रविवार, 14 जनवरी 2024

सुन स्त्री! - सूर्यबाला (वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्यकार)

 


सुन स्त्री!

तेरी तरह दुनिया में कोई दूसरा नहीं।

तू सबसे अलग अनूठी है।

अपनी तरह की अकेली है।

तू भुनगों सी नहीं कि फूंक मारने से उड़ जाएगी।

कीट पतंगों में भी नहीं कि-

कोई कुचल मसल सके तुझे-

तेरे अंदर एक दियाहै,

एक जोत है।

कस्तूरी का एक टुकड़ा है-

और है एक जादू की छड़ी-

स्नेह का सिमसिम-

और जुनूनी तो हद की-

इतना सब मूल्यवान जो विधाता ने तुझे दे रखा है-

उसे दे देकर तू कभी अघायी नहीं.....

अघायेगी भी नहीं......

लेकिन देखना,

एक दिन-

वेलेते लेते थक जायेंगे

और तब,

एक न एक दिन,

तेरे सामने-

उनके मस्तक झुक जायेंगे.....

इसी एक जीवन में......!

 ----------

 सुन स्त्री!

तू किसी की मत सुनना।

अपनी राह ही चलना-

तू देना मत बंद करना-

क्योंकि तू देने के लिए ही जन्मी है।

तुझसे ही यह पृथ्वी थमी है।

तू देगी नहीं

तो यह पुसेगी नहीं-

कुपोषित रह जायेगी।

नहीं, मैं तुझे बहका नहीं रही हूं-

तेरी सही राह बता रही हूं।......

सुन स्त्री!

तू अपनी राह ही चलना,

तू देना मत बंद करना।.....

-----

सुन स्त्री!

तू करवा चौथ जरूर मनाना

पैसे हो तो बहुत कुछ करना-

लेकिन न भी हों तो कोई बात नहीं-

सिर्फ पांच रूपये की मेहंदी

और दर्जनभर चूड़ियों-

मिट्टी के करवों’,

और लाल ईंगुरी बिदी से ही-

मन जाता है करवा चौथ.......

उतार लाती है, आकाश का चांद,

तू रसोई के चालन में!......

तो स्त्री!

तू हर-छठ, करवा-चौथ जरूर करना

नहीं तो सूरज, चांद, उदास हो जायेंगे-

क्योंकि तेरे बिना

कौन उतारेगा

आसमान के चांद-सूरज-

जमीन पर!

---------

 

दहाड़ा था समन्दर- सुरेंद्र कुमार


  तुमने देखा होगा

नदी को बहते हुए

मैंने देखा है

नदी को रोते हुए

नज़र नज़र की बात है

किनारे से एक दिन

पूछा था

इतनी चुप क्यों रहती है नदी

बहुत लम्बी कहानी है साहब

समन्दर के बारे में

सोचती है

तो रोती है

अपने बारे में सोचती है

तो रोती है

आपा खोती है

तो रोती है

जब जब किसी की

होने को होती है

तो रोती है

मछली को मछली खाती है

तो रोती है

एक बार जब हंसी थी

समन्दर को आग लगी थी

उस दिन ज़ोर से

दहाड़ा था समन्दर

दूर तक पेड़ उखड़ गए थे

किसानों के

खेत के खेत

उजड़ गए थे

नदी सब कुछ सोचती है

तो रोती है

शनिवार, 13 जनवरी 2024

ढ़लती_शाम- कल्पना गोयल


 ढ़लती_शाम

 

हर शाम ढ़ल जाती है

सूरज के ढ़ल जाने के साथ

कभी सिंदूरी होकर

तो कभी मटमैली-सी शाम !!(१)

 

कभी बादलों की छांव में

ओढ़ लेती है तारों की चूनर

तो कभी गुनगुनाने लगती है

उमड़ती लहरों संग सुहानी शाम!!(२)

 

उठते ज्वार-भाटे में भी,जब

कभी समा जाता है सूरज

फिर बरखा की बूंदों के संग

इंद्रधनुष के सतरंगी रंगों में

ढ़ल रंगीन हो जाती है शाम!!(३)

 

मवेशियों के गले की बजती

घंटियों संग सूरज जब

लौटने लगता है अपने घर

तो नादमय हो जाती है शाम!!(४)

 

चूल्हे के उठते धुएं के संग

राह अपनी तलाशते हुए

कहीं दूर पहाड़ों में,जब

खो जाता है सूरज तो राह

तकते ही हो जाती है शाम!!(४)

 

दूर बियांबान रेगिस्तान में,

जाते ऊंटों के काफ़िले संग

खोजती हुई अपने प्रिय को

तकती है दर पर भोर से,वहां

इक आस लिए ढ़लती है शाम!!(५)

 

जहाजों में उड़ते पंछी,जहां

बनते हैं सहारा जीवन का!

मीठे सपनों को सजाती है

नव राह दिखाती सुनहरी शाम!!(६)

तलाश कब से है- अमिताभ शुक्ल कवि,लेखक और अर्थशास्त्री




प्रेम खुला हो ,

जो हो जाए,

कहीं भी ,

रहे हर समय ,

वक्त खराब न हो,

पाने ,खोने ,याद,

करने के लिए,

तलाश कब से है,

ऐसे प्रेम की

दुनिया में थी जिसकी शायरी की धूम, मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो भी थे जिसके दीवाने -------------- एम.असलम. टोंक


दुनिया में थी जिसकी शायरी की धूम, मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो भी थे जिसके दीवाने

--------------

एम.असलम. टोंक

--------------

 

कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता, तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता। कोई हम-दर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर', दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता..।

 हां, ये वहीं रोमांसवादी शायर अख्तर शीरानी के अशआर है। जो एक समय उर्दू जगत में अपनी शायरी की धूम मचाएं हुए थे। उस जमाने में दुनिया के मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो भी उनके बहुत बड़े फैन थे। शीरानी उर्दू जगत के एक बहुत बड़े रोमांसवादी शायर कहे जाते हैं। कभी उनकी शायरी का डंका बजता था। लेकिन आज उनकी शायरी भी गुम सी होती जा रही है। जो शायरी लोगों की जबान पर बची है, वो आज भी वाह, कहने को मजबूर कर देती है।

 

यूं तो किस फूल से रंगत न गई बू न गई,

ऐ मोहब्बत मेरे पहलू से मगर तू न गई।

मिट चले मेरी उम्मीदों की तरह हर्फ मगर,

आज तक तेरे ख़तों से तेरी खुशबूं न गई।

 

वतन की मोहब्बत में अपना सब कुछ न्यौछावर करने की तमन्ना अख्तर शीरानी के दिल में भी धड़कती थी। वो शायरी के रुप में भी सामने आई। देश की मोहब्बत को सर्वोपरि रखते हुए उन्होंने कहा -

इश्को आजादी बहारे जीस्त का सामान है,

इश्क मेरी जान आजादी मेरा ईमान है।

इश्क पर कर दूं फिदा में अपनी सारी जिंदगी,

लेकिन आजादी पे मेरा इश्क भी कुरबान हैं।

 

4 मई 1905 में टोंक में पैदा हुए रोमानी शायर अख्तर शीरानी का नाम मोहम्मद दाऊद खां था। शायरी करने लगे तो अपना तखल्लुस "अख्तर' रख लिया। उनके पिता हाफिज मेहमूद शीरानी फारसी साहित्य एवं इतिहास के बडे़ विद्वान थे। वो अख्तर शीरानी को पहलवान एवं अपनी तरह उच्च पदों पर आसीन करना चाहते थे। लेकिन 19 वर्ष की आयु में अख्तर शीरानी की जाैगन नामक नज़्म प्रकाशित हुई। जिसने काफी धूम मचाई।

 

मुद्दते हो गई बिछड़े हुए तुम से लेकिन,

आज तक दिल से मेरे याद तुम्हारी न गई।

 

 उन्होंने कई पत्र पत्रिकाओं में भी संपादन का कार्य किया। कई परेशानियों एवं सदमों से टूटते गए अख्तर शराब में डूब गए। शीरानी के बारे में काफी कुछ प्राचीन रहस्यों का जिला टोंक पुस्तक में भी लिखा गया है।

 

साकी मरे खुलुस की शिद्दत तो देखना,

फिर आ गया हूं गर्दिशे दौरा को टालकर।

 

भारत विभाजन से पहले अख्तर के पिता मेहमूद शीरानी लौहार से सेवानिवृत होकर सह परिवार टोंक आ गए। लेकिन अख्तर शीरानी का यहां दिल नहीं लगा। उनकी प्रेयसी सलमा, रेहाना, अज़रा आदि रही। लेकिन वो कौन थी, आज तक कोई जान नहीं पाया।

 

ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए,

वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए।

वीराँ हैं सहन-ओ-बाग़ बहारों को क्या हुआ

वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए।

वो हिज्र में विसाल की उम्मीद क्या हुई

वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए।

दिन रात मैकदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी,

'अख़्तर' वो बेख़ुदी के ज़माने किधर गए।

 

शीरानी ने पहली बार उर्दू अदब में अपनी प्रेमिकाओं को रुह शनास किया। भले ही वह टोंक से दूर चले गए। लेकिन टोंक उनके रोम-रोम में समाया हुआ था। वाे टोंक की याद को भुला नहीं पाए।

 

बुझा सा रहता है दिल जब से टोंक छुटा है,

वह सहने बाग नहीं, सेरे माहताब नहीं।

 

अपने प्राकृतिक प्रेम एवं यहां की हसीं नजारों को भी वह इस तरह याद करते हैं। उनकी मशहूर नज़्म

ओ देस से आने वाले बता..।

 

ओ देस से आने वाले बता!

किस हाल में है याराने वतन।

क्या अब भी वहां मेलों में वही बरसात का जोबन होता है?

फैले हुए बड़ की शाखों में झूलों का निशेमन होता है?

उमड़े हुए बादल होते हैं छाया हुआ सावन होता है?

ओ देस से आने वाले बता..

क्या अब भी किसी के सीने में बाक़ी है हमारी चाह बता,

क्या याद हमें भी करता है अब यारों में कोई? आह बता,

ओ देश से आने वाले बता लिल्लाह बता, लिल्लाह बता।

ओ देस से आने वाले बता..

क्या अब भी वहां पनघट पर, पनहारियां पानी भरती है।

अंगड़ाई का नक्शा बन बन कर, सब मांथे पर गागर धरती है,

और अपने घरों को जाते हुए,हंसती हुई चौहलें करती है।

ओ देस से आने वाले बता..।

 

किताब "अख्तर शीरानी फन और शख्सियत' में लिखा है कि टोंक को गर्व है कि इसकी सरजमीन पर अख्तर शीरानी जैसे शायर पैदा हुए, जिसने उर्दू शायरी को नया मोड दिया, परंपरागत शायरी की दीवारें तोड़कर नए आयाम, नई मंजिलें दी। जिस आदमी को पंजाब और पूरे हिंदुस्तान ने अपने सिर पर  बिठाया उसे हमारी आने वाली नस्लें और वर्तमान पीढी भूलती जा रही है।

 

मेरा हर शेर है "अख्तर' मेरी जिंदा तस्वीर,

देखने वालों ने मुझे हर हाल में देखा है।

-

गरज "अख्तर' की सारी जिंदगी का ये खुलासा है,

कि फूलों की कहानी कहिए, शोलो का बयां लिखिए।

 

अख्तर शीरानी उर्दू अदब में रोमांटिक शायरी के सबसे बड़े फनकार थे। शीरानी के बारे में उर्दू के बहुत बडे़ नामवर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी सिर दूंना करते थे, उनकी रोमांटिक शायरी से वह भी काफी प्रभावित रहे।

 

ऐ इश्क़ कहीं ले चल, इस पाप की बस्ती से,

नफ़रत-गहे-आलम से, लानत-गहे-हस्ती से।

 

उसकी मृत्यु के बाद, उसके परम मित्र नय्यर वास्ती का कहना है कि जब एक टूटी-फूटी संदूकची,जाे उनकी एकमात्र संपत्ति थी को खोला गया, तो उसमें से चंद मुसव्विदों (पाण्डुलिपियों) और हसीनों के चंद ख़ुतूत (पत्रों) के सिवा कुछ न निकला। मानो ‘ग़ालिब’ ने अपने लिए नहीं ‘अख़्तर’ शीरानी के लिए यह शेर कहा था :-

 

चंद-तस्वीरे-बुता, चंद हसीनों के ख़ुतूत

बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला।

 

अख्तर शीरानी 9 सितंबर 1948 को इस दुनिया से रुखसत हो गए।

 

मैं मैकदे की राह से होकर गुजर गया,

वरना सफर हयात का बेहद तवील था।

 

साधो,देखो जग बौराना- राजेन्द्र कसवा

 राजेन्द्र कसवा
साहित्यकार 

राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा 
प्रतिष्ठित साहित्यकार पुरस्कार से सम्मानित

साधो,देखो जग बौराना

---------------------------------------

उस समय मेरी आयु १०-१२ साल रही होगी।मेरी मौसी, जो सगी चाची भी लगती थी,का असामयिक निधन हो गया।वह तीस की भी नहीं हुई थी।जवान मौत थी, इसलिए परम्परा के बावजूद मृत्यु भोज नहीं हो सकता था।तेरहवें दिन कुछ कर्मकांड हुआ। गर्मियों के दिन थे। मुझे इस कर्मकांड में बैठने के लिए कहा गया।पूर्ण होने तक पानी भी नहीं पीना था। कर्मकांड के बाद मुझे चूरमा बना कर देने का लालच भी दिया गया।

स्नान करने के पश्चात, सुबह ही मुझे सिर्फ जांघिया पहने बैठा दिया गया।नौ बजे के आसपास पंडित जी आए। लगभग दो-ढाई घंटे कर्मकांड चलता रहा। मैं पालथी मारकर बैठा रहा। तत्पश्चात पंडित जी ने वहीं  अपने लिए चावल पकाएं और घी-खांड के साथ भोग लगाया। मुझे मंदिर में सिर्फ खांड घोलकर मीठा पानी दिया गया।घर आने के बाद वायदे के अनुसार चूरमा खाने को दिया।

उन्हीं दिनों गांव भर में चर्चा हुई कि जिस भी घर में रामलीला की रसोई दी गई, उस घर में एक जवान मौत हुई।यह रामलीला की रसोई क्या थी?

उन दिनों गर्मियों में यूपी से रामलीला करने वाला दल आता था।वे मंदिर में रुकते और गांव के गुआड़ में रात को रामलीला का मंचन करते।वे रात को ही मंच से ऐलानिया पूछते --कल रामलीला की रसोई कौन करेगा?

कोई श्रद्धालु खड़ा हो आने वाले दोपहर को रसोई देने की घोषणा करता। इस पर रामलीला वाले उस व्यक्ति की शान में कसीदे पढ़ते और जय-जयकार करते। मेरे पिताजी ने भी एक दिन रामलीला की रसोई दी।

दोपहर को राम -लक्ष्मण-सीता को कंधे पर उठाए, रामलीला दल हमारे घर आया। हनुमान जी गंदा लिए अपनी लाल पोशाक में थे।'बोल सियाबर रामचंद्र की जय' बोलते हुए आए। भोजन करके चले गए।यह याद नहीं कि वे रात को मंदिर में खाना खुद बनाते या एक ही समय खाते थे।शाम या रात को किसी के घर नहीं जाते थे।

जवान मौतों से दुखी गांव वालों ने कब फैसला किया,यह मुझे याद नहीं, लेकिन बाद में कभी भी गांव में रामलीला वालों को नहीं बुलाया गया। पड़ोसी गांव में हम लड़के रामलीला देखने जाते थे। तभी पता चला कि अपने गांव में कभी भी रामलीला नहीं होगी।

मौसी मुझे बहुत स्नेह देती थी। कभी मजाक में कहती --या तो तू अपने चाचा को मौसा कह या फिर मुझे चाची कहना चाहिए। ननिहाल से मौसी मेरे लिए छोटी सी धोती भी लाती थी।उस धोतिया को बांध कर मुझे खेत में ले जाती।

किशोर अवस्था में आने के बाद मैं बार -बार सोचता कि आखिर मौसी ने क्या अपराध किया था। अन्य घरों के युवा भी असमय कैसे चले गए। रामलीला की रसोई तो पुण्य का काम था। बस,उसी के बाद दशरथनन्दन रामचंद्र के प्रति मेरी आस्था खत्म हो गई।

 

तुम्हारी उम्मीदों से डर लगता है- चित्रा पंवार


 

इन टिमटिमाते तारों को देख रहे हो?

ऐसे ही जलती बुझती है

मेरे सीने में उम्मीद की लौ

आधी रात दूर जंगल में हुल्लड़ मचाते सियार

भय पैदा करते हैं तो अगले ही पल

महक उठती है तुम्हारी आंखों की रात रानी

तुम देख रहे हो नदी के उथले किनारे

और मैं देख रही हूं बीच का भंवर

तुम दूर क्षितिज में जमीन आसमान को मिलते देख

खुश हो रहे हो

मैं उदास आंखों से देखती हूं उनके बीच कभी न मिटने वाला अंतराल

यूं तो हम दोनों के शहर की छत पर बैठा है चांद

मगर कितनी अलग हैं हमारे हिस्से की रातें

पूर्णिमा का गोल दूधिया चांद उतरता है तुम्हारे स्वप्न थाल में

और मैं तीज की बारीक हंसिया ले काटने लगती हूं अपना पाथर दुःख

सच कहूं तो मुझे अपनी नाउम्मीदी से नहीं

तुम्हारी उम्मीदों से डर लगता है

दिन दहाड़े ठगे जाओगे किसी दिन

प्रेम में सुख पतझड़ी पेड़ की पत्तियों सरीखा होता है दोस्त!

इतना भरोसा ठीक नहीं

जिस वक्त खबरों के केंद्र में हो युद्ध, प्रशंसा के केंद्र में हत्यारे

वणिक मस्तिष्क बन बैठा हो हृदय की हरित भूमि का स्वामी

उस समय में प्रेम के जीवित बचे रहने की कितनी उम्मीद है?

अभी भी समय है

उतर जाओ कल्पना के स्वर्ण रथ से नीचे

प्रेम को सुला आओ जमीन की कोख में कहीं गहरे

अभी अनुकूल नहीं है मौसम

जो प्रेम किया जाए

अभी नथुनों में भरती है बारूद और खून की मिलीजुली गंध

कान के परदों में अनवरत चुभ रही है  चीख पुकार की नुकीली सुई

दृश्य ऐसे की दृष्टि खो देने का जी चाहे

पहले रंगमंच पर खेला जा रहा नफरत का मंचन रोको

परदा गिराओ

फूल, नदी, पहाड़, चिड़िया के चित्र लगाओ

अंधेरा समेटो आशाओं का दीप जलाओ

आपदाओं के अभेद चक्रव्यूह में उतरो

 

खंड खंड होती दुनिया में एक होने के लिए लड़ो

हारोगे या जीत जाओगे

कहा नहीं जा सकता

प्रेम में कुछ भी निश्चित नहीं सिवाय दुख के...

 


गिरना एक पुल का - प्राञ्जल राय


-------- गिरना एक पुल का ---------

============================

हमारे समय की देह पर

सबसे गहरे रंग में

सबसे गाढ़े अक्षरों में लिखा है - 'पतन'

जहाँ सारी चीजें अपना गुरुत्त्व खोकर

गिरती जा रही हैं ।

जहाँ गिरना इतना सामान्य है

कि गिर जाना अख़बार के पिछले पाँव में लगी धूल से ज़्यादा कुछ भी नहीं

और गिरने के उच्चारण से अधिक सामान्य है गिर जाना ।

यूँ ही नहीं गिर जाता है कोई भी ढाँचा

पहले गिरते हैं लोग

अपनी संवेदनाओं से, ईमान से, सच से

पहले गिरता है आदमी,

गिरता है आदमी, अपने आदमी होने से

और फिर गिर जाती है एक सभ्यता ।

 

एक बड़े से शहर के बीचोंबीच

गिर पड़ा है एक पुल,

नहीं सदियों पुराना नहीं बिल्कुल जवान

और फ़ौलाद ने देखा कि उसके सभी उपमेय दुनिया से कूच कर चुके हैं !

यह गिरा हुआ पुल

आदमी के कद में गिरावट की तस्दीक करता है ।

वह समय जहाँ नालियों की मरम्मत का श्रेय

शिलालेखों की देह को रंगीन कर देता है,

वहाँ पुल का गिरना इतना सामान्य है कि

उस गिरने के प्रति किसी की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती ।

अभी हमें कई और पुलों को गिरते हुए देखना है ,

ढहते देखना है कई और ढाँचों को

जब तक ढह नहीं जाता

हमारी मध्यवर्गीय मानसिकता का ढाँचा ।

 

 


“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...