गुरुवार, 30 मई 2024

अहिंसा का सनातन परिप्रेक्ष्य - डॉ0 रवीन्द्र कुमार*


                                                     अहिंसा का सनातन परिप्रेक्ष्य

डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

 

अहिंसा पद का समास विग्रह 'न हिंसा' है; अर्थात्, जिसका अक्षरशः अर्थ है ‘हिंसा की अनुपस्थिति’। दूसरे शब्दों में, ‘हिंसाका अभाव, अथवाहिंसाके एकदम विपरीत स्थिति अहिंसा है। जब 'नञ्' का उच्चारण किया जाता है, तो ध्वनि में वह '' के रूप निकलता है। इसलिए, सम्बन्धित शब्द या पद में 'नञ्' के स्थान पर '' का प्रयोग होता है। उदाहरण के लिए, न स्वस्थ=अस्वस्थ, न सिद्ध=असिद्ध, न धर्म=अधर्म, न योग्य=अयोग्य इत्यादि। उसी प्रकार, न हिंसा=अहिंसा। 

हिंसा क्या है? 'हिंस' से निर्गत शब्द हिंसा का अर्थ है प्रहार करना। इस प्रकार, हिंसा किसी को हानि पहुँचाना है। किसी को पीड़ा देना अथवा इससे भी आगे किसी को हताहत करनाकिसी के प्राण लेना हिंसा है। महान संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनि की हिंसा की व्याख्या, हिंसा-भाव अथवा हिंसा-क्रिया, पीड़ा और जीवन-हनन जैसे शब्दों को प्रकट करती है। हिंसा, इस प्रकार, एक महादोष है। यह जीवन की एक बड़ी बाधा है। इसीलिए, सनातन धर्म के आधारभूत ग्रन्थ ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त में ही सृष्टि-रचयिता, पालक, स्वामी और उद्धारकर्ता परमात्मा से, जो स्वयं हिंसा-दोष मुक्त हैं, हिंसा से मुक्ति की कामनाप्रार्थना की गई है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के चतुर्थ मंत्र में 'अध्वरं' शब्द प्रकट होता है। इसका अर्थ है, "हिंसा दोष से मुक्त"। इस शब्द की, वास्तव में, मूल भावना अहिंसा के परम स्रोतमहाकरुण सृष्टापरमेश्वर से हिंसा-मुक्त कर्म-संलग्नता की प्रबलेच्छा का प्रकटीकरण है। परमात्मा इस हेतु मार्ग प्रशस्त करें, उनसे यह प्रार्थना की गई है।

'अध्वरं' शब्द की, पूरे मंत्र के साथ मूल भावना हिंसा के विपरीत अहिंसा के आलिंगन में है। इसमें अहिंसा-आधारित वृहद् कल्याणकारी प्रवृत्तियों अथवा कर्मों में संलग्नता की चाह है। अहिंसाजन्य मैत्री और सद्भावना के वातावरण में स्वयं अहिंसा के दो श्रेष्ठतम व्यवहारों, सहिष्णुता तथा सहनशीलता के माध्यम से, परस्पर सजातीय सहयोग और सामंजस्य स्थापित करते हुए वृहद् कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने की प्रबल कामना है।

अहिंसा, इसलिए, स्वयं ऋग्वेद के बाद के मण्डलों/सूक्तों के मंत्रों, साथ ही यजुर्वेद, अथर्ववेद, उपनिषदों, रामायण तथा महाभारत व इसी के एक भाग तथा अद्वितीय वैदिक-हिन्दू धर्मग्रन्थ के रूप में सारे संसार में स्थापित श्रीमद्भगवद्गीता, पुराणों, आदि में भी अप्रत्यक्ष के साथ ही प्रत्यक्ष रूप में भी प्रकट हुई है। कर्त्तव्य-भावना के साथ एक उच्चतम मानवीय धर्म के रूप में स्थापित हुई है।   

ऋग्वेद के मंत्रों (2: 33: 15 18, 5: 64: 3, 6: 54: 7, 10: 15: 5-6, 10: 121: 9), यजुर्वेद के मंत्रों (36: 18-19 एवं 22-23), सामवेद के मंत्र (1: 1: 9) एवं अथर्ववेद के मंत्रों (19: 15: 5-6, 19: 60: 1-2) के माध्यम से हुईं मानवीय प्रार्थनाएँ अति विशेष रूप से हिंसा से मुक्ति, रक्षा अथवा सुरक्षा और, इस प्रकार, अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष रूप में वृहद् कल्याणकारी अहिंसा की कामना को प्रकट करतीं हैं।    

वैदिक मंत्रों में उल्लिखित शब्द 'न हृणीषे' (नहीं हरते), 'अहिंसानस्य' (हिंसारहित), 'माकिर्नेशन्माकीं' (नष्ट न हों एवं नष्ट न करें), 'ते॑ऽवन्त्वस्मान्' (...रक्षक हों), 'नः मा हिंसिष्ट' (हमें पीड़ा न दें), 'नः माहिंसीत्' (हमें न मारें), 'मित्रस्य चक्षुषा' (मित्रवत आँखों से), 'ज्योक् जीव्यासम्' (निरन्तर जीवन जीएँ), 'अभयम्'  (भयरहित), 'सुमित्रियाः' (मित्र के समान), 'अथर्वा' (अहिंसा-व्रत योगी अथवा महान अहिंसक), 'मित्रात अभ्यम्' (मित्र की ओर से भय-मुक्ति), 'अनिभृष्ट' (बिना गिरे) आदि, अकल्याणकारी हिंसक वृत्तियों से छुटकारे और सर्वथा कल्याणकारी अहिंसक गतिविधियों की प्रबल मानवीय चाह के प्रकटकर्ता हैं। ईश्वर स्वयं अहिंसा के सर्वोच्च आदर्श हैं। ये शब्द या वैदिक सन्दर्भ अहिंसा की सर्वोच्च मानवीय मूल्य के रूप में प्रतिष्ठा के प्रकटीकरण के साथ ही इसके मानव के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान तथा वृहद् कल्याण के मार्ग, माध्यम अथवा साधन होने की वास्तविकता को को भी प्रकट करते हैं।     

          सनातन धर्म के अन्य सभी प्रमुख ग्रन्थों में अहिंसा अपनी मूल भावना के साथ प्रत्यक्षतः प्रकट है। इस सम्बन्ध में विशेष रूप से छान्दोग्योपनिषद्, महाभारत और श्रीमद्भगवद्गीता के साथ ही अनेक पुराणों का उल्लेख किया जा सकता है। कठोपनिषद् (1: 10) में अहिंसा, कोप व रोष आदि से बचाव और सर्वथा शान्त भाव की उपस्थिति के रूप में प्रकट हुई है। दूसरी ओर, छान्दोग्योपनिषद् (3: 17: 4) में अहिंसा एक उच्चतम मानवीय गुण के रूप में सामने आती है। महाभारत में यह अपनी अनेक विशिष्टताओं के साथ परम धर्म के रूप में निरूपित होती है श्रीमद्भगवद्गीता (10: 5) में अहिंसा को (ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के चतुर्थ मंत्र के ही तारतम्य में) ईश्वरोत्पन्न गुण घोषित किया गया है; साथ ही, अहिंसा को श्रीमद्भगवद्गीता (16: 2) में एक उच्चतम मानवीय विशिष्टता भी कहा गया है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कहा है कि अहिंसा का कोई विकल्प नहीं है। धर्म-रक्षा –मानवता की सुरक्षा के लिए अन्त तक अहिंसा-मार्ग का त्याग नहीं करना चाहिए। चूँकि अहिंसा की मूल भावना वृहद् कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है; वृहद् कल्याणकारी प्रवृत्तियों और कर्मों की निरन्तरता इसका उद्देश्य है, इसलिए अहिंसा का दुरुपयोग करने वालों के साथ समझौता नहीं हो सकता। अहिंसा की मूल भावना के विपरीत व्यवहारकर्ताओं का प्रतिरोध स्वयं में अहिंसा का पालन है।

इस प्रकार, योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अहिंसा की उच्च गुण के रूप में महिमा के साथ ही इसकी मूल भावना भी स्पष्ट की, जो, वास्तव में, सनातन धर्म की अहिंसा की अवधारणा की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है।        

मन, वचन और कर्म द्वारा न केवल सजातीयों, अपितु प्राणिमात्र के प्रति सक्रिय सद्भावना सनातन-वैदिक-हिन्दू धर्म की अहिंसा अवधारणा है। अहिंसा, जीवन की निरन्तरता, प्रगति और लक्ष्य-प्राप्ति का साधन है। अहिंसा की कसौटी कृत्य (विचार, वाणी और कार्य) के मूल में रहने वाली भावना है। अपने निजी या समूह के किसी भी प्रकार के स्वार्थ से मुक्त और विशुद्ध रूप से किसी के कायिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक उत्थान –कल्याण हेतु निष्पन्न कृत्य, बाह्य रूप में हिंसक प्रतीत होने पर भी, अहिंसा-केन्द्रित है। ऐसा कृत्य क्षणिक होता है। ऐसे कृत्य की भावना, पुनरावृत्ति कर सकते हैं, निजी व समूह का स्वार्थ नहीं, अपितु पर-कल्याण है। यही अन्ततः अहिंसा की भावना भी है। संक्षेप में यही सनातन धर्म की अहिंसा-अवधारणा का सार है।

 

डॉ0 रवीन्द्र कुमार सुविख्यात भारतीय शिक्षाशास्त्री, समाजविज्ञानी, रचनात्मक लेखक एवं चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैंडॉ0 कुमार गौतम बुद्ध, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य, गुरु गोबिन्द सिंह, स्वामी दयानन्द 'सरस्वती', स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गाँधी और सरदार वल्लभभाई पटेल सहित महानतम भारतीयों, लगभग सभी राष्ट्रनिर्माताओं एवं अनेक वीरांगनाओं के जीवन, कार्यों-विचारों, तथा भारतीय संस्कृति, सभ्यता, मूल्य-शिक्षा और इंडोलॉजी से सम्बन्धित विषयों पर एक सौ से भीअधिक ग्रन्थों के लेखक/सम्पादक

हैंI विश्व के समस्त महाद्वीपों के लगभग एक सौ विश्वविद्यालयों में सौहार्द और समन्वय को समर्पित भारतीय संस्कृति, जीवन-मार्ग, उच्च मानवीय-मूल्यों तथा युवा-वर्ग से जुड़े विषयों पर पाँच सौ से भी अधिक व्याख्यान दे चुके हैं; लगभग एक हजार की संख्या में देश-विदेश की अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एकता, बन्धुत्व, प्रकृति व पर्यावरण,समन्वय-सौहार्द और सार्थक-शिक्षा पर लेख लिखकर कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैंI भारतीय विद्याभवन, मुम्बई से प्रकाशित होने वाले भवन्स जर्नल में ही गत बीस वर्षों की समयावधि में डॉ0 कुमार ने एक सौ पचास से भी अधिक अति उत्कृष्ट लेख उक्त वर्णित क्षेत्रों में लिखकर इतिहास रचा हैI विश्व के अनेक देशों में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के अवसर पर शान्ति-यात्राओं को नेतृत्व प्रदान करके तथा पिछले पैंतीस वर्षों की समयावधि में राष्ट्रीय एकता, विशिष्ट भारतीय राष्ट्रवाद, शिक्षा, शान्ति और विकास, सनातन मूल्यों, सार्वजनिक जीवन में नैतिकता और सदाचार एवं भारतीय संस्कृति से सम्बद्ध विषयों पर निरन्तर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियाँ-कार्यशालाएँ आयोजित कर स्वस्थ और प्रगतिशील समाज-निर्माण हेतु अभूतपूर्व योगदान दिया हैI डॉ0 रवीन्द्र कुमार शिक्षा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में अपने अभूतपूर्व योगदान की मान्यतास्वरूप ‘बुद्धरत्न’ तथा ‘गाँधीरत्न’ जैसे अन्तर्राष्ट्रीय और ‘भारत गौरव’, ‘सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान’, ‘साहित्यवाचस्पति’, ‘साहित्यश्री’, ‘साहित्य सुधा’, ‘हिन्दी भाषा भूषण’ एवं ‘पद्म श्री‘ जैसे राष्ट्रीय सम्मानों से भी अलंकृत हैंI

 

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