बुधवार, 10 जनवरी 2024

कहानी - रिहाई - डॉ . कविता माथुर

                                 रिहाई

          डॉ. कविता माथुर

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परे हटो, मत परेशान करो मुझे, जाओ उड़ जाओ।”, उन नन्हे-नन्हे शलभों पर चिल्लाते हुए बुरी तरह खाँसने लगा था दिलदार सिंह । “पानी पी, पानी पी ”, बाहर खड़े गार्ड की आवाज़ पर कोने में रखी सुराही से पानी पीने के लिए उठा तो जर्जर घुटनों ने जवाब दे दिया और वो लुढ़क कर गिर पड़ा । जानता था वो कि ये सब देखकर भी गार्ड उसकी मदद को नहीं आने वाला , इसलिए उसने कोई उम्मीद भी नहीं रखी थी । अपनी बेबसी और लाचारी पर पर अब वो आहें भी नहीं भरता था । यहॉं से कभी रिहाई मिलेगी भी या नहीं, ये सोचना तो एक अरसा हुआ छोड़ ही चुका था वो। अपने वतन में बिताये ज़िंदगी के वो चौबीस साल काफ़ी थे उसके मन को हर्षित करने के लिए, होंठों पर मुस्कुराहट लाने के लिए, उसकी साँसों को थामे रखने के लिए । सोचते-सोचते दिलजीत औंधा पड़ा हुआ ही नींद की आग़ोश में चला गया ।                

दिलजीते, ओ दिलजीते , ओ रुक ओए, मेरी बैरे और बेल्ट लिए कहॉं भागे जा रहा है ओए”,  महीने भर की छुट्टी पर घर आये सिपाही बलजीत को रोज़ ही धौरों पर अपने छवर्षीय लाड़ले के पीछे पीछे दौड़ लगानी पड़ती थी । बेबे के हाथों की ‘मक्के दी रोटी, ते सरसों दा साग’ और बीवी की खामोश सी बेलौस मुहब्बत का पेट-बढाऊ अभियान भी इस नन्हे शैतान के साथ की गई मशक़्क़त के सामने टिक नहीं पाते थे और सिपाही बलजीत को पलटन लौटकर पीटी या खेलों में कभी कोई समस्या नहीं होती थी । अपने परिवार की आँखों के तारे दिलजीत ने ज़रा होश क्या सँभाला , खिलौनों की उम्र में ही ‘मैं दंबूक छे दुश्मन को माल दूंदा ‘ ( मैं बंदूक़ से दुश्मन को मार दूँगा ।) बोलना सीख लिया था। तुतली आवाज़ में उसकी मीठी मीठी बातें सुनकर घरवाले वारी-वारी जाते थे । डैडीजी के घर आने पर उनकी बैरे-बेल्ट-बूट्स  पर डाका डालना उसका ख़ास शग़ल था । अपने चिड़िया जैसे मुख से दुगुने आकार की बैरे पहन कर जब वो सैल्यूट की मुद्रा में ‘ जे इन्द ‘ का नारा लगाता तो अड़ोसी -पड़ोसी भी निहाल हो जाते थे । दिलजीत की लंबी अथक दौड़ देखकर बलजीत के मन में ये विश्वास गहरी जडें जमा चुका था कि उसका बेटा भी देश के नाम समर्पित होने की तैयारी में है। परिवार में हँसी-ख़ुशी महीना गुज़ार कर बड़े ही सुकून से वो रेजीमेंट में ड्यूटी ज्वाइन कर लिया करता था । बलजीत देश का सच्चा सिपाही था ।

और अब तो दिलजीत ने भी डैडीजी जैसा रुतबा हासिल करने की ठान कर  पूरे गाँव का दिल जीत लिया था । मूँछ ज़ाहिर होते होते तो गाँव की सबसे सोणी कुडी़ से रिश्ता बँध गया था दिल जीत का। इधर हुआ ब्याह और उधर बना दिलजीत फ़ौज का सिपाही । पर आदत अभी भी वही छुटपन के दिल जीते जैसी । पहले डैडी जी की बैरे लेकर भाग छूटता था, अब अपनी दिल्लो की चुन्नी छीन कर उसे दौड़ाता फिरता   उन्हीं धौरों पर ,जहॉं उसके और डैडी के पैरों के निशान अभी भी मिटे नहीं थे।

दिल्लो, मुझे याद करेगी”

मैं क्यों करने लगी याद करेगी मेरी जुत्ती!”

ठीक है, मत करना । तू नहीं तो तेरी सहेली सुखविंदर कर लेगी ।”

और फिर होते दिल्लो की मोजरी और दिलजीत का सिर ! दे दनादन जो कुटाई होती उसकी कि उसका हुलिया बिगाड़ कर ही छोड़ती थी दिल्लो । और इस धुनाई में उसके परिवार सहित सारा गाँव हँस-हँस कर साथ देता था दिल्लो का । बलजीत-दिलजीत का परिवार इस गाँव की शान था , अभिमान था । आए दिन होने वाली इन चुहलबाज़ियों का गवाह वो कुईंयॉं पर झुका खेजड़ी का पेड़ इस बात का भी साक्षी था कि इन आठ सालों में बामुश्किल चौदह महीने ही साथ मिला था दिल्लो को दिलजीत का। कहते हैं ना इतिहास ख़ुद को दोहराता ज़रूर है ,तो धोरों पर दौड़ाने के लिए उसकी बेल्ट-बैरे लेकर भागने वाला एक नन्हा सा रणजीत और आ चुका था अब ।

एक दिन ऐसे ही दौड़ता-दौड़ता वो थक कर खेजड़ी के नीचे बैठा ही था कि पीछे-पीछे भागता हुआ उसका दोस्त गुरमीत भी आ पहुँचा ।

ओए दलजीते, वापस चल, तुझे पलटन से बुलावा आया है । पाकिस्तान हवाई गोले बरसा रहा है ।जंग छिड़ गई है।”

रणजीत को गोदी में उठा फ़ौरन दौड़ा था दिलजीत घर को । विदा के वक़्त क्या पता था कि अपनी बेबे, मम्मीजी , डैडीजी , दिल्लो  और दिल के टुकड़े रणजीत को वो आख़िरी बार देख रहा है। दुनिया के इतिहास में सबसे छोटी जंग के रूप में दर्ज़ 3 से 16 दिसम्बर सन् एकहत्तर की इस 13 दिवसीय इंडो-पाक-वॉर ने दिलजीत को अपने परिवार से हमेशा के लिए जुदा कर ज़िंदगी का सबसे बड़ा घाव दिया था ।              

 

लाइटें बंद करो !” दिसंबर की उन तेरह सर्द रातों में कुछ हिन्दुस्तानी राज्यों की सड़कों से इस तरह की आवाज़ें उठना आम बात थी । यहाँ के परिवार शाम होते होते सारे काम निपटाकर रज़ाइयों में घुस जाते एक आतंकी सा पसरा रहता दिलों में भी कहीं ज़रा सी मोमबत्ती भी जली तो दुश्मन का आसमानी हमला हो सकता है । सड़कों पर इन चंद समाज सेवियों के पदचापों के बीच घोर सन्नाटा फैला रहता। ये थी सन एकहत्तर की इंडो-पाक-वॉर  जिसमें हम जीते थे और एक स्वायत्त सत्ता के रूप में जन्म हुआ था बांग्लादेश का।

हम तो अमनपरस्त हैं । हम आगे होकर कभी लड़ना नहीं चाहते । मगर हमारे आस पास के दुश्मनों का सामना करने के लिए हमारे फ़ौजी भाई हमेशा सजग रहते हैं । यह जंग भी पाकिस्तान ने हमारे 11 एयरबेस पर हवाई हमले करके शुरू की थी । उससे पहले भी वहाँ के पूर्वी भाग में रह रहे बंगाली अल्पसंख्यकों पर उनका क़हर जारी था , जिससे आज़ादी के लिए वो लोग संघर्ष कर रहे थे । इन अल्पसंख्यकों के विरुद्ध मौत का तांडव जो पाकिस्तान रच रहा था उसमें तीन से तीस लाख लोगों की मौत हुई थी । वहाँ से पनाह लेने के लिए रिफ्यूजी हमारे देश में प्रवेश कर रहे थे । परिस्थितियां ही ऐसी बन गई थी कि हमारी सरकार को न चाहते हुए भी हथियार उठाने पड़े थे । ऐसा पहली बार हुआ था कि हमारी तीनों सेनाएँ एकजुट होकर किसी रण में साथ लड़ी हों। हमने फ़ौरन उसकी 15, हज़ार किलोमीटर टेरिटरी कैप्चर कर ली थी और जल्द ही दुश्मन देश के जनरल नियाजी ने समर्पण कर दिया था । 16 दिसंबर को पाक की फ़ौज ने हिन्दुस्तान की आर्म्ड-फ़ोर्सेज़ और मुक्ति वाहिनी सेना जो कि अब बांग्लादेश की थी , के सामने ढाका में घुटने टेक दिए थे । इस सरेंडर को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का सबसे बड़ा सरेंडर माना जाता है , जिसमें पाकिस्तान अपने वतन का आधा हिस्सा और सेना खो चुका था और हमारे जनरल सैम मानेकशॉ के सुयोग्य नेतृत्व में हम ने विजय पताका फहरायी थी ।

युद्ध तो हो जाते हैं , पर कितनी जानें जाती हैं । कितने बच्चे अनाथ हो जाते हैं , महिलाएँ बेवा हो जाती हैं , इस बारे में कभी नहीं सोचा जाता । इस युद्ध में भी ऐसा ही हुआ । दोनों देशों के असंख्य सिपाही मारे गए और क़ैद कर लिए गए । हमने पाकिस्तान के 93, हज़ार बंधक बनाए थे जिन्हें बाद में दो अगस्त उन्नीस सौ बहत्तर को तत्कालीन सरकार ने शिमला समझौता के तहत रिहा कर दिया था ।

हमारे देश के भी कई जॉंबाज वहाँ बंधक बनाए गए थे। उसमें से अनेक पायलट्स भी थे जिनके फाइटर प्लेन हवा में क्रैश होने की वजह से उन्हें पैराशूट से कूदना पड़ा था पर दुर्भाग्य से वह दुश्मन के इलाक़े में पहुँच गए और बंदी बना लिए गए थे । हमारे सिपाहियों में से ही एक था जांबाज़ दिलजीत सिंह।

दिल जीत पैदल सेना का जवान था । दिन भर न जाने कितने दुश्मनों को खेत करके अपने साथियों के साथ सुस्ताने लगा था । चारों तरफ़ सैंड-बैग्स और   अम्यूनिशन   के बक्से पड़े हुए थे । सभी सिपाही इन्हीं के ऊपर बैठे थे । कोई पानी पी रहा था , तो कोई खाने की तैयारी में व्यस्त था । दूर कहीं से अब भी किसी हथगोले के फटने की आवाज़ आती , तो कहीं किसी के दर्द से चीत्कार सुनाई देता । कहीं कोई ‘जय हिन्द ‘ कहकर अपने प्यारे वतन की मिट्टी को अंतिम सलामी देता सुनाई देता , तो कहीं किसी के अंतिम क्षणों तक लड़ने के जज्बे के साथ धीरे धीरे सरकने की आवाज़ आती । खाना खाकर सभी जवान सोने ही लगे थे कि एक साथ ही ने दूर से आती रौशनी की तरफ़ दिलजीत का ध्यान आकर्षित किया । आँखें मलते हुए दिलजीत उठ भी नहीं पाया था कि चारों तरफ़ से दुश्मनों से उसने ख़ुद को और अपने साथियों को घिरा हुआ पाया । इन सभी की आँखों पर पट्टी बांधकर बलात् धकेलते हुए कहीं ले जाया जा रहा था ।  कुछ दूर चलवाकर इन्हें एक वनटन में बिठाया गया और उसके बाद दिल जीत की आँख एक काल कोठरी में ही खुली थी , जहाँ वो इन साथियों समेत कई बंदियों के साथ रखा नहीं इस तरह ठूस कर रखा गया था कि ये लोग ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते थे। कमरे में कोई रोशनदान नहीं था पर इन्हें ज़िंदा रखने के लिए एक तरफ़ नीचे कही से समुद्री हवा के झोंके रह रह कर आ जाते थे । आख़िर समंदर किसी तानाशाह की बपौती तो नहीं होते हैं ना ! वो हवा दिलजीत की सांसों को भी थाम रही थी और आस को भी । कई दिनों तक इन्हें ना पानी दिया गया था ना भोजन । भूख ,थकान और कमज़ोरी ने कितने दिन इन्हें उकड़ूँ बैठे ही सुलाए रखा था, इन्हें खुद ही नहीं पता था। जिस दिन इन्हें अन्य जेलों में भेजा गया , तब इन्हें न वक़्त का अंदाज़ा था , न दिन का या महीने का । एक कालकोठरी से दूसरी तक का सफ़र , डावांडोल मन मस्तिष्क के विचार और जाम हुआ शरीर ; लेकिन इंसान उम्मीद करना फिर भी नहीं छोड़ता । उम्मीदों का दामन थामे रहने से सॉंसे तो चलती रह सकती थीं , मगर दुविधा का निवारण तो दुश्मन के ही हाथ में था ना! इस बार जो कोठरी दिलजीत को मिली वहाँ से अब उसकी अर्थी निकलनी थी । इस बार की कोठरी में पहले से बंदियों की संख्या भी कम थी और रोशनदान भी थे । यहाँ पैर पसार कर सोने को जगह मिल गई थी । रात होते होते यहाँ सैकड़ों के हिसाब से रंगबिरंगे छोटे बड़े पतंगे इकट्ठे हो जाते । उड़ते , दीवारों पर चिपकते, बंदियों के सिर के ऊपर से गुज़रते और कभी कभी उनके चेहरों से टकरा जाते । धीरे धीरे दलजीत को इन्हें देखने की आदत हो होती जा रही थी । अब दिन भर वो रात का इंतज़ार करने लगा था इन कायनात की ख़ूबसूरत तोहफों की हरकतों से मनबहलाव करने के लिए ।

इस तरह आठ महीने गुज़र चुके थे । एक दिन जेल के कर्मचारियों को उसने बड़े जोश भरी खुद-एहतमादी से बातें करते पाया , जिसका सार यह था कि हिंदुस्तान ने जंग के कैदियों को रिहा कर दिया है । यह जानकर दिलजीत सहित बाक़ी कैदियों में एक आशा का संचार हुआ । ख़ुशी सी छा गई । और सारे मिलकर शहीद फ़िल्म का गीत गाने लगे ,” ऐ वतन , ऐ वतन , हमको तेरी क़सम , तेरी राहों में जॉं तक लुटा जाएंगे “, चार लाइनें भी नहीं  गा पाए थे कि गार्ड ने आकर उनको हड़का दिया था,

अबे चुप करो ! कौन सा वतन ,  कैसा वतन!”, और बाहर के सारे गार्ड्स मिल कर ठहाके लगाने लगे । इस बार इन्हें इस बात का बुरा नहीं लगा था , क्योंकि एक उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी कि बदले में इन्हें भी रिहा कर दिया जाएगा । ये अपने परिवारों से फिर से मिल पाएंगे । दिलजीत की दिल्लो, बेबे, मम्मीजी -डैडीजी और  नन्हा  रणजीत । एक बार फिर धोरों पर दिलजीत दौड़ेगा । कभी बैरे लेकर भागने वाले लाडले के पीछे ख़ुद दौड़ेगा , तो कभी अपने दिल्लो की चुन्नी खींचकर उसे अपने पीछे दौड़ाएगा।  ‘अहा! वाहेगुरु !जल्दी पुकार सुन लो हमारी ।’सोचते हुए सो गया था दिलजीत ।

 

अगले दिन की सुबह शायद कोई ख़ुशख़बरी सुनने को मिले ! पर क्या सचमुच  अगली सुबह अगर कुछ बदला हुआ था , तो वो थे इन बंदियों के मन , जो आस के अश्वों पर सवार होकर वतन की तरफ़ भाग रहे थे ।पर ऐसा कुछ नहीं होने वाला था । बाक़ी दिनों की तरह यह दिन भी गुज़र गया और अगला दिन भी ; उससे अगला भी ; दिन , महीने , साल , ऐसे ही गुज़रते रहे । एक के बाद एक बंदी साथी उसे छोड़ छोड़कर जाने लगे और अंत में बचा था सिर्फ़ दिलजीत , जिसने यहाँ आने के बाद की तमाम उम्र इन पतंगों से यारी काटकर गुज़ारी थी । आज उसके ज़ेहन से एक फ़िल्म की तरह पूरी ज़िंदगी गुज़र गयी थी । आज ये पतंगें भी उसे काटने को दौड़ रहे थे । अब और इंतज़ार नहीं। आज उसकी रिहाई थी —- ज़िंदगी की क़ैद से!

 

                          

 


भारत की सांस्कृतिक परम्परा- डॉ.प्रकाश चंद जैन


                                                                       डॉ.प्रकाश चंद जैन

भारत की सांस्कृतिक परम्परा

पांच

भारतीय संस्कृति की जीवटता का कारण इसका खुलापन और लचीलापन ही था। ग्यारहवीं सदी के दक्षिण भारत के रामानुज ने आदि शंकाराचार्य के दार्शनिक धर्म की बजाय ईश्वर-प्रेम और ईश्वर-भक्ति का रास्ता अपनाकर हिन्दू धर्म को जन-जन का धर्म बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ईश्वर भक्ति को लोकप्रिय बनाते हुए इसे एक संगठनात्मक स्वरूप प्रदान किया और दैनिक पूजा और वार्षिक मन्दिर उत्सवों के माध्यम से लोगों को आपस में जोड़ा। रामानुज ने मन्दिरों की आधिकारिक भाषा संस्कृत की बजाय स्थानीय भाषा तमिल में भजन गाने की परम्परा भी विकसित की, जिन्हें आलवार या अझवार कहा जाता था। हिन्दू दर्शन को सरल भजनों और आरतियों के माध्यम से, जो सुनने वालों के कानों और हृदयों में भक्ति रस घोल देते थे, जन-जन तक पहुँचाने का यह काम अपने-आप में एक बड़ा आध्यात्मिक आन्दोलन था, जो आगे चलकर 'भक्ति आन्दोलन के रूप में खूब फला-फूला। एक तरह से रामानुज को इस आन्दोलन का जनक कहा जा सकता है। भक्ति आन्दोलन दक्षिण भारत से शुरू होकर धीरे- धीरे उत्तर भारत की तरफ बढ़ा। तमिलनाडु में बहुत पहले शुरू हो चुकी इस परम्परा में आंडाल जैसी कई भक्ति रस की कवयित्रियाँ भी शामिल थी। भक्ति आन्दोलन ने स्थानीय भाषाओं में भजन, गीत और आरतियाँ रचकर एक तरह से भक्तों और भगवान के बीच की दूरी कम कर दी, जो पहले सिर्फ संस्कृत के प्रयोग के कारण स्त्रियों और निचली जातियों के अनेक भक्तों के लिए बाधा स्वरूप थी। 24 भक्तों ने मुक्ति के लिए ईश्वर की वैयक्तिक भक्ति पर जोर दिया। जाति के आधार पर हो या धर्म, नस्ल, वंश, या धन के आधार पर, वे मनुष्यों के बीच हर प्रकार के भेदभाव के विरोधी थे। उन्होंने प्रेम की ऐसी असाधारण उँचाईयों को छू लिया, जो जाति और धर्म की सीमाओं समेत तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करती थी। जाति और धर्म से परे ये भक्त हर एक का अपने दल में स्वागत करते थे।

बारहवी शताब्दी से बड़ी संख्या में सूफी संत भारत में आते रहे, उनकी ईमानदारी, धर्मपरायणता, गरीबी का जीवन, ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण, अहंकार रहित आचरण जैसी जीवन शैली से जनमानस में सूफी परम्परा का प्रचार प्रसार हुआ। ये सूफी संत अपने उपदेशों से समानता और भाईचारे के इस्लामी विचारों को फैलाते रहे। सूफी मत और सूफी संत हिन्दू-मुस्लिम समन्वय और सामाजिक समरसता और सहिष्णुता का बड़ा आधार थे, मुझ्नुद्दीन चिश्ती से चिश्ती सूफी संतों की शुरू हुई परम्परा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा फरीद, हजरत निजामुद्दीन औलिया, नसीरूद्दीन चिराग देहलवी, गेसू दराज से होती हुई फिरदौसी और कादरी परम्परा के संतों तक पहुंची। प्रो० एन० फारूकी अपनी पुस्तक सूफीवाद' में लिखते हैं :- यद्यपि कई मुसलमान उलेमा और अनुयायी सूफीवाद के वास्तविक स्वरूप पर संदेह करते हैं। वे मानते हैं कि सूफीवाद का जन्म संतों की पूजा करने वाले ईसाईयों की मूर्ति-पूजक प्रथाओं से तथा सर्वेश्वरवादी ग्रीक दर्शनशास्त्रियों के धर्म विरोधी सिद्धांतों से हुआ है। उनका विश्वास है कि सूफियों का उद्देश्य केवल कब्रगाहों की पूजा करना, हिन्दुओं से लिए गये विधर्मी संगीत बजाना तथा भोले-भाले श्रद्दालुओं को लूटना मात्र है। कुछ भी हो सूफी संतों के व्यापक दृष्टिकोण और उदार चित्त वृत्ति बिना किसी धार्मिक धारणाओं के विपरीत मानवीय सेवा के प्रति प्रतिबद्धता, देशी धर्म और सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति सम्मान की भावना, सामान्य जन के प्रति अनुराग एवं सम्भ्रान्त वर्ग से दूर रहने की प्रवृति, सादगी, त्याग, तपस्या, अहंकार एवं द्वेष रहित आचरण, करूणा, धर्मपरायणता, तथा जातिगत एवं वर्ग भेदभावों से रहित विचारों के कारण इस्लाम सारी सीमाएं तोडकर पूरे भारत में फैला। भारत में बारहवीं सदी से लेकर अठारवीं सदी तक भक्ति एवं सूफी आन्दोलन अपने चरम शिखर पर रहा और इन आंदोलनों ने विभिन्न भाषाओं एवं विभिन्न क्षेत्रों में अनेक महान भक्तों एवं सूफी संतों को पैदा किया। भक्ति-सूफी आन्दोलन की विस्तृत चर्चा अगले अध्याय में करेंगे।

चार सौ वर्ष पूर्व अकबर जैसा धर्मनिरपेक्ष शासन भारतीय इतिहास में एक मिसाल है। यूरोप में तो उन दिनो ईसाई धर्मपरीक्षा का युग चल रहा था और रोम में धर्मविरोधियों को जिंदा जलाया जा रहा था। जैसे जिओर्दानी ब्रूनो को रोम में धर्मविरोधी करार देकर कैद किया गया और आखिरकार उसको 1600 ई. में जिंदा जला दिया गया था। भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को सबसे अधिक प्रशासनिक समर्थन अकबर से ही मिला था। अकबर ने अपने मित्र उस समय के संस्कृत, अरबी, और फारसी के प्रकांड विद्वान अबुल फजल को कहा था-केवल तर्क का अनुसरण ही परंपरा को नकारने का स्वयंसिद्ध उपाय है, इस विषय में किसी बहस की आवश्यकता नहीं है। यदि परंपराएं ही उचित

होती तो पैगंबर नये संदेश नहीं लाते, वे अपने बुजुर्गो का ही अनुसरण करते रहते। हम शेष दुनिया की प्रत्येक बात को इसीलिए अस्वीकार करते चले जाए कि यह हमारे ग्रंथों में नहीं है,, तो फिर प्रगति कैसे होगी। अकबर अपनी धर्मसभाओं में हिंदू, इस्लाम की तीनों प्रमुख धाराओं-शिया, सुन्नी और सूफी के साथ-साथ ईसाई, यहूदी, पारसी और जैन मतावलंबियो को भी सहयोगी बनाता था। चार्वाक के अनास्थावादी शिष्यों को भी। उनके दरबार में मुसलामानों के साथ-साथ हिन्दू कलाकार, संगीतकार, चित्रकार, विद्वान भी थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा बहुत ही प्रबल थी जो आज के परिप्रेक्ष्य में अनुकरणीय भी है। 25 अपनी प्रजा के सामने धर्म-निरपेक्षता का सच्चा आदर्श पेश करने के लिए अकबर अपनी दाढ़ी साफ करता है, अपने पुश्तैनी लिबास को उतारकर चौबन्दी बाँध लेता है, सिर पर पगड़ी चढ़ा लेता है, जनेऊ डालकर और तिलक लगाकर दरबार में हाजिर होता है, सूर्य के एक हजार नामों का जप करता है, सूर्य के सामने दंडवत लगाता है, अपने शासन के अंतिम दिनों में 'रामसीय' सिक्का जारी करता है। 20 अकबर ने अपने महल में कृष्ण मंदिर भी बनवा रखा था। हिन्दूओं के सभी त्योहारों में हिस्सा लेता था। जन्माष्टमी के दिन भगवान कृष्ण को झूला भी झूलाता था। अकबर ने जैनियों के कर्मकांड की आलोचना की, किंतु शाकाहार विषयक उनके त​​र्को को स्वीकार कर शाकाहारी हो गया था। अनेक अवसरों पर कट्टरवादी मुसलमानों ने अकबर के विरूद्ध बगावत भी की (ऐसा प्रायः हर महान, उदार और सुधारवादी विचारकों / शासकों के साथ होता है) किंतु वह अपने 'राहे अक्ल      विचारशीलता के सिद्धांत पर अडिग रहा और खुले संवाद का पक्षधर बना रहा। 'दीन-ए-इलाही' नाम से एक नये धर्म को भी चलाने का असफल प्रयास क़िया। अकबर के शासन काल में ही आगरा में आयोजित सर्वधर्म महासम्मेलन में भी चार्वाक के अनुयायियों का प्रतिनिधित्व हुआ था। इसी महासम्मेलन की दो विशिष्टताओं को भी यहाँ जान लेना जरूरी है। पहली 'बहुलता की स्वीकारोक्ति अर्थात विभिन्न विचारों और विश्वासों की विद्यमानता को स्वीकार करना। दूसरी-विभिन्न विचार-विश्वास वालों के बीच वाद-संवाद के लिए प्रतिबद्धता । अकबर ने अपने शासन काल में फरमान जारी करवाया था कि धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाए और प्रत्येक व्यक्ति को अपने मनचाहे धर्म का अनुसरण करने का अधिकार हो, अकबर भारतीय विविधतापूर्ण सहिष्णु समाज के लिए तर्कशास्त्र को महत्व देते है। उनके अनुसार व्यक्ति को अंधभक्ति के बजाय अपने विवेक के सहारे (राहे-अक्ल) अपने धर्म का चुनाव करना चाहिए। भारत की पंथ निरपेक्ष परम्परा तो अकबर के बहुत पहले से ही चली आ रही सहिष्णु और बहुलवादी चिंतन परम्परा से जन्मी है। उदाहरण

के लिए, चौदहवीं शती के अमीर खुसरो की रचनावली हो या पंद्रहवीं में कबीर की साखियाँ या नानक के पद अथवा चैतन्य आदि की रचनाएँ-सभी में सदभाव का संदेश भरा है। किन्तु इस परम्परा को सबसे अधिक प्रशासनिक समर्थन अकबर से ही मिला था। उसने अपने उपदेश को स्वयं पर भी लागू किया। गैर-मुस्लिमों पर लगने वाले भेदभावपूर्ण कर बंद कर दिए, अनेक हिन्दू विद्वानों, कलाकारों को उसने अपने दरबार में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान प्रदान किया। एक प्रकार से अकबर राज्य की पंथ निरपेक्षता के उस विचार को विधिवत व्यापक रूप प्रदान कर रहे थे, जिसे कहीं व्यापक और सामान्य स्वरूप में अकबर से भी दो हजार साल पहले भारत सम्राट अशोक ने प्रतिपादित किया है। 27

अकबर के उदार एवं सहिष्णुता के उच्च आदर्श, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी सभी धर्मों पर आधारित थे। उन्हीं आदर्शों को आगे बढ़ाने की क्षमता अकबर के प्रपौत्र शाहजहाँ के पुत्र शाहजादा दाराशिकोह में ही थी। अकबर ने हिन्दुओं से राजनीतिक सम्बन्ध और धर्म के स्तर पर समन्वयवादी नीति अपनाई थी। शाहजादा दारा शिकोह हिन्दू धर्म की गहराई और दर्शन से अत्यंत प्रभावित था। दाराशिकोह ने सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और एक मानव धर्म को ढूँढने का प्रयास किया। दाराशिकोह संस्कृत के ज्ञाता थे उनके गुरू पंडित जगन्नाथ थे। हिन्दू दार्शनिकों और पंडितों से मिलना जुलना था। उन्होंने हिन्दू धर्म दर्शन पर अनेक पुस्तकें लिखी थी। दारा ने उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया, इन्हीं अनुवादों से ही पश्चिमी देशों को उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त हुआ। दारा शिकोह जिस सहजता से मस्जिद चले जाते थे उसी तरह निःसंकोच मंदिर में भी चले जाते थे। उन्होंने सत्य की खोज के लिए मन्दिर और मस्जिद में कभी कोई भेदभाव नहीं किया। दाराशिकोह का मानना था कि 'सभी धर्मों के मूल तत्व एक ही है, सत्य किसी एक धर्म की बपौति नहीं है और ईश्वर तक पहुंचने के अनेक रास्ते हैं।" दाराशिकोह अलौकिक शक्ति पर अगाध विश्वास रखते थे। दारा हिन्दू-मुसलमानों के धार्मिक चिन्तन के मध्यबिंदु को सदैव तलाशते रहे। उन्होंने मानव समाज को प्रेम के बंधन में बांधकर एक अनोखा समाज बनाने का सपना देखा था। दारा शिकोह कादरी सूफी परम्परा के संत हजरत मियां मीर के मुरीद थे। सातवें सिख गुरु हरिराय दारा के मित्र थे इसके अतिरिक्त बाबा लालदयालु वैष्णव दारा को उपदेश देते थे। दाराशिकोह संकीर्ण साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर व्यवहार करते थे। दारा शिकोह आधुनिक भारत के राजा राममोहनराय, विवेकानंद, महात्मा गांधी, टैगोर, नेहरू और मौलाना आजाद के पथ प्रदर्शक थे। कट्टरपंथी मुल्लाओं ने दारा को धर्मद्रोही घोषित कर उसके और औरंगजेब के युद्ध को उत्तराधिकार का कम और इस्लाम की रक्षा का युद्ध ज्यादा माना है। मुस्लिम राजनीति में दाराशिकोह जैसा उपेक्षित चरित्र कहीं नजर नहीं आता। उसका जीवन धर्म, दर्शन, कुटिल राजनीति, सत्ता की लोलुपता, षडयंत्र, गद्दारी, घृणा और धर्मोन्माद युद्ध में ही लड़खड़ाता रहा। कुरूक्षेत्र के युद्ध के बाद इतिहास का भाइयों के बीच अंतर्कलह, मारकाट और सबसे बड़ा खूनी संघर्ष शाहजहाँ के पुत्रों के बीच हुआ। औरंगजेब और दारा शिकोह के युद्ध में औरंगजेब की विजय इतिहास की एक बड़ी घटना थी। यदि इस युद्ध में दारा विजयी होते तो हिन्दुस्तानी एक बार फिर अकबर के भारत के संस्करण को देखते ।

सुलतानों के शासनकाल में भी मध्यकालीन भारत में स्थिति बुनियादी, तौर पर अलग नहीं थी। अलाउद्दीन खिलजी ने बड़ी रूखाई से काजी मुगीसुद्दीन से कहा था कि वह नहीं जानता कि कानूनी और गैर-कानूनी क्या है, परन्तु जो भी स्थिति अथवा राज्य की भलाई के लिए जरूरी है, उसी के मुताबिक वह आदेश देता है। इस दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ कि इतिहासकार जियाउद्दीन जैसे कट्टर व्यक्ति ने भी यह निष्कर्ष निकाला कि भारत में एक सही इस्लामी राज्य का अस्तित्व नहीं हो सकता था। 28

भारत की सहनशीलता और तर्कशीलता की परम्परा को हमेशा ही याद रखे जाने की आवश्यकता है। दरअसल सत्रहवीं सदी के हिन्दू बलशाली नेता शिवाजी भी दूसरे धर्मों के प्रति बहुत आदर का भाव रखते थे। उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता के मामले में अकबर की सहिष्णुता की नीति के मद्देनजर औरंगजेब को पत्र लिखा था, जो उनकी विभिन्न धर्मों के प्रति उनके सहनशील नजरिये के अनुरूप था। "अगर बादशाह सलामत को अलौकिक कही जाने वाली उन किताबों पर जरा भी विश्वास है तो आप पाएंगे कि वहां कहा गया है कि ईश्वर तो सभी लोगों का ईश्वर है, सिर्फ मुसलमानों का खुदा नहीं। उसके आगे तो हिन्दू और मुसलमान दोनों ही बराबर हैं।आप हिन्दुओं से जो दंड और कर मांग रहे हैं वह न्याय के प्रतिकूल है।"20

मुगल इतिहासकार खाफी खान भी मुसलमानों के प्रति उनके व्यवहार के बारे में कहता है :- "शिवाजी ने यह नियम बना दिया था कि उनके समर्थक चाहे जहां कहीं भी लूटमार करे, वे मस्जिदों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए, कुरान और औरत को कोई नुकसान नहीं पहुंचाए। उनके हाथ में जब भी कुरान आया उन्होंने बहुत सम्मान से उसे सर लगाया और अपने किसी मुसलमान अनुयायी को पकड़ा दिया।"30

अरबी विद्वानों के अलावा चीनी यात्री जैसे फाहियान पांचवीं और ह्वेनसांग सातवीं सदी में भारत आकर कई-कई सालों यहां का अध्ययन कर यहां के विभिन्न विषयों के अनुवाद चीनी भाषा में किया। भारत के ज्ञान-विज्ञान का अध्ययन करने यूरोप से भी कई यात्री आते रहे हैं। सत्रबीं सदी में इटली से रोबेर्तो अध्ययन के भारत आकर संस्कृत और तमिल भाषा का अध्ययन कर यहां की बौद्धिक रचनाओं का अनुवाद लैटिन भाषा में किया। फ्रांस से अठारवीं सदी में आए कादर पॉस ने संस्कृत व्याकरण का लैटिन भाषा में अनुवाद कर उसकी पाकुलिपियां यूरोप भेजी थी। इसी प्रकार 1783 में विधि विशेषज्ञ विलियम जोन्स भारत आये थे, उन्होंने गीता, मनुस्मृति, और कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम और जयदेव के गीत गोविन्द जैसे साहित्य के अंग्रेजी अनुवाद का बहुत ही उत्कृष्ट कार्य किया। विलियम जोन्स भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक परम्परा से बहुत अभिभूत थे। उन्होंने अपने व्यापक अध्ययन में हिंदुओं और मोहम्मदियों के कानून, हिन्दुस्तान की आधुनिक राजनीति, और भूगोल, बंगाल के शासन की सर्वश्रेष्ठ पद्धति, गणित और ज्यामिति, एशियाई ज्ञान-विज्ञान, चिकित्सा, रसायनशास्त्र, शल्य चिकित्सा और अस्थितंत्र विषयक भारतीय विचार, भारत की उपजें, काव्य और अतिशयोक्तियां, एशियाई नीतिशास्त्र, पूर्वी देशों का संगीत, व्यापार, विनिर्माण, कृषि, भारत का वाणिज्य व्यापार इत्यादि क्षेत्रों की व्याख्या की। फ्रांस निवासी फारसी भाषाविद एनक्येटिल ड्यूपर्ण ने 17 वीं शताब्दी के फारसी पाठ के आधार पर चार उपनिषदों का अनुवाद प्रकाशित किया। इन अनुवादों के परिणामस्वरूप यूरोप में संस्कृत साहित्य के प्रति रुचि विकसित होने लगी ।

एक फ्रांसीसी यात्री बर्नियर 17 वीं शताब्दी में भारत आया था जिसने मुगल राज्य में रहकर 10-12 वर्षों तक चिकित्स्क की नौकरी की थी। उसने 'बर्नियर की भारत यान्त्रा' नाम की एक पुस्तक लिखी। इस यात्रा वृतांत में बर्नियर ने यहाँ के तत्कालीन शासक, शासन व्यवस्था, सांस्कृतिक, शिक्षा, व्यापार, धार्मिक रीति रिवाजों, आर्थिक और सामाजिक स्थिति का प्रशंसात्मक रूप में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इसके अलावा यहाँ के गाँवों-शहरों की बसावट, किलों और मकानों की बनावट, बाजारों की स्थिति, खान-पान की आदतें, गहनों के प्रति महिलाओं का लगाव व यहाँ के सुनारों की कारीगरी, चित्रकारी और भारतीयों के जीवन के प्रत्येक जीवंत पहलुओं का वर्णन अपने यात्रा वृतांत में किया है। यूँ तो उस काल के इतिहास पर भारतीय इतिहासकारों ने भी बहुत कुछ लिखा है किन्तु एक विदेशी की नजर से भारतीयों के जीवन पहलुओं को देखने, जानने, समझने का रोमांच कुछ अलग ही है।


वक़्त का ऐसा वार हो गया है - टीकम 'अनजाना'

                                                                 टीकम 'अनजाना'
 


वक़्त का ऐसा वार हो गया है

 

वक़्त का ऐसा वार हो गया है

अनजाना’ चाटुकार हो गया है।

 

आजकल क़सीदे पढ़ रहा है

और अपने आप से लड़ रहा है।

अपना वुजूद कैसे बचाकर रखे

सवाल यह सवार हो गया है।

वक़्त का ऐसा वार हो गया है॥

 

जो नहीं कहा वह कह रहा है

अब हवा के साथ बह रहा है।

दे रहा है तसल्ली ख़ुद को

फ़र्ज़ के लिए तैयार हो गया है।

वक़्त का ऐसा वार हो गया है॥

 

जो दरख़्त अकड़े रहे उखड़ गये

उन्हें जीने के लाले पड़ गये।

दूब की मानिंद रहने लगा है

नादान समझदार हो गया है।

वक़्त का ऐसा वार हो गया है॥


कविता की सृजनात्मकता- डॉ.मनु शर्मा

                                                                        डॉ.मनु शर्मा
                                                     

                       कविता की सृजनात्मकता

भाग-1

        संसार में ऐसा कुछ नहीं है जो काव्य का विषय न हो सके। अपनी सारी भव्यता और विद्रूपता के साथ यह दुनिया काव्य की परिधि में समायी हुई है। कवि किसी भी चीज पर कविता लिखने के लिए स्वतंत्र है। यहां तक कि उस पर प्रकृति के नियम भी लागू नहीं होते। वह नदी को नाव में डुबोने का सामर्थ्य रखता है- 'नाव बिच नदिया डूबी जाय।' वह मेंढक की टर्र-टर्र और ब्रह्मचारियों के वेद पाठ में भी साम्य ढूंढ़ लेता है। और उसके जरिये किसी विडम्बना को संकेतित कर जाता है। कवि एक दूसरी दुनिया का सिरजनहार है। जो सर्वथा उसकी अपनी दुनिया होते हुए भी उसकी अपनी नहीं होती।

कवि संसार के मौजूदा रूपों पर अपनी रुचियों, संस्कारों, सोच और समझ को आरोपित करता है। दुनिया वैसी नहीं है, जैसी कविता में दिखाई जाती है। नीलम की घाटियाँ आज तक किसने देखी है? कीचड़ किस रासायनिक प्रक्रिया से हरिचंदन बनता है? जब परमाणु ही सामान्यतः दिखाई नहीं पड़ता तो उसका पराग शायद ही किसी ने देखा हो। परमाणु में पराग प्रकृति की कौनसी लीला है? पहाड़ों को किसने रोते हुए देखा है? और किसी ने देखा हो या नहीं पर कवियों ने पहाड़ों को जरूर रोते देखा है। मेघ गर्जन होते ही कवि को कीचड़ हरिचंदन में परिणत होता नजर आने लगता है। उसकी दृष्टि परमाणुओं के पराग को भी देख लेती है।

यही तो कवि का अपना संसार है। जो वास्तविक संसार से एकदम अनूठा, भव्य, मोहक, रमणीय और जादुई है। कवि भी एक तरह का जादूगर है। लेकिन जादू और कविता में बहुत फर्क है। जादू सिर्फ विभ्रम और सम्मोहन पर टिका होता है। जबकि कविता का सम्मोहन यथार्थ की पुनर्रचना से पैदा होता है। कवि अपनी कल्पना से असंभव को भी संभव कर दिखाता है। कवि की सृष्टि स्वयं उसकी कल्पना या प्रतिभा के अतिरिक्त अन्य किसी के अधीन नहीं होती-'नियतिकृत नियमरहितां ह्लादैकमयीमनन्य परतंत्राम्।'

कवि अपनी कविता में जगत् के मनमाने रूप को प्रस्तुत करता है। यह जगत् उसे जिस रूप में रुचिकर लगता है, उसी में वह उसे ढाल देता है। सिर्फ कविता ही नहीं प्रत्येक रचना वस्तुगत यथार्थ की आत्मगत संरचना होती है। कवि वस्तु जगत् में जो कुछ देखता और अनुभव करता है, उसे अपनी कल्पना से यादृच्छिक रूप प्रदान करता है। इसी अर्थ में उसकी सृष्टि निजी होते हुए भी निजेतर होती है। गौतम बुद्ध ने चित्र को चित्त का ही चिन्तन कहा है- 'चित्तम् चित्तेनेव चिन्तति ।' प्रश्न यह है कि कवि यह सब करता कैसे है? और जगत् के मौजूदा रूपों में हेर फेर वह सिर्फ चमत्कृत करने के लिए करता है या उसका और कोई उद्देश्य होता है?

शुक्ल यजुर्वेद में कहा गया है- 'कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः।' यहां पर 'परिभू' और 'स्वयंभू' ये दोनों शब्द द्वन्द्वात्मकता के द्योतक हैं। 'परिभू' यानी अपने चारों ओर जो कुछ व्याप्त है उससे कवि अपने को सामान्यजन की भांति संलिप्त करता है। दूसरे शब्दों में सबसे पहले वह स्वयं को वस्तुगत यथार्थ का हिस्सा बनाता है। तत्पश्चात् उसमें से स्वयं को बाहर निकालता है। यह 'स्वयंभू की स्थिति है। 'स्वयंभू वाला रूप ही उसका असली कवि रूप होता है। सृजन की प्रक्रिया इसी अर्थ में द्वन्द्वात्मक कही गई है। वह जितनी वस्तुगत होती है उतनी ही आत्मगत।

                                                          

सृजन के दौरान कवि को वस्तुगत यथार्थ में बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ता है। उसके विद्यमान रूपों में काट-छाँट करनी होती है। उसमें परिवर्तन-परिवर्धन करना पड़ता है। यह सब उसकी सृजन प्रक्रिया का हिस्सा है। काट-छाँट कर कवि अनगढ़ यथार्थ को इतना भव्य बना देता है कि हम उस पर मुग्ध हो उठते हैं। कवि की मनमानी दुनिया को अपनी दुनिया मान बैठते हैं। यही कवि कर्म की सार्थकता है। कवि की वाणी की इसीलिए जय-जयकार की गई है - 'भारती कवेर्जयति।' उसे ब्रह्म, ईश्वर, प्रजापति, मनीषि, स्वयंभू और न जाने क्या-क्या कहा गया है।

 

ऐसा माना गया है कि कवि अपनी कल्पित सृष्टि को वास्तविक सृष्टि पर आरोपित करके आत्मसुख प्राप्त करता है। लेकिन यह अर्धसत्य है। इसके अतिरिक्त वह जीवन और जगत् के प्रति अपने महास्वप्न (विजन) को प्रस्तुत करता है। जो है उससे बेहतर का विकल्प देता है। वाल्मीकि के राम एक वैकल्पिक मानव चरित्र हैं। राम जैसा धीर-गंभीर, धर्मज्ञ, नीतिज्ञ, दृढ़प्रतिज्ञ, पराक्रमी और मर्यादित आचरण वाला मनुष्य वाल्मीकि का महास्वप्न था। वह तत्कालीन समाज को एक आदर्श मनुष्य का विकल्प देना चाहते थे। तुलसी का रामराज्य पूर्णतः मनोराज्य है। एक यूटोपिया है। लेकिन है विकल्प। जरूरी नहीं है कि विकल्प के तौर पर प्रस्तुत मनोराज्य की व्यावहारिकता प्रमाणित हो। मनोराज्य में कवि अपने दिक्काल का अतिक्रमण करता है। विकल्प उसे यह सुविधा उपलब्ध कराता है। अपने संवेगों, अनुभूतियों, विचारों और सपनों को विकल्प के साँचे में ढाल कर वह उन्हें देश-काल की परिधि से बाहर ले जाता है। जो न तो अतियथार्थवादी होकर किया जा सकता है। और न जादुई यथार्थवाद के जरिये ।

देखने की बात यह है कि कवि अपनी कविता में यथार्थ का घेरा कहाँ-कहाँ तोड़ता है। वे कौनसे जीवन संदर्भ है, जहाँ वह ऐसा कर पाता है। जैसे संत कवियों ने कर्मकाण्ड, अंध-विश्वास, जातिप्रथा आदि का तो विरोध किया! पर जीवन की अध्यात्मवादी व्याख्या को वे नहीं नकार पाये।

निरंतर...

मंगलवार, 9 जनवरी 2024

मातृभाषा-भानु प्रकाश रघुवंशी

भानु प्रकाश रघुवंशी

              

 |मातृभाषा||

 जन्म लेने के बाद

जब पहली बार आंखें खुली

तो माॅं को ही देखा,

मैंने रोना शुरू कर दिया

 

तब मेरी कोई भाषा नहीं थी

रोने और हॅंसने की कोई भाषा नहीं होती

न भाषा की जरूरत होती है

रोने या हॅंसने के लिए

 

मुझे भाषा का ज्ञान माॅं ने दिया,

सबसे पहले माथा चूमा

वह स्पर्श की भाषा थी

 

फिर अपने होंठों पर उॅंगली रखकर

दाॅंए बाॅंए सिर हिलाते हुए

चुप हो जाने का इशारा किया

मैं न समझा

इस सांकेतिक भाषा में, माॅं की बात

 

फिर एक वर्ण '' कहा उसने

फिर कहा

न रे,न रे,न रे न न

माॅं ने इसी भाषा से गुदगुदाया था

पहली बार मुझे

 यह मेरी माॅं की भाषा है

यही मेरी मातृ भाषा है।

 

              

क़मर जलालाबादी- @राजेश चड्ढ़ा


                                              क़मर जलालाबादी

                                                        राजेश चड्ढ़ा

    9 मार्च 1917 को अमृतसर में जन्मे और आज के दिन यानी 9 जनवरी 2003 को जुदा हो जाने वाले शायर क़मर जलालाबादी भारतीय हिन्दी फ़िल्मों के प्रसिद्ध गीतकार और कवि रहे हैं. वे चार दशकों तक हिन्दी फ़िल्मी जगत को बतौर गीतकार एक से बढ़कर एक गीत रहे. क़मर जलालाबादी के लिखे गीत आज भी उसी शिद्दत से सुने जाते हैं. फ़िल्म 'हावड़ा ब्रिज' का मस्ती भरा गीत 'मेरा नाम चिन चिन चूँ और 'आइये मेहरबां बैठिये जाने जाँ' कैसे भुलाये जा सकते हैं. इस गीत को आशा भोंसले की मादक गायकी, मधुबाला के मोहक अभिनय और ओ. पी. नैयर के कर्णप्रिय संगीत के साथ जोड़कर याद किया जाता है, जबकि इस गीत के बेहतरीन शब्दों का जाल बुनने वाले क़मर जलालाबादी का नाम पार्श्व में दब गया. क़मर जलालाबादी ने अपने लम्बे करियर में हिन्दी सिनेमा के लगभग सभी प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ काम किया. एक गीतकार के रूप में क़मर जलालाबादी ने ऐसे बहुत सारे अविस्मरणीय गीत हिन्दी सिनेमा को दिये. बहुत कम गीतकार ऐसे होंगे, जिनके रचे गीत दशकों तक श्रोताओं के जीवन का अभिन्न अंग बने रहे हों. क़मर जलालाबादी की स्मृतियों को सलाम. 

हर हर क़दम पे साथ हूँ साया हूँ मैं तिरा

ऐ बेवफ़ा दिखा तो ज़रा भूल कर मुझे

दुनिया को भूल कर तिरी दुनिया में आ गया 

ले जा रहा है कौन इधर से उधर मुझे

बन्दा सिंह बहादुर: एक अद्वितीय जन-रक्षक, परम योद्धा और चरित्रवान सेनापति- डॉ0 रवीन्द्र कुमार, श्रीमती कमलेश कुमारी


    बन्दा सिंह बहादुर: एक अद्वितीय जन-रक्षक, परम योद्धा और चरित्रवान सेनापति

बन्दा सिंह बहादुर (बाल्यकाल नाम: लछमन देव; जीवनकाल: 1670-1716 ईसवीं), जो एक परम योद्धा, सच्चे सिख और चरित्रवान खालसा सेनापति थे, का जन्म 27 अक्टूबर, 1670 ईसवीं को राजौरी, पुंछ (जम्मू-कश्मीर) के एक दीन किसान राम देव के सुपुत्र के रूप में हुआ था। उनकी माता का नाम सुलखनी देवी था।

बाल्यकाल से ही घुड़सवारी, व्यायाम एवं शस्त्रविद्या में रुचि रखने वाले लछमन देव ने मात्र पन्द्रह वर्ष की आयु में वर्ष 1685 ईसवीं में अपना घर त्याग दिया; जानकी प्रसाद बैरागी नामक एक साथी संन्यासी की प्रेरणा से वे संन्यासी बन गए तथा माधोदास बैरागी के नाम से जाने गए। वर्ष 1686 ईसवीं में वे कसूर (पंजाब) क्षेत्र के प्रसिद्ध बैरागी राम दास के शिष्य बन गए। उनसे अध्यात्म और धर्म की शिक्षा ली। उसके बाद लगभग चार वर्षों तक शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुए 1691 ईसवीं में वे प्रसिद्ध पंचवटी (पाँच वट वृक्ष स्थल), नासिक पहुँचे। नासिक में वे तंत्रविद्या के लिए प्रसिद्ध योगी औघड़ नाथ के संपर्क में आए और उनसे योग विज्ञान का ज्ञान लिया।  उसी वर्ष उनके निधन के बाद वे नांदेड़ आ गए।

माधोदास बैरागी ने गोदावरी नदी के तट पर नांदेड़ (वर्तमान महाराष्ट्र) में एक मठ की स्थापना की और अब वे अपने तपस्वी-जीवन धर्म-अध्यात्म ज्ञान तथा योग व तंत्र में अभ्यासरत हो गए थे। वहीं, दूसरी ओर, दसवें सिख गुरु गोबिन्द सिंहजी भी उन दिनों उसी क्षेत्र में थे; वे औरंगजेब की मुगल सत्ता की धार्मिक असहिष्णुता की नीति, कट्टरता और अत्याचारों के विरुद्ध धर्मयुद्ध लड़ रहे थे।  

सितम्बर, 1708 ईसवीं के अन्तिम सप्ताह में गुरूजी ने माधोदास बैरागी से, जिनके सम्बन्ध में कुछ माह पूर्व ही उन्हें अपनी यात्रा के समय दादू-द्वारा (नारायणा, जयपुर) के महन्त जैतराम से परिचय मिल चुका था, भेंट की। गुरु गोबिंद सिंह के धर्म, संस्कृति व मानव-रक्षा के लिए दिए गए एक-से-बढ़कर-दूसरे बलिदान से माधोदास बैरागी इतने प्रभावित हुए कि वे गुरुजी के शिष्य बन गए और एक धार्मिक समारोह में उन्हें गुरबख्श सिंह नाम दिया गया। गुरु गोबिन्द सिंह के प्रति अपने समर्पण, "मैं आप (गुरु गोबिन्द सिंह) का बन्दा (दास) हूँ" की घोषणा व संकल्प एवं अमृत संस्कारोपरान्त वे बन्दा सिंह नाम से प्रसिद्ध हुए।

अमृतपान कर गुरु-शिष्य बन जाने के उपरान्त बन्दा सिंह के जीवन में तुरन्त ही एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। उन्होंने अविलम्ब गुरु गोबिन्द सिंह से धर्मयुद्ध के लिए पंजाब की ओर कूच करने की आज्ञा माँगी, ताकि वहाँ वे अत्याचारियों-आततायिओं से जन-रक्षा के स्वयं गुरुजी द्वारा प्रारम्भ किए मिशन को आगे बढ़ा सकें और उसे लक्ष्य तक पहुँचा सकें।

तैयारी पूर्ण हो जाने पर बन्दा सिंह गुरु गोबिन्द सिंह के समक्ष उपस्थित हुए। गुरुजी ने उन्हें 'बहादुर' की उपाधि दी। उन्होंने बन्दा सिंह बहादुर को अपने तूणीर से पाँच बाण, 'निशान साहेब' तथा एक नगाड़ा  दिया। उनकी सहायता व परामर्श के लिए बिनोद सिंह, काहन सिंह, बाज सिंह, दया सिंह तथा राम सिंह नामक 'पाँच प्यारों' की एक टोली और बीस अन्य सिख वीर दिए। साथ ही, देशभर के सिखों को सम्बोधित एक पत्र भी दिया, जिसमें बन्दा सिंह बहादुर के नेतृत्व में एकत्रित होकर जनता व धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष का आह्वान था।

गुरु गोबिन्द सिंह ने बन्दा सिंह बहादुर को प्रस्थान करते समय विशेष रूप से यह कहा कि वे प्रत्येक कार्य का प्रारम्भ 'वाहेगुरु' (ईश्वर ) का स्मरण करते हुए ही करें; वे व्यक्तिगत रूप से शुद्धाचरण और जीवन-पवित्रता बनाए रखें तथा महिलाओं का सम्मान करें। वे अपने को गुरु नहीं, अपितु एक नेतृत्वकारी मानें तथा 'पाँच प्यारों' के साथ परामर्श करने के उपरान्त ही कोई निर्णय लें। मानवता की रक्षा के लिए धर्म-युद्ध में उनकी सफलता इन बातों पर निर्भर करेगी। एक सिंह की भाँति सुसज्जित बन्दा सिंह बहादुर ने उत्तर की ओर प्रस्थान किया। वे मार्ग में ही थे कि 7 अक्टूबर, 1708 ईसवीं को नांदेड़ में गुरु गोबिन्द सिंह का स्वर्गवास हो गया।  

अविचलित बन्दा सिंह बहादुर आगे बढ़ते रहे; हजारों की संख्या में साथ आ खड़े हुए वीर सिक्खों के साथ दिल्ली के निकट उस समय मुगल साम्राज्य के ही एक भाग सोनीपत को विजित करने के बाद 26 नवम्बर, 1709 ईसवीं को गुरु तेगबहादुर के जल्लाद रहे रलाउद्दीन और सरहिन्द में गुरु गोबिन्द सिंह के दोनों छोटे सुपुत्रों के जल्लादों शशाल बेग और बशाल बेग के निवासस्थल समाना पर उन्होंने आक्रमण किया और उस पर अधिकार करने के बाद  वे आगे बढ़े।     

समाना से लेकर, जनवरी 1712 ईसवीं में जम्मू, मार्च, 1714 ईसवीं में किरी पठान (गुरदासपुर) आदि तक बन्दा सिंह बहादुर ने एक दर्जन से भी अधिक युद्ध किए। इसमें मई, 1710 ईसवीं में मोहाली के निकट चप्पड़ चिड़ी का युद्ध –सरहिन्द की घेराबन्दी, जिसमें गुरु गोबिन्द के दोनों सुपुत्रों को दीवार में जिन्दा चुनवाने वाले वजीर खान की पराजय और उनकी मृत्यु भी सम्मिलित है। गुरदास नंगल में आठ माह की मुगल घेराबन्दी के बाद दिसम्बर, 1715 ईसवीं में बन्दा सिंह बहादुर के बन्दीकरण और अन्ततः 9 जून, 1716 ईसवीं को धर्म, मानवता, मूल्यों व संस्कृति की रक्षा हेतु वीरतापूर्वक दिए गए उनके सर्वोच्च बलिदान से जुड़ा घटनाक्रम इन युद्धों से हमारे सामने आता है।

बन्दा सिंह बहादुर ने गुरु गोबिन्द सिंह के मानवाह्वान, "जब प्रत्येक उपाय निष्फल हो जाए, तो हाथों में तलवार उठाना ही धर्म है", के पालनार्थ अत्याचारियों, आततायियों और धर्मान्धों से धर्म एवं जन-रक्षार्थ युद्ध का मार्ग चुना। उनके द्वारा लड़े गए युद्धों का इतिहासकार अपने-अपने विचारों के अनुसार विश्लेषण करते हैं। लेकिन, यह सत्य है कि बन्दा सिंह बहादुर ने एक परमवीर सेनापति के रूप में जीवन पर्यन्त ईमानदारी, निस्स्वार्थता और निजी पवित्रता को बनाये रखा। बिना भेदभाव के महिला-सम्मान को सर्वोपरि रखा। उनका उद्देश्य शासक बनना नहीं था; इसलिए उन्होंने आमजन को नहीं लूटा। युद्धों में अत्याचारियों व आततायियों से प्राप्त धन-सम्पदा को दीनजन में बाँटा। जहाँ-जहाँ उन्होंने विजय प्राप्त की, वहाँ-वहाँ जमींदारी जैसी रक्त चूसने वाली कुप्रथा को समाप्त किया। 'जो जोते, भूमि उसकी', ऐसी व्यवस्था को लागू कर एक सच्चे गुरु (श्री गोबिन्द सिंह जी) के सच्चे शिष्य होने का उदाहरण प्रस्तुत किया।           

गुरु गोबिन्द सिंह के अन्याय-समाप्ति, संस्कृति, राष्ट्रीय मूल्यों और धर्म-रक्षा के मिशन को आगे बढ़ाने वाले और इस हेतु अपने जीवन का बलिदान करने वाले बन्दा सिंह बहादुर एक महान जन-रक्षक, परम योद्धा और चरित्रवान सेनापति के रूप में समकालीन भारत के इतिहास के सुनहरे पृष्ठों में अंकित हैं। असहाय लोगों की रक्षा के लिए अपने वीरता भरे कृत्यों, खून-पसीना बहाने वाले घोर अन्याय के वशीभूत व विवश जन को कई अन्यायी व्यवस्थाओं से मुक्त कराने वाले, और, जैसा कि कहा है, राष्ट्रीय संस्कृति, मूल्यों और धर्म-रक्षा के लिए अपना बलिदान देने के साथ ही भावी पीढ़ियों के लिए एक विरासत छोड़ जाने हेतु वे दीर्घकाल तक प्रेरणा स्रोत भी रहेंगे।   

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं। **श्रीमती कमलेश कुमारी हरियाणा राज्य शिक्षा विभाग में कार्यरत हैं।

            

 

 

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...