अथर्ववेद: पृथ्वीमाता, प्रकृति, पर्यावरण और जीवन
बीस काण्डों के सात सौ
इकतीस सूक्तों में पाँच हजार नौ सौ सतहत्तर मंत्रों से सम्पन्न चतुर्थ वेद, अर्थात् अथर्ववेद (अ’+=’थर्व’=’अथर्व’, जो 'गति', 'रचनात्मकता', 'सक्रियता' व 'सक्षमता' का द्योतक है; साथ ही, 'उदारता', 'मैत्री’, 'शान्ति', 'स्थिरता' और अन्ततः वृहद् कल्याण को
समर्पित है;
एवं, 'वेद', जो 'विद्' धातु निर्गत है और इसका
अर्थ ‘ज्ञान’ है) की शोभा और महत्ता कई रूपों में है। अथर्ववेद
को 'छन्दवेद' कहा जाता है। ‘छन्द’, अर्थात् आनन्द; इस प्रकार, अथर्ववेद आनन्द ज्ञान व
अध्ययन का मार्ग प्रशस्तकर्ता है। अथर्ववेद के मंत्रों में प्रकट ब्रह्म संवाद के
कारण इसे 'ब्रह्मवेद' भी कहते हैं। अथर्ववेद, चूँकि प्रमुखतः अंगिरा अथवा
अंगिरस ऋषिबद्ध है,
इसलिए यह ‘अथर्वांगिरस वेद' कहलाता है। ब्रह्मा के मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करने वाले अंगिरस
अथवा अंगिरा वाणी और छन्द के आदि ज्ञाता के रूप में सुप्रसिद्ध हैं। अथर्ववेद के
सूत्रपातकर्ता –प्रारम्भकर्ता
होने के कारण ही अंगिरस अथर्वा भी कहलाते हैं।
अथर्ववेद
में जीवाणु विज्ञान का उल्लेख है। इसमें मानव-काया रचना और चिकित्सा-उपचार व
औषधियों से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। आयुर्वेद के मूल उल्लेख, दूसरे शब्दों में
आयुर्वेद की उत्पत्ति के कारण,
अथर्ववेद 'भैषज्यवेद' अथवा 'भिषग्वेद' कहलाता है। ब्रह्मज्ञान, अथर्ववेद का, जैसा कि उल्लेख किया है, एक श्रेष्ठ पक्ष है। इसी
के साथ, 'आनन्द', जिसकी अन्तिम अवस्था 'परमानन्द' है; जो स्वयं परमात्मा-स्वरूप है, अथर्ववेद में अध्ययन व
ज्ञान का एक मुख्य विषय है।
संक्षेप में, वेदों में अथर्ववेद की
श्रेष्ठ स्थिति है। अथर्ववेद के वृहद् कल्याणकारी मंत्रों के माध्यम से प्रकट
ज्ञान, विशेष रूप से व्यवस्था-सन्तुलन, वांछित संरक्षण और
शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त के प्रति व्यावहारिक प्रतिबद्धता के आधार पर
लौकिक जगत में जीवन की सुचारु रूप में निरन्तरता और इसकी सम्पन्नता के साथ ही, मानव-जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु, अतिमहत्त्वपूर्ण, प्रासंगिक और सर्वकालिक
है।
II
अथर्ववेद के बारहवें
काण्ड का प्रथम सूक्त 'पृथ्वी माँ' को समर्पित है। इसीलिए, इस सूक्त को 'पृथ्वीसूक्त' अथवा 'भूमिसूक्त' भी कहते हैं। इस सूक्त के
त्रेसठ मंत्र, जगत के समस्त चर-अचर व
दृश्य-अदृश्य की कुशलता हेतु,
तथा इस
सम्बन्ध में प्रकट होने वाली चिन्ताओं एवं उनके निदान के लिए मानव-कर्त्तव्य
निर्धारित करते सत्याधारित दिशानिर्देशों के समान हैं।
इन मंत्रों के माध्यम से
पृथ्वी को ब्रह्म-वरदानी,
सत्य-प्राप्ति
हेतु हर प्रकार से अनुकूल और समृद्ध,
व पालनकर्त्री तपोभूमि घोषित किया गया है (मंत्र: 1), जहाँ महर्षि, ऋषि, महात्मा और विद्वान जन अपनी तपस्याओं
के बल पर परम सत्य की स्थिति तक पहुँचते हैं। इस सूक्त के मंत्रों द्वारा
उद्देश्यपूर्ण एवं लाभकारी ऊँचे-नीचे व समतल स्थानों वाली और, साथ ही, समुद्रों, नदियों आदि से भरपूर
पृथ्वी (मंत्र: 2-3) पर जीवन की निरन्तरता, हर प्रकार से जीव-रक्षा, मानव की सभी क्षेत्रों
में सभी स्तरों पर सम्पन्नता और चहुँमुखी विकास के लिए स्वयं पृथ्वी माता के प्रति
मनुष्य के अपरिहार्य उत्तरदायित्वों का, जो
इससे जुड़ा अभिन्न पक्ष है,
अभूतपूर्व
प्रकटीकरण है। साथ ही,
जीवन-सुरक्षा
एवं इसके सुचारु रूप से आगे बढ़ने के लिए आवश्यक रूप से निर्णायक भूमिका का निर्वहन
करने वाले पर्यावरण एवं प्रकृति के संरक्षण का अभूतपूर्व आह्वान है।
प्रकृति जीवनदात्री है।
यह जीवन को सुरक्षा कवच प्रदान करती है। वनस्पति, जल आदि सहित अपने तत्त्वों के साथ
प्रकृति शुद्ध स्वरूप में जीवन को संरक्षित करती है। जीव के भरण-पोषण को सुनिश्चित
करती है। प्रकृति,
पर्यावरण की, जिसकी जीवन की निरन्तरता
में प्रत्यक्ष भूमिका है,
स्वच्छता
तथा अनुकूलता में भी निर्णायक योगदान देती है। जीव-अस्तित्व हेतु अपरिहार्य श्वास
भी पर्यावरण से सम्बद्ध विषय है। जीवन के लिए इस विषय की महत्ता के सन्दर्भ में
मेरे द्वारा किसी विशेष विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है। हम सभी इसकी सर्वकालिक
महत्ता, प्रासंगिकता, आवश्यकता तथा अपरिहार्यता
से भली-भाँति परिचित हैं। लेकिन,
तो भी, बात स्वच्छ और अनुकूल
जलवायु व वातावरण की है,
जिस पर
जीवन-अस्तित्व के साथ ही स्वास्थ्य की निर्भरता है। इसलिए, हजारों वर्ष पूर्व अथर्ववेद का 'पृथ्वीसूक्त' वृहद् जीव-कल्याण के
उद्देश्य से प्रकृति-संरक्षण,
पर्यावरण-संतुलन –स्वच्छ-शुद्ध, समृद्ध एवं
स्वास्थ्यवर्धक जलवायु को समर्पित हुआ। इस सूक्त के मंत्रों की सर्वकालिक महत्ता
है; पृथ्वी पर जीवन के
अस्तित्व व निरन्तरता के सम्बन्ध में पूरी-पूरी उपयोगिता है।
III
प्रकृति-संरक्षण, पर्यावरण-संतुलन और
मित्रवत जलवायु की सुनिश्चितता के साथ,
पृथ्वी प्राणिजगत का सुयोग्य पोषण करे; पृथ्वी, अपने विभिन्न तत्त्वों
द्वारा मानव-समाज के चहुँमुखी विकास
का निरन्तर आधार बने,
सामान्यतः
इस सूक्त की यह भावना है। इस हेतु, अविभाज्य
समग्रता के प्रतीक परमात्मा से मार्ग प्रशस्त करने की प्रार्थना की गई। साथ ही, इस सम्बन्ध में प्रत्येक
जन, स्त्री व पुरुष, का व्यक्तिगत व सामूहिक
उत्तरदायित्व-निर्वहन का आह्वान किया गया है। इस सम्बन्ध में 'पृथ्वीसूक्त' के ग्यारहवें मंत्र में
प्रकट प्रबल मानवीय कामना यहाँ अतिविशेष रूप से उल्लेखनीय है:
"गिरयस्ते पर्वता
हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु/ बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां
भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम्/ अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम्//”
अर्थात्, "हे पृथ्वी, हम मनुष्यों के लिए तेरी
पहाड़ियाँ,
हिम
पर्वत और प्रदेश व वन मनभावन हों; पोषण करने वाली, जोती जा सकने वाली और
उपजाऊ,
रूपवती, प्रभावशाली तथा आश्रय
प्रदानकर्त्री विशाल व रक्षित पृथ्वी बिना जीर्ण हुए (हमें) प्रतिष्ठा प्रदान करे।“
अति विशेष रूप से ‘पृथ्वीसूक्त’ का बीसवाँ मंत्र सूर्य
के साथ ही भीतर से भी अग्नि के कल्याणकारी होने की कामना को समर्पित है। अग्नि का
पृथ्वी पर समुचित प्रभाव हो;
सूर्य से
अग्नि का पृथ्वी पर प्रभाव –तेज, कल्याणकारी रहे, ताकि जीवन सुरक्षित, सुन्दर एवं स्वस्थ रहे, जीवन रोगमुक्त हो, इस मंत्र की यह मूल भावना
है। इस सूक्त का तीसवाँ मंत्र जल की स्वच्छता व शुद्धता, छत्तीसवाँ मंत्र ऋतुओं की अनुकूलता, तैंतालीसवाँ मंत्र उत्तम
फसलों की प्राप्ति,
चवालीसवाँ
मंत्र खनिज पदार्थों की लाभप्रदता, इक्यावनवाँ
मंत्र वायु की उपकारी गति,
इकसठवाँ
मंत्र विभिन्न दुखों-कठिनाइयों से मुक्ति एवं बासठवाँ मंत्र निरोगी काया की मानवीय
अभिलाषा को प्रकट करता है। अन्तिम, अर्थात्, त्रेसठवाँ मंत्र
सर्वकल्याण की प्रार्थना को समर्पित है:
"भूमे मातर्नि
धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्। संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम्// –हे
पृथ्वी माता! आपकी मंगलमय –समृद्ध एवं कल्याणकारी प्रतिष्ठा
में (ही) मैं सुबुद्धि के साथ रहूँ। हे गतिशील माता भूमि!
आपकी सम्पन्नता और विभूति में ही लक्ष्य –स्वर्ग-प्राप्ति
हो; वृहद् जगत कल्याण हो।“
अथर्ववेद
के ‘पृथ्वीसूक्त’ के मंत्र चार
में प्रकट 'बिभर्ति' (पोषणकर्त्री), छह
में 'निवेशनी'’
(सुखदात्री), एवं 'विश्वम्भरा' (भेदभावरहित
रहकर सबको सहारा प्रदानकर्त्री), सात में 'विश्वदानीम्' (सब
कुछ प्रदान करने वाली), नौ में 'भूरिधारा' (अनेकानेक
शक्तियों को धारण करने वाली), सोलह में 'समग्रा:' (समस्त
–सब
कुछ), सत्रह में 'विश्वस्वं' (सब
कुछ उत्पन्न करने वाली), इक्कीस में 'अग्निवासा:' (अग्नि
के साथ निवासकर्त्री), चौबीस में 'पुष्करं' (पोषक
पदार्थ प्रदानकर्त्री), तीस में 'शुद्धा' (शुद्ध
भाव वाली –कल्याणकर्त्री), अड़तीस
में 'सदोहविर्धाने (सभा
तथा अन्न स्थान वाली), इकतालीस में 'व्यैलबा:' (अनेक
बोलियों के लोगों –विभिन्नताओं
वाला स्थान), पैंतालीस में 'ध्रुवा' (दृढ़
स्वाभाव वाली), सैंतालीस में 'बहवः
पन्थानः' (अनेक मार्गों के अनुयायियों का निवासस्थान), पचपन
में 'देवि' (उत्तम
गुणों वाली) और 'प्रथमाना' (विस्तृत
–फैली
हुई), छप्पन में 'चारु' (सुन्दर
व यशस्विनी), सत्तावन में 'गोपाः' (रक्षा
करने वाली) व 'गृभिः' (ग्रहणीय
स्थान), उनसठ में 'सुरभि:' (ऐश्वरीया)
तथा इकसठ में 'अदितिः' (अखण्डव्रता)
व 'कामदुधा' (कामना
पूर्ण करने वाली) वे शब्द हैं, जो पृथ्वीमाता के वैभव, शोभा, क्षमता, समृद्धि
और सामर्थ्य जैसी अद्वितीय विशिष्टताओं का मानवता से परिचय कराते हैं। इन विशिष्टताओं के बल पर मानवमात्र का निरन्तर कल्याण होता रहे; सारी
मानवता पृथ्वी की समृद्धि व सामर्थ्य से फलती-फूलती रहे, ‘पृथ्वीसूक्त’ के
मंत्रों के इन शब्दों की यह मूल भावना है। पृथ्वी का वैभव, शोभा, क्षमता, समृद्धि
और सामर्थ्य अक्षुण्ण रहें, इस हेतु मानव अपने
परम कर्त्तव्य के रूप में प्रकृति-संरक्षण, पर्यावरण-सन्तुलन
व प्राकृतिक संसाधनों के न्यायोचित सदुपयोग के लिए जागृत रहे, इन
शब्दों का मानवमात्र का यह आह्वान भी है।
IV
निस्सन्देह, अथर्ववेद के इस सूक्त के
त्रेसठ मंत्रों में एक ओर पृथ्वी की दीर्घकालिक अनुकूलता और इस पर अच्छे जीवन की
निरन्तरता व सुरक्षा के लिए आवश्यक शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की अभिलाषा है। इस हेतु, मानवीय स्तुतियाँ और
प्रार्थनाएँ हैं।
वहीं दूसरी ओर,
इन मंत्रों
के माध्यम से विशेष रूप से प्रकृति, पर्यावरण
व प्राकृतिक संसाधनों की ओर
(अतिविशेष
रूप से वर्षों से पर्यावरण व प्रकृति से खिलवाड़ और प्राकृतिक संसाधनों के
अन्धाधुन्ध दुरुपयोग व
परिणामस्वरूप प्रकट वर्तमान भयावह स्थिति को केन्द्र में रखते हुए) न्यायोचित दृष्टिकोण रखने
का मानवाह्वान है।
प्रकृति, पर्यावरण और प्राकृतिक
संसाधनों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार तथा इनके सदुपयोग की अपेक्षा है।
इस सम्बन्ध में मानव-जाति के अनुत्तरदायित्व
का सहज ही अनुमान इस सत्यता से लगाया जा सकता है कि उसके द्वारा प्रतिवर्ष एक करोड़
हेक्टेयर से भी अधिक वन प्रतिवर्ष कटान और जलाए जाने से नष्ट हो जाते हैं। वनों की
कटाई और उन्हें जलाए जाने के कारण जैव-विविधता को भारी हानि हुई है। हजारों की
संख्या में जीव-जन्तु प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं। हजारों ही की संख्या में
लुप्त होने की स्थिति में हैं। एक आख्या के अनुसार, चालीस प्रतिशत उभयचर और तैंतीस
प्रतिशत जलीय स्तनधारी विलुप्त हो गए हैं अथवा विलुप्त होने को हैं। वातावरण में शुष्कता
बढ़ी है। वैश्विक तापन में भारी और अति हानिकारक वृद्धि हुई है। ग्लेशियर निरन्तर
और तीव्रतापूर्वक पिघल रहे हैं। विशेष रूप जो बर्फ अन्टार्कटिक की ओर से पिघल रही
है, उससे समुद्री जल-स्थिति
में
चिन्ताजनक वृद्धि हो रही है। विश्व के लगभग एक अरब जन इससे तत्काल प्रभावित होने
को हैं। प्रकृति बुरी तरह प्रभावित हुई है। नदियाँ, तालाब और अन्य भू-जलीय अनुरक्षक
विलुप्त हुए हैं, और निरन्तर हो रहे हैं।
खेती योग्य भूमि का बहुत बड़ा क्षेत्रफल बंजर हो गया है। लगभग पचहत्तर प्रतिशत भूमि
क्षेत्र का और छियासठ प्रतिशत समुद्री क्षेत्र का वातावरण परिवर्तित हो गया है। इस
स्थिति के कारण जो अनेकानेक समस्याएँ जीवन से जुड़ी हैं, वे सभी हमारे संज्ञान में हैं।
ऐसी स्थिति में पृथ्वी के
प्रति अपरिहार्य व्यक्तिगत और सामूहिक सजातीय उत्तरदायित्वों के निर्वहन के आह्वान
की सर्वोच्च महत्ता स्वयं ही स्पष्ट है। केवल
अपरिहार्य उत्तरदायित्व के निर्वहन द्वारा ही ‘पृथ्वीसूक्त’ के मंत्रों के माध्यम से
प्रकट मानवीय अभिलाषाओं,
कामनाओं, प्रार्थनाओं व स्तुतियों
के फलीभूत होने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। पृथ्वी पर जीवन सुरक्षित, समृद्ध और सुखमय हो सकता
है।
वैश्विक स्तर पर वर्तमान
में पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी जो अति गम्भीर चिन्ताएँ हैं; इन गम्भीर चिन्ताओं के
करण पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व पर जो प्रश्नचिह्न है, उनके सम्बन्ध में अथर्ववेद के 'पृथ्वीसूक्त' के मंत्र, हम बारम्बार दृढ़ता के साथ
कह सकते हैं,
निदानात्मक
दिशानिर्देश सदृश्य हैं। इतना ही नहीं, वृहद्
परिप्रेक्ष्य में इन मंत्रों का आह्वान सार्वभौमिक व्यवस्था के सुचारु सञ्चालन के
लिए है। पृथ्वी स्वयं सार्वभौमिक व्यवस्था के अन्तर्गत है और मानव पृथ्वी का वासी
है।
*पद्मश्री
और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र
कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व
कुलपति हैं; वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द
सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश)
के लोकपाल भी हैं।
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