रविवार, 7 जनवरी 2024

बडे शहरो में पढने को जाती बेटियों से- इन्दु श्री (आजमगढ़)

    इन्दु श्री (आजमगढ़)

बड़े शहरों में पढ़ने को जाती बेटियों से

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सुनों लड़कियों !!

अपने पिता की एक तस्वीर

हमेशा अपने पास रखना

जिसने तुम्हें स्वप्न  दिखाया

स्वप्नों खातिर हौसला बढ़ाया

स्वप्नों को हासिल करने खातिर

दहलीज पार कराई

ताकि हो सको तुम शिक्षित

ताकि कर सको हासिल अपने हिस्से का आकाश

इसलिए हे लड़कियों !

रहें  हमेशा  याद तुम्हें

जरूर रखना एक तस्वीर पिता की पास अपने ।

 

सुनों लड़कियों !!

खाकर रोटी आधी

तुम्हें दिया पेट भर भोजन

सालो-साल रहे पुराने वस्त्रों में

पर तुम्हें पहनाते रहे नये- नये हरदम

जब तुम सोती थी

तब तुम्हारे मुखमण्डल पर रंचमात्र भी रेखाएं ना  दिखे चिंता की

न जाने कितनी रातें जागकर काटी है

तुम्हें आभास भी नहीं

तुम जानती हो कि उनके पास नहीं है कोई ऊंची पहुँच

ना ही है धन अपार

भेजते हैं तो वे अपनी मेहनत के ही बल पर

इसलिए  हे लड़कियों!!

रहें हमेशा याद  तुम्हें

जरूर रखना एक तस्वीर पिता की पास अपने।

 

सहज भाव और मृदुल- मुस्कान के साथ

भेजने वाले पिता की आँखों से जैसे ही होती ओझल बस तुम्हारी

टूट पडते है बांध आँसुओं के।

लाख परेशानियों से जूझते रहे हर रोज

पर तुम्हारे लिए खुशियों के जुगनुओं को सहेजते रहे हमेशा

उनकी आँखों में पल रहे स्वप्नों को तुम ही करोगी साकार

ऐसा है उनका विश्वास

बनोगी उनके अकेलेपन की साथी

उनके बुढ़ापे की लाठी

पाल रखी है ऐसी आस

पिता के त्याग को,

उनके अथक परिश्रम को,

उनकी अनगिनत तकलीफों को

तुम  भूलना नहीं

इसलिए  हे लड़कियों  !

रहें हमेशा याद तुम्हें

जरूर रखना तस्वीर पिता की पास अपने।

 

सुनों लड़कियों !

खेतो में खटकर,

रिक्शा खींचकर,

गिट्टी-पत्थर तोड़कर,

जूते-चप्पल सिलकर,

बोझा ढोकर,

ईंट की भट्टी में ईंट से कही अधिक तपकर,

सर्द रातों में जगकर,

 भीषण गर्मी में झुलसकर,

भूखा सोकर

उन्होंने तुम्हें सींचा है

पाई- पाई जोड़कर

तुम्हारे देखे सपने को जीवन दिया है

बहुत कुछ सहकर तुम्हें शहर भेजा  है

इसलिए हे लड़कियों !

रहे हमेशा याद तुम्हें

जरूर रखना एक तस्वीर पिता की पास अपने।

 

कब तक जलेंगे चरागों से पूछो- ममता 'मंजुला'


                                                                    ममता 'मंजुला'

हसीं चाँद कितना सितारों से पूछो।

बहारों का आलम हवाओं से पूछो।

जो सागर से मिलने चली उस नदी की,

तड़प और रवानी पहाड़ों से पूछो।

मुहब्बत ख़ला भी मुहब्बत बला भी,

मुहब्बत शिफ़ा भी दुआओं से पूछो।

वो आगोश में क्यों छुपा चाँद लेती,

ये राज़ ए वफ़ा उन घटाओं से पूछो।

ये रोती हैं कितना बिछड़कर के उनसे,

छलकती हुई इन निग़ाहों से पूछो।

जो भाई से भाई के दिल तक खिंची हैं,

गिरेंगी वो कैसे दिवारों से पूछो।

यूँ यादों में उसकी तेरे साथ 'ममता'

ये कब तक जलेंगे चरागों से पूछो।

भारत की सांस्कृतिक परम्परा- डॉ.प्रकाश चंद जैन


                                                                   डॉ.प्रकाश चंद जैन

तीन

लोकतंत्र का परस्पर वाद-संवाद से गहरा नाता है। वाद-संवाद और सहिष्णुता की परम्परा भारत के सार्वजनिक जीवन में सुदीर्घ काल से रही होने के कारण से देश में समृद्ध लोकतंत्र के विकास और धर्मनिरपेक्षता की अवधारणाएँ मजबूत हुई। कुल मिलाकर भारतीय लोकतंत्र विविधता के प्रबन्धन पर आधारित है। भारत में लोकतंत्र की अवधारणा नई नहीं है अपितु प्राचीनतम काल में इस अवधारणा ने जन्म ले लिया था। प्राचीन काल में भारत में सुदृढ लोकतांत्रिक व्यवस्था विद्यमान थी। इसके साक्ष्य हमें प्राचीन साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों से प्राप्त होते हैं। विदेशी यात्रियों एवं विद्वानों के वर्णन में भी इस बात के प्रमाण हैं। लोकतंत्र की अवधारणा वेदों की देन है। चारों वेदों में इस संबंध में कई सूत्र मिलते हैं और वैदिक समाज का अध्ययन करने के बाद यह और भी सत्य सिद्ध होता है। ऋग्वेद में सभा और समिति का जिक्र मिलता है जिसमें राजा, मंत्री और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला लेता था। वैदिक काल में इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। इंद्र नाम का एक पद होता था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था। भारत में गणतंत्र का विचार

      वैदिक काल से चला आ रहा है। गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्ववेद में 9 बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वैदिक साहित्य में विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। महाभारत में भी लोकतंत्र के सूत्र मिलते हैं।

महाभारत के बाद बौद्धकाल में (450 ई.पू. से 350 ई.) में भी चर्चित गणराज्य थे। जैसे पिप्पली वन के मौर्य, कुशीनगर और काशी के मल्ल, कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। इसके बाद अटल, अराट, मालव और मिसोई नामक गणराज्यों का भी जिक्र किया जाता है। बौद्ध काल में वज्जी, लिच्छवी, वैशाली, बृजक, मल्लक, मदक, सोमबस्ती और कम्बोज जैसे गणतंत्र संघ लोकतांत्रिक व्यवस्था के उदाहरण हैं। वैशाली के पहले राजा विशाल को चुनाव द्वारा चुना गया था।

प्राचीन गणतांत्रिक व्यवस्था में आजकल की तरह ही शासक एवं शासन के अन्य पदाधिकारियों के लिए निर्वाचन प्रणाली थी। योग्यता एवं गुणों के आधार पर इनके चुनाव की प्रक्रिया आज के दौर से थोड़ी भिन्न जरूर थी। सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार नहीं था। ऋग्वेद तथा कौटिल्य साहित्य ने चुनाव पद्धति की पुष्टि की है परंतु उन्होंने वोट देने के अधिकार पर रोशनी नहीं डाली है।

वर्तमान संसद की तरह ही प्राचीन समय में परिषदों का निर्माण किया गया था जो वर्तमान संसदीय प्रणाली से मिलता-जुलता था। गणराज्य या संघ की नीतियों का संचालन इन्हीं परिषदों द्वारा होता था। इसके सदस्यों की संख्या विशाल थी। उस समय के सबसे प्रसिद्ध गणराज्य लिच्छवि की केंद्रीय परिषद में 7707 सदस्य थे। वहीं यौधेय की केन्द्रीय परिषद के 5000 सदस्य थे। वर्तमान संसदीय सत्र की तरह ही परिषदों के अधिवेशन नियमित रूप से होते थे।

 

किसी भी मुद्दे पर निर्णय होने से पूर्व सदस्यों के बीच में इस पर खुलकर चर्चा होती थी। सही-गलत के आकलन के लिए पक्ष-विपक्ष पर जोरदार बहस होती थी। उसके बाद ही सर्वसम्मति से निर्णय का प्रतिपादन किया जाता था। सबकी सहमति न होने पर बहुमत प्रक्रिया अपनायी जाती थी। कई जगह तो सर्वसम्मति होना अनिवार्य होता था। बहुमत से लिये गये निर्णय को 'भूयिसिक्किम' कहा जाता था। इसके लिए वोटिंग का सहारा लेना पड़ता था। तत्कालीन समय में वोट को 'छन्द' कहा जाता था। निर्वाचन आयुक्त की भांति इस चुनाव की देख-रेख करने वाला भी एक अधिकारी होता था जिसे शलाकाग्राहकय' कहते थे।

अतः यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यूनान के गणतंत्रों से पहले ही भारत में गणराज्यों का जाल बिछा हुआ था। यूनान ने भारत को देखकर ही गणराज्यों की स्थापना की थी। यूनान के राजदूत मेगस्थनीज ने भी अपनी पुस्तक में क्षुद्रक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया है।

आजादी के बाद भारत में नेहरू की इसी परम्परा के प्रति गहरी आस्था होने के फलस्वरूप ही उनके प्रयासों से सभी विचारधारा के विद्वत नेताओं (समाजवादी, साम्यवादी, दक्षिणपंथी और डॉ० अम्बेडकर इत्यादि) से लम्बी-लम्बी तकरीरों के बाद विश्व का सबसे सुंदर संविधान तैयार किया गया और आज भारत को अपनी अनेक कमजोरियों के बाद भी विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय संविधान के निर्माता इस बात के प्रति सचेत थे कि शासन में किसी भी विचारों को मानने वाले हों, वे किसी के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाए। प्रत्येक व्यक्ति उस धर्म-पंथ को अपनाने को स्वतंत्र हो जो उसे अच्छा लगे। भारत और भारतीयों के बहुलवादी स्वभाव के मद्देनजर धर्मनिरपेक्षता की जगह और कोई भी व्यवस्था उचित नहीं होगी। इसीलिए हमारा संविधान भी इसी बहुलतावाद को प्रतिबिंबित करता है।

प्राचीन भारतीय कला में कामुकता का अभाव नहीं रहा है, उलटे 'काम' को पूज्य मानकर पुरूष-नारी के आंतरिक संबंधों का खुलकर चित्रण किया जाता रहा है। ओडिशा के भुवनेश्वर, कोणार्क और प्यूरी के प्राचीन मंदिरों में पुरूष-नारी की मैथुन छवियाँ (150-1250 ईसवीं), मध्यप्रदेश में खजुराहों की प्रसिद्ध मूर्तियाँ (900-1050 ईसवीं), महसाना का लिम्बोजी माता मंदिर (दसवीं ईसवी सदी), मद्रास में बेल्लारी का कूपगुल्लु और बड़ौदा के नजदीक सुनाक का नीलकांत मंदिर ऐसी ही कलात्मक और कामोत्तेजक छवियों के उदाहरण है। 14

कामसूत्र महर्षि वात्स्यायन द्वारा रचित भारत का एक प्राचीन कामशास्त्रीय (en:  Sexology) ग्रंथ है। यह विश्व की प्रथम यौन संहिता है जिसमें यौन प्रेम के मनोशारीरिक सिद्धान्तों तथा प्रयोग की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचना की गई है। राजनीति व अर्थ के क्षेत्र में जो स्थान कौटिल्य के अर्थशास्त्र का है, काम के क्षेत्र में वही स्थान कामसूत्र का है। अधिकृत प्रमाण के अभाव में महर्षि वात्स्यायन का काल निर्धारण नहीं हो पाया है। परन्तु अनेक विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के अनुसार महर्षि ने अपने विश्वविख्यात ग्रन्थ 'कामसूत्र' की रचना ईसा की तृतीय शताब्दी के मध्य में की होगी। तदनुसार विगत सत्रह शताब्दियों से कामसूत्र का वर्चस्व समस्त संसार में छाया रहा है और आज भी कायम है। संसार की हर भाषा में इस ग्रन्थ का अनुवाद हो चुका है। इसके अनेक भाष्य एवं संस्करण भी प्रकाशित हो चुके हैं, वैसे इस ग्रन्थ के जयमंगला माष्य को ही प्रामाणिक माना गया है। कोई दो सौ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध भाषाविद् सर रिचर्ड एफ बर्टन (Sir Richard F. Burton) ने जब ब्रिटेन में इसका अंग्रेजी अनुवाद करवाया तो चारों ओर तहलका मच गया और इसकी एक-एक प्रति 100 से 150 पौंड तक में बिकी। अरब के विख्यात कामशास्त्र 'सुगन्धित बाग' (Perfumed Garden) पर भी इस ग्रन्थ की अमिट छाप है।

'महर्षि के कामसूत्र ने न केवल दाम्पत्य जीवन का श्रृंगार किया है वरन कला, शिल्पकला एवं साहित्य को भी सम्पादित किया है। राजस्थान की दुर्लभ यौन चित्रकारी तथा खजुराहो, कोणार्क आदि की जीवन्त शिल्पकला भी कामसूत्र से अनुप्राणित है। रीतिकालीन कवियों ने कामसूत्र की मनोहारी झांकियां प्रस्तुत की हैं तो गीत गोविन्द के गायक जयदेव ने अपनी लघु पुस्तिका 'रतिमंजरी' में कामसूत्र का सार संक्षेप प्रस्तुत कर अपने काव्य कौशल का अद्भुत परिचय दिया है। रचना की दृष्टि से कामसूत्र कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के समान है। चुस्त, गम्भीर, अल्पकाय होने पर भी विपुल अर्थ से मण्डित। दोनों की शैली समान ही है। सूत्रात्मक। रचना के काल में भले ही अन्तर है, अर्थशास्त्र मौर्यकाल का और कामसूत्र गुप्तकाल का है। 15

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मैक्सिको के जाने-माने कवि ऑक्टोवियो पॉज ने भारतीय सभ्यता पर अपनी प्रसिद्ध कृति 'इन लाइट ऑफ इण्डियन' में एक पूरा खंड संस्कृत के श्रृंगार-काव्य को समर्पित किया है। इसमें बौद्ध सन्यासी विद्याकार के ग्यारहवीं सदी के 1728 काव्य-छंदों के संकलन के भी बहुत से अंश शामिल थे, जिनमे से कई भरपूर कामोत्तेजक हैं। लदाहाचंदू या भावकादेवी जैसे कवियों ने जिन्होंने एक हजार वर्ष पहले नारी-वक्ष की महिमा में अनगिनत छंद रचे थे, भारतीय संस्कृति के अंग रहे हैं। 16

इसी प्रकार 11 वीं सदी में मूल लेखक कोका पंडित द्वारा लिखित 'कोक शास्त्र 'रति रहस्य' पर आधारित सैक्स ज्ञान की अनेक उलझन भरी समसयाओं का अचूक एवं प्रामाणिक समाधान विवाहित स्त्री-पुरुषों के जीवन में उठने वाली सभी समस्याओं की सरल व्यावहारिक, सटीक व वैज्ञानिक जानकारी देने वाली अनुपम पुस्तक है। 'ग्यारहवीं सदी तक भारत में आने वाले मुस्लिम यात्री हिन्दुओं की यौन स्वच्छंदता देखकर दंग रह जाते थे।'अभिज्ञान शाकुंतलम में कालिदास द्वारा उज्जयनि की शिप्रा में स्नान कर रही नारियों की सौंदर्य-गाथा का चित्रण वेलेंटाइन डे' को भी शर्मसार कर जाता है। इन सभी कृतियों में प्रेम संबंधों से जुड़ी स्वच्छंदता इसका जीता-जागता प्रमाण है। श्रृंगार रस या कामोत्तेजना से जुड़ी प्राचीन भारतीय कला अपने मूल स्वरूप में धार्मिक है। इसे मनुष्य की चरम आनंद की अवस्था की दृष्टि से देखा जा सकता है-एक ऐसा परम् आनंद, जिसे केवल आत्मा द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है। वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों की जोड़ी का विरोध करने वालों को यह पता होना चाहिए कि भारतीय प्राचीन काल में 'काम' को भी महत्व दिया गया है। विरोध करने वाले शायद इसलिए विरोध करते हैं कि यह शब्द विदेशी है, शायद इसका नाम 'कामदेव दिवस होता तो इतना विरोध नहीं होता।

भारतीय परम्पराओं को ठीक से समझने का ही हमारा यहां उद्देश्य है, जिन्होंने अपनी सभी विचारधाराओं से भारतीय समाज और सभ्यता को सदा ही जीवंतता, प्रदान की है, जैसे कुषाणों के शासनकाल की भारतीय संस्कृति प्रचार-प्रसार की नीति, गुप्तकाल में प्रचलित बहुलतावादी सहिष्णुता, पांचवीं सदी में आर्यभट्ट द्वारा प्रश्न कर समाधान खोजने की परम्परा, छठी सदी में वराहमिहिर और सातवीं सदी में ब्रह्मगुप्त जैसे विद्वानों के अनुसंधानों से वैज्ञानिक प्रगति में अवश्य ही सकारात्मक प्रभाव रहा है। भारत में कुषाणों का शासन काल काफी विस्तुत और समृद्ध रहा है। कुषाणों ने इस देश में आकर बौद्धधर्म व शैवधर्म को अपनाया, उनके प्रयासों से बौद्धधर्म एवं भारतीय संस्कृति का मध्य-एशिया तथा चीन में प्रचार-प्रसार हुआ। कुषाणों का राज्य अरब सागर से लेकर पूर्वी मध्य-एशिया तक और नर्मदा-गोदावरी तक फैला हुआ था। कुषाणों ने भारतीय भाषा और लिपियों को अपनाया। कुषाणों के समय में रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार खूब बढ़ा और रोमन स्वर्ण मुद्राएँ बड़ी तादाद में पहुंचने लगी। विम कदफिसस ने भारत में पहली बार सोने के सिक्के चलाए।"

                                                              क्रमश: ...   

 

* एक आँसू * सोमनाथ शर्मा



                                                                     

                                                                        * एक आँसू *

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आँसू !

आत्मा का आर्त्तनाद ,

उच्छलित सौन्दर्य प्रेम का, आनंद का

हृदय में जुटी सुगंध का,

मकरंद का !

दृगकोरकों में आ बैठा चुपके-से

पलकों में झिलमिलाने लगा,

बरौनियों में छलछलाने लगा !

मुरझाए पुष्प सा

नयनों के वृंत पर अटका पड़ा

कितने ही पतझरों से झुलसा लड़ा !

अब गिरा,

तब गिरा

पर ना गिरा, मैं रोके रहा !

धो गया तारक द्वय ,

पुँछ गया,

काजल की लकीरों में खिंच गया,

बस ये बता गया

कि कुछ बात है

दिन नहीं,अंदर रात है !

सागर है,

उमड़ता ज्वार है !

अब और साफ दिखाई देने लगा है

पहले से बेहतर समझ में आने लगा है !

ये दुनिया ,

इसके रूप,

इसके रंग,

इसके खेल !

कोशिश यही रहेगी अब और,

कि दर्द से दोस्ती हो जाए

आर्त्तनाद, अनहद नाद बन जाए !

न पिघले , न उछले

न छलछलाए !

वहीं थम जाए,

वहीं जम जाए !

क्योंकि आँसू का वजन, कोई उठा नहीं सकता

आँसू की कीमत,कोई लगा नहीं सकता

पिघले हुए दर्द को, कोई जमा नहीं सकता

खुशियों को कोई और, कमा नहीं सकता

तो क्योंकर...

जीवन की जमा पूँजी को,

अस्तित्व को,

चेतना को,

सम्पूर्ण विराट को,

हृदय को मथकर निकले रत्न को,

जीवन के काव्य को,

व्यष्टि में समाहित समष्टि को,

एक दृष्टि में समाहित सम्पूर्ण सृष्टि को,

लुटाया जाए,

क्योंकर गिराया जाए ?

सहेजकर ही रखा जाए !

सँभालकर ही रखा जाए!!!

स्मृतियों में इरफान - एम.असलम. टोंक


 













स्मृतियों में इरफान

एम.असलम. टोंक

अक्सर बुलंदियों पर पहुंचकर लोग अपनी ज़मीन से कट से जाते हैं, लेकिन फिल्म अभिनेता इरफान खान ने अपनी ज़मींन से लगाव बनाए रखा। टोंक के नवाबी खानदान के वंशज इरफान खान जब फिल्मी दुनिया में बुलंदियों पर पहुंचे, तो उन्होंने अपना शजरा बनवाया। यानी की खानदानी वंशावली। इसे अंजुमन सोसायटी खानदाने अमीरिया से प्राप्त कर हर्ष महसूस किया। उन्होंने अपनी कामयाबी का श्रय भी अपने बुजुर्गो की दुआओं को दिया। उन्होंने ये बात भी स्पष्ट की थी कि मेरी मां सहित कई लोग फिल्मों को अच्छा नहीं समझते थे। उस समय उनको समझाते हुए इरफान खान ने कहा था कि वो नाच-गाना नहीं करेगा, ऐसा काम करेगा, जिससे लोगों को कुछ मिलेगा। इरफान खान के बचपन के दोस्त एवं रिश्तेदार का कहना है कि इरफान को अपनी ज़मीन से काफी लगाव रहा। वो अक्सर यहां आते थे, उन्होंने टोंक के चंदलाई आदि में ज़मीन भी ली। क्रिकेट व पतंग उड़ाने का उनको बहुत शौक़ रहा। वो अपने साथियों आदि के साथ यहां आते थे, तो क्रिकेट खेलते थे तथा पतंग उड़ाते थे। कचहरी में रहने वाले उनके रिश्तेदार रहीमुल्लाह उर्फ भाई मियां का कहना है कि इरफान फिल्मी दुनिया में बुलंदियों पर पहुंचने के बाद भी अपने बुजुर्गों से झुककर मिलते थे तथा पूरे अदब के साथ पेश आते थे।

          सिनेमा जगत में टोंक का नाम रोशन करने वाले फिल्म अभिनेता इरफान खान को अपनी मां की दुआओं पर अटूट विश्वास था। लेकिन जैसे ही मां की सांस टूटी। वो भी चार दिन ही जिंदा नहीं रह सका। फिल्म अभिनेता इरफान खान के जानकारों और दोस्तों का कहना है कि वह हमेशा यह कहते थे कि जब तक है मेरी मां, तब तक मुझे कुछ नहीं होगा। और यह बात सच भी साबित हुई। इरफान खान की मां जब तक जिंदा रही, वह बड़ी बीमारी से भी लड़ते रहे। लेकिन जैसे ही उनकी मां ने 25 अप्रैल 2020 को जयपुर में अंतिम सांस ली, तो वो भी दुनिया से 29 अप्रैल 2020 को रुखसत हो गए। लेकिन उनकी एक्टिंग एवं उनके विश्वास को आज भी लोग सलाम करते हैं। आज भी उनकी याद आते ही कई लोगों की आंखे नम हो जाती है। फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज जहां इरफान के जीवन पर पुस्तक लिखते रो दिए तो, टोंक में भी टीवी के छोटे से पर्दे से बॉलीवुड व हॉलीवुड में टोंक का नाम रोशन करने वाले इरफान खान को आज भी उसके चाहने वाले याद करते हैं। भले ही इरफान खान इस दुनिया से रुखसत हो गए। लेकिन उन्होंने अपने जीवन का जो संघर्ष किया। वह युवाओं को सदियों प्रेरणा देता रहेगा। संघर्ष ही जीवन है। इस बात को इरफान खान ने बखूबी आत्मसात भी किया। टोंक में पैदा हुए इरफान खान के रिश्तेदारों व चाहने वालों को अब तक यह मलाल है कि वह अपने हीरो के आखिरी सफर में कोरोना संक्रमण के कारण कांधा नहीं दे सके। इरफान से प्रभावित होकर वर्तमान में जहां फिल्मी दुनिया में काम करने वाले शादाब रहबर खान पटना बिहार उनकी कला को सलाम करते हैं। वहीं टोंक के शादाब खान जिसे वर्तमान में शहंशाह सूरी खान के नाम से जाना जाता है, वो इरफान खान से प्रेरित होकर टोंक का नाम रोशन करने के लिए लगातार मेहनत कर रहा है। उसको सफलता भी मिलने लगी है। कई धारावाहिक एवं फिल्मों में काम करने के साथ ही वो छोटी-छोटी फिल्म कथा भी लिखने लगा है। राजस्थान की एक मात्र मुस्लिम रियासत रही टोंक के नवाबी खानदान में 7 जनवरी 1967 में जन्मे इरफान खान के परिवार की स्थितियां भी नवाबी खानदान की जागीरें जब्त होने के बाद ठीक नहीं रही थी। उनके पिता टोंक से जयपुर चले गए। वहां उन्होंने टायर रिमोड का कार्य शुरू कर दिया। इसमें इरफान खान भी उनका हाथ बंटाते थे। लेकिन उनका सपना था कि वो क्रिकेट में देश का नाम रोशन करें। वो अभिनय में भी बचपन से रुचि रखते थें। यानी की उनके जीवन संघर्ष के दो सपने थे। इन दोनों ही क्षेत्रों में अपना स्तरीय मुकाम बना पाना कुछ आसान भी नहीं था। लेकिन संघर्ष ही जीवन है, के जुनून के साथ इरफान ने सबकुछ दाव पर लगाने की ठान ली। इसी दौरान पिता का देहांत हो गया। अब घर की जिम्मेदारी एवं सपनों को कामयाब बनाने का जुनून । दोनों को साथ लेकर चलना भी कुछ आसान नहीं था। इसी दौरान उनका चयन 23 वर्ष से कम उम्र के खिलाड़ियों में सीके नायडू प्रतियोगिता के लिए हुआ। लेकिन बुलंदियों पर पहुंचकर कमाल दिखाने वाले इस हीरों के पास प्रतियोगिता के लिए कैम्प में जाने के लिए पैसा नहीं था। बाद में इस बात को इरफान ने कई जगह वाज़े भी किया। कचहरी दरवाजे के पास रहने वाले उनके बचपन के दोस्त एवं रिश्तेदार असद भाई सहित कई लोग कहते हैं कि उसकी आवाज़ सुनते ही आज भी उनकी याद में आंखे नम हो जाती है। इरफान युवा कलाकारों के लिए एक ऐसे प्रेरणा स्त्रोत है, जो शून्य से शिखर तक पहुंचे थे।

 अपनी जिंदगी के बारे में क्या कहते थे इरफान : 

 इरफान एक मंच से अपनी जिंदगी के बारे में बताते हुए कहते है, मैं जिस परिवार से हूं उसमें कोई क्रिएटिव बैकग्राउंड नहीं था, ना ही मेरा परिवार व्यापारी था। मैं पशोपेश में था। इसी माहौल में मैंने कुछ फिल्में देखी और प्रभावित हो गया। एक्टर बनने का सपना देख लिया। ये मेरे जीवन की सबसे बड़ी रिस्क थी। ग्रेजुएशन हो चुका था और मेरे करीबी लोग कह रहे थे कि थिएटर करो लेकिन एक नौकरी भी होना चाहिए। मैंने उनकी बात नहीं मानी। मैं सिर्फ अपने सपने में कूदना चाहता था और मैं सपनों के पीछे हो लिया। वो ये भी बताते थे कि मेरा सिलेक्शन सीके नायडू टूर्नामेंट के लिए हुआ था। उस कैम्प में जाने के लिए मैं एक मामूली रकम का इंतजाम नहीं कर पाया। यह वो लम्हा था जब मैंने विचार शुरू किया कि मुझे खेल जारी रखना चाहिए या नहीं। मैंने फैसला लिया कि खेल छोड़ देना चाहिए क्योंकि मुझे इसमें किसी ना किसी सहयोग की जरूरत होगी। मैंने क्रिकेट को छोड़ दिया। जिंदगी आपको सिखाती है। किसी की राय से थोड़ा-बहुत समझ सकते हैं, लेकिन सीख नहीं सकते।...आप जो खुद-ब-खुद सीखते हैं, वो उससे बड़ी सीख किसी और से नहीं पा सकते।

 अमिताभ ने इरफान के लिए कहा था :

 इरफान की एक्टिंग अपने आप में अलग ही थी, जो भी रोल करते थे उसको जीवंत कर देते थे। यहीं कारण था कि उनके बारे में एक बार अमिताभ बच्चन ने कहा था कि ऐसी महारत तभी मुमकिन है, जब अापने उस किरदार को बखूबी, समझा हो।


किसका बदला है हाल ? - टीकम 'अनजाना'

                                                                  टीकम 'अनजाना'

किसका बदला है हाल ?

 

तारीख बदली महीना बदला, और बदला है साल

यों साल के बदलने से, किसका बदला है हाल।

 

अल्फ़ाज़ वही अन्दाज़ वही, आदमी भी वही है

ना जुबाँ बदली है उसकी, ना ही बदला है गाल।

यों साल के बदलने से, किसका बदला है हाल ।।

 

कहता है ज़माना, कि धोखा खा गया 'अनजाना'

दुकानदार ने लेबल बदला है, नहीं बदला है माल।

यों साल के बदलने से, किसका बदला है हाल ।।

 

मछलियाँ दरिया में होती, तो ठिकाना भी बदलती

ना मछुआरा बदला ना पानी, ना बदला है ताल।

यों साल के बदलने से, किसका बदला है हाल ।।

 

आदमी हो या परिंदा, पेट भरा हो तो रहता जिंदा

जुल्मो भूख कब मिटेगी, नहीं बदला है सवाल।

यों साल के बदलने से, किसका बदला है हाल ।।

 

शिकारी जाना पहचाना, मगर शिकार 'अनजाना'

बहेलिये ने शिकार के लिए, फिर बदला है जाल।

यों साल के बदलने से, किसका बदला है हाल ॥

संदेह , पुकार - अशोक कुमार


 अशोक कुमार

संदेह

 किसी अनिष्ट की आशंका से अचानक

अर्धरात्रि में टूटती है नींद

और गहरे स्याह सन्नाटे में

बढ़ने लगतीं हैं फुसफुसाहटें लगातार।

 लगता है कि कुछ अदृश्य हाथ

टटोल रहे हैं कुछ

और संदिग्ध माने जाने के भय से भयभीत उम्मीदें

तलाश रही हैं सुरक्षित कोने।

 आधी पढ़ी गई कहानियों से अचानक

विलुप्त हो रहे हैं किरदार

यह रुत इतनी शुष्क है कि

कविताओं से भी कम हो रही है नमी।

 लगता है कि रौशनदानो के बाहर

उग आईं है अनेकों आंखे

जो किसी गुप्तचर सी झांक रहीं हैं भीतर।

 मेरा अपना एक हाथ दूसरे हाथ का मुखबिर बना है

और मेरी ही एक आंख

मेरी दूसरी आंख की जासूस।

 सुइयों की अनवरत गति के बावजूद

दीवाल पर टँगा यह समय

लगता है युगों से नहीं बीता।

 और सूचनाओं के समंदर की तलहटी में

आखिरी सांसें भरता सत्य

प्रार्थनाओं को दोहराते हुए

मुक्ति का मार्ग तलाश रहा है।

 

 

पुकार

 कार्तिक के इस उत्तरार्द्ध में

कुछ नर्म होने लगी है धूप

रात से मिलने की आतुरता में

जल्दी ढलने लगे हैं दिन।

 सबसे खूबसूरत दरख्तों के पत्ते

झरने से पूर्व अपने हरे में

कुछ देर और ठहर जाना चाहते हैं।

 वे कुछ देर और ठहरेंगे यहाँ

और फिर झर जाएंगे

घनी उदासी का गहरा पीला ओढ़कर।

 शिशिर की शीतरात्रियों से पहले

लोकधुनों की मीठी तान पर

फिर से गूंजेगा विरह का कोई सर्द गीत।

 स्मृतिलोप से उपजे ये संदेह

दुःस्वप्नों की लम्बी श्रृंखलाएं रचेंगे

और भविष्य की यह एकाकी यात्रा

बेहद कुरूप दिखेगी दर्पण में।

 किन्तु इस ऋतु-अंतराल में

तुम बार-बार पुकारना मुझे

और मेरी यात्राओं की सारी थकान को

इस पुकार के माधुर्य में घोल लेना।

 गहरे कोहरे-कुहासे के बीच

रोज़ एक नया निर्वात पनपेगा भीतर।

तुम रोज़ उस खालीपन को

अपनी उपस्थिति से भर देना।


शनिवार, 6 जनवरी 2024

ईश्वर तेरे कितने रूप?- राजेन्द्र कसवा


 राजेन्द्र कसवा
साहित्यकार 
राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा 
प्रतिष्ठित साहित्यकार पुरस्कार से सम्मानित

ईश्वर तेरे कितने रूप?

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जहां तक याद है,१९८७ में,'हंस' के जून अंक में उत्पलेंदु चक्रवर्ती की कहानी 'देवशिशु' और स्वदेश दीपक की 'बाल भगवान ' कहानी एक साथ पुनः प्रकाशित हुई थी। दोनों लेखकों में विवाद था,यह अलग विषय है। दोनों कहानियों की विषय वस्तु समान है।

'देव शिशु' कहानी में एक बेहद निर्धन मजदूर की पत्नी रात को एक बेडोल शिशु को जन्म देती है। दाई मजदूर पिता से कहती है कि वह तुरंत ओझा को बुलाकर लाए। नवजात शिशु पर छठ मैया का प्रकोप है। इसलिए  टेढ़ा-मेढ़ा पैदा हुआ है।

मजदूर भागकर ओझा के पास पहुंचा और सारा हाल बताया। बच्चे की अद्भुत बनावट ओझा के दामाद को वरदान लगी। वह बीस रुपए में शिशु को खरीद लेता है। ओझा परिवार बच्चे को पालता है और उसे ईश्वर का अवतार घोषित कर देता है। उसके दर्शन के लिए टिकट तय कर दी गई। जनता की रोज लंबी कतार लगने लगी। चर्चा सुनकर वह मजदूर पिता भी टिकट लेकर दर्शन करने आता है और अपने बेटे को पहचान लेता है । ओझा परिवार देव शिशु के बाप को डराकर भगा देता है।

इसी से मिलती जुलती कहानी स्वदेश दीपक की 'बाल भगवान' है। जहां तक याद है, एक गरीब ब्राह्मण के घर गणेश जी की शक्ल में बच्चा पैदा होता है। बाप बहुत चिंतित रहता है और उसे मारने की भी सोचता है। बच्चा बड़ा होकर गणेश जी की तरह सारे दिन खाना मांगता है। बोली नहीं आती , इशारा ही करता है। एक दिन एक धनी सेठ दंपति की नजर पड़ती है। उसे गणेश जी का अवतार घोषित कर दिया गया। लड्डुओं का चढ़ावा आने लगा। पूरे परिवार के दिन फिर गये । बच्चा अधिक खाने से एक दिन भर जाता है। लेकिन उसके नाम पर भव्य मंदिर का निर्माण होता है।

३६ साल पहले की ये दोनों कहानियां आज याद आ गई।

बहरहाल,चलो , अयोध्या चलें, विष्णु के अवतार बुला रहे हैं।


“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...