रविवार, 12 मई 2024

सनातन धर्म के मूल सिद्धान्त - डॉ0 रवीन्द्र कुमार


 

सनातन धर्म के मूल सिद्धान्त

     डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

 ब्रह्माण्ड में समस्त चल-अचल एवं दृश्य-अदृश्य की अपरिहार्य सम्बद्धता एवं, इस प्रकार, सार्वभौमिक एकता और एकता का निर्माण करने वाली शक्ति अथवा सत्ता की विद्यमानता की सत्यता की स्वीकार्यता, सनातन धर्म के ये दो सर्वप्रमुख सिद्धान्त हैं।

एक ही अविभाज्य समग्रता अपने अनेकानेक गुणों –सार्वभौमिक कार्यों और स्वभावों के कारण, तदनुसार, नामों से सम्बोधित की जाती है, तथा अपनी परिधि में ब्रह्माण्ड में विद्यमान समस्त दृश्य-अदृश्य और चल-अचल को समेटती है। वही अविभाज्य समग्रता, इस प्रकार, सार्वभौमिक एकता का निर्माण करती है।

इस प्रकार, स्पष्ट शब्दों में एक ही अविभाज्य समग्रता की विद्यमानता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता में विश्वास सनातन धर्म के प्रथम और द्वितीय, क्रमशः, मूलाधार हैं।    

सनातन धर्म के इन दोनों मूलाधारों (एक ही अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की शाश्वतता की स्वीकृति) की स्थिति को कोई भी अन्य धार्मिक विश्वास, सामाजिक चिन्तन अथवा वैज्ञानिक सिद्धान्त नकार नहीं सकता। यहाँ तक कि कोई नास्तिक विचार भी इस सत्यता से मना नहीं कर सकता। प्रत्येक सामाजिक चिन्तक, वैज्ञानिक और नास्तिक भी, किसी-न-किसी रूप में, इस वास्तविकता को स्वीकार करता है कि ब्रह्माण्डीय व्यवस्था एक निरन्तर प्रवहमान सार्वभौमिक नियम द्वारा संचालित होती है। सार्वभौमिक नियम की परिधि के बाहर कुछ भी नहीं है; कोई भी नहीं है। वही सार्वभौमिक नियम एक अविभाज्य समग्रता है। उसके अपरिहार्य रूप से सर्वत्र व्याप्त होने के कारण सार्वभौमिक एकता का निर्माण होता है।

यह भी लगभग सर्वमान्य है कि ब्रह्माण्ड में समस्त चल-अचल व दृश्य-अदृश्य की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परस्पर निर्भरता है। इससे भी स्वतः ही सिद्ध होता है कि सार्वभौमिक एकता की सत्यता विद्यमान है और, इस प्रकार, सनातन धर्म के प्रथम एवं द्वितीय, दोनों, मूलाधारों पर मुहर लगती है।

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली और, साथ ही, सार्वभौमिक व्यवस्था का आधार रहने वाली अविभाज्य समग्रता सनातन धर्म में परब्रह्म के नाम से सम्बोधित है। परब्रह्म=पर (सर्वोच्च)+ब्रह्म (जगत-सत्य और सार)। सर्वोच्च ब्रह्म संकल्पनाओं से परे और अवर्णनीय उत्पत्तिकर्ता, पालक एवं उद्धारकर्ता हैं। वे अनादि और अक्षर हैं; वे बुद्धि का विषय नहीं हैं तथा, वेदान्त उन्हें ही निर्गुण ब्रह्म भी स्वीकारता है। सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता ब्रह्म नाम से भी सम्बोधित है। 'बृह्' धातु से निष्पादित शब्द ब्रह्म का सरल अर्थ है आगे की ओर बढ़ना अथवा प्रस्फुटित होना। स्वयं वृद्धि को प्राप्त होना। इस प्रकार, सब कुछ, चर-अचर व दृश्य-अदृश्य ब्रह्म ही हैं। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म/" (छान्दोग्योपनिषद, 3: 14: 1)

वही परमसत्ता, अविभाज्य समग्रता, परमेश्वर हैं। परमेश्वर=परम+ईश्वर; अर्थात्, सर्वोच्च ईश्वर; ऐश्वर्यशाली तथा जगत नियन्ता। वे ईश्वर हैं; ऐश्वर्य युक्त तथा समर्थ हैं। वनस्पति, प्रकृति, जलवायु आदि सहित समस्त पदार्थों के स्वामी हैं। इशे यो विश्वस्या" (ऋग्वेद, 10: 6: 3), अर्थात्,  समस्त दिव्यता के स्वामी, सर्व समर्थ एवं दिव्यता प्रदानकर्ता ईश्वर।

वे परमात्मा हैं। परमात्मा=परम (सर्वोच्च)+आत्मा (चेतना), इस प्रकार प्राण शक्ति हैं। वे भगवान हैं। भूमि, गगन, वायु, अनल और नीर जैसे मूल तत्त्वों के स्वामी हैं। वे नारायण हैं; जलस्रोत हैं। अग्निमीळे हैं; प्रकाश-स्रोत हैं। वे इन्द्र परम ऐश्वर्यवान व दिव्य प्रकाश में प्रकाशमान हैं; वे मातरिश्वान (ऋग्वेद, 1: 164: 46) अर्थात्, वायु-स्रोत सर्वव्याप्त हैं। वे विष्णु (व्यापनशील) हैं; सर्वत्र व्याप्त सम्पूर्ण जगत (ब्रह्माण्ड) में प्रवेश किए हुए हैं। (ऋग्वेद, 1: 154: 1)

वे व्यापक, विशेषणों से युक्त, विभिन्न रूपों में प्राणी-प्रशंसित एवं महिमामण्डित स्वामी हैं। (ऋग्वेद, 1: 154: 2) वे ब्रह्मा, सबसे बड़े और सर्व-जनक –सृजक स्वामी हैं। वे सहस्रशीर्षा: पुरुषः –हजारों शीर्ष वाले जगत-व्याप्त महाराजा हैं; उत्पत्तिकर्ता तथा कारण हैं। (ऋग्वेद, 10: 90: 1-2 ) वे त्र्यम्बकं (त्रिनेत्रीय), सर्वथा सर्वकल्याणकारी और उद्धारकर्ता हैं। वे तीन कालों में –जीव, कारण तथा कार्यों की रक्षा करने वाले हैं। (ऋग्वेद, 7: 59: 12) वे रूद्र –दुष्ट शत्रुओं का दमन करने वाले (ऋग्वेद, 1: 114: 2) पराक्रमी व परम शक्तिशाली हैं। वे समस्याओं के समूल नाशकर्ता हैं। वे गरुत्मान् –महानतम आत्मा वाले और यमं –न्यायकर्ता जगत-नियन्ता हैं। (ऋग्वेद, 1: 164: 46)

वे सवितुः हैं; सम्पूर्ण जगत -ब्रह्माण्ड के उत्पन्न करने वाले और ऐश्वर्य-युक्त स्वामी हैं। (ऋग्वेद, 3: 62: 10) वे हरि हैं; दुखों को हरने वाले स्वामी हैं। वे सच्चिदानन्द हैं; सदा सत्य, शाश्वत, स्थाई और अपरिवर्तनीय हैं। वे चेतनायुक्त और पूर्णतः आनन्दमय हैं। वे प्रत्येक स्थिति में पूर्ण हैं। (ईशावास्योपनिषद्, प्रारम्भ और बृहदारण्यकोपनिषद्, 5: 1: 1) परब्रह्म, पुरुषोत्तम परमात्मा सभी रूपों में सदैव ही परिपूर्ण हैं। वे सदैव ही आनन्द की पराकाष्ठा से भी परिपूर्ण हैं।

आनन्द उनका गुण है; वे इसीलिए सदा शान्त चित्त हैं। वे ॐ (ओम) हैं। ओम=अ+उ+म, इस प्रकार, ब्रह्माण्ड की अनाहत ध्वनि है। वे सर्वरक्षक और सर्वव्याप्त हैं। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का कारण तथा सार हैं। सृष्टि के द्योतक हैं।

उनके सम्बन्ध में इतना ही नहीं है। उनकी महिमा अपरम्पार है। उनके गुण असंख्य हैं और शक्तियाँ असीमित हैं। उनके असंख्य गुणों और शक्तियों के अनुसार ही, जैसा कि उल्लेख कर चुके हैं, उनके असंख्य ही नाम हैं। उन्हीं में से कुछेक ही का उल्लेख हमने किया है। अन्ततः वे एक अविभाज्य समग्रता हैं; वे सार्वभौमिक एकता के निर्माता हैं। सदा विद्यमान सनातन धर्म इसी सत्यता को स्वीकार करता है। अविभाज्य समग्रता की शाश्वतता एवं सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता, इस प्रकार, सनातन धर्म के प्रथम एवं द्वितीय, क्रमशः, मूलाधारों के रूप में स्थापित हैं।

II

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली, परब्रह्म-ब्रह्म, परमेश्वर-ईश्वर, परमात्मा आदि सहित अनेकानेक नामों से सम्बोधित अविभाज्य समग्रता, ब्रह्माण्डीय व्यवस्था के सुचारु एवं कल्याणकारी रूप से संचालनार्थ सृष्टि के श्रेष्ठ प्राणी मानव का एक परम अपेक्षित कर्त्तव्य निर्धारित करती है।

ब्रह्माण्डीय एकता और इसमें समस्त ज्ञात-अज्ञात की परस्पर निर्भरता की सत्यता का आलिंगन करने एवं ब्रह्माण्ड में विद्यमान समस्त चराचर व दृश्य-अदृश्य के प्रति मित्रवत रहने की अपेक्षा करती है। मूल तत्त्वों के साथ ही प्राणिमात्र एवं प्रकृति के प्रति, जो सभी अविभाज्य समग्रता मूलक हैं तथा उसी की परिधि में भी हैं, सहिष्णु रहते हुए आदर-सम्मान तथा प्रेम का सन्देश देती है।

सहनशील भावना के साथ सभी के प्रति, अपने स्वयं के चयनित मार्ग से भी, श्रद्धा रखने अथवा उसकी उपासना करने का आह्वान करती है। ऐसा करना स्वयं अविभाज्य समग्रता के प्रति आदर-सम्मान, प्रेम या श्रद्धा प्रकट करना है। व्यक्तिगत के साथ ही सर्व कल्याण का यही मार्ग है। सर्व कल्याण में ही व्यक्ति का कल्याण भी निहित है।

सहिष्णुता एवं सहनशीलता अहिंसा की दो श्रेष्ठतम व्यावहारिकताएँ हैं। अहिंसा सर्व एकता की अनुभूति और उसके प्रति श्रद्धा प्रकट करने का सर्वोत्तम माध्यम अथवा मार्ग है। अहिंसा अपनी मूल भावना में ठहरते हुए –प्राणिमात्र के साथ ही जगत में विद्यमान समस्त चराचर व दृश्य-अदृश्य के प्रति सक्रिय सद्भावना रखते हुए, साथ ही दृष्टिकोण-समायोजन द्वारा वृहद् सहयोग एवं सामंजस्य का मार्ग प्रशस्त करती है।

अहिंसा, इसीलिए, सनातन धर्म के तृतीय मूलाधार के रूप में प्रतिष्ठित है। वृहद् सहयोग और सामंजस्य के वातावरण में सर्व कल्याण को, जो सार्वभौमिक एकता की जीवन्त द्योतक व उस एकता की स्थापना करने वाली अविभाज्य समग्रता का आह्वान है, केन्द्र में रखते हुए, समय एवं परिस्थितियों की माँग के अनुसार निरन्तर आगे बढ़ना –आवश्यक नया करने हेतु पुरुषार्थ करना सनातन धर्म का आह्वान है।

'नित-नूतन' शाश्वत सार्वभौमिक नियम का सन्देश है। नया करने का संकल्प विकास का मार्ग प्रशस्त करता है; नया होने से ही वास्तविक प्रगति प्रकट होती है। सर्व-कल्याण भावना को अक्षुण्ण रखते हुए, नया करने का आह्वान, इसलिए, सनातन धर्म का चतुर्थ मूलाधार है।  

सनातन धर्म चार मूलाधारों से सुसज्जित है और, इस प्रकार, सार्वभौमिक एकता ही को समर्पित सर्वकालिक व्यवस्था है। सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता ही एकमात्र सत्यता है।

सर्व सहयोग, परस्पर सामंजस्य और सौहार्द के वातावरण में, सहिष्णु तथा सहनशील रहते हुए (इस प्रकार अहिंसा मार्ग द्वारा) सर्व-कल्याण हेतु पुरुषार्थ –जीवन-मार्ग पर निरन्तर नया करते हुए आगे बढ़ना, इस सत्यता की मानव से अपेक्षा है। अपने परम कर्त्तव्य के रूप में इसी अपेक्षा की प्राप्ति का सनातन धर्म का मानवाह्वान है। मानव अविभाज्य समग्रता की सत्यता में स्वयं को पहचाने; वह अविभाज्य समग्रता परमेश्वर स्वरूप को प्राप्त हो, यही मानव-जीवन का सार, लक्ष्य और उद्देश्य है:

"जीवो ब्रह्मैव नापरः –जीव ही ब्रह्म है; (जीव ब्रह्म से) भिन्न –बाहर नहीं है।"

आदिकाल से ही सनातन धर्म के अग्रणी समय-समय पर आए अवतार, ऋषि-महर्षि और महापुरुष इसी सत्यता को सर्व-कल्याण भावना के साथ मानवता के समक्ष  रखते रहे। 

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

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