    

सनातन-वैदिक दर्शन में अज्ञान अथवा अविद्या दुख का मूल कारण है। ऐसे में प्रश्न उठेगा कि अज्ञान अथवा अविद्या क्या है? इसका सीधा, सरल, सर्वथा उचित और श्रेष्ठ उत्तर है, भ्रान्ति के साथ असत्यता में जीना। दूसरे शब्दों में, सत्य से विमुखता।

सत्य क्या है? सत्य केवल एक ही है; वह अविभाज्य समग्रता है और जगत –सार्वभौमिक एकता का निर्माण करती है। अविभाज्य समग्रता को (ब्रह्म सहित) अनेकानेक नामों से सम्बोधित किया जाता है; वही एक शाश्वत व निरन्तर प्रवहमान सर्वथा चेतनायुक्त सार्वभौमिक नियम रूप भी है। इसी वास्तविकता की अनुभूति, अंगीकरण और उसके परम आह्वान के अनुसार जीवन-व्यवहार, सत्य का अनुसरण है। यह, उस सार्वभौमिक नैतिक आचरण संहिता का अनुपालन भी है, जो प्रारम्भ से ब्रह्माण्डीय स्तर तक व्यवस्था के सुचारु संचालनार्थ अपरिहार्य है और जिससे पलायन नहीं हो सकता।  

यही वास्तविक ज्ञान है, विद्या है, अर्थात्, प्रज्ञानं ब्रह्म, क्योंकि, वही शुद्धतम (वास्तविक अथवा परम सत्य) है; (सबका आधार है); उसके तुल्य न कोई शुद्ध हुआ है, न है, और न ही होगा, न त्वावाँऽअन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते/” (यजुर्वेद, 27: 36)

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता अथवा नियम रूप का समस्त जीवों में ज्ञात श्रेष्ठ प्राणी मानव का परम आह्वान क्या है?

अपनी एकांगिता के मिथ्या विचार से अपने को पृथक कर एक ही अविभाज्य समग्रता के अंश/भाग होने की सत्यता को स्वीकार करना; 'निज-अस्तित्व की कल्पना से बाहर निकलकर स्वयं के हित को साधने की इच्छा का त्याग करना। सर्वकल्याण में ही अपने कल्याण की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए जीवन-यात्रा पर निरन्तर आगे बढ़ना।

II

यदि अति सरल शब्दों में कहें, तो तीर्थंकर महावीर ने दुख के मूल कारण को सामान्यतः परिग्रह माना है। जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति का मोह, ममत्व व आसक्ति परिग्रह (संचय) के लिए क्षेत्र तैयार करते हैं; निजी हित को केन्द्र में रखते हुए मानव इस हेतु आगे बढ़ता है। वह तनावग्रस्त होता है। तनाव दुख को जन्म देता है। आत्मा को प्रभावित करता है। निजी हित के लिए परिग्रह-स्थिति से बाहर आना, इस प्रकार मोह, ममत्व व आसक्ति का त्याग करना दुख-निवारण का उपाय है। यह अविद्या अथवा अज्ञान की स्थिति से पृथकता है। बन्धन-मुक्ति का उपाय है। स्वयं प्रकाश है और अन्ततः सत्यालिंगन है।

तथागत गौतम बुद्ध ने जीवन में दुख की सत्यता, दुख के कारण अथवा उत्पत्ति, निरोध या अन्त एवं इस हेतु 'आर्य आष्टांगिक मार्ग' के अनुसरण का मानवाह्वान किया। बुद्ध ने असन्तोष, चाह-लालच, मिलन-विछोह, लालसा, यहाँ तक कि मृत्यु व पुनर्जन्म-चक्र सहित अनेक दुख-स्थितियों को मानव के समक्ष रखा। इस कड़ी में हम अनाधिकार चेष्टा अथवा प्राप्ति की चाह को भी सम्मिलित कर सकते हैं। ये सभी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की तृष्णा से, जो लालसा का उग्र रूप अथवा तीव्रेच्छा है, सम्बद्ध हैं; बुद्ध ने इसीलिए तृष्णाक्षय तृष्णा-समाप्ति का मानव का आह्वान किया। 'आर्य आष्टांगिक मार्ग' (उचित, कल्याणकारी और योग्य पथ) को, जो "लोकानुकम्पाय" अथवा "सर्वभूत हिते रता: प्राणिमात्र के हितार्थ" केन्द्रित है, अपनाने का दीर्घकालिक सन्देश दिया।

मध्यकाल में प्रथम सिख गुरु नानकदेव ने सारे संसार में व्याप्त दुख की स्थिति के सम्बन्ध में उल्लेख किया। तथागत गौतम बुद्ध की ही भाँति गुरु नानकदेव ने भी विछोह, भूख, इच्छापूर्ति अभाव, असन्तोष, अलगाव आदि के कारण मानव को होने वाली वेदना एवं अप्राप्ति, असन्तुष्टि और मृत्यु के भय से उत्पन्न होने वाले दुख की चर्चा की। जगत में सभी, न्यूनाधिक, उक्त में से किसी-न-किसी स्थिति के वशीभूत होते हैं और उनका निजी  स्वार्थ उत्पन्न होने वाली दुख-स्थिति के मूल में होता है। इस प्रकार, "नानक दुखिया सब संसार" जैसा उनका कथन जगत-प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने इसके निदान का उपाय भी बताया। वह यह कि मनुष्य सत्यालिंगन करे; सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली एक ही अविभाज्य समग्रता वाहेगुरु से साक्षात्कार करे। उसी के निमित्त व्यवहारों से आनन्द-स्थिति को प्राप्त हो, "सो सुखिया जिस नाम आधार"। दूसरे शब्दों में, अविभाज्य समग्रता की सर्वकल्याण हेतु अपेक्षा की पूर्ति के लिए मानव समर्पित हो, जो सुख, अर्थात् सत्यता की अनुभूति और आलिंगन से आनन्द-प्राप्ति है; अज्ञानता के कारण निर्मित दुख के विपरीत स्थिति है।     

आधुनिककाल के रमण महर्षि जैसे महापुरुष ने जीवन में 'आत्म-निरीक्षण' की महत्ता को जानने का आह्वान करते हुए जो विचार प्रस्तुत किया, वह भी किसी-न-किसी रूप में दुख-स्थिति सम्बन्धी उक्त चार विश्लेषणों के ही निकट जाकर ठहरता है।

संक्षेप में, निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति सत्य से विमुख रहता है। निज-हित को वास्तविक मानता है और अज्ञान की स्थिति में रहता है। निज-हित प्राप्ति हेतु तृष्णा उसमें बलवती रहती है। एक ही सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता की वास्तविकता को, जिसकी परिधि से बाहर कुछ भी नहीं है, अनदेखा कर वह उसकी अपेक्षा के विपरीत व्यवहार करता है। परिणामस्वरूप दुख-स्थिति को प्राप्त होता है। इसलिए, सनातन-वैदिक दर्शन, तीर्थंकर महावीर और जैन-विचार, तथागत गौतम बुद्ध, गुरु नानक देव अथवा जीवन में दुख-स्थिति के सम्बन्ध में दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाले अन्य सभी चिन्तकों ने, 'सर्वकल्याण में ही निज-कल्याण' की वास्तविकता मानवमात्र के समक्ष रखी। इसी के अनुरूप जीवन-व्यवहारों की अपेक्षा भी की। इसे दुख से सुख की ओर जाने का मार्ग बताया। दुख-स्थिति से गुजरते अवतारी पुरुषों के जीवन से भी यही सत्यता सामने आती है।

प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह मार्ग पार कर पाना भले ही सम्भव न हो, लेकिन कोई जितना भी इस पर आगे बढ़ेगा, वह उतना ही दुख-स्थिति से मुक्त होगा। यह न नकारे जा सकने वाला सत्य है। 

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

****

सदाचार और नैतिकता का सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य

A person in a suit and tie

Description automatically generated

डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

अति साधारण शब्दों में, सत् (सत्य –शाश्वत, नित्य) और आचार (आचरण) की सन्धि से निर्मित शब्द सदाचार, शुभ कर्मों का प्रकटकर्ता है। दूसरे शब्दों में, सत्याधारित आचरण, सदाचार है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि शुभ अथवा सत्याधारित आचरण अथवा कर्म कौन-सा है। अति सरल शब्दों में कहा जाए, तो सकारात्मक सोच के साथ (विवेकाधारित) आचरण शुभ आचरण हैं; ऐसे आचरण अथवा कर्म स्वयं के साथ ही वृहद् कल्याणकारी होते हैं। सत्य को समर्पित रहते हैं।

यहाँ तनिक और स्पष्टता की जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि विवेक ही सोच को सकारात्मक बनाता है; मानव-जीवन में अपरिहार्य कर्म-प्रक्रिया को सुकर्मों में रूपान्तरित करता है। इस प्रकार, विवेक स्वयं में एक सद्गुण के रूप में प्रतिष्ठित होता है। सुकर्म, सत्य-मार्ग का अनुकरण है। निज के साथ ही समष्टि-कल्याण सुकर्मों की कसौटी है।

नैतिकता का निर्माण नैतिक शब्द से हुआ है। नैतिक, नीति से बना है। नैतिक भाव की अनुभूति, विकास और व्यवहार द्वारा मानव न्यायसंगत कार्य करता है I नैतिकता मानवीय सद्गुणों का प्रदर्शन है। नैतिकता उचित आचरण-नियमों के अनुसरण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। क्या करना और क्या नहीं करना है; क्या उचित है, जो करना चाहिए एवं क्या अनुचित है, जो त्याज्य है तथा नहीं करना चाहिए, नैतिकता इसका बोध कराती है I नैतिकता पवित्रता, न्याय एवं सत्य का प्रतिनिधित्व करती है। यह आत्मा का स्वर बनती है I जब नैतिकता अविभाज्य रूप से सद्गुणों के प्रदर्शन –न्यायसंगत कार्य व उचित व्यवहार के साथ सम्बद्ध होती है, तो यह व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायणता अथवा उत्तरदायित्व-निर्वहन भावना से भरपूर करती है I इस प्रकार अति साधारण और ग्राह्य शब्दों में, कर्त्तव्यपरायणता या समुचित उत्तरदायित्व-निर्वहन नैतिकता की कसौटी है I

मानसिक शुद्धता के लिए एकाग्रता-प्रक्रिया से चरित्र-निर्माण भी होता है। व्यवहारों में निरपेक्ष बन्धुत्व का विकास, जो जीवन में करुणा-भावना का आधार है, उच्चतम नैतिक आचरण है। तथागत गौतम बुद्ध के मानव-विश्व के लिए इस सन्देश द्वारा अपरिहार्य कर्त्तव्य-निर्वहन का सुदृढ़ पक्ष सामने आता है।   

प्रसिद्ध चीनी चिन्तक और अपने नैतिक विचारों के लिए विश्व की दार्शनिक परम्परा में उच्च स्थान रखने वाले कन्फ्यूशियस के अनुसार सम्मान, सद्भाव, न्याय और निष्ठा जैसी मानवीय विशिष्टताएँ नैतिकता के आधारभूत तत्व हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ये विशिष्टताएँ मनुष्य को सदाचारी बनाती हैं। 

पश्चिमी जगत से सुप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने 'निकोमैचियन एथिक्स' जैसी आज तक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना  की। इसमें उन्होंने तर्कों के साथ नैतिकता के सम्बन्ध में वर्णन किया। नैतिकता को सच्चा आनन्द प्रदान करने वाली सर्वोच्च अच्छाई के रूप में निरूपित किया, जिसमें मानव-चरित्र के सुलक्षण सम्मिलित होते हैं। सार रूप में, अरस्तू ने इन्हीं के विकास एवं जीवन-व्यवहारों में अनुकरण द्वारा मानव के श्रेष्ठ अथवा सदाचारी जीवन जीने की बात की।

महात्मा गाँधी ने सजातीय समानता की वास्तविकता के अंगीकरण को उच्च नैतिकता घोषित किया। स्वतंत्रता, न्याय और अधिकार जैसे मानव-जीवन के अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष समानता के साथ ही जुड़े हुए हैं। समानता-भावना सार्वभौमिक एकता का दर्पण है। इसलिए, गाँधीजी ने समानता-केन्द्रित मानव-व्यवहार को मनुष्य का सत्याचरण स्वीकारा। 

सदाचार और नैतिकता एक-दूसरे के साथ अभिन्नतः जुड़े विषय हैं। दोनों मानव-जीवन की शुद्धता व समृद्धि के लिए हैं। जीवन के अर्थपूर्ण होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। सदाचार, सत्य के लिए समर्पित है। नैतिकता, मानव को कर्त्तव्यपरायण बनाती है। कर्त्तव्य-निर्वहन, स्वयं  सत्याचरण है। अन्ततः निज के साथ वृहद् कल्याण केन्द्रित होने के कारण दोनों की, एक-दूसरे के साथ घनिष्ठतः सम्बद्ध होते हुए, कितनी महत्ता है, वह स्वतः ही प्रकट है।

व्यक्तिगत से राष्ट्रीय, राष्ट्रीय से वैश्विक और वैश्विक से सार्वभौमिक स्तर तक परिस्थितियाँ निरन्तर परिवर्तित होती हैं। परिवर्तन शाश्वत नियम है। जीवन का कोई भी क्षेत्र और किसी भी क्षेत्र का कोई भी स्तर परिवर्तन नियम से बाहर नहीं है। ऐसे स्थिति में मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि क्या सदाचार और नैतिकता इसका अपवाद हैं। नहीं हैं। सदाचार और नैतिकता से सम्बद्ध विशिष्टताएँ भी देशकाल की परिस्थितियों में परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं।

परिवर्तन-क्रम, हम बारम्बार कह सकते हैं, निरन्तर रहता है। वर्तमान में कम-से-कम दो (पूर्ववर्ती एवं उत्तराधिकारी) पीढ़ियों के मध्य सोच-विचार, कार्यपद्धति, व्यक्तिगत एवं परस्पर सम्बन्धों व व्यवहारों सहित जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हरेक स्तर पर परिवर्तनों का हममें से हर कोई साक्षी है। यह स्वाभाविक है। परिवर्तन नियम-प्रक्रिया से सम्बद्ध है।

सदाचार और नैतिकता जीवन शुद्धता, समृद्धि और सार्थकता के लिए हैं। इस हेतु अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण भी आवश्यक होता है।  इसके लिए सदाचार और नैतिकता की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण होती है। इसलिए, सदाचार एवं नैतिकता अपनी-अपनी मूल भावना के साथ जुड़े रहकर भी परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं। सत्यता के साथ आचरण –वर्तमान परिस्थितियों में सम्बन्धों में ईमानदारी एक श्रेष्ठ सदाचार है। साथ ही, अच्छी-बुरी सामाजिक परम्पराओं, प्रथाओं और रीतियों को नकार कर भी यदि  कोई सम्बन्धों में (वे निजी जीवन से जुड़े हों या परस्पर व्यवहारों से सम्बद्ध हो अथवा उनका सरोकार किसी भी क्षेत्र से हो) उत्तरदायित्व-निर्वहन हेतु प्रतिबद्ध रहता है, तो वह नैतिकता का पालन करता है। ये दोनों (अर्थात् सम्बन्धों एवं व्यवहारों में ईमानदारी तथा उत्तरदायित्व-निर्वहन के लिए प्रतिबद्धता) सदाचार व नैतिकता के उत्कृष्ट पहलू  हैं, जो यह भी प्रतिपादित करते हैं कि  जीवन में सदाचार और नैतिकता की सर्वकालिक महत्ता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

कोई टिप्पणी नहीं:

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...