शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

कविता की सृजनात्मकता - भाग-3 डॉ.मनु शर्मा

                                                               डॉ.मनु शर्मा
 

                            कविता की सृजनात्मकता

                                   भाग-3

    सृजन की दृष्टि से यथार्थ के वर्णन की अपेक्षा आख्यान का महत्व होता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है वर्णन जबरदस्त अनुभूतिगत तीव्रता से ही सृजन का विकल्प हो सकता है। किन्तु कवि की अनुभूतियां हमेशा तीव्र और सघन हों, यह जरूरी नहीं। यथार्थ का आख्यान करने के लिए उसमें रच-पच जाना होता है। उसे अपने अनुभव का हिस्सा बनाना पड़ता है। आख्यान लोक कथाओं के निकट की शैली है। जिसमें इतिहास और समसामयिक यथार्थ को वाचिक परम्परा द्वारा संरक्षित करने की इच्छा निहित रहती है। ब्राह्मण ग्रंथों में शुनःशेप प्रसंग को आख्यान कहा गया है। उल्लेखनीय है कि यह उस समय की एक ऐतिहासिक घटना थी। यथार्थ के आख्यान के लिए उसे इतिहास के रूप में ग्रहण करने वाली दृष्टि चाहिए। उसके बाद उसे संरक्षित रखने की इच्छा। और अंत में वह कल्पनाशीलता जिससे उसे लोक विश्वास का अंग बनाया जा सके। वाल्मीकि, कालिदास, जायसी, तुलसी, निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन आख्यान शैली के कवि हैं।

वर्णन के लिए न इतिहास दृष्टि की जरूरत है और न कल्पनाशीलता की। यथार्थ से निस्संग रहकर भी वर्णन किया जा सकता है। उसके लिए सिर्फ पर्यवेक्षण पर्याप्त है।

सृजन के अन्तर्गत मनुष्य के मन का रचाव भी शामिल है। उसकी सोच और समझ का परिष्कार, उसके दृष्टि क्षेत्र का विस्तार यानी उसकी आत्म चेतना को विश्वचेतना का गौरव प्रदान करना सृजन ही है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि किस विधि से उसे यह गौरव देता है। यदि कहीं वर्णन भी उसके इस उद्देश्य को पूरा करता है, तो वह सृजन कहलायेगा।

 

सृजन की यदि कोई कसौटी हो सकती है तो यह कि सृजन किसके लिए? यानी वह कुछ ऊपरी लोगों के लिए है अथवा वृहत्तर जन समुदाय के लिए। जो वृहत्तर जन समुदाय के लिए होगा उसमें सिरजनहार ने अपनी सृजनात्मक शक्ति को निश्चय ही विस्तृत परिप्रेक्ष्य प्रदान किया होगा। उसके द्वारा मनुष्यता के अहम मसलों को उभारा होगा।

कोरे शास्त्रवाद को सृजन की कसौटी नहीं माना जा सकता। मेरा मत है कि सृजन की पहचान करते समय शास्त्रवाद से चौकन्ना रहना चाहिए। शास्त्र जो प्रतिमान तय कर देता है, वे न चाहते हुए भी हमारे विवेचन/विश्लेषण पर छाया की तरह मंडराते चलते हैं। और जाने-अनजाने हम अपने निष्कर्षों में शास्त्रवाद का पल्लू पकड़ लेते हैं।

आमतौर पर शास्त्रवाद 'जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि' और वर्ग विशेष की चेतना से प्रभावित रहता है। शास्त्र में जहां जीवन और जगत् के व्यवहार का निर्वाह मिलता है, वहां उसकी मान्यताओं से कोई शिकायत नहीं। पर ज्योंही वर्गीय दृष्टि उस पर हावी होती है, वह किसी वर्ग विशेष के हितों का पोषण करने लगता है, उसकी सीमायें स्पष्ट हो जाती हैं। सृजन की पहचान शास्त्र के बजाय सहज बोध से आसानी से की जा सकती है। लोक साहित्य का कोई शास्त्र नहीं है। लेकिन सृजन के कई मानक वहां मिल जायेंगे। लोक साहित्य का निर्माण लम्बी कालावधि में कभी व्यक्तियों और कभी समूहों के सम्मिलित प्रयासों से होता रहा है। इसलिए किसी काल विशेष या देश विशेष में रचे शास्त्र की मान्यताओं में उसे बांधा नहीं जा सकता। शास्त्रवाद सृजन का गला दबाता है। अमुक कथन शास्त्र के अनुकूल नहीं है, अमुक बिम्ब का शास्त्रीय आधार नहीं है, इसलिए वह बेमानी है। ये सब सृजन के पक्ष को कमजोर करने वाली बातें हैं। देखने की बात यह है कि जो रचा गया है उसकी दिशा क्या है। उसमें ऐसा कुछ तो नहीं है जो अविश्वसनीय और जीवन के सामान्य अनुशासन के विरुद्ध हो। यह शास्त्रवाद ही है जिसने संस्कृत काव्य की लोकवादी परम्परा की पहचान नहीं बनने दी। दसवीं शताब्दी के कवि योगेश्वर का काव्य इसका ठोस प्रमाण है।

योगेश्वर अपने समय के अग्रणी लोकवादी कवि थे। उनके मुक्तक किसी भी प्रबन्ध काव्य या नाटक से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। सच तो यह है कि वृहत्तर जन समुदाय की जीवन स्थितियों को उन्होंने जिस मार्मिकता से अभिव्यक्त किया है, उसके लिए किसी प्रबन्धात्मकता की जरूरत नहीं है:

मा रोदीश्चिर मेहिवत्स विफलंदृष्टवाद्य पुत्रानिमान्,

आयातो भवतोऽपि दास्यति पिता ग्रैवेयकं वाससी ।

श्रुत्वैवं गृहिणी वचांसि निकटे कुड्यस्य निष्किंचनो,

निःश्वस्याश्रु प्लुतानत मुखः पांथः पुनः प्रोषितः ।।

यह अभावों से घिरी जिन्दगी का मर्मान्तक दृश्य है। दूर देश में कमाने गये व्यक्ति का खाली हाथ घर लौट आना। वहां पिता के आने पर नये कपड़े और कठुला देने का आश्वासन देकर पुत्र को मनाती पत्नी की बातें सुनना। और पुत्र व पत्नी से बिना मिले उस का उल्टे पांव फिर कमाने चल देना मन में गहरी टीस जगा जाता है। यहां बच्चे का बाल सुलभ हठ, मां की असहायता और पिता का अपराध बोध तीनों मिलकर पल पल छीजती जिन्दगी का जो दारुण दृश्य उभारते हैं, उससे इस वर्णन ने सृजन की गरिमा प्राप्त कर ली है। इसके बावजूद भी यह सुभाषित है! ऐसे मर्मान्तक प्रसंगों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति को सुभाषित कहने वाला शास्त्र अत्यन्त संकीर्ण और 'जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि' का शिकार नहीं तो और क्या है?

 

कविता में उसी यथार्थ का महत्व है जो कवि की निजता से लिथड़ कर आता है। वस्तुगत यथार्थ का व्यक्तिगत यथार्थ में संक्रमण ही सृजन का बिन्दु है। मुक्तिबोध के अनुसार यथार्थवाद नितांत वस्तुगत चीज नहीं है। वह सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट की द्वन्द्वात्मक परिणति है। कविता में प्रकट होने वाले यथार्थ को इसी द्वन्द्वात्मक नजरिये से देखना पड़ता है। खासकर यह कि व्यक्ति और वस्तु में सामंजस्य हुआ है या नहीं। ऐसा न होने पर कविता का यथार्थवादी रूप नहीं बन पाता है। कवि चाहे कितना ही वस्तुनिष्ठ क्यों न हो ले।

 

इन दिनों लिखी जा रही कविताओं में किसी तरह का उत्ताप दिखाई नहीं पड़ता। वे न यथार्थ के हिंस्र और अश्लील चेहरे को पूरी तरह उभार रही हैं। और न समाज में बढ़ती पशुता व मूल्य हीनता को कोई चुनौती देने में सक्षम हैं। उनकी मनुष्य को संवेदनशील बनाये रखने की शक्ति का क्षरण होने लगा है। वे अब आंदोलित करने के बजाय आतंकित करने लगी हैं। आतंकित इस अर्थ में कि उनमें मानवीयता से जुड़े गहन प्रश्नों को बड़े ही भोंडे ढंग से पेश किया जा रहा है। जिन मानवीय संदर्भो पर लिखते हुए बड़े बड़े कवियों की भाषा बौनी हो जाया करती थी, उन पर समकालीन कवि चुहल बाजी के अन्दाज में कवितायें लिख रहे हैं-

 

मैं एक कटोरा हूं अर्चना/और तुम/उसमें रखी सेवैयों की खीर/तुम कमान की तनी हुई डोरी हो अर्चना/और मैं/दूर निशाने को बेधने वाला तीर/मैं आंख की दूर तक फैला हुआ मैदान हूं और तुम उसमें उगी हुई हरी भरी घास / तुम तनी हुई पतंग हो अर्चना/और मैं/गर्मियों का नीला निरभ्र आकाश।' (नीलाभः अर्चना के नाम पत्र, पहल-37)

 

जो कुछ मौजूद है वह सब सुन्दर, सुखद और तोषप्रद है तो फिर रचना की आवश्यकता ही क्या है? जो है, वह कैसा होना चाहिए यह दिखाना ही रचना है। और इसी के लिए एक सच्चा रचनाकार आजीवन स्वयं से एवं अपने परिवेश से जूझता है। वह उन परमाणुओं की खोज में लगा रहता है जो अपने अनुशासन में बंध कर मानव जीवन को गतिशील बनाये रखते हैं। उसकी ऊर्जा को कभी खत्म नहीं होने देते। कोई कविता यदि इस ऊर्जा का संरक्षण नहीं करती. सामाजिक पतन का विकल्प नहीं देती, उसमें मनुष्यता के विकृत होते चेहरे को तेजोमय बनाने वाली ऊष्मा नहीं है, तो ऐसी कविता कौड़ी की तीन।

 

कविता में सृजन के कई आयाम होते हैं। यथार्थ की पुनर्रचना, सम्मूर्तन, भाषा का रचाव, कविता का स्थापत्य, कवि का विजन और मूल्य सृजन। लेकिन इन्हें अलग अलग करके सृजन की पहचान असंभव है। इन सबका संश्लिष्ट रूप या यों कहें कि ये सब आपसी सहयोग से कविता को जिस उठान पर ले जाते हैं, वहीं सृजन है।

 

कवि के यथार्थ बोध को उसके द्वारा की गई यधार्थ की पुनर्रचना से ही जांचा जा सकता है। यथार्थ का चित्रण् तो कमोबेश सभी कवि करते हैं। अन्तर केवल उनके यथार्थ बोध में होता है। प्रसाद और निराला दोनों समकालीन हैं। लेकिन दोनों के यथार्थ बोध

की दिशायें एकदम अलग अलग हैं। प्रसाद मनुष्य को वैयक्तिक इकाई के रूपमें ग्रहण नहीं करते। उसे उसके देश-काल से बाहर निकालकर विश्व मानवता के विराट् परिप्रेक्ष्य में खड़ा कर देते हैं। जहां उसकी निजता का कोई मूल्य नहीं रह जाता। जबकि निराला अपने आस-पास के मनुष्य के दुख दर्द से द्रवित होते हुए उसकी मुक्ति के लिए बेचैन दिखाई पड़ते हैं। इसी तरह तुलसी के यथार्थ बोध की खिड़की लोक मंगल की ओर खुलती है। जबकि रहीम नीतिवाद की ओर ले जाते हैं।

 

अच्छे कवि अपनी कविता को अनुचिन्तनात्मक टिप्पणी होने से बचाते हैं। कविता के नाम पर आजकल ऐसी टिप्पणियों की बाढ़ आई हुई हैं। कविता में विचारों का प्रवाह अन्तः सलिला सा हो। जो विचार कविता के किनारे तोड़ते चलते हैं, वे अपना महत्त्व खो देते हैं:

 

अंग्रेजी अखबारों को पलटते मैं पाता हूँ नहीं रहा क्रांति पर/वाम का एकाधिकार / क्रांतियां तो आज कल पूंजी कर रही है/ (इत्यादि)।' (ओम भारतीः पूंजीवादी झूठ के विराट अत्याचार के बीच, पहल-42)

 

इस अंश में न कविता है और न काव्य की भाषा। भाषा सृजन का महत्वपूर्ण घटक है। वह काव्य सृजन का माध्यम है। और उसका उचित इस्तेमाल कवि को आना चाहिए। 'भाषा के बिना कविता रचने का निर्णय करने वाला व्यक्ति उस पागल के समान है जो तैरना न जानते हुए तूफानी नदी में कूद पड़ता है।' (रसूल गम्जातोवः मेरा दागिस्तान-1, पृ. 66) कवि को यह पता होना चाहिए कि वह जिन शब्दों का उपयोग कर रहा है वे मूक, बेजान और स्पन्दन हीन नहीं हैं। उनमें छुपा हुआ सामाजिक अनुभव उनकी धड़कन है। और ज्योंही इस धड़कन की उपेक्षा की जायेगी, शब्द निस्तेज हो जायेंगे। उनकी अर्थाभिव्यक्ति की सांस फूलने लगेगी। और बहुत संभव है वे मर जाएं। इसलिए भाषा के मामले में कवि को बेहद सावधान रहना पड़ता है।                                                      

                                                                  निरंतर

युवा सोच और संकल्प के साथ कदम बढ़ाते हुए चलें - विवेक कुमार मिश्र


              युवा सोच और संकल्प के साथ कदम बढ़ाते हुए चलें

 विवेक कुमार मिश्र

 युवा मन ऊर्जा से भरा चेतना का आकाश होता है - जहां नित्य नए संदर्भ नए संकल्प और नए अर्थ संसार में अपनी स्वायत्तता को रेखांकित करने के लिए आते हैं । युवा मन की पहली शर्त होती है निर्भीकता , निडर होकर जब अपने पथ पर चलते हैं स्वतंत्र सोच के साथ - संसार से ...पदार्थ से... संवाद करते हैं तो आप युवा मन मस्तिष्क के साथ संसार में प्रवेश करते हैं । युवा होने के लिए उम्र या आंकड़ा और अंक गणित की जरूरत नहीं होती । न ही उम्र या संख्या भर युवा होने की पहचान है । कोई भी केवल उम्र से युवा नहीं होता । उम्र से आगे वह सोच और विचार से युवा होता है । जब हम युवा मन की बात करते हैं तो तय है कि वह कुछ नया करने व नया सोचते हुए आगे बढ़ने वाला मन होता है । यह मन ही युवा होता है जो हमारे साहस व संकल्प के साथ समाज में नये ढ़ंग से सामने आता है । युवा होने का अर्थ है चेतना के साथ , स्वतंत्र सोच के साथ नए-नए विचार के साथ संकल्पित होते हुए उस विचार को कार्य रूप में प्रमाणित करने से भी है । संसार दशा में परिवर्तन लाना सांसारिक गति के साथ अपनी गति को जोड़ते हुए हर नई बात , नए विचार और नई सोच को गति प्रदान करने के साथ-साथ नए संदर्भ पर मंथन करने का मन मस्तिष्क ही सही मायने में युवा मस्तिष्क है । युवा मन युवा सोच पर निर्भर करती है । परिवर्तन और वैज्ञानिकता के साथ अपनी सोच को वैश्विक धरातल पर देखने की इच्छा और चिंता ही युवा ऊर्जा व युवा संकल्प का प्रमाण होती है । युवाओं के भीतर अथाह ऊर्जा होती है । वह रुके हुए नहीं होते । न ही एक ही तरह से सोचते हैं । विचारों का वैविध्य नई-नई दिशाओं में सोचना , कुछ नया करना , नए-नए आविष्कार की ओर चलना और संसार को कुछ अलग कर देने की इच्छा रखता ही युवा मन मस्तिष्क के सही ऊर्जा का प्रमाण है । युवा पीढ़ी में जब तक चैलेंज स्वीकार करने की क्षमता न हो जब तक तेज गति न हो और जब तक नए के प्रति आकर्षण न हो तब तक हम उसे युवा मन नहीं कर सकते । युवा मन कार्य शीलता गतिशीलता और चेतना के प्रवाह के साथ अपने विचारों के आवेग को लिए हुए आगे बढ़ता है । हर पीढ़ी एक नए विचार , एक नए तंत्र लेकर आती है । इसे कोई और नहीं सबसे पहले युवा मस्तिष्क स्वीकार करता है । युवा मन मस्तिष्क का व्यक्ति अपनी स्थितियों अपनी सीमाओं का गुलाम नहीं होता । न ही उसे जो मिला है उसी में वह संतुष्ट रहता है । उसे अपने आप को बदलना आता है । वह इस बदले हुए समय संसार के साथ संवाद करना जानता है । और वह एक स्तर पर स्वीकारी होता है ।

युवा मन को समझाने के लिए आपके पास तर्क , वैज्ञानिकता और चेतना के साथ-साथ सत्य के प्रति निष्ठा का आग्रह होना आवश्यक होता है । कोई भी युवा क्यों न हो यदि वह युवा मन चेतना का प्राणी है तो किसी भी तथ्य को तभी स्वीकार करेगा जब उस पर तर्क कर चुका हो और उसे तर्क की कसौटी पर कस चुका हो । तो उसे सत्य को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं होती । वह इस संदर्भ और सत्य तथ्य को स्वीकार करता है जिसे उसका मन मान चुका होता है । युवा मन चैलेंज के सात अविष्कारी होता है । वह किसी न किसी आविष्कार में लगा होता है । उसकी आंखें इस संसार के साथ सामंजस्य बिठाने में नित्य नया कुछ खोजने के लिए तैयार होती हैं । उसका सोचना इस तरह शुरू होता है कि यह जो संसार है इसमें मैं कहां हूं ?  मैं क्या कर रहा हूं ? और मैं क्या कर सकता हूं ? जब इस तरह सोचते हुए वह आगे बढ़ता है और समाज के लिए कुछ नया लेकर आता है तो वह तकनीकी तौर पर युवा वैज्ञानिक ही होता है । और ऐसे मन मस्तिष्क को हम कुछ और नहीं तो युवा वैज्ञानिक का सम्मान दे सकते हैं । यह टूल के क्षेत्र से लेकर सामाजिक संबंधों की बदलती गति और विचारों के संसार में आ रहे तेज परिवर्तन की दिशाओं में एक साथ देखा जा सकता है ।

यह सारा बदलाव कोई और नहीं हमारा युवा मन मस्तिष्क कर रहा है । आज कोई माने या न माने पर देर सबेर सबको मानना ही होगा । इसीलिए युवा पीढ़ी से यह बड़ा आग्रह है कि वह अपने सपनों पर न केवल चलें बल्कि अपने सपनों की प्राप्ति तक उसका पीछा करते हुए चलें । तभी सफलता और सार्थकता के साथ नई खोज नई वैज्ञानिकता व नई सोच को आकार और रंग मिलेगा । तथा इसी रूप में हम समाज को नई बातें नए संदर्भ तथा नए मैसेज दे पाएंगे ।

युवा सोच के साथी हम आगे बढ़ सकते हैं । कुछ नया सोच और सोच भर नहीं सोचे गए कार्य को पूरा करने का संकल्प लें । उस दिशा में कार्य करें कोई कार्य संभव नहीं है जिसे आप कर नहीं सकते । बस शुरुआत करने की देरी है । जब आप कार्य की शुरुआत करते हैं तो वह क्षण आपके पास होता है जो उस कार्य के प्रति अपनी पूरी शक्ति लगा देता है । इस तरह कार्य करना शुरू करते हैं और कार्य पूरा होते ही एक आत्मिक संतोष और खुशी होती है । यह खुशी ही हमारे मन मस्तिष्क को स्वस्थ रखती है । कभी भी पीछे रहने या पीछे रह जाने के बारे में न सोचें । बस आज और अभी से शुरुआत कर आगे बढ़ने के बारे में सोचें । रुकें नहीं अपनी गति बनाकर चलते रहें । अपने समान लोगों के साथ उठ बैठे चलें ।

सबसे पहले यह जानना जरूरी होता है कि हमारे आसपास ऐसा कौन है जो नकारात्मक सोच रखता है । हमारे आसपास ऐसा कौन है जो हर कार्य में कमी निकालना शुरू करता है या शुरू में ही या कह देता है मुझसे यह कार्य नहीं हो सकता । इस कार्य में इतनी जटिलता है । ऐसे लोगों से दूर से ही किनारा करते हुए अपने साहस और संकल्प के साथ चलना शुरू करने की जरूरत है । जब भी कुछ करने के लिए चलते हैं तो  स्वाभाविक रूप से विघ्न बाधाएं आयेंगी पर आपको रुकना नहीं है । आपको लगातार अपने पथ पर चलना है । तय मानिए एक दिन आपको सफलता मिलेगी ।

अपनी युवा सोच और संकल्प के साथ कदम बढ़ाते हुए चलें । एक जगह रुकें नहीं । कोई भी अंतिम रास्ता नहीं है । हर रास्ते से एक नया रास्ता फूटता है । यह सोच ही हमें आगे बढ़ाती है । हार जाने , रुक जाने या यूं ही बैठे रहने के लिए हम नहीं बने हैं । हमें कुछ करना है और कुछ नया व अपूर्व करना है । इस पथ पर जो भी मुश्किलें हैं , जो भी कठिनाइयां हैं उनका मुकाबला करते हुए ही आगे बढ़ना है । जब यह सोचकर चलते हैं तो तय मानिए कि सफलता और लक्ष्य आपकी मुठ्ठी में होते हैं । यह सब युवा सोच व युवा जज्बा का ही दाय है - इसे संभालकर रखना चाहिए ।

 

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स्वामी विवेकानंद -अध्यात्म एवं मानव दर्शन के प्रणेता - डॉ.प्रकाश चंद जैन


             स्वामी विवेकानंद (12 जनवरी,1863 - 4 जुलाई,1902)

अध्यात्म एवं मानव दर्शन के प्रणेता

डॉ.प्रकाश चंद जैन

    भारत के पुनर्निर्माण के उद्देश्य को लेकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता को जगाकर देश की प्रगति में अभूतपूर्व योगदान देने और दुनिया के सामने भारतीय सभ्यता के वेदान्तिक एवं धार्मिक एकता के संदेशों का प्रचार करने वाले करोड़ों भारतीयों के प्रेरणास्त्रोत बने युवा सन्यासी स्वामी विवेकानद की जयंती के उपलक्ष में 12 जनवरी को हम बड़े गर्व के साथ राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं |  

   राजा राममोहन राय, केशव सेन, स्वामी दयानन्द सरस्वती, न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे, एनी बेसेंट, और अन्य चिंतकों और समाजसुधारकों ने समाज में नव जागृति पैदा की उसको स्वामी विवेकानंद चरम सीमा तक ले गए | रामकृष्ण परमहंस के पट्ट शिष्य विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था जिनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था | नरेन्द्रनाथ का व्यक्तित्व आकर्षक और कसरती बदन काफी पुष्ट था | वे कुश्ती, बॉक्सिंग, घुड़दौड़, और तैराकी में दक्ष थे | चार-पांच वर्षों तक संगीताचार्यों के सानिध्य में गायन और संगीत की शिक्षा ग्रहण कर वे संगीत और तबला बजाने में प्रवीण हो गए थे | वह स्वयं गीत लिखते भी थे और उन्होंने भारतीय संगीत के दर्शन और विज्ञान पर संदर्भ ग्रन्थ भी प्रकाशित किया था | वे बड़े सुरीले गायन के साथ कलापूर्ण नृत्य भी करते थे | कॉलेज में उन्होंने विज्ञान, ज्योतिष, गणित, और दर्शन का अध्ययन किया | संस्कृत और अंग्रेजी भाषा पर उनका समान अधिकार था | इतिहास कार गिबन के इतिहास ग्रंथों, अंग्रेज़ दार्शनिक, जीव- विज्ञानी, समाजशास्री हरबर्ट स्पेंसर के मानवीय संस्कृ्ति व समाजों की क्रमिक विकास की अवधारणा, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, एवं दार्शनिक चिन्तक जॉन स्टूवर्ट मिल के उपयोगितावाद, देकार्त, ह्यूम, कांट, शोपेनहावर, डार्विन, स्पिनोजा आदि दार्शनिकों और शेली के सर्वात्मवाद और दर्शन प्रेमी वड्सवर्थ का काव्य के अध्ययन से उनके अंदर एक आलोचक और विशलेषक मन विकसित हुआ | वे फ्रांसीसी क्रान्ति के स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व तीनों सिद्धांतों से प्रभावित हुए |

        उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय युवाओं की हिन्दू समाज में प्रचलित कुरीतियों के कारण हिन्दू धर्म पर श्रद्धा कम होती जा रही थी | स्वयं नरेंद्रनाथ दत्त विद्यार्थी-जीवन में शंकावादी ही नहीं अपितु घोर नास्तिक भी थे | सृष्टि क्या है, इसका नीयंता कौन है, यह आकस्मिक घटना है या इसके पीछे कोई नियम काम कर रहा है, जन्म से पहले हम कहां थे और मृत्यु के बाद हम कहां जाएँगे ?  विवेकानंद के मन में द्वंद्व चलता रहा कि पश्चिमी विचारकों के निर ईश्वर भौतिकवाद को मानना चाहिए या ईश्वर के दृढ़ भारतीय विश्वास को | ऐसी जिज्ञासाएं उन्हें आरम्भ में ब्रह्म-समाज की ओर ले गई जो हिन्दू धर्म में सुधार लाने और उसे प्रगतिशील बनाने की दिशा में काम कर रहा था | इसी दौरान उनकी भेंट रामकृष्ण परमहंस से हुई जो उनके जीवन में मोड़ साबित हुई | रामकृष्ण भगवद्भक्ति में मतवाले रहस्यवादी थे, जो सब प्रकार की पूजाओं में ईश्वर की पूजा, सब प्रकार की धार्मिक साधना में उसी ईश्वर को खोज पाते थे, जिसकी तरफ सब कदम बढ़ा रहे हैं, यद्यपि उनके मार्ग अलग-अलग हैं | उनकी भक्ति ने उन्हें सिखाया कि वह सब कुछ त्याग दिया जाए जो आत्म-ज्ञान के मार्ग में बाधा पहुंचाता हो और मानवता के प्रति प्रेम और करूणा अपनाई जाए | विवेकानंद में वेदांत धर्म पर आधारित रामकृष्ण की शिक्षाओं और कार्य ने ऐसी आस्था जगाई थी जो उनकी बुद्धि की सारी शंकाओं का समाधान करती थी और उनकी आत्मा को तृप्त करती थी | उन्होंने इस्लाम, बौद्ध और ईसाई धर्मों का अध्ययन किया और जाना कि हिन्दू धर्म जिन सब मूल्यों की शिक्षा देता है, अन्यान्य धर्म भी वही शिक्षा देते हैं | विवेकानंद ने रामकृष्ण के सन्देश के प्रचार का व्रत्त लिया और ग्रहस्थाश्रम त्याग कर सन्यासी बनकर हिमालय में छः वर्ष साधना की | साधना पूर्ण कर भारत भ्रमण पर निकले | भारत के भ्रमण से उन्हें जनसाधारण के भयंकर कष्टों और लोगों की उस नैतिक और भौतिक दुर्दशा और गंदगी से परिचय हुआ जिसके गहन अंधकार में भारत डूबा हुआ था | वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि जनसाधारण की सुप्त दिव्यता को जगाकर ही देश की प्रगति हो सकती है | उन्होंने आत्मनिष्ठ धर्म के बौद्धिक कल्पना-विलास को त्यागकर अपना पहला कर्त्तव्य स्थिर किया--"दरिद्र-जन की सेवा और उनका उद्धार |" 

    1893 में विवेकानंद अमेरिका गए | उनके विदेश जाने का प्रबंध मैसूर और खेतड़ी के महाराजा ने की | वे पहले हिन्दू सन्यासी थे जिन्होंने समुद्र पारकर पश्चिमी देशों की यात्रा की | शिकागो में उन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन में भारत की सार्वदेशिकता और विशाल ह्रदयता पर अपने भाषण में कहा:

"मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की शिक्षा दी है | हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सत्य मानकर स्वीकार करते हैं | मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने पर गर्व है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है | आप लोगों को यह बताते हुए मैं गौरव महसूस करता हूँ कि जिस वर्ष रोमन जाति के भयंकर उत्पीड़न और अत्याचार ने यहूदियों के पवित्र देवालय को चूर-चूर कर दिया था, उसी वर्ष यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश दक्षिण भारत में आश्रय के लिए आया था तो हमने उन लोगों को सादर ग्रहण किया और आज भी उन लोगों को अपने हृदय में धारण किये हुए हैं | ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व महसूस करता हूँ जिसने जरथ्रुस्त के अनुयायियों और बृहत् पारसी जाति के अंश को शरण दी थी और जिसका पालन वह आज तक कर रहा है | जैसे विभिन्न नदियां विभिन्न स्त्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार सीधे-सहज और टेढ़े-मेढ़े विभिन्न राहों से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं |"

  विवेकानंद की कीर्ति तत्क्षण देश-देशांतर में फ़ैल गई और भारतवासियों सिर गर्व से ऊँचा हो गया | अमेरिकी समाचार-पत्रों ने उन्हें सर्वधर्म सम्मेलन के अनन्य महान व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया | विवेकानंद के भाषण पर ‘न्यूयार्क क्रिटिक’ ने टिप्पणी दी कि : "एक हिन्दू सन्यासी ने धर्ममहाभा की मूल नीति और उसकी सीमाबद्धता की जितने सुंदर तरीके से व्याख्या की है, अन्य कोई भी वैसा नहीं कर पाया | वे दैवशक्ति-सम्पन्न वक्ता हैं और अपनी निश्छल उक्तियाँ जिस ओजस्वी, मधुरवाणी, ज्ञानमयी भाषा के माध्यम से व्यक्त करते हैं, वह उनके गेरूआ वस्त्र और बुद्धिदीप्त दृढ़ मुखमंडल की तुलना में कम आकर्षक नहीं है | उनकी शिक्षा, वाग्मिता (पांडित्य, उत्तम वक्तृत्व शक्ति ) और मनमोहक व्यक्तित्व ने हमारे सामने हिन्दू सभ्यता की एक नई धारा उन्मुक्त की है | उनका प्रतिभादीप्त मुखमंडल, गंभीर और सुललित कंठ-स्वर स्वतः ही मनुष्य को उनकी तरफ आकृष्ट करता है और विधि-प्रदत्त संपद की सहायता से तथा इस देश बहुत से क्लब और गिरजों में प्रचार के फलस्वरूप आज हम लोग उनके मतवाद से परिचित हुए हैं | वे किसी प्रकार के नोट बनाकर व्याख्यान नहीं देते | लेकिन अपने वक्तव्य का विषय वे धारावाहिक ढंग से व्यक्त करते हैं और अपूर्व कौशल तथा एकांतिकता के साथ वे मीमांसा करते हैं | अंतर की गंभी प्रेरणा उनकी वाग्मिता को अपूर्व ढंग से सार्थक कर देती है |"

  अमेरिका के श्रेष्ठ अख़बार 'हेराल्ड’ ने लिखा कि "धर्मसभा में विवेकानंद ही निर्विरोध रूप से सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं | उनका भाषण सुनकर हम समझ सकते हैं कि इस शिक्षित जाति में धर्म प्रचारक भेजना कितनी निर्बुद्धिता का काम है |"

    न्यूयार्क में व्याख्यान-मालाओं और व्यक्तिगत प्रशिक्षण के माध्यम से उन्होंने वेदांत शिक्षा का प्रसार किया | (वेदान्त ज्ञानयोग का एक स्रोत है जो व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है जो वेद ग्रंथो और वैदिक साहित्य का सार समझे जाते हैं। उपनिषद् वैदिक साहित्य का अंतिम भाग है, इसीलिए इसको वेदान्त कहते हैं। कर्मकाण्ड और उपासना का मुख्यतः वर्णन मंत्र और ब्राह्मणों में है, ज्ञान का विवेचन उपनिषदों में। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है - 'वेदों का अन्त' (अथवा सार ) न्यूयार्क में श्री फ्रांसिस लेगेट की अध्यक्षता में उन्होंने वेदांत-समाज की स्थापना की, जो आगे चलकर अमेरिका में वेदांत आंदोलन का केंद्र बना | इसके आलावा सैनफ्रांसिस्को, आलमीडा और ऑकलैंड में भी वेदांत केंद्र खोले | सेंटाकलारा जिले के एक सौ साथ एकड़ वन-भूमि में छात्रों को आश्रम जीवन का अभ्यास कराने के लिए एक आश्रम की स्थापना की |  

  अमेरिका में विवेकानंद का अनेक समर्थ बुद्धिजीवियों से परिचय हुआ जैसे- हार्वर्ड विश्वविद्यालय में ग्रीक भाषा के प्रोफेसर डॉ. प्रोफेसर राइट, दार्शनिक विलियम जेम्स, और महान विद्युत-शास्त्री निकोलस टेसला जिन्होंने विवेकानंद के प्रति सहज सहानुभूति प्रकट की थी | अमेरिका के सबसे बड़े शहर डेट्रायट में विवेकानंद की भेंट मिस मारग्रेट नोब्ल से हुई जो सिस्टर निवेदिता के नाम से उनकी घनिष्ठ सहचरी बनकर भारत आ गई | सिस्टर निवेदिता ने ब्रह्मचर्य व्रत लिया और भारतीय तपस्वी समाज में प्रवेश करने वाली पहली पाश्चात्य महिला का गौरव हासिल किया | स्वामीजी ने उन्हें महिला- शिक्षा का  कार्य सौंपा | स्वामी विवेकानन्द के 1895 में न्यूयार्क प्रवास के दौरान इंग्लैंड के आशुलिपिक जोशिया जॉन गुडविन सम्पर्क में आए | जे. जे. गुडविन सब कुछ छोड़कर स्वामी जी की शरण में आ गए | ब्रह्मचर्य व्रत लेकर अपना जीवन गुरू को समर्पित कर दिया और आजीवन अवैतनिक सचिव का कार्यभार संभाला | वे स्वामी जी के साथ कोलकाता आ गये और मृत्यु पर्यन्त यहीं रहे | स्वामी जी के अमेरिका, यूरोप और भारत में दिए गए भाषणों सारे शॉर्ट-हैंड नोट गुडविन ने लिए थे | इस विदेशी भक्त के हम कृतज्ञ रहेंगे जिनकी निष्ठा की वजह से स्वामी जी के सन्देश हमें सही-सलामत मिल सके | कप्तान पद से अवकाश प्राप्त श्री सेवियर और उनकी पत्नी  विवेकानंद के अद्वैतवाद के विचार, व्याख्यान और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके सहचर हो गए और भारत आ गए | दोनों ने विवेकानंद की कल्पना के अद्वैत आश्रम की स्थापना हिमालय के पर्वतीय स्थान पर की और आश्रम में बालकों को शिक्षा देने में अपना जीवन बिताया |

  सितंबर से नवंबर 1895, अप्रैल से जुलाई 1896 और अक्टूबर से दिसंबर 1896 तक विवेकानंद ने यूरोप में प्रवास किया | यूरोप में उनका मैक्समूलर और पाल ड्यूसन जैसे भारत विद्या-विशारदों और अद्वैतवादी प्रोफेसर डॉयसन से साक्षात्कार हुआ | जर्मन निष्ठावान वेदांती आचार्य पाल ड्यूसन के साथ उनके मधुर संबंध बने | अमेरिका और यूरोप की चार वर्ष की यात्रा पूरी कर जब विवेकानंद भारत लौटे तब हजारों की संख्या में विदेशी उनके अनुयायी बन चुके थे | स्वामी जी पश्चिमी देशों में भारत के आलोचकों के आक्षेप का सामना करते हुए पाश्चात्य की श्रेष्ठता को चुनौती देकर स्वधर्म की आध्यात्मिक श्रेष्ठता और इसके अतुलनीय महत्त्व को प्रतिपादित किया और वहां से प्रशंसा और सम्मान अर्जित कर भारत लौटे थे | उनकी शिक्षाओं ने रूसी उपन्यासकार लियो टॉलस्टॉय,, फ्रांसीसी विचारक और लेखक रोमाँ रोलाँ, फ्रेंच अभिनेत्री सारा बर्नहार्ड, महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, अरविन्द गोष, और सुभाष आदि को प्रभावित किया |रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है : "यदि कोई भारत को समझना चाहता है तो उसे विवेकानंद को पढ़ना चाहिए |" अरविन्द का वचन है कि "पश्चिमी जगत में विवेकानंद को जो सफलता मिली, वही इस बात का प्रमाण है कि भारत केवल मृत्यु से बचने को नहीं जगा है, वरन् वह विश्व-विजय करके दम लेगा |" सुभाष चंद्र बोस ने लिखा है कि "स्वामी विवेकानंद का धर्म राष्ट्रीयता को उत्तेजना देने वाला धर्म था | नई पीढ़ी के लोगों में उन्होंने भारत के प्रति भक्ति जगाई, उसके अतीत के प्रति गौरव एवं उसके भविष्य के प्रति आस्था उत्पन्न की | उनके उद्गारों से लोगों में आत्म-निर्भरता और स्वाभिमान के भाव जगे हैं | स्वामीजी ने सुस्पष्ट रूप से राजनीति का एक भी सन्देश नहीं दिया, किन्तु जो भी उनके अथवा उनकी रचनाओं के सम्पर्क में आया, उसमें देशभक्ति और राजनैतिक मानसिकता आप-से आप उत्पन्न हो गई |"

   भारत लौटकर स्वामीजी ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की | मिशन के दो केंद्र-- पहला, कलकत्ता के पास बेलूर में और दूसरा, अल्मोड़ा के पास मायावती में स्थापित किए, जहां नौजवानों को सन्यासी के रूप में धार्मिक एवं समाज कल्याण संबंधी कार्यों की दीक्षा दी जाती थी | देश के विभिन्न भागों में इस मिशन की शाखाएं स्थापित की | स्वामीजी का सबसे ज्यादा जोर सामाजिक कार्यों पर था इसके लिए कई विद्यालय, पुस्तकालय अस्पताल, सेवा-केंद्र, अनाथालय, खोले | दमे के रोगी होने के बावजूद वे मिशन के संगठन में जुटे रहे | वहाँ सामूहिक रूप से कार्य जारी था | संस्कृत, प्राच्यविद्या, पाश्चात्य दर्शन, शारीरिक श्रम और ध्यान सभी कुछ सिखाया जाता था | वह स्वयं औरों के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत करते हुए तत्व मीमांसा पर व्याख्यान देकर खेत जोतने, कुआँ खोदने और आटा गूंथने में हाथ बंटाते थे |       

   विवेकानंद ने अपने संदेशों में जाति-प्रथा, अस्पृश्यता, कर्मकांड, संकीर्णता, सम्प्रदायवाद, रूढ़िवादिता और अन्धविश्वास की निंदा की | स्वाधीनता, साहस, संयम, सहिष्णुता, समानता, स्वतंत्र चिंतन और सर्वधर्म समभाव की भावना अपनाने पर जोर दिया | उनके आदर्श थे सहिष्णुता और विश्वधर्म | स्वामी जी का सम्पूर्ण अस्तित्व प्रेममयी करूणा के अमृत से ओतप्रोत था | स्वामी जी जितने ज्ञानी और पंडित हैं उतने ही मानवतावादी और ईश्वर के अनुगामी भी थे | वे ऐसे धर्म में विश्वास करते थे जो हमें अपने में विश्वास देगा, राष्ट्रीय आत्म-सम्मान देगा, अपने चारों ओर के दुःख-दैन्य को दूर करेगा, निर्धन को भोजन और शिक्षा देने की शक्ति देगा | अगर भगवान को खोजना है तो मनुष्य की सेवा करो |

    1897 में भारत में प्लेग और अकाल से लोग भूखे मर रहे थे तब आपने लाहौर में भाषण में कहा  :"साधारण मनुष्य का धर्म यही है कि वे दीन-दुखियों को भोजन कराएं | मनुष्य का ह्रदय ईश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है और इसी मंदिर में उसकी आराधना करनी होगी |" गरीबों के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए उन्होंने कहा : "हम पूजा के इस तामझाम को यानी देवमूर्ति के सामने शंख फूंकना, घंटा बजाना और आरती करना छोड़ें | हम शास्त्रों के पठन-पाठन और व्यक्तिगत मोक्ष के लिए सब तरह की साधनाओं को छोड़ दें और गांव-गांव जाकर गरीबों और पीड़ितों की सेवा करने का बीड़ा उठा लें | ईश्वर की सच्ची उपासना यह है कि हम अपने मानव-बंधुओं की सेवा में अपने-आपको समर्पित कर दें | जब पड़ौसी भूखा मरता हो, तब मंदिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है | जब मनुष्य दुर्बल और क्षीण हो, तब हवन में घृत जलाना अमानुषिक कर्म है |" दुखी मानव की सेवा के लिए इतने तत्पर थे कि एक बार उन्होंने अपने एक शिष्य से कहा था : 'मेरा मन कह रहा है कि जगत के दुःख निवारण के लिए, किसी का रंच मात्र क्लेश मिटने के लिए यदि सहस्त्र बार जन्म लेने का दण्ड भोगना पड़े तो सहर्ष भोगूँगा |"  

   छुआछूत की कड़ी निंदा करते हुए कहा : “हमारे सामने खतरा यह है कि हमारा धर्म रसोईघर में न बंद हो जाए | हम केवल 'हमें मत छुओ' के समर्थक हैं | हमारा ईश्वर भोजन के बर्तन में है और हमारा धर्म यह है कि 'हम पवित्र हैं, हमें मत छूना |' अगर यह सब कुछ एक शताब्दी और चलता रहा तो हममे से हर एक व्यक्ति पागलखाने में होगा |"  

  उन्होंने समाज की विषमताएं दूर करने के लिए सवर्णों और अवर्णों के बीच अंतर्जातीय विवाह का उपदेश दिया ताकि पारस्परिक निकटता बढ़े, अछूतों की दशा सुधारने का कार्य हाथ में लिया, विधवा महिलाओं के पुनर्विवाह पर जोर दिया, साम्प्रदायिकता और रूढ़िवादिता की निंदा की | उन्होंने भारतीय आध्यात्म के साथ पाश्चात्य विज्ञानं में समन्वय का प्रयत्न किया और ऐसी शिक्षा पर जोर दिया जिससे किताबी पंडित या न अफसर बनाये बल्कि एक सही मानवता का निर्माण करे |

     अंधविश्वासों और जादू-टोने की से दूर रहने के लिए उन्होंने कहा : "ये चीजें तुन्हें शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाती है, उनको ज़हर की तरह छोड़ दो, उसमें कोई जिंदगी नहीं है, वह मिथ्या है वह सत्य नहीं हो सकती | सत्य की कसौटी हाथ में लो, सत्य मजबूती लाता है, सत्य पवित्र है, सत्य ज्ञान हैसत्य कल्याणकर है, सत्य प्राणप्रद है | अन्धविश्वास से सावधान रहो | अंधविश्वासी मूर्ख की जगह अगर तुम कट्टर नास्तिक हो, तो मैं ज्यादा पसंद करूंगा | नास्तिक जिन्दा होता है, उससे कुछ बन पड़ सकता है | लेकिन जब अन्धविश्वास हममें समा जाता है, तो दिमाग गायब हो जाता है और जिंदगी का खात्मा शरू हो जाता है | अन्धविश्वास और जादू-टोन हमेशा कमजोरी की निशानी है प्रमाद त्याग दो, शक्ति का वरण- करो, कण-कण में ही तो सहज सत्य व्याप्त है,  तुम्हारे अस्तित्व जैसा ही सहज है वह, उसे ग्रहण करो |"  

    भारत में सवर्णों और शूद्रों की भीषण असमानता पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा : "हमारे देशवासी जब रोटी-कपड़े को तरस रहे हों तो क्या हम अपने मुख में ग्रास देते लज्जित नहीं होते | हमारे देश में दलित की, विपन्न के संताप की चिंता कोई नहीं करता, जो राष्ट्र की रीढ़ है, जिसके परिश्रम से अन्न उत्पन्न होता है | जब तक हम अस्पृश्यता और ऊंच-नीच की दीवारें ढहाकर एक नहीं होंगे भारतमाता का उद्धार नहीं होगा | छुआछूत जैसी कुरीति पर सवर्णों को लताड़ते हुए कहा : “मत समझों कि वे भूख के मारे किसी लालच या तलवार के जोर पर धर्म-परिवर्तन करने को तैयार हुए हैं | इसलिए हुए हैं कि तुम उन्हें अपनी संवेदना नहीं दे सकते | तुम निरंतर कहते रहते हो, 'छुओ मत ! यह मत छुओ, वह मत छुओ |' इस देश में कहीं कोई दया-धर्म बचा है कि नहीं ? या कि केवल 'मुझे मत छुओ' रह गया है |"  

    विचारों की स्वतंत्रता के बारे में कहा: "विचार और धर्म की स्वतंत्रता जीवन, विकास तथा कल्याण की एकमात्र शर्त है | जहां यह न हो वहां मनुष्य, जाति और राष्ट्र सभी का पतन निश्चित है |”    

   युआवों में वीरता, बलिदान, निर्भयता मनोबल और देशभक्ति की उच्चभावना बढ़ाते हुए स्वामी जी ने अपने प्रवचन में कहा:  "मेरे नौजवान दोस्तों ! बलवान बनों ! तुम्हारे लिए मेरी यही सलाह है | तुम भगवद्गगीता के स्वाध्याय की अपेक्षा फुटबाल खेलकर कहीं अधिक सुगमता से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो | जब तुम्हारी रगें और पुट्ठे अधिक दृढ़ होंगे तो तुम भगवद्गीता के उपदेशों पर अधिक अच्छी तरह से चल सकते हो | गीता का उपदेश कायरों को नहीं दिया गया था, अर्जुन को दिया गया था जो बड़ा शूरवीर, पराक्रमी और क्षत्रिय-शिरोमणि था |"

     किसी भी धर्म या उसके ग्रंथों में उपस्थित सत्य को तर्क, बुद्धि तथा विज्ञान की कसौटी पर परखने पर जोर देते हुए कहा : "क्या धर्म बुद्धि के उन आविष्कारों द्वारा अपना औचित्य सिद्ध करेगा जिनके द्वारा प्रत्येक विज्ञान अपना औचित्य स्थापित करता है ? क्या जांच-पड़ताल की वे विधियां जो विज्ञानों तथा ज्ञान के लिए प्रयुक्त होती हैं, धर्म के विज्ञान पर भी लागू की जाएँगी? मेरे विचार में ऐसा ही होना चाहिए और मैं यह भी मानता हूँ कि यह जितना जल्दी हो उतना बेहतर है |" उन्होंने इहलौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति और भौतिक समस्याओं के समाधान के लिए धर्म के इस्तेमाल पर जोर देते हुए कहा था कि "तुम्हारी भक्ति और मुक्ति की परवाह किसे है, कौन इसकी परवाह करता है कि तुम्हारे धर्मग्रंथ क्या कहते हैं ? मैं बड़ी खुशी से हजार बार नरक जाने को तैयार हों, अगर इससे मैं अपने देशवासियों को ऊंचा उठा सकूँ |"

     भारत में विवेकानंद को नये हिन्दू गौरव के दार्शनिक योद्धा के रूप में बताया जा रहा है | , वह ऐसे पुरूष नहीं थे जो धर्म की दीवारों की चिंता करें | वे अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस की तरह मानवतावादी और सभी धर्मों की बुनियादी एकता पर जोर देते थे | उनके उपदेश किसी भी धर्म के विरोधी नहीं है | सभी धर्मों के प्रति उनकी सम्पूर्ण संवेदना रही उन्होंने एक ऐसे धर्म का प्रचार किया जो दुनिया में मौजूद सभी प्रकार के धर्मों में निहित है | उनके गुरू रामकृष्ण ने तो छः महीने तक विधिवत् मुसलमान होकर इस्लाम की साधना भी की थी | इस  संस्कार के कारण इस्लाम के प्रति उनका दृष्टिकोण यथेष्ट रूप से उदार था | इस्लाम और हिंदुत्व के मिलन का महत्त्व स्वामीजी ने एक और उच्च स्तर पर बतलाया है | 1898 में उन्होंने लिखा था: "हमारी अपनी मातृभूमि का कल्याण तो इसमें है कि उसके दो धर्म- हिंदुत्व और इस्लाम मिलकर एक हो जाएं | इस संयोग से जो धर्म खड़ा होगा वही भारत की एकमात्र आशा है |"

       स्वामीजी को यूरोप और अमेरिका का तरंगित जीवन, पौरूष, आर्थिक नीति, शिक्षा-व्यवस्था, स्वच्छता, सौंदर्य-भावना, औद्योगिक संगठन और संयोजन की शक्ति और  विज्ञान की प्रगति, संग्रहालय और कलाभवन, आरोग्य संस्थाएं समाज-कल्याण इन बातों ने स्वामी जी को प्रभावित किया किन्तु पश्चिमी सभ्यता के दोषों का पर्दाफास भी उन्होंने किया | पश्चिम को स्वामीजी ने संयम और त्याग की शिक्षा दी तो भारतीयों को कर्म की भावना से आंदोलित करने की चेष्टा की | वैश्विक समानता लाने हेतु एक निष्ठावान आदान-प्रदान, भाईचारा, पारस्परिक सहयोग पर जोर देते हुए उन्होंने कहा : "धर्म और आध्यात्मिकता स्तर की चीजें हम उन्हें देंगे और बदले में भौतिक साधनों का दान हम सहर्ष स्वीकार करेंगे | उद्यम द्वारा पाश्चात्य की कर्मेष्णा और तेजस्विता के कुछ उपादान भारतवासियों के शांत गुणावली में मिला दिए जाएं तो अब तक पृथ्वी पर जितने भी तरह के मनुष्य नजर आते हैं, उन सबसे काफी उत्कृष्ट किस्म के मनुष्य आविर्भूत होंगे |"

     स्वामीजी ने भारतीय समाज में छाये अंधकार को दूर करने हेतु आध्यात्म एवं मानव-दर्शन की मशाल जलाई और समूचे भारत के आत्मगौरव को जगाकर 39 वर्ष की अल्पायु में ही 4 जुलाई, 1902 को इस दुनिया से महाप्रयाण कर गए |

* युवा दिवस - युवाओं की ऊर्जा, बुजुर्गों का अनुभव * - मईनुदीन कोहरी नाचीज़ बीकानेरी


 

* युवा दिवस - युवाओं की ऊर्जा, बुजुर्गों का अनुभव *

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12 जनवरी को युवा दिवस सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है,किसी भी समाज कि प्रगति , आचार विचार सामाजिक ,आर्थिक,शैक्षिक,राजनैतिक , सांस्कृतिक परिवर्तन मे युवाओं की सोच व जोश का बहुत बड़ा योगदान होता है ।स्कूल कॉलेज शिक्षा के दौरान सह शैक्षिक एक्स्ट्रा कैरीकुलर एक्टिविटी खेल , स्पोर्ट्स,  N c c , Nss , स्काउट गाइड व क्ल्चर्र एक्टिविटी मे भाग लेने से मानसिक  शारीरिक विकास होता है। इसलिए कहा जाता है कि स्कूल कॉलेज जाने से ही सर्वागीण विकास सम्भव है आज के युवाओं के लिए इस तकनीकी युग में आगे बढने की अपार संभावनाएं हैं।

अत: युवा वर्ग को भटकने से बचाने के लिए बुजुर्गों का सचेत होना भी जरूरी है आज के आधुनिक युग की चकाचौंध में युवा युवतियां समाज में ऐसे कदम उठाने लग जाते हैं जिससे समाज में कई प्रकार की विकृतियां घर करने लगती है  आज की फ़ैशन की प्रवृति लोक लाज , अनावश्यक खर्च , गलत राह के शिकार यानि दिशाहीन होती युवा पीढ़ी संस्कारहीन होती जा रही है जिस के दुष परिणाम परिवार समाज को भुगतने पड़ते हैं ।

किशोरावस्था से ही बच्चों को मनोवैज्ञानिक ढंग से टैकल करने की आदत परिवार के अभिभावको को देखते रहना जरुरी है।मनोविज्ञान यह भी कहता है कि बच्चे को स्वच्छंद वातावरण मिलने से सीखता है ज्यादा प्रतिबंध से बालक  कुंठा का शिकार भी हो सकता है फिर भी युवा उम्र में ही बालक के हाव भाव, संगत पे पैनी नजर रखनी चाहिए  । आजकल युवा नशे की प्रवृति के शिकार भी हो रहे हैं।

आज युवा दिवस पर युवा वर्ग से अपेक्षा है कि वे अपनी सकारात्मक सोच के साथ अपनी ऊर्जा का सही दिशा में उपयोग करें ताकि समाज में व्याप्त कुप्रथाएं ,विसंगतियां दुर हो युवाओं का एक स्लोगन है " मुझ को नहीं तुझको " की तर्ज पर काम करें बहुत से ऐसे काम कर के स्वच्छ और सुंदर समाज की स्थापना कर सकते हैं कुछ बातें क्या आप करने को तैयार हैं तो आइए -

Each one teach one एक युवा एक को पढ़ाए,युवा समाज में  दहेज न लेने व देने का अभियान चलाएं ,समाज में सामूहिक विवाह सम्मेलन हो इस दिशा में काम करें , सादा शादी समारोह के प्रचलन शुरू हो, चमक दमक वाले शादी समारोह का सामुहिक बहिष्कार कर सकते हैं, होटलों में रिंग सेरेमनी , बर्थडे पार्टी मैरिज अनेवसरी पार्टी न्यू वर्ष आदि पर अभियान चला कर इस प्रवृत्ति के दुष्परिणाम से समाज को राहत दिलाए , समाज में बढ़ते नशा व्यसन मुक्ति अभियान चलाए जाए बहुत सी सामाजिक विसंगतियों को युवावर्ग की ऊर्जा व बुर्जुगों के अनुभव से ये सब हम कर सकते हैं कहते हैं कि अच्छे काम की शुरूआत खुद से हो । आज युवा दिवस पर युवाओं से आह्वान कर आग्रह है कि अपनी सोच व ऊर्जा को समाज , राष्ट्र हित में संकल्प के साथ सही दिशा दें ।

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मईनुदीन कोहरी नाचीज़ बीकानेरी मो 9680868028

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गुरुवार, 11 जनवरी 2024

वापस गांव की ओर ‍‍(कहानी ) - वापस गांव की ओर



केदार शर्मा,’निरीह’
सेवा निवृत्त व्याख्याता (अंग्रेजी)

वापस गांव की ओर

                          

      *रामलाल ने आखिरकार शहर में आकर नया किराए का कमरा ले ही लिया । आज पहला दिन था । दुपहरी से शाम तक का समय तो कमरा जमाने में ही लग गया । शाम को खाना खाकर दोनो पति-पत्नि अनमने से बैठ गए । नई जगह, नया मकान और अनजान लोग । तन्हाई धुंध की तरह दोनो के भीतर पसरी हुई थी।

        यूँ तो वह अपने दो छोटे भाइयों और उनके पत्नि-बच्चों के साथ संयुक्त परिवार में रह रहा था । परन्तु अब परिवार में छोटी-छोटी बातों पर लड़ाई-झगड़े होने लगे थे । कभी बच्चों को लेकर तो कभी बिजली के बिल को लेकर, तो कभी रोजमर्रा के काम को लेकर । वह रोज शहर से मजदूरी करके वापस घर आता तो शाम को कलह तैयार मिलता । कभी-कभी तो वह कलह से उद्विग्न होकर बिना खाना खाए ही सो जाता । फिर धीरे-धीरे वे लोग मारपीट पर उतरने लगे । शाम को पत्नि रोती सिसकती शिकायतों का गुबार निकालती मिलती। जब वह भाइयों और उनकी पत्नियों को उलाहना देता तो फिर नए सिरे से कलह छिड़ जाता ।आखिरकार परेशान होकर उसने शहर में बसने का निश्‍चय कर लिया ।

         शहर के प्रति आकर्षण रामलाल के अवचेतन में कुंठा बनकर बचपन से ही घर किए हुए था। परिस्तिथियों ने इसको हवा दी। वैसे भी रोजगार के लिए ,इलाज के लिए और हाट बाजार में खरीदारी के लिए उसे शहर आना ही पड़ता था । उसका यह स्वप्न आज यथार्थ में बदल चुका था, पर न जाने क्यों उखाड़कर दूसरी जगह लगाए पौधे की तरह उसका मन कुम्हलाया हुआ था ।

          दरवाजा खुला था। उसे मकान मालिक अपनी पत्नि के साथ आता दिखाई दिया । सामान्य अभिवादन के आदान-प्रदान के पश्‍चात बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ । मकान मालिक ने खोद-खोदकर सारी जानरकारी ली । पता चला कि बंगला बनवाते समय यह कमरा मजदूरों के रहने और उनका निजी सामान रखने के लिए था और पहली बार रामलाल को किराए पर दिया गया है ।

         उनके जाने के बाद रामलाल ने अपनी पत्नि राधा से पूछा—“ मकान मालिक और मालकिन तो भले जान पड़ते हैं” ।  राधा कुछ नहीं बोली,वैसे ही उदासी भरी आँखों से शून्य में ताकती रही ।

         सुबह सब चाय पीकर उठे ही थे कि मकान मालकिन की आवाज सुनाई पड़ी —“ट्यूबवेल चलने वाला है,पानी भरलो,नहा-धो लो। एक घंटे बाद बंद हो जाएगा” । राधा ने जल्दी से बरतन साफ किए, पानी भरा,  सभी जल्दी से नहा-धोकर तैयार हुए । एक घंटे तक हड़कंप मचा रहा । रामलाल को इस समय गाँव की याद आ रही थी । जब चाहो तब तालाब जाकर में नहा लो । कपड़े धो लो। पर अब तो घड़ी पर नजर रखनी पड़ती थी। सुबह आठ से नौ बजे तक का समय चूक गए तो देरी के लिए दस बातें सुननी पड़ती थी  तब जाकर दुबारा टयूबवेल चलाया जाता । यद्यपि दोनो पति-पत्नि खूब सतर्कता रखते और  कोशिश करते कि किसी को किसी तरह की शिकायत न हो । पर  कभी मकान मालिक तो कभी मकान मालकिन किसी न किसी तरह की हिदायत देते रहते—“वहाँ सफाई रखो,इधर कचरा मत डालो, उधर मंजन मत करो ।

        रामलाल को एक फैक्ट्री में काम मिल गया था । वेतन भी पर्याप्त मिलने लगा था । शाम को जब वह घर आता तो राधा के चेहरे पर वही उदासी टंगी मिलती । किसी बुझती हुई बाती में डाले गए तेल की तरह उसका घर लौटना दोनो बच्चियों की आखोँ में चमक ला देता । वह दोनो बच्चियों के साथ घंटों तक खेलता रहता।

            एक दिन रामलाल बच्चियों को कहानी सुना रहा था कि किसी ने दरवाजा खटखटाया । देखा तो मकान मालिक था ।तन्नू ने लाकर एक कुर्सी रख दी पर वह बैठा नहीं बल्कि कमरे का गहराई से मुआयना करने लगा । खिड़की की दीवार के साथ सहारा लगाकर रखी गई मटकी की ओर अचानक उसका ध्‍यान गया —‘यह मटकी यहाँ क्यों रखते हो ? देखिए इस लोहे की जाली में इसी के कारण जंग आ चुकी है’।

आगे से यहाँ नहीं रखेगें, श्रीमानजी, पर यह जंग तो पहले से ही आया हुआ था”— राधा ने आत्मविश्‍वास के साथ जवाब दिया । वह अपने तर्क देता रहा।राधा उसके हर तर्क को काटती रही । आखिरकार वह बड़बड़ाता हुआ चला गया ।

धीरे-धीरे रामलाल और राधा को लगने लगा कि मकान मालिक और मालकिन अक्सर गंभीर और मौन ही रहते हैं । केवल कुछ जानकारी लेने के उद्देश्‍य से बोलते हैं,निरीक्षण करने के बहाने कमरे में आते हैं। यह वह बस्ती है जिसमें सब अपने काम से काम रखते है । बिना काम कोई नमस्ते भी नहीं करता ।

          गर्मियों के लंबे और उमस भरे दिन आ चुके थे । सब ओर कोरोना के आतंक का साया था और हर कहीं सन्नाटा छाया हुआ था । राधा पास  की दुकान से सब्जी लेकर लौट रही थी कि अचानक उसकी नजर एक परिचित महिला पर पड़ी जो बगल के मकान से निकली थी ।

 अरे रानी भाभी आप! राधा ने आश्‍चर्य के साथ कहा ।

मेरा तो यहाँ ननिहाल है । गाँव से आने के दूसरे दिन से ही लॉक डाउन लग गया और तब से मै यहीं हूं ।लेकिन राधा भाभी आप?”

हाँ भाभी, मैं भी साल भर से यहीं इस मकान में किराए का कमरा  लेकर रह रही हूँ ।‘ वे’ यहीं पर एक फैक्ट्री  में काम करते हैं । गाँव में कैसे हैं सब । यहाँ शहर में आने के बाद गाँव की कुछ खैर-खबर  ही नहीं है”— राधा जानने को उतावली थी ।

    हम भी हमारे गाँव के चौराहे वाले मकान को खाली करके गाँव से बाहर रतनपुरा की ढाणी में रहने लगे हैं । वहीं पर हमारे खेत और कुआ है । सोच रहें हैं गाँव के मकान को बेच दें” —रानी बता रही थी । राधा को तो मानो घोर अँधेरे में प्रकाश की कोई किरण मिल गई थी ।

          अरे भाभी,  वह मकान हम ले लेंगे । वहाँ रोज-रोज की किचकिच से परेशान होकर यहाँ आ तो गए हैं पर इस मुए शहर में तो मेरा दम घुटने लगा है” — राधा भावुक होकर साड़ी के पल्लू से अपनी आँखें पौंछने लगी ।

      अरे, दुखी मत होओ, भाभी । तुम जिस दिन चाहो गाँव जाकर उस मकान में रह सकती हो”— रानी भाभी के इन शब्दों ने जैसे राधा के सिर से टनों बोझ उतार लिया था ।

       राधा कमरे पर गई तो मकान मालकिन को अपनी ओर देखते पाया । ‘सुनो,’ राधा ने पलटकर देखा, वह कुछ कह रही थी —“अपने हाल में मस्त रहा करो, ये लोग अच्छे नहीं हैं । उसने बगल के मकान की ओर इशारा करके कहा । राधा ने सुना और चुपचाप बिना जवाब दिए अन्दर चली गई । वैसे तो रानी भाभी ने भी बता दिया था कि उनकी इस परिवार से बोलचाल बंद है । पर इससे उसको क्या ?सबका अपना-अपना व्यवहार है । शहर की इस काटती तन्हाई और लॉकडाउन के सन्नाटे में  किसी दुर्लभ संयोग से तो कोई खुलकर बोलने वाली सहेली मिली है ।

   अब तो दोनो सहेलियों की कभी सब्जी लेने जाते समय तो कभी मंदिर में मुलाकात हो जाती । दोनो जी भरकर बातें करतीं । उस दिन राधा घर से निकली ही थी कि रानी सामने से आती दिखाई पड़ी । दोना मकान के सामने स्थित गुलमोहर के वृक्ष के नीचे खड़ी होकर घंटो बतियाती रही ।

    दूसरे दिन राधा सुबह बाहर चौक में कपड़े धो रही थी । रामलाल ध्‍यान  करने के लिए बैठ चुका था ।  मकान मालकिन भी वहीं चली आई और तेज आवाज में बोली— “देखो , हमारा कमरा खाली कर दो । हमारे ही मकान में रहकर हमारे ही दुश्‍मनों से हमारी ही बातें करने से बाज नहीं आते “। वह आवेश में बड़बड़ाए जा रही थी ।

             ठीक है कमरा खाली हो जाएगा” —राधा ने आत्मविश्‍वास के साथ जवाब दिया और मौन हो गयी । उधर भीतर रामलाल ने सुना तो दो बूँद आँसुओं की टपक पड़ी। जिस किचकिच से बचने के लिए वह यहाँ आया था वह तो यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रही है । “अब मै यहाँ से कहाँ जाउंगा । कोई रास्ता दिखाना,प्रभु” ।

              रामलाल ने फैक्ट्री के एक मित्र के सहयोग से एक दूसरा कमरा देख लिया और पेशगी के तौर पर पाँच सौ रूपए भी दे आया ।उधर राधा पीहू और तन्नू के  सहयोग से सामान पैक करने लगी ।

सुबह का सूरज निकलने के साथ ही सामान छोटी लॉरी  में पीछे की ओर रखा जा चुका था । आगे  केबिन में राधा और रामलाल बैठ गए । गाड़ी रवाना हो गयी ।थोड़ी दूर एक चौराहे के पहले ड्राइवर ने कहा —“किधर मुड़ना है साहब ।

      गाड़ी विश्‍वकर्मानगर की और मौड़ लो —रामलाल ने इशारा किया ।

    राधा  बोली — “नहीं भैया, गाड़ी को सीधे हरिपुरा गाँव की ओर मोड़ लो”।  रामलाल चौंक गया —“लेकिन मैंने तो वहाँ पर किराए के कमरे के लिए पेशगी के पाँच सौ रूपए दे दिए हैं “

            दे दिए होंगे मुझे अब इस शहर में नहीं रहना है । मैने मीरा के खाली मकान की चाबी ले ली है ।

                   और गाड़ी वापस गाँव की ओर दौड़ने लगी। अपने एक नए घर की उम्मीद में और वह भी अपने ही गाँव में---राधा मानो एक नई उम्मीद पर सवार होकर उड़ी जा रही थी।

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केदार शर्मा,”निरीह

कहानियां, व्यंग्य, कविताएं,गीत , लघुकथाएं एवं आलेख विधाओं में रचनाएं राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर,अमर उजाला, दैनिक नवज्योति, दैनिक जनवाणी, सुबह-सवेरे , दैनिक इन्दौर समाचार, शिविरा पत्रिका में प्रकाशित हो चुके हैं। सूरज सिंह नेगी वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा प्रकाशित संग्रहों में आलेख प्रकाशित।


औरतों को घर नहीं लौटना चाहिए! - मनीषा सिंह कवयित्री और लेखिका


                                                                            मनीषा सिंह 

कवयित्री और लेखिका


औरतें समय से घर लौट आती हैं,

कहीं भी जाएं,खाना बनाकर घर से बाहर जाती हैं!

उनके लौटने तक कई आंखें उनका रास्ता देखती हैं,

कई पेट भूखे रहते हैं,

कई कपड़े तनियों पर लटके रहते हैं,

बच्चे रोते हुए मिलते हैं,

या फिर झगड़ते!

औरतों को समय से लौटना ही पड़ता है,

औरतों को देर से घर लौटने की मनाही है!

औरतें काम से बाहर जाती हैं,

औरतें पूजा करने बाहर जाती हैं,

औरतों के साथ अक्सर ही चली जाती है घर से बरकतें,

तभी तो लौटने पर मिलता है उजाड़ बगीचा,

फैली रसोई और नाराज़ बूढ़े!

औरतें जब घर मे ही होती हैं,

तब सबको तसल्ली होती है,

जब औरतें कहीं नहीं जाती तब 

अक़्सर उनके सुस्ताने पर पाबंदी होती है,

औरतों को घर छोड़ देने चाहिए अब,

औरतों के अकेले खुद के घर मे रहने का समय आ गया है,

औरतों को लौट जाना चाहिए बोध की खोज में,

लीन हो जाना चाहिए औरतों को,

औरतों को घर नहीं लौटना चाहिए!


कविता की सृजनात्मकता- भाग-2 डॉ.मनु शर्मा

 डॉ.मनु शर्मा

                         कविता की सृजनात्मकता

                                   भाग-2  

 जीवन यथार्थ को ज्यों का त्यो प्रस्तुत कर देना उसका अतिक्रमण नहीं है। जब भी कवि दिक्-काल के अतिक्रमण की सोचता है, उसे यथार्थ के गहन अर्थ संदर्भों की खोज करनी पड़ती है। यानी यथार्थ की नवीन व्यंजना तलाशनी पड़ती है। और यह तभी संभव है जब कवि का यथार्थ बोध सुस्पष्ट हो। कई बार यह देखा गया है कि कवि यथार्थ का निरूपण तो करता है, लेकिन उसका अन्तस्र्वर एकदम गैर मानवतावादी, गैर सृजनात्मक और यथास्थिति परक होता है-

'कूड़े वाली लड़की / बीनती है कूड़ा / बुनती है स्वप्न /

दादी कहानी सुनाती थी / एक बार लकड़दादा को/

कूड़े से मिली चवन्नी / तब दिन भर/तुरही बजी /

दादा को अठन्नी मिली/और सारे घर के लिए /

कच्ची चढ़ी /

कूड़े वाली लड़की सोचती है / कैसे कैसे दिन थे/

और उसके हाथ कूड़े में / जल्दी जल्दी चलने लगते हैं।'

(राजेश शर्माः कूड़े वाली लड़की, पहल-37, पृ. 100)

कूड़ा बीनने के काम में भी सपने संजोने की गुंजाइश हो तो यह उम्मीद करना बेकार है कि उस काम के प्रति किसी के मन में घृणा, असंतोष या आत्मग्लानि पैदा होगी। दरअसल यहां कवि ने कूड़ा बीनने जैसे घृणित कर्म का भी महिमा मंडन किया है। कूड़े में कभी चवन्नी या अठन्नी मिलने की बात करके वह उस लड़की में खुश फहमी पैदा कर रहा है। परोक्षतः कवि लड़की को यह सलाह दे रहा है कि कूड़ा बीनते हुए भी उन दिनों की खुशियां प्राप्त की जा सकती है जब घर में तुरही बजा करती थी या घर-भर के लिए कच्ची चढ़ती थी। इस कविता को लिखने के पीछे कवि का जो उद्देश्य रहा है, वह उद्‌धृत बंदों में पूरा नहीं हो रहा है। यह सृजन नहीं है।

यथार्थ की पुनर्रचना ही सृजन है। कभी-कभी रचनाकार की निष्ठा और ईमानदारी भी सृजन की जगह ले लेती है। इसका कारण यह है कि रचनात्मक अन्तर्निष्ठा के क्षणों में कवि की अनुभूतियां एकदम पारदर्शी हो जाती हैं। उनके आवेग को कल्पना के सुन्दर फ्रेम में जड़ने या भाषा की कारीगरी तक बनाये रखने का कवि के पास अवकाश नहीं होता। ऐसी अनुभूतियों का तनाव कवि के लिए असह्य होता है। वह उनकी सहजतम अभिव्यक्ति करके स्वयं को तनाव मुक्त कर लेना चाहता है। तीव्र अनुभूतियों से संवलित यथार्थ का वर्णन सृजन की अतिरिक्त कोशिश का मोहताज नहीं होता। वह अपने आप में सृजन होता है। जैसे -

'उजरा बैल कुलांच रहा है/ खूंटा सूंघ चाट कर नथ को, पगहे भर में नाच रहा है। (मानबहादुर सिंह, साक्षात्कारः 113-115, पृ. 15)। यहां उजड़े बैल की क्रियाओं का मात्र वर्णन किया गया है। जो बड़ा ही सजीव और सहज है। सृजन की शर्तों को पूरा करता हुआ।

यथार्थ के कई स्तर होते हैं। एक स्थूल यथार्थ है जो हमारे आस-पास व्याप्त है। दूसरा वह सूक्ष्म यथार्थ है, जो कवि या कलाकार की चेतना में सजीव है। जिसे वह अपनी कल्पना या भाव के रंग में रंगा हुआ देखता है। बाह्य यथार्थ को कवि जहां भी प्रतिक्रियात्मक रूप में ग्रहण करता है, वहीं वह उसका सार ग्रहण करने से वंचित हो जाता है। उसके अर्थ संदर्भों या व्यंजना को गंवा देता है। प्रतिक्रिया हमारी प्रतीति को चाट जाती है। इसीलिए प्रतिक्रियात्मक तौर पर लिखी हुई कवितायें ज्यादा टिकाऊ नहीं होती। उनमें एक खास तरह की तात्कालिकता रहती है। यह जरूरी नहीं है कि कविता में सूक्ष्म यथार्थ स्थूल यथार्थ का हर जगह अतिक्रमण करें। कई बार ये दोनों समानान्तर भी चलते है। मुक्तिबोध और शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं में यह देखा जा सकता है।

काव्य सृजन के लिए स्थूल यथार्थ का मात्र अनुकरण और रीतिवाद (शास्त्रीय नियमों का यांत्रिक निर्वाह) दोनों अनुपयुक्त है। हम उसे आत्मस्फुरण भी नहीं कह सकते। वह कवि के सचेत प्रयत्न का फल है। कवि बार-बार यथार्थ को अपने ढंग से ग्रहण करके उसकी अर्थ व्यंजना उभारने का प्रयास करता है। कविकर्म फोटोग्राफी नहीं है। फोटोग्राफर गतिशील यथार्थ को स्थिरता में आबद्ध करता है। फोटो में निरंतर बदलते यथार्थ को प्रस्तुत करना संभव नहीं है। उसमें यथार्थ के पूर्वापर संदर्भ अदेखे रहते हैं। फोटोग्राफी में मोमेन्ट का महत्व है। उसमें वह पल विशिष्ट और संवेदनीय होता है, जिसमें यथार्थ को कैद किया गया है। फोटोग्राफी के लिए टेकनीक की सही समझ और सहज बोध पर्याप्त है। दृश्य को किस कोण से कैद करना है, बस, यह आना चाहिए। लेकिन कवि का काम अपनी गांठ की पूंजी खरचे बिना नहीं चल सकता। जो कुछ दिखाई दे रहा है, उस की उसे शाब्दिक तस्वीर नहीं उतारनी होती है। बल्कि जो दिखाई दे रहा है, उसमें जो अदृष्ट है, उसे दिखाना होता है। यह दोहरा जोखिम काव्य रचना के दौरान बराबर बना रहता है। दोहरा इस अर्थ में कि सामने जो कुछ मौजूद है, उसकी परते उधेड़ कर उसमें जो प्रच्छन्न है, उसे उद्घाटित करना है। और जिसे उ‌द्घाटित किया जा रहा है उसके लिए यथार्थ के मौजूदा रूपों में आवश्यक तब्दीली करनी है। इसके बाद उसके सामने एक चुनौती और दरपेश होती है। वह है अपनी आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित यथार्थ को सर्वस्वीकृत बनाना। यानी विशिष्ट का सामान्यीकरण करना। ऐसा नहीं है कि कवि यथार्थ में जो ऊटपटांग तब्दीली कर दे, उसे लोग स्वीकार कर लेते हों। यह होता तो केशव निश्चय ही श्रेष्ठ कवि होते। उन्हें कविता लिखना आता था। उनमें अनुभव और ज्ञान की कमी भी नहीं थी। कमी सिर्फ संवेदनशीलता की थी। इसी कमी के कारण वह बार-बार शब्द चमत्कार की ओर बढ़ते हैं। जो कवि काव्य विषय से राम्भनित संवेदनाओं का वृत तैयार नहीं कर पाते, वे ऐसी चालाकियां बरतते है।

इन दिनों ऐसी कवितायें खूब लिखी जा रही है जिनमें यथार्थ को पत्रकारीय ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा है। पत्रकार और फोटोग्राफर का काम काफी समान है। पत्रकारिता और फोटोग्राफी प्रभाव में एक सी विधायें है। पत्रकार के लिए यथार्थ की हू-ब-हूँ तस्वीर उकेरना जरूरी है। उसके लिए यथार्थ का तथ्यात्मक पहलू महत्वपूर्ण होता है। जबकि कविता या कहानी में यथार्थ के संवेदनात्मक पक्ष पर बल दिया जाता है। कवि की प्रतिमा या कल्पना की सारी शक्ति काव्य में प्रस्तुत होने वाले यथार्थ के संवेदनात्मक सन्दर्भों की खोज में लगी रहती है।                        
                                                                           निरंतर...


“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...