अंतहीन
प्रतीक्षाएँ
सुश्री
कमलेश कुमारी*
संपूर्ण
शृंगार किए हुए,
लाल
साड़ी में लिपटी देह उस आँगन में शांत लेटी थी, जिसमें कभी
उसने नई दुल्हन के रूप में शुभता संग सारे शगुन निभा कर कदम रखे थे। ऐसा लग रहा था
कि मानो गृहस्थी के सर्वधर्म निभाते हुए थक कर ऐसी सो गई है कि कोई भी पुकार उसे
चिरनिद्रा से जगा नहीं सकती। अपने जुड़वा बच्चों को जन्म देते ही, जिनकी अभी
इस संसार में आँखें भी न खुली हों, को छोड़कर भला कौन माँ ऐसी चिरनिद्रा
में सोना चाहेगी...लेकिन ईश्वर-इच्छा के आगे किसका वश चलता है!
पड़ोसी, रिश्तेदार
एवं परिजन…सब अपने-अपने तरीके से दुख में उपस्थिति दर्ज कर रहे थे। सब कुछ न कुछ
कह कर उस दुःख की घड़ी से जुड़ रहे थे...
“अभी उम्र
ही क्या थी,
इस
दुनिया के मेले में देखा ही क्या…
“अब उन
नवजात शिशुओं का लालन-पालन कैसे होगा? माँ जैसा तो कोई
नहीं हो सकता…
कोई
कह रहा था कि “बच्ची के
बारे में तो सोच-सोच कर ही मन काँप रहा है...
भरी
आँखें और चिंतित हृदय लिए हुए एक तरफ अशक्त से खड़े हुए पति के साथ भी सबकी
सहानुभूति एवं सांत्वनाएँ थीं।
संसार
से विदा होने वाली बेटी के माता-पिता की सिसकियों को समझ ही न आता था कि वे अपनी
बेटी के रोएं या उसके बच्चों की माँ के लिए? बिटिया के
बचपन से लेकर विवाह तक के सारे दृश्य, उसकी निर्जीव देह
के चारों ओर नृत्य कर रहे थे। इस सब के बीच जो यक्ष प्रश्न था, वह यह कि ‘माँ’ के द्वारा
अपने पीछे छोड़े गए तीन बच्चों में बड़ी, पाँच वर्ष की बच्ची
को माँ की मृत्यु के सत्य से अवगत कराया जाए कि नहीं...या फिर माँ के किसी परियों
के देश से भाई लाने की बात कह कर, भुलावे की प्रतीक्षा में डाल दिया
जाए!
अंततः
यह निर्णय हुआ कि बच्ची को सच बताते हुए माँ के अंतिम दर्शन कराए जाएँ।
जैसे
ही बच्ची को गोद में लिए उसके पिता माँ की देह के समीप लाए और उसे माँ का “भगवान जी
के पास चले जाने का” कठोर वाक्य कहा; वैसे ही
बच्ची अपनी माँ के ठंडे पैरों से लिपटकर बिलख उठी…! लेकिन आज माँ ने लाडली को झट
से कलेजे से लगा कर , उसका माथा, पलकें चूम
लेने जैसी कोई ऊष्म और वात्सल्यमयी प्रतिक्रिया नहीं दी। बच्ची का बिलखना स्वयं ही
सुबकियो में सिमट गया; मानो उसे समझ आ गया हो कि माँ का लाड़ भी मर
गया माँ के साथ! अब रुलाई फूटने पर स्वयं ही चुप होना होगा।
बालिका
को जीवन-मृत्यु के शाश्वत रूप का उतना ही बोध रहा होगा, जितना किसी
टेलीविजन पर धारावाहिक या फिल्म में माँ के बिछोह के दृश्य की अनुभूति से उपजा
नि:शेष रहा होगा! उस मासूम की रुलाई पत्थर हृदयों को भी आँखों के रास्ते बहा रही
थी। प्रत्येक जन और रिश्ते के दुख पर भारी पड़ रहा था बच्ची का दुख।
‘मानवी’ इस
हृदय को चीर देने वाली घटना की साक्षी बनी, एक कोने
में सिमटी हुई यह फैसला नहीं कर पा रही थी कि बच्ची के कोमल मन पर शोक का इतना
भारी पत्थर रखना चाहिए था या नहीं? क्या ईश्वर बच्चों के हिस्से आई दुख
की शिला,
उन
बच्चों के बड़ा होने तक अपने हृदय पर नहीं रख सकते? तभी उसकी
चेतना में वह बारह-तेरह वर्ष की किशोरी आ खड़ी हुई; जिसकी अपनी
आयु के समान वर्षों तक अपनी माँ के लिए प्रतीक्षा अचानक “अंतहीन
प्रतीक्षा”
में बदल गई। वह किशोरी अपनी माँ के
देहावसान के समय कोई दो वर्ष की थी; धीरे-धीरे बड़े होने के साथ पिता, भाई, मौसी
इत्यादि,
सबके
द्वारा यही बताया गया कि “माँ मामा
के यहाँ गई हैं,
एक
दिन लौट आएंगी। वह जमाने भोलेपन से सिंचित थे…बच्चों में बड़ों के द्वारा निश्छलता
से बहकाने की क्रिया स्वाभाविक रूप से घटित हो जाती थी।
दो
वर्ष की नन्हीं बालिका भी उसी भाव में पोषित होकर किशोरावस्था तक पहुंच गई।
वार-त्योहारों पर सबकी माँओं को देखकर अब उसकी व्याकुलता उसे दिनों दिन असहज बना रही
थी। कितनी ही ऐसी निजी बातें और समस्याएं थीं, जिन्हें वह
केवल अपनी माँ से साझी करना चाहती थी। बहुत-सी बातों की छोटी-छोटी पोटलियाँ बना कर
उन्हें अपने मन की दराजों में रख लिया था। इस प्रतीक्षा में कि माँ एक दिन आएगी और
एक-एक पोटली की गांठ खोल कर, बेटी की सब समस्याएं और जीवन सुलझा
देगी। पिता से जब भी सवाल करती, “बाबा अब माँ को बहुत दिन हो गए…
उन्हें आ जाना चाहिए, कब आएंगी?” पिता इस
प्रश्न के उत्तर में उसका नन्हा हाथ अपने तेजी से धड़कते कलेजे पर रख लेते ! पिता के
ऐसे संवेदनशील उत्तर पर बालिका की भी धड़कन बढ़ जाती; लेकिन वह
चुप ही रह जाती।
एक
दिन,
पशुओं
की व्यवस्था संभालने को लगाई हुई गाँव की दो औरतों ने आपस में कनखियों से देखा और
फिर किशोरी से पूछ लिया:
“लाड़ो तेरी
माँ कहाँ है?”
किशोरी
ने उत्तर दिया,
“मेरी
माँ मामा के यहाँ गई हैं, अब जल्दी ही लौटने वाली हैं।“
“तेरी माँ
मर गई है,
अब
कभी नहीं लौटेगी”, उन औरतों ने झटके से सब पोटलियां छितरा
दीं!
इन
शब्दों ने उज्ज्वला किशोरी के प्रतीक्षा के सब दीये एक भक से बुझा दिए। उस दिन
उसके बाबा की हवेली एक साथ बारह वर्षों के रुदन से काँप उठी। सबके बहलावे कम पड़
गए,
उस
पर आसमान से टूटी निराशा को बहलाने में…
उस
समय के दुख की किशोरी आज मानवी की पचासी वर्ष (85 वर्ष) की
माँ है।
---आज के दुख
की पाँच वर्ष की बालिका के अश्रु नमक में परिवर्तित होकर, उसके गालों
पर दर्द के अक्स बना रहे थे। मानवी के भीतर ऐसी बेचैनी लहर गई कि वह एकदम उठी और
बच्ची के माथे को चूम कर जल्दी से बाहर निकल गई। व्याकुलता उसके कदम तेज कर रही
थी। वह अतिशीघ्र उस बारह वर्ष की किशोरी को गले लगाकर, अपनी माँ
की माँ बन जाने का अद्भुत संजोग जीने को तत्पर थी।
*सुश्री
कमलेश कुमारी सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका हैं तथा वर्तमान में शिक्षा विभाग, हरियाणा
में कार्यरत हैं।
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