डॉ.प्रकाश चंद जैनतीन
लोकतंत्र का परस्पर वाद-संवाद से गहरा नाता है। वाद-संवाद और
सहिष्णुता की परम्परा भारत के सार्वजनिक जीवन में सुदीर्घ काल से रही होने के कारण
से देश में समृद्ध लोकतंत्र के विकास और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणाएँ मजबूत हुई।
कुल मिलाकर भारतीय लोकतंत्र विविधता के प्रबन्धन पर आधारित है। भारत में लोकतंत्र
की अवधारणा नई नहीं है अपितु प्राचीनतम काल में इस अवधारणा ने जन्म ले लिया था।
प्राचीन काल में भारत में सुदृढ लोकतांत्रिक व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य
हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और
अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस
बात के प्रमाण हैं। लोकतंत्र की अवधारणा वेदों की देन है। चारों वेदों में इस
संबंध में कई सूत्र मिलते हैं और वैदिक समाज का अध्ययन करने के बाद यह और भी सत्य
सिद्ध होता है। ऋग्वेद में सभा और समिति का जिक्र मिलता है जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था।
वैदिक काल में इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। इंद्र नाम का एक पद होता था
जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था। भारत में गणतंत्र का विचार
वैदिक
काल से चला आ रहा है। गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक
बार किया गया है। वैदिक साहित्य में विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह
जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था
ही थी। महाभारत में भी लोकतंत्र के सूत्र मिलते हैं।
महाभारत के बाद बौद्धकाल में (450 ई.पू. से 350 ई.) में भी
चर्चित गणराज्य थे। जैसे पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और
काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला
के विदेह और वैशाली के लिच्छवी का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। इसके बाद
अटल, अराट, मालव और मिसोई नामक
गणराज्यों का भी जिक्र किया जाता है। बौद्ध काल में वज्जी, लिच्छवी,
वैशाली, बृजक, मल्लक,
मदक, सोमबस्ती और कम्बोज जैसे गणतंत्र संघ
लोकतांत्रिक व्यवस्था के उदाहरण हैं। वैशाली के पहले राजा विशाल को चुनाव द्वारा
चुना गया था।
प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था
में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली
थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनके चुनाव की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी
भिन्न जरूर थी। सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद तथा कौटिल्य
साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है परंतु उन्होंने वोट देने के अधिकार पर
रोशनी नहीं डाली है।
वर्तमान संसद की तरह ही प्राचीन
समय में परिषदों का निर्माण किया गया था जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता
था। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके
सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय
परिषद में 7707 सदस्य थे। वहीं यौधेय की
केन्द्रीय परिषद के 5000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की
तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।
किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने
से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए
पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का
प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई
जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था। बहुमत से लिये गये निर्णय को 'भूयिसिक्किम' कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग का सहारा लेना पड़ता था। तत्कालीन
समय में वोट को 'छन्द' कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी
एक अधिकारी होता था जिसे ‘शलाकाग्राहकय' कहते थे।
अतः यह निश्चित रूप से कहा जा
सकता है कि यूनान के गणतंत्रों से पहले ही भारत में गणराज्यों का जाल बिछा हुआ था।
यूनान ने भारत को देखकर ही गणराज्यों की स्थापना की थी। यूनान के राजदूत मेगस्थनीज
ने भी अपनी पुस्तक में क्षुद्रक, मालव और
शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया है।
आजादी के बाद भारत में नेहरू की
इसी परम्परा के प्रति गहरी आस्था होने के फलस्वरूप ही उनके प्रयासों से सभी
विचारधारा के विद्वत नेताओं (समाजवादी, साम्यवादी, दक्षिणपंथी और डॉ० अम्बेडकर इत्यादि) से
लम्बी-लम्बी तकरीरों के बाद विश्व का सबसे सुंदर संविधान तैयार किया गया और आज
भारत को अपनी अनेक कमजोरियों के बाद भी विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव
प्राप्त है। भारतीय संविधान के निर्माता इस बात के प्रति सचेत थे कि शासन में किसी
भी विचारों को मानने वाले हों, वे किसी के प्रति
पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाए। प्रत्येक व्यक्ति उस धर्म-पंथ को अपनाने को
स्वतंत्र हो जो उसे अच्छा लगे। भारत और भारतीयों के बहुलवादी स्वभाव के मद्देनजर
धर्मनिरपेक्षता की जगह और कोई भी व्यवस्था उचित नहीं होगी। इसीलिए हमारा संविधान
भी इसी बहुलतावाद को प्रतिबिंबित करता है।
प्राचीन भारतीय कला में कामुकता
का अभाव नहीं रहा है, उलटे 'काम' को पूज्य मानकर पुरूष-नारी के आंतरिक संबंधों
का खुलकर चित्रण किया जाता रहा है। ओडिशा के भुवनेश्वर, कोणार्क
और प्यूरी के प्राचीन मंदिरों में पुरूष-नारी की मैथुन छवियाँ (150-1250 ईसवीं), मध्यप्रदेश में खजुराहों की प्रसिद्ध
मूर्तियाँ (900-1050 ईसवीं), महसाना का
लिम्बोजी माता मंदिर (दसवीं ईसवी सदी), मद्रास में बेल्लारी
का कूपगुल्लु और बड़ौदा के नजदीक सुनाक का नीलकांत मंदिर ऐसी ही कलात्मक और
कामोत्तेजक छवियों के उदाहरण है। 14
कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन
द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्रीय (en: Sexology) ग्रंथ है। यह विश्व की
प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की
विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। राजनीति व अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान
कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान
कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि वात्स्यायन का काल निर्धारण
नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने
विश्वविख्यात ग्रन्थ 'कामसूत्र' की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह
शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है।
संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं
संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला
माष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद् सर
रिचर्ड एफ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में
इसका अंग्रेजी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात
कामशास्त्र 'सुगन्धित बाग' (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है।
'महर्षि के
कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पादित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन
चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी
कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां
प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका 'रतिमंजरी' में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत
कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य
के 'अर्थशास्त्र' के समान है। चुस्त,
गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से
मण्डित। दोनों की शैली समान ही है। सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अन्तर है,
अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामसूत्र गुप्तकाल का है। 15
नोबेल पुरस्कार से सम्मानित
मैक्सिको के जाने-माने कवि ऑक्टोवियो पॉज ने भारतीय सभ्यता पर अपनी प्रसिद्ध कृति 'इन लाइट ऑफ इण्डियन' में एक
पूरा खंड संस्कृत के श्रृंगार-काव्य को समर्पित किया है। इसमें बौद्ध सन्यासी
विद्याकार के ग्यारहवीं सदी के 1728 काव्य-छंदों के संकलन के
भी बहुत से अंश शामिल थे, जिनमे से कई भरपूर कामोत्तेजक हैं।
लदाहाचंदू या भावकादेवी जैसे कवियों ने जिन्होंने एक हजार वर्ष पहले नारी-वक्ष की
महिमा में अनगिनत छंद रचे थे, भारतीय संस्कृति के अंग रहे
हैं। 16
इसी प्रकार 11 वीं सदी में मूल लेखक कोका पंडित द्वारा लिखित
'कोक शास्त्र 'रति रहस्य'
पर आधारित सैक्स ज्ञान की अनेक उलझन भरी समसयाओं का अचूक एवं
प्रामाणिक समाधान विवाहित स्त्री-पुरुषों के जीवन में उठने वाली सभी समस्याओं की
सरल व्यावहारिक, सटीक व वैज्ञानिक जानकारी देने वाली अनुपम
पुस्तक है। 'ग्यारहवीं सदी तक भारत में आने वाले मुस्लिम
यात्री हिन्दुओं की यौन स्वच्छंदता देखकर दंग रह जाते थे।'अभिज्ञान शाकुंतलम’ में कालिदास द्वारा उज्जयनि
की शिप्रा में स्नान कर रही नारियों की सौंदर्य-गाथा का चित्रण ‘वेलेंटाइन डे' को भी शर्मसार कर जाता है। इन सभी
कृतियों में प्रेम संबंधों से जुड़ी स्वच्छंदता इसका जीता-जागता प्रमाण है।
श्रृंगार रस या कामोत्तेजना से जुड़ी प्राचीन भारतीय कला अपने मूल स्वरूप में
धार्मिक है। इसे मनुष्य की चरम आनंद की अवस्था की दृष्टि से देखा जा सकता है-एक
ऐसा परम् आनंद, जिसे केवल आत्मा द्वारा ही अनुभव किया जा
सकता है। वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों की जोड़ी का विरोध करने वालों को यह पता होना
चाहिए कि भारतीय प्राचीन काल में 'काम' को भी महत्व दिया गया है। विरोध करने वाले शायद इसलिए विरोध करते हैं कि
यह शब्द विदेशी है, शायद इसका नाम 'कामदेव
दिवस होता तो इतना विरोध नहीं होता।
भारतीय परम्पराओं को ठीक से
समझने का ही हमारा यहां उद्देश्य है, जिन्होंने अपनी सभी विचारधाराओं से भारतीय समाज और सभ्यता को सदा ही
जीवंतता, प्रदान की है, जैसे कुषाणों
के शासनकाल की भारतीय संस्कृति प्रचार-प्रसार की नीति, गुप्तकाल
में प्रचलित बहुलतावादी सहिष्णुता, पांचवीं सदी में आर्यभट्ट
द्वारा प्रश्न कर समाधान खोजने की परम्परा, छठी सदी में
वराहमिहिर और सातवीं सदी में ब्रह्मगुप्त जैसे विद्वानों के अनुसंधानों से
वैज्ञानिक प्रगति में अवश्य ही सकारात्मक प्रभाव रहा है। भारत में कुषाणों का शासन
काल काफी विस्तुत और समृद्ध रहा है। कुषाणों ने इस देश में आकर बौद्धधर्म व
शैवधर्म को अपनाया, उनके प्रयासों से बौद्धधर्म एवं भारतीय
संस्कृति का मध्य-एशिया तथा चीन में प्रचार-प्रसार हुआ। कुषाणों का राज्य अरब सागर
से लेकर पूर्वी मध्य-एशिया तक और नर्मदा-गोदावरी तक फैला हुआ था। कुषाणों ने
भारतीय भाषा और लिपियों को अपनाया। कुषाणों के समय में रोमन साम्राज्य के साथ
व्यापार खूब बढ़ा और रोमन स्वर्ण मुद्राएँ बड़ी तादाद में पहुंचने लगी। विम कदफिसस
ने भारत में पहली बार सोने के सिक्के चलाए।"
क्रमश: ...