शनिवार, 6 जनवरी 2024

लोक संगीत मर्मज्ञ - मोहन सिंह बोरा रीठागाड़ी जी। आलेख - बृजमोहन जोशी, नैनीताल।


 

लोक  संगीत मर्मज्ञ - मोहन सिंह बोरा रीठागाड़ी जी।

आलेख - बृजमोहन जोशी, नैनीताल।

      कुमाऊंनी लोक गीतों,वीर गाथाओं के रसिक गायक स्व. मोहन सिंह बोरा रीठगाड़ी (बैरी) जी का नाम और उनके लोक गीत

        आज भी  कुमाऊंनी संस्कृति में रूचि रखने वाले हर व्यक्ति के दिल में धड़कते हैं। अपनी गायकी के दम पर जीवित लोक गीतों का यह बहुत रंगी चितेरा सचमुच में लोक कलाकार के नाम को सार्थक करता था। उनका जन्म सन् १९०५ में पिथौरागढ़ जनपद के धपना गांव में हिम्मत सिंह बोरा जी के घर में हुआ था। उनकी अक्षरों की पढ़ाई तो हुईं नहीं पर उन्होंने गाड़,गधेरौ, डाना -कानाओं में, बांज बुरांस के हरे भरे पेड़ों की छाया में हुडुके कि थाप पर बैर,भगनौल,रमौल, झोड़ा,छपेली, चांचरी, न्यौली, मालसाई ,बौल,विद्या का ऐसा अध्यन किया कि वहीं उनकी अमरता का प्रतीक बन गया। कुछ समय पश्चात  वह अल्मोड़ा जनपद के ग्राम -बैदी बगड़ पट्टी रीठागाड़ में वह‌ आकर बस गए और यहीं से लोग उन्हें रीठागाड़ी के नाम से सम्बोधित करने लगे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी रीठगाड़ी जी पर मां सरस्वती कि असीम अनुकृपा थी। कुमाऊं की सांस्कृतिक थात तथा लोक गीतों की सशक्त विधा को जीवन्त बनाये रखने में मोहन सिंह बोरा जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।उनकी गायकी का अन्दाज  स्वरों का उतार चढ़ाव और हुडुके कि थाप का उनका अन्दाज कुछ ऐसा था कि वह कुछ ही समय में लोक गायक के रूप में प्रसिद्ध हो गये और १९५० के बाद कुमाऊं अंचल में कोई ऐसा मेला या पर्व नहीं रहा होगा जहां मोहन सिंह बोरा जी के लोक गीतों की धूम न रही हो। स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन के समय, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने जन गीतों को गाकर ग्रामीण जनता से गुलामी की जंजीर से मुक्त होने का आह्वान किया। मोहन सिंह बोरा जी ने लोक विधा में न्यौली को एक नयी तर्ज दी जो रीठगाड़ी तर्ज कहलाती है।उनकी न्यौली का उतार चढ़ाव श्रोताओं के ह्रदय को छू जाता था। बिडम्बना देखिए यह लोक गायक, स्वतन्त्रता सेनानी फिर भी अभावों में जीता रहा।

वर्ष २००५ मे पारम्परिक लोक संस्था परम्परा नैनीताल द्वारा

भारतीय नववर्ष चैत्र प्रतिपदा के शुभ अवसर पर आयोजित नव वर्ष  मिलन समारोह कार्यक्रम में संस्था द्वारा संकलित  व प्रकाशित परम्परा वार्षिक विशेषांक मोहन सिंह बोरा रीठगाड़ी जी सादर समर्पित कर संस्था ने स्वयंम को गौरवान्वित महसूस किया।

       आज मोहन सिंह बोरा रीठगाड़ी जी हमारे बीच नहीं हैं पर कभी न मिटने वाले उनके स्वरों का फलसफा हमेशा जिन्दा रहेगा मैने अपने गुरु जी कला के सन्दर्भ में बहु आयामी व्यक्तित्व स्व. रमेश चंद्र जोशी जी से रीठगाड़ी जी के सुपुत्र स्व. चन्दन सिंह बोरा जी कलाकार गीत एवं नाटक प्रभाग से , जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा से रीठगाड़ी जी के  व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में सुना और जाना । गिर्दा ने बताया कि - रीठगाड़ी जी गाते थे कि -

मोहन दा तेरी उमर न्है गे छ।

मोहन दा तेरि बात रै गे छ।। अर्थात - मोहन दा तुम्हारी उमर तो बीत गई लेकिन तुम्हारी बातें रह जायेंगी।

       पारम्परिक लोक संस्था परम्परा नैनीताल द्वारा वर्ष २००५ में संकलित व प्रकाशित  परम्परा नामक दूसरे वार्षिक विशेषांक से यह संक्षिप्त जानकारी मैं आपके साथ सांझा कर रहा हूं।


फिर कबीर- हूबनाथ

 हूबनाथ पांडे 
कवि,लेखक,आलोचक 
 प्रोफेसर,मुंबई विश्वविद्यालय


फिर कबीर

 राजा होता है

ईश्वर का प्रतिनिधि

 ईश्वर की कृपा से

वह बनता है राजा

 राजा बनकर

वह सिर्फ़ ईश्वर का

ख़याल रखता है

 ईश्वर के भव्य

महल बनवाता है

उत्सव मनाता है

 यह सब वह करता है

प्रजा के श्रम के

शोषण के बल पर

 भूखी प्रजा

ईश्वर का भोग बनती है

सूखी प्रजा

दिये का तेल बनती है

और रौशन करती है

ईश्वर की अंधियारी रात

 प्रजा सच्चे मन से

प्रार्थना करती है

ईश्वर से

अपने राजा की

सुख समृद्धि के लिए

लंबी उम्र के लिए

उसे राजा से

चक्रवर्ती सम्राट बनाने के लिए

 और ईश्वर

दरिद्र प्रजा की

समृद्ध प्रार्थना

स्वीकारता है

पूरी सहृदयता से

ईश्वर

राजा का ख़याल

रखता है

राजा फ़िक्र करता है

ईश्वर की

 और कबीर

इन दो भव्य पाटों के बीच

पिसता है

निर्धन प्रजा के साथ

 और भक्तगण

गाते हैं आरती

 भक्तजनों के संकट

क्षण में दूर करे

 और उस क्षण की प्रतीक्षा में

सदियों से खड़े हैं

ईश्वर की चौखट पर

 अपने अपने संकट

अपने अपने सिर पर लिए


भारत की सांस्कृतिक परम्परा- डॉ.प्रकाश चंद जैन

                                                                   डॉ.प्रकाश चंद जैन

दो

भारत में वाद-संवाद एवं सहिष्णुता की अदभुत लम्बी परम्परा रही है। यहाँ की वैचारिक विविधता और वाद-संवाद की परम्परा को सभी सम्प्रदायों द्वारा सर्व सहमति प्राप्त रही है। सदियों से इस देश की विविधता में एकता का प्रसार और जड़ों का जमाव अपने आप में विलक्षण रहा है। विचारों की अभिव्यक्ति की परम्परा चार हजार वर्ष पूर्व वेदों में भी पाई गई है। ऋग्वेद में इस परम्परा के अनुसार विश्व निर्माण को लेकर ही शंका उठाई गई है, क्या कोई ईश्वर है जो ऊँचे स्वर्ग में बैठा सब देख रहा है जो जानता है कि विश्व को किसने रचा था, कब रचा गया था, कैसे इसकी रचना हुई या अनायास ही यह पैदा हो गया ? इसी प्रकार बहुमतीयता और नास्तिकता या विधर्मिता की अभिव्यक्ति तो-रामायण महाकाव्य में जाबालि ब्राह्मण को भी सम्मान मिला है जो राम को भगवान नहीं मानता बल्कि एक नायक मानता है जिसमें अनेक सदगुण है किन्तु राम के अपनी पत्नी पर संदेह करने को एक समझदार व्यक्ति के लिए अव्यावहारिक कृत्य कहता है। जाबालि राम को यह सलाह देता है कि वे अपने पिता के अजीबोगरीब वचन का पालन न करें। जाबालि का मानना था कि कोई उहलोक नहीं है, उसे पाने का कोई धार्मिक विधान भी नहीं है, शास्त्रों में देव पूजन, बलि कर्म, दान, व्रतानुष्ठान आदि बातें पुरोहित वर्ग द्वारा सामान्य जन पर अपना प्रभाव जमाने के लिए भर दी है। अंत में जाबालि प्रत्यक्ष को प्रधान कर्म मानने का व्यवहारवादी ज्ञान राम को देते हैं, यथा :

'स नास्ति परमित्येत्त् कुरु बुद्धिं महामते ।

प्रत्यक्षं यत्तदानिष्ठ परोक्षं पृष्ठतय कुरू।।"

 

अर्थात, महामते ! मन में यह निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो प्रत्यक्ष (राज्यलाभ) है, उसका आश्रय लीजिए, परोक्ष (पारलौकिक लाभ) को पीछे ढकेल दीजिए। इस प्रकार हमें देखने को मिलता है कि रामायणकार ने जाबालि को अपने विचारों की व्याख्या विस्तार से करने का पूरा अवसर दिया है, भले ही वह जाबालि के तर्कों से सहमत न हो।

हमारे देश के विद्वान भरपूर रूप से संदेहवादी रहे हैं और इसीलिए प्राचीन काल में हमारे देश में ज्ञान-विज्ञान ने उन्नति की थी। 'तैत्तिरीय ब्राह्मण (2/8/9) में साफ-साफ कहा गया है कि यह विविध सृष्टि किस से उत्पन्न हुई, किसलिए हुई, इसे वस्तुतः कौन जानता है ? देवता भी पीछे से हुए, फिर जिससे यह सृष्टि उत्पन्न हुई, उसे कौन जानता है ? जिससे ध्यावा-पृथ्वी बनी वह वृक्ष

कौन सा था, और किस वन में था, इसे कौन जानता है ? इन सबका अध्यक्ष परमाकाश में है, वही इसे जानता है, अथवा वह भी जानता है या नहीं, इसे कौन जाने ?" और ऋग्वेद का एक ऋषि तो सीधी चुनौती देता है: इह ब्रवीतु य उ ताच्चिकेतात्। अर्थात यह सब जानने वाला यदि कोई है तो वह यहां आकर बतावे।

मैगस्थनीज जिसने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में सैल्यूकस राजदूत के रूप में पाटलिपुत्र में दस वर्ष बिताए थे, के द्वारा लिखी गई 'इंडिका' को भारत पर किसी विदेशी की प्रथम पुस्तक माना जा सकता है। इस पुस्तक में अनेक विलक्षण चीजों और उपलब्धियों की प्रशंसा भरी पड़ी है। ग्रीक साहित्य में तीसरी शताब्दी ई० में टायना निवासी अपोलोनियस की जीवनी में उनकी जिज्ञासा को पूर्ण संतुष्टि भारत में ही मिलने का उल्लेख मिलता है। जर्मन दार्शनिक और यूरोप की ज्ञानोदय विचारधारा से सम्बद्ध हर्डर ने भारत की प्रशंसा में लिखा है कि हिंदू तो मानवता की सबसे सौम्य प्रशाखा है, उनके कार्यों, आनंद, नैतिकता, और पुराणगाथाओं तथा कलाओं में सभ्यता और शांतभाव, मृदुता और मूक आत्मिक गहराइयों के दर्शन होते हैं।" रोमांटिक विचारधारा के चिंतक फ्रीडरिख श्लेगल ने भारतीय संस्कृति के विराट रूप से प्रभावित होकर लिखा है कि "जहाँ पश्चिम में मानव एक मशीन जैसा हो चला है-वह इससे नीचे और कहाँ जाएगा-पूर्व, विशेषकर भारत से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।" उनका यह भी कहना था कि "फारसी और जर्मन भाषाएँ तथा संस्कृतियां ही नहीं बल्कि ग्रीक और प्राचीन रोमन के मूल मन्त्र भी अंततः भारत तक ही पहुँच कर रूकते हैं।" इसी सूची में शॉपनहावर का कहना है कि "यदि पुरानी और नई बाइबिल की तुलना करें तो निश्चय ही नई बाइबिल भारतीय मूल की प्रतीत होगी। इसका नीतिशास्र पूर्णतः भारतीय है। इसी ने नैतिक तत्वों को साधुवृत्ति में परिवर्तित कर दिया है। वहीं से दुःखवाद और अवतार (ईसा मसीह) आए हैं।"7

ई० पू० तीसरी सदी में सम्राट अशोक ने सहिष्णुता और विचारों की अभिव्यक्ति पर काफी जोर दिया था और वाद-संवाद द्वारा विवादों को सुलझाने की आचार संहिता की रचना भी की थी। देवानां प्रिय प्रियदर्शी राजा विविध दान और पूजा से गृहस्थ और सन्यासी सब सम्प्रदाय वालों का सत्कार करते थे, किंतु देवानां प्रिय दान या पूजा की इतनी परवाह नहीं करते जितनी इस बात की कि सब सम्प्रदायों के सार ( तत्व ) की वृद्धि हो। (सम्प्रदायों के) सार की वृद्धि कई प्रकार से होती है, पर उसकी जड़ वाक् संयम है अर्थात लोग सभी सम्प्रदायों का आदर करें व निंदा आवश्यक हो तब भी संयम के साथ। हर दशा में दूसरे संप्रदाय का आदर करना ही चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य अपने सम्प्रदाय की उन्नति और दूसरे सम्प्रदायों का उपकार करता है। इसके विपरीत जो करता है वह अपने सम्प्रदाय की जड़ काटता है और दूसरे सम्प्रदायओं का भी अपकार करता है। क्योंकि जो कोई अपने सम्प्रदाय की भक्ति में आकर इस विचार से कि मेरे सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा करता है और दूसरे सम्प्रदायों की निंदा करता है, वह ऐसा करते समय वास्तव में अपने सम्प्रदाय को ही गहरी क्षति पहुँचाता है। इसलिये समवाय (परस्पर मेलजोल से रहना) ही अच्छा है अर्थात् लोग एक दूसरे के धर्म को ध्यान पूर्वक सुने और उसकी सेवा करे। क्योंकि देवानां प्रिय (राजा) की यह इच्छा है कि सब सम्प्रदाय वाले बहुश्रुत (भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों से परिचित) तथा कल्याणकारक ज्ञान से युक्त हो। इसलिये जो लोग अपने-अपने सम्प्रदाय में ही अनुरक्त है उनसे कहना चाहिये कि देवानां प्रिय दान या पूजा को इतना बड़ा नही समझते जितना इस बात को कि सब सम्प्रदायों के सार (तत्व) की वृद्धि हो।

समकालीन भारत में अशोक की तस्वीर के इर्दगिर्द, साधारण जनमानस में अपना ही पूजित रूप निर्मित हुआ है। 'अहिंसा' और 'पंचशील' नीति सदृश अवधारणाएं उनके विचारों के साथ जोड़ी जाती है। विश्वास किया जाता है कि सचेत हिंसा और राजनीतिक और धार्मिक, सब विश्वासों के प्रति सहिष्णुता की एक लम्बी परम्परा अशोक से शुरू होती है, जो शताब्दियों के दौरान अटूट बनी रही और जिसका चरम विकास गाँधी के राजनीतिक दर्शन में हुआ। इस बात की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि एक सम्राट के नाते किए गए अशोक के कार्य, भारतीय इतिहास और विचारधारा से प्रायः मिटा दिए गए। अशोक के विचारों का राजनीतिक महत्व सफलतापूर्वक अतीत की विस्मृति में दबा दिया गया। भारतीय धर्मनिरपेक्ष स्त्रोतों में अशोक मुख्यतः वंश-तालिकाओं का एक नाम मात्र रह गया।

भारत में वाद-संवाद परम्परा में केवल पुरूष वर्ग का ही एकाधिकार मान लेना उचित नहीं होगा, यह अधिकार लिंग, वर्ण और जाति के बंधनों से भी मुक्त रहा है। भारत में बौद्धमत के तीव्र प्रसार के वर्गाधार का विश्लेषण भी रूढिवादी समाज में सापेक्ष पिछड़ेपन को स्पष्ट करता है। जैन-मत और बौद्ध-मत दोनों ही पुरोहितों को तिरोहित करने वाले धार्मिक विद्रोह कहे जा सकते हैं। इन्होंने न केवल मानवमात्र की समानता के सन्देश का प्रसार किया बल्कि इनके साहित्य इसी प्रतिवाद और विरोध की अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। अतीत में झाँकने से ज्ञात होता है कि वाद-संवाद की प्रक्रिया में नारी की भागीदारी स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाएगी। बृहदारण्यक उपनिषद में विद्वान शिक्षक याज्ञवलक्य से नारी विद्यार्थी गार्गी द्वारा शास्त्रार्थ करने एवं उनसे संतुष्ट होने पर उनको साधुवाद देने का वर्णन मिलता है। मीराबाई, आंडाल, दयाबाई, सहजोबाई, क्षेमा, ललद्यद और न जाने कितनी ही महिलाओं ने भी भक्तिकाल में अपना योगदान दिया है।

स्वामी विवेकानंद ने बड़े गर्व के साथ घोषणा करते हुए कहा था कि-हिन्दू धर्म के कुछ उच्च कोटि के ऋषि-मुनियों और धर्मग्रंथों के ज्ञाताओं में स्त्रियों का अत्यंत सम्मानजनक स्थान था। वेदों के उद्घाटन और सृजन से जुड़ी 21 ऋषिकाएँ स्त्रियां थी।" 'गार्गी' और मैत्रेयी' जैसे नाम आज दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुछ कॉलेजों की शोभा बढ़ा रहे हैं। विश्वपारा, घोषा और अपाला अन्य प्रमुख ऋषिकाएँ थी। आदि शंकराचार्य ने अपने प्रसिद्ध आलोचक मण्डन मिश्व के साथ शास्त्रार्थ के दौरान उसकी विदुषी पत्नी सरसवाणी को नियुक्त किया था।

 

महाकाव्यों में जाति विरोधी और रूढ़िवादी विचारों को चुनौतियां तर्को के सहारे ही दी जाती रही है। महाभारत के एक प्रसंग में भृगु ने भारद्वाज ऋषि से प्रश्न किया: यदि हम सभी कामना, क्रोध, भय, दुःख, चिंता, भूख और थकान अनुभव करते हैं तो हमारे वर्ण कैसे अलग-अलग हो गए? लेकिन उसी महाभारत के अंश श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं: चातुर्वर्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः अर्थात् समाज के अंदर चारों वर्ण है वे गुणों के आधार पर मेरे ही सृजित किये गये हैं। भविष्यपुराण में भी वर्ण-विभाजन पर प्रश्न उठाया गया है कि "जब सभी मानव एक ही पिता (ईश्वर) की संतान है तो इस नाते उनका वर्ण भी एक ही होना चाहिए। मध्ययुगीन भक्ति काल में भक्त और सूफी दोनों ने समाज में प्रचलित धार्मिक रूढ़ियों पर जमकर प्रहार किया है। अक्सर धार्मिक रूढ़ियों को समाज के अभावग्रस्त वर्गों ने ही चुनौती दी है। इनमें अधिकाँश निम्न एवं दरिद्र वर्ग से थे। जैसे कबीर जुलाहे, दादू रूई धुनने वाले, रविदास चर्मकार और सैन एक नाई थे। 14वीं सदी के संत चोखामेला एक दलित थे और मंदिर में प्रवेश से वर्जित होने के बावजूद ये ईश्वर मक्ति में डूबे रहे।12

भारत में संशयों और असहमतियों को सहन करने की एक लम्बी परम्परा रही है। ईसा पूर्व चौथी सदी में विश्व विजय अभियान पर निकले सिकंदर को भी राजनीति पर जैन साधुओं से साम्राज्यवाद विरोधी शिक्षा मिली थी। साम्राजयवाद विरोधी शिक्षा यह थी- "राजा सिकंदर ! प्रत्येक व्यक्ति का पृथ्वी के उतने ही भाग पर अधिकार दिखाई देता है जिस पर उसके दो पाँव रखे हो। आप भी हमारी ही तरह है। हॉं, आप सदा व्यस्त रहते हैं, अपने घर से इतनी दूर निकल आये हैं और अपने तथा अन्य लोगों के लिए कुछ न कुछ गड़बड़ ही कर रहे हैं - शीघ्र ही आपकी भी मृत्यु होगी - फिर आपका अधिकार भी मात्र उतनी ही जमीन पर रह जाएगा जिसके नीचे आप दफन होंगे। बौद्धों की जनसंवाद के प्रति गहरी निष्ठा को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने विश्व में संभवतः पहली खुली जनसभाओं के आयोजनो को जन्म दिया। भारतीय इतिहास में संशयवादी, नास्तिकतावादी, अनीश्वरवादी और भौतिकतावादी लोगों की उपस्थिति दार्शनिक महासम्मेलनों में मिलती है। उनके दृष्टिकोण को भले ही नकारा गया हो किन्तु उनको अपना पक्ष प्रस्तुत करने से कभी भी वंचित नहीं किया गया। ई० पू० दूसरी सहस्त्राब्दी में अन्य धार्मिक व्याख्याओं के साथ संशयवादी तर्कशास्त्र पनपने के प्रमाण धर्मग्रंथों में मिल जाते हैं। हिन्दू धर्म में संशयों और असहमतियों को सहन करने की लम्बी परम्परा रही है। संशयवादी और भौतिकतावादी विचारधारा, बुद्ध के समय से ही प्रचलित थी और कुछ, साक्ष्य तो उपनिषदों में भी मिल जाते हैं। संस्कृत और पाली भाषा में अनीश्वरवादी या नास्तिकतावादी साहित्य की रचनाएं भी प्रचुर मात्रा में मिल जाएंगी। चौदहवीं सदी में माधवाचार्य द्वारा अपनी रचना 'सर्वदर्शन संग्रह' में चार्वाक के नास्तिकता और भौतिकतावादी व्यवस्था का मंडन किया गया है। 13

                                                                        क्रमश: ...    

शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

सूरज प्यासा लौट जाता है- डॉ.मीरा रामनिवास वर्मा(पूर्व आई.पी.एस)


 डॉ.मीरा रामनिवास वर्मा(पूर्व आई.पी.एस)

रिटायर्ड अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक 

मानव अधिकार आयोग गुजरात

 

सूरज प्यासा लौट जाता है

पिलाया करती थी मां

जिस लोटे से पानी

उसे देख उदास हो जाता है

सूरज प्यासा लौट जाता है

दुपहरी आंगन में आती है

मां को आंगन में न पाती है

आंचल में न छुप पाती है

दुपहरी उदास हो जाती है।

मां हर दोपहर आंगन में

घर के काम किया करती

सूप छलनी से फटक कर

अनाज साफ किया करती

मिट्टी के चूल्हे सिगड़ी की

मरम्मत किया करती

आंगन को गोबर मिट्टी से

लीपा पोता करती

जेठ की तेज दोपहर में

कुएं से पानी लाया करती

मटके का पानी ठंडा रखने

बड़े जतन किया करती

गर्मी की दोपहर आंगन में

हलचल लगी रहती

नीम की छांव में पड़ोसिनों संग

सभा लगी रहती

मंगौड़ी सेवईं बनाई जाती

लोक कथाएं सुनाई जाती

यह देखते सुनते दोपहर

सांझ में तब्दील हो जाती

सांझ मां आंगन बुहारती लोकगीत गाती

आंगन में चुगती चिड़िया पंख हिलाती

सांझ पड़े गोधूलि उड़ाती गैया आती

आंगन में मां को न देख रंभाती

मां बिन गाय ने कुछ दिन रोटी ना खाई

गाय को मां के हाथ की रोटी याद आई

चांद भी आंगन में ज्यादा ठहर नहीं पाता,

मां की ओढ़नी में लगे शीशों में

चेहरा अपना देख नहीं पाता

पीसा करती थी आटा

जिस चक्की से मां भोर में

वह भोर होते ही उदास हो जाती है

मां के कंगन की खनक न सुन पाती है

सुनो मीरा की मां!

पिताजी का संबोधन सुनाई नहीं देता।

पिताजी के चेहरे पर तेज दिखाई नहीं देता।।


घाट का खामोश पत्थर हूं - विजय सिंह नाहटा


                                                                     विजय सिंह नाहटा

 घाट का खामोश पत्थर हूं

नदी जबसे नदी है
देखता ही आ रहा
जल की हजारों भंगिमाएं
और उसके वेग से जो गूंजता संगीत
उसका नाद मुझमें गूंजता है
रात को जब ठहरती है नदी
लहरों पर दमकती ज्योत्सना के
अनगिनत चित्राम मेरी देह पर
उत्कीर्ण हैं गोया
नदी बहती रहे गतिमान
है इसी में साधना का फलित
जैसे हो गया साकार
जब वह स्पर्श से जल की
अजाने रास्तों को नापती है
और उन सुनसान सी वन वादियों से
गुजरता है एक जीवन
उन विहंगम से पथों की ओर
जिन पर पसरता ही जा रहा है मौन
कोटि सागर झिलमिलाते हैं नदी में
और मुझमें झिलमिलाती है नदी
घाट का खामोश पत्थर हूं
मुझी से बह निकलता है नदी के संग
पूरी सभ्यता का दौर।

भारत की सांस्कृतिक परम्परा- डॉ.प्रकाश चंद जैन


 डॉ.प्रकाश चंद जैन

"ईसा के जन्म के बाद पहली सहस्त्राब्दी और उससे पहले के भारत की जो तस्वीर हमारे सामने आती है, वह उस तस्वीर से भिन्न है, जो बाद को मिलती है। उन दिनों भारतवासी बड़े मस्त, बड़े जीवंत, बड़े साहसी और जीवन के प्रति अद्भुत उत्साह से युक्त थे तथा अपना संदेश वे विदेशों में दूर-दूर तक ले जाते थे। विचारों के क्षेत्र में तो उन्होंने ऊँची से ऊँची चोटियों पर अपने कदम रखे और आकाश को चीर डाला। उन्होंने अत्यंत गौरवमयी भाषा की रचना की और कला के क्षेत्र में उन्होंने अत्यंत उच्चकोटि की कारयित्री प्रतिभा का परिचय दिया। उन दिनों का भारतीय जीवन घेरों में बंद नहीं था, न तत्कालीन समाज में ही जड़ता या गतिहीनता की कोई बात थी। उस समय एक छोर से दूसरे छोर तक, समग्र भारतवर्ष में सांस्कृतिक उत्साह भी लहरें ले रहा था।"

जवाहर लाल नेहरू : दिनकर की पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' की प्रस्तावना में उदृत

एक

भारत की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत इसकी 5000 वर्ष पुरानी संस्कृति एवं सभ्यता से आरंभ होती है। डा. ए० एल० बाशम ने अपने लेख 'भारत का सांस्कृतिक इतिहास' में यह उल्लेख किया है कि जबकि सभ्यता के चार मुख्य उद्गम केंद्र पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ने पर, चीन, भारत, फर्टाइल क्रीसेंट तथा भूमध्य सागरीय प्रदेश, विशेषकर यूनान और रोम हैं भारत को इसका सर्वाधिक

श्रेय जाता है क्योंकि इसने एशिया महाद्वीप के अधिकांश प्रदेशों के सांस्कृतिक जीवन पर अपना गहरा प्रभाव डाला है। इसने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से विश्व के अन्य भागों पर भी अपनी संस्कृति की गहरी छाप छोड़ी है।'

"प्रत्येक देश की संस्कृति एक निरंतर बहने वाली धारा के समान होती है, जिसमें कई धाराएं उसमें मिलकर उसे उन्नत बनाती है। भारतीय संस्कृति इसका पुख्ता प्रमाण है। भारतीय संस्कृति के महासमुद्र में कितनी ही धाराएं आकर मिली और उसमें समाहित हो गई या उसकी साझीदार हो गई। कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में-'हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़, चीन, शक, हूण दल, पठान, मुगल एक देने होलो लीन।' इसके उत्तर-पश्चिमी मार्ग से विशाल झुण्ड के झुण्ड अपनी-अपनी मूल्यवान संस्कृतियाँ लेकर आये जिससे यहां नई, ताजा और समृद्ध संस्कृति ने जन्म लिया। निश्चित रूप से हिन्दुस्तान की सांस्कृतिक विरासत अति प्राचीन रही है और इसने विश्व की अन्य संस्कृतियों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है और अन्य संस्कृतियां यहाँ की संस्कृति में समाहित हो गई।"

"दो महान नदी प्रणालियों, सिंधु तथा गंगा की घाटियों में विकसित हुई सभ्यता, यद्यपि हिमालय की वजह से अति विशिष्ट भौगोलीय क्षेत्र में अवस्थित, जटिल तथा बहुआयामी थी, लेकिन किसी भी दृष्टि से अलग-थलग सम्यता नहीं रही। ऐसी अवधारणा कि यूरोपीय ज्ञान, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रभाव में आने से पहले चीन तथा भारत सहित पूर्व के देश शताब्दियों तक विकास एवं प्रगति की दृष्टि से बिल्कुल अपरिवर्तित रहे, गलत है और इसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय सभ्यता हमेशा से ही स्थिर न होकर विकासोन्मुख एवं गत्यात्मक रही है। भारत में स्थल और समुंद्र के रास्ते व्यापारी और उपनिवेशी आए। अधिकांश प्राचीन समय से ही भारत कभी भी विश्व से अलग-थलग नहीं रहा। इसके परिणामस्वररूप, भारत में विविध संस्कृति वाली सभ्यता विकसित हुई, जो प्राचीन भारत से आधुनिक भारत तक की अमूर्त कला और सांस्कृतिक परंपराओं से सहज ही परिलक्षित होती है, चाहे वह गंधर्व कला विद्यालय का बौद्ध नृत्य हो, जो यूनानियों के द्वारा प्रभावित हुआ था, या उत्तरी एवं दक्षिणी भारत के मंदिरों में विद्यमान अमूर्त सांस्कृतिक विरासत हो। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि भारतीय संस्कृति की विविधताओं से आकर्षित होकर अनेक लेखकों ने इसके विभिन्न पक्षों एवं अवधारणाओं का बखूबी वर्णन किया है। इन लेखों में भारतीय संस्कृति के जटिल तथा प्रायः विरोधी वर्णन पढ़ने को मिलते हैं। इसकी सर्वोत्तम व्याख्या अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार विजेता डा. अमर्त्य सेन के लेखों में मिलती है। उनके अनुसार, आधुनिक भारतीय संस्कृति इसकी ऐतिहासिक परंपराओं का जटिल सम्मिश्रण है-जिस पर शताब्दियों से शासन करने वाले औपनिवेशिक शासन तथा वर्तमान पश्चिमी सभ्यता का व्यापक प्रभाव पड़ा है। पश्चिमी लेखकों ने प्रायः महत्वपूर्ण तरीके से भारतीय संस्कृति एवं परंपराओं और इसकी विविधताओं के महत्व को नकारा है। भारत के विभिन्न भागों में भारतीय परंपराओं की गहरी पैठ वाली विषमता, का वर्णन भारत के इन सादृश्य वर्णनों में कहीं नहीं मिलता है। भारत कभी भी एक समरूप सम्यता वाला राष्ट्र नहीं रहा है और न ही हो सकता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण इसकी अमूर्त विरासत है।

 

डॉ० अर्पण सेन अपने एक लेख में संस्कृति को निम्न प्रकार समझा है-संस्कृति से अर्थ होता है कि किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप जैसे जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। 'संस्कृति' शब्द संस्कृत भाषा की धातु 'कृ' (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं 'प्रकृति' (मूल स्थिति), 'संस्कृति' (परिष्कृत स्थिति) और 'विकृति' (अवनति स्थिति)। जब 'प्रकृत' या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो 'विकृत' हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के 'कल्ट या कल्ट्स से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द 'संस्कृति'

संस्कृति का शब्दार्थ है-उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, आचार-विचार, नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊंचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।

भारतीय संस्कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान अलग-अलग है। यहां के लोग अलग-अलग भाषाएं बोलते है, अलग-अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं, अलग-अलग भोजन करते हैं किन्तु उनका स्वभाव एक जैसा होता है। तो चाहे यह कोई खुशी का अवसर हो पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं, एक साथ या कोई अनुभव करते हैं। एक त्यौहार या एक आयोजन किसी घर या परिवार के लिए सीमित नहीं है। पूरा समुदाय या आस-पड़ोसी एक अवसर पर खुशियाँ मनाने में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेलजोल का आयोजन है. जिसमें न केवल वर और वधु, बल्कि दो परिवारों का भी संगम होता है। चाहे है उनकी संस्कृति या धर्म का मामला हो। इसी प्रकार दुख में भी पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारतीय नागरिकों की सुंदरता उनकी सहनशीलता, लेने और देने की भावना तथा उन संस्कृतियों के मिश्रण में निहित है जिसकी तुलना एक ऐसे उद्यान से की जा सकती है जहां कई रंगों और वर्णों के फूल है, जबकि उनका अपना अस्तित्व बना हुआ है और वे भारत रूपी उद्यान में भाईचारा और समरसता बिखेरते हैं।

प्रसिद्ध इतिहासकार ए० एल० बाशम लिखते हैं- 'पुरातन संसार के किसी भी भाग में मनुष्य के मनुष्य से तथा मनुष्य के राज्य से ऐसे सुंदर एवं मानवीय सम्बन्ध नहीं रहे जितने भारत में। किसी भी अन्य प्राचीन सभ्यता में गुलामों की संख्या इतनी कम नहीं रही जितनी भारत में रही, न ही 'अर्थशास्त्र के समान किसी प्राचीन न्याय ग्रन्थ ने मानवीय अधिकारों की इतनी सुरक्षा की। हिंदूकालीन भारत के युद्धों के इतिहास में कोई भी ऐसी कहानी नहीं है जिसमें नगर के नगर मौत के घाट उतारे गए हों अथवा शांतिप्रिय नागरिकों का सामूहिक वध किया गया हो। असीरिया के बादशाहों की भयंकर क्रूरता जिसमें वे बंदियों की खाल खिंचवा लेते थे, प्राचीन भारत में पूर्णतः अप्राप्य है। प्राचीन भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता उसकी मानवीयता है। प्राचीन भारत के बारे में हमारा दूसरा मत यह है कि उसके निवासियों ने भौतिक और आत्मिक दोनों प्रकार के पदार्थों का लालसापूर्ण आनंद लेते हुए जीवन व्यतीत किया।" वे आगे लिखते हैं "भारत हर्षोल्लासपूर्ण देश था, जिसके निवासियों ने विशेष प्रकार की मानसिक स्थिति तथा शनैः-शनैः विकसित होने वाली सामाजिक प्रणाली में अपना स्थान बनाए हुए पारस्परिक संबंधों के सहारे दयालुता और सौजन्य के उस स्तर को प्राप्त किया जो किसी भी प्राचीन जाति के स्तर से अपेक्षाकृत उच्च था। इसके लिए धर्म, साहित्य, कला और गणित की सफलताओं के निमित्त एक यूरोपीय विद्वान निश्चय ही प्राचीन सभ्यता की प्रशंसा करेगा 3     

क्रमश: ...     

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...