बुधवार, 17 अप्रैल 2024

दुख: वास्तविकता और निदान - डॉ0 रवीन्द्र कुमार

 

दुख: वास्तविकता और निदान

डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

दुख (संस्कृत में दुःखतथा पाली में दुक्खा’) जीवन की सत्यता है, अपरिहार्यता भी है। अवतारीपुरुष, मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण और तथागत गौतम बुद्ध के  जीवन भी दुख-स्थिति का अपवाद नहीं रहे।

कष्ट, पीड़ा, वेदना व सन्ताप, दुख के समानार्थी हैं। व्याकुलता, व्यथा, विपदा, क्षोभ, अवसाद व अशान्ति दुख के साथ ही जुड़ी हुई स्थितियाँ हैं। व्युत्पत्ति के दृष्टिकोण से विश्लेषण के बाद निष्कर्ष रूप में जो परिणाम सामने आता है, वह यह कि दुख असहजता, असुविधा, अप्रियता, उदासीनता, कठिनाई आदि उत्पन्नकर्ता है।

'जीवन में दुख', एक ऐसा विषय है, जिस पर संसार भर के चिन्तनों में, और अति विशेष रूप से भारत के प्रत्येक धर्म-दर्शन में चर्चा हुई है। हर दर्शन की प्रत्येक शाखा में इस पर विचार किया गया है। प्रत्येक विचार-चिन्तन में दुख अन्ततः सुख-विपरीत स्थिति के रूप में सामने आता है।

ऐसी स्थिति में 'सुख' के अर्थ को जान लेना, यद्यपि, आवश्यक प्रतीत हो सकता है, लेकिन इस बात को अभी एक ओर रखकर 'जीवन में दुख क्यों', इस चर्चा पर ही आगे बढ़ेंगे, तो अच्छा होगा। मेरा यह मानना है कि इससे ही अन्ततः सुखावस्था की सत्यता सामने आ जाएगी।    

सनातन-वैदिक दर्शन में अज्ञान अथवा अविद्या दुख का मूल कारण है। ऐसे में प्रश्न उठेगा कि अज्ञान अथवा अविद्या क्या है? इसका सीधा, सरल, सर्वथा उचित और श्रेष्ठ उत्तर है, भ्रान्ति के साथ असत्यता में जीना। दूसरे शब्दों में, सत्य से विमुखता।

सत्य क्या है? सत्य केवल एक ही है; वह अविभाज्य समग्रता है और जगत –सार्वभौमिक एकता का निर्माण करती है। अविभाज्य समग्रता को (ब्रह्म सहित) अनेकानेक नामों से सम्बोधित किया जाता है; वही एक शाश्वत व निरन्तर प्रवहमान सर्वथा चेतनायुक्त सार्वभौमिक नियम रूप भी है। इसी वास्तविकता की अनुभूति, अंगीकरण और उसके परम आह्वान के अनुसार जीवन-व्यवहार, सत्य का अनुसरण है। यह, उस सार्वभौमिक नैतिक आचरण संहिता का अनुपालन भी है, जो प्रारम्भ से ब्रह्माण्डीय स्तर तक व्यवस्था के सुचारु संचालनार्थ अपरिहार्य है और जिससे पलायन नहीं हो सकता।  

यही वास्तविक ज्ञान है, विद्या है, अर्थात्, प्रज्ञानं ब्रह्म, क्योंकि, वही शुद्धतम (वास्तविक अथवा परम सत्य) है; (सबका आधार है); उसके तुल्य न कोई शुद्ध हुआ है, न है, और न ही होगा, न त्वावाँऽअन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते/” (यजुर्वेद, 27: 36)

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता अथवा नियम रूप का समस्त जीवों में ज्ञात श्रेष्ठ प्राणी मानव का परम आह्वान क्या है?

अपनी एकांगिता के मिथ्या विचार से अपने को पृथक कर एक ही अविभाज्य समग्रता के अंश/भाग होने की सत्यता को स्वीकार करना; 'निज-अस्तित्व की कल्पना से बाहर निकलकर स्वयं के हित को साधने की इच्छा का त्याग करना। सर्वकल्याण में ही अपने कल्याण की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए जीवन-यात्रा पर निरन्तर आगे बढ़ना।

II

यदि अति सरल शब्दों में कहें, तो तीर्थंकर महावीर ने दुख के मूल कारण को सामान्यतः परिग्रह माना है। जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति का मोह, ममत्व व आसक्ति परिग्रह (संचय) के लिए क्षेत्र तैयार करते हैं; निजी हित को केन्द्र में रखते हुए मानव इस हेतु आगे बढ़ता है। वह तनावग्रस्त होता है। तनाव दुख को जन्म देता है। आत्मा को प्रभावित करता है। निजी हित के लिए परिग्रह-स्थिति से बाहर आना, इस प्रकार मोह, ममत्व व आसक्ति का त्याग करना दुख-निवारण का उपाय है। यह अविद्या अथवा अज्ञान की स्थिति से पृथकता है। बन्धन-मुक्ति का उपाय है। स्वयं प्रकाश है और अन्ततः सत्यालिंगन है।

तथागत गौतम बुद्ध ने जीवन में दुख की सत्यता, दुख के कारण अथवा उत्पत्ति, निरोध या अन्त एवं इस हेतु 'आर्य आष्टांगिक मार्ग' के अनुसरण का मानवाह्वान किया। बुद्ध ने असन्तोष, चाह-लालच, मिलन-विछोह, लालसा, यहाँ तक कि मृत्यु व पुनर्जन्म-चक्र सहित अनेक दुख-स्थितियों को मानव के समक्ष रखा। इस कड़ी में हम अनाधिकार चेष्टा अथवा प्राप्ति की चाह को भी सम्मिलित कर सकते हैं। ये सभी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की तृष्णा से, जो लालसा का उग्र रूप अथवा तीव्रेच्छा है, सम्बद्ध हैं; बुद्ध ने इसीलिए तृष्णाक्षय तृष्णा-समाप्ति का मानव का आह्वान किया। 'आर्य आष्टांगिक मार्ग' (उचित, कल्याणकारी और योग्य पथ) को, जो "लोकानुकम्पाय" अथवा "सर्वभूत हिते रता: प्राणिमात्र के हितार्थ" केन्द्रित है, अपनाने का दीर्घकालिक सन्देश दिया।

मध्यकाल में प्रथम सिख गुरु नानकदेव ने सारे संसार में व्याप्त दुख की स्थिति के सम्बन्ध में उल्लेख किया। तथागत गौतम बुद्ध की ही भाँति गुरु नानकदेव ने भी विछोह, भूख, इच्छापूर्ति अभाव, असन्तोष, अलगाव आदि के कारण मानव को होने वाली वेदना एवं अप्राप्ति, असन्तुष्टि और मृत्यु के भय से उत्पन्न होने वाले दुख की चर्चा की। जगत में सभी, न्यूनाधिक, उक्त में से किसी-न-किसी स्थिति के वशीभूत होते हैं और उनका निजी  स्वार्थ उत्पन्न होने वाली दुख-स्थिति के मूल में होता है। इस प्रकार, "नानक दुखिया सब संसार" जैसा उनका कथन जगत-प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने इसके निदान का उपाय भी बताया। वह यह कि मनुष्य सत्यालिंगन करे; सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली एक ही अविभाज्य समग्रता वाहेगुरु से साक्षात्कार करे। उसी के निमित्त व्यवहारों से आनन्द-स्थिति को प्राप्त हो, "सो सुखिया जिस नाम आधार"। दूसरे शब्दों में, अविभाज्य समग्रता की सर्वकल्याण हेतु अपेक्षा की पूर्ति के लिए मानव समर्पित हो, जो सुख, अर्थात् सत्यता की अनुभूति और आलिंगन से आनन्द-प्राप्ति है; अज्ञानता के कारण निर्मित दुख के विपरीत स्थिति है।     

आधुनिककाल के रमण महर्षि जैसे महापुरुष ने जीवन में 'आत्म-निरीक्षण' की महत्ता को जानने का आह्वान करते हुए जो विचार प्रस्तुत किया, वह भी किसी-न-किसी रूप में दुख-स्थिति सम्बन्धी उक्त चार विश्लेषणों के ही निकट जाकर ठहरता है।

संक्षेप में, निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति सत्य से विमुख रहता है। निज-हित को वास्तविक मानता है और अज्ञान की स्थिति में रहता है। निज-हित प्राप्ति हेतु तृष्णा उसमें बलवती रहती है। एक ही सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता की वास्तविकता को, जिसकी परिधि से बाहर कुछ भी नहीं है, अनदेखा कर वह उसकी अपेक्षा के विपरीत व्यवहार करता है। परिणामस्वरूप दुख-स्थिति को प्राप्त होता है। इसलिए, सनातन-वैदिक दर्शन, तीर्थंकर महावीर और जैन-विचार, तथागत गौतम बुद्ध, गुरु नानक देव अथवा जीवन में दुख-स्थिति के सम्बन्ध में दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाले अन्य सभी चिन्तकों ने, 'सर्वकल्याण में ही निज-कल्याण' की वास्तविकता मानवमात्र के समक्ष रखी। इसी के अनुरूप जीवन-व्यवहारों की अपेक्षा भी की। इसे दुख से सुख की ओर जाने का मार्ग बताया। दुख-स्थिति से गुजरते अवतारी पुरुषों के जीवन से भी यही सत्यता सामने आती है।

प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह मार्ग पार कर पाना भले ही सम्भव न हो, लेकिन कोई जितना भी इस पर आगे बढ़ेगा, वह उतना ही दुख-स्थिति से मुक्त होगा। यह न नकारे जा सकने वाला सत्य है। 

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

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सदाचार और नैतिकता का सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य

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डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

अति साधारण शब्दों में, सत् (सत्य –शाश्वत, नित्य) और आचार (आचरण) की सन्धि से निर्मित शब्द सदाचार, शुभ कर्मों का प्रकटकर्ता है। दूसरे शब्दों में, सत्याधारित आचरण, सदाचार है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि शुभ अथवा सत्याधारित आचरण अथवा कर्म कौन-सा है। अति सरल शब्दों में कहा जाए, तो सकारात्मक सोच के साथ (विवेकाधारित) आचरण शुभ आचरण हैं; ऐसे आचरण अथवा कर्म स्वयं के साथ ही वृहद् कल्याणकारी होते हैं। सत्य को समर्पित रहते हैं।

यहाँ तनिक और स्पष्टता की जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि विवेक ही सोच को सकारात्मक बनाता है; मानव-जीवन में अपरिहार्य कर्म-प्रक्रिया को सुकर्मों में रूपान्तरित करता है। इस प्रकार, विवेक स्वयं में एक सद्गुण के रूप में प्रतिष्ठित होता है। सुकर्म, सत्य-मार्ग का अनुकरण है। निज के साथ ही समष्टि-कल्याण सुकर्मों की कसौटी है।

नैतिकता का निर्माण नैतिक शब्द से हुआ है। नैतिक, नीति से बना है। नैतिक भाव की अनुभूति, विकास और व्यवहार द्वारा मानव न्यायसंगत कार्य करता है I नैतिकता मानवीय सद्गुणों का प्रदर्शन है। नैतिकता उचित आचरण-नियमों के अनुसरण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। क्या करना और क्या नहीं करना है; क्या उचित है, जो करना चाहिए एवं क्या अनुचित है, जो त्याज्य है तथा नहीं करना चाहिए, नैतिकता इसका बोध कराती है I नैतिकता पवित्रता, न्याय एवं सत्य का प्रतिनिधित्व करती है। यह आत्मा का स्वर बनती है I जब नैतिकता अविभाज्य रूप से सद्गुणों के प्रदर्शन –न्यायसंगत कार्य व उचित व्यवहार के साथ सम्बद्ध होती है, तो यह व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायणता अथवा उत्तरदायित्व-निर्वहन भावना से भरपूर करती है I इस प्रकार अति साधारण और ग्राह्य शब्दों में, कर्त्तव्यपरायणता या समुचित उत्तरदायित्व-निर्वहन नैतिकता की कसौटी है I

मानसिक शुद्धता के लिए एकाग्रता-प्रक्रिया से चरित्र-निर्माण भी होता है। व्यवहारों में निरपेक्ष बन्धुत्व का विकास, जो जीवन में करुणा-भावना का आधार है, उच्चतम नैतिक आचरण है। तथागत गौतम बुद्ध के मानव-विश्व के लिए इस सन्देश द्वारा अपरिहार्य कर्त्तव्य-निर्वहन का सुदृढ़ पक्ष सामने आता है।   

प्रसिद्ध चीनी चिन्तक और अपने नैतिक विचारों के लिए विश्व की दार्शनिक परम्परा में उच्च स्थान रखने वाले कन्फ्यूशियस के अनुसार सम्मान, सद्भाव, न्याय और निष्ठा जैसी मानवीय विशिष्टताएँ नैतिकता के आधारभूत तत्व हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ये विशिष्टताएँ मनुष्य को सदाचारी बनाती हैं। 

पश्चिमी जगत से सुप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने 'निकोमैचियन एथिक्स' जैसी आज तक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना  की। इसमें उन्होंने तर्कों के साथ नैतिकता के सम्बन्ध में वर्णन किया। नैतिकता को सच्चा आनन्द प्रदान करने वाली सर्वोच्च अच्छाई के रूप में निरूपित किया, जिसमें मानव-चरित्र के सुलक्षण सम्मिलित होते हैं। सार रूप में, अरस्तू ने इन्हीं के विकास एवं जीवन-व्यवहारों में अनुकरण द्वारा मानव के श्रेष्ठ अथवा सदाचारी जीवन जीने की बात की।

महात्मा गाँधी ने सजातीय समानता की वास्तविकता के अंगीकरण को उच्च नैतिकता घोषित किया। स्वतंत्रता, न्याय और अधिकार जैसे मानव-जीवन के अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष समानता के साथ ही जुड़े हुए हैं। समानता-भावना सार्वभौमिक एकता का दर्पण है। इसलिए, गाँधीजी ने समानता-केन्द्रित मानव-व्यवहार को मनुष्य का सत्याचरण स्वीकारा। 

सदाचार और नैतिकता एक-दूसरे के साथ अभिन्नतः जुड़े विषय हैं। दोनों मानव-जीवन की शुद्धता व समृद्धि के लिए हैं। जीवन के अर्थपूर्ण होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। सदाचार, सत्य के लिए समर्पित है। नैतिकता, मानव को कर्त्तव्यपरायण बनाती है। कर्त्तव्य-निर्वहन, स्वयं  सत्याचरण है। अन्ततः निज के साथ वृहद् कल्याण केन्द्रित होने के कारण दोनों की, एक-दूसरे के साथ घनिष्ठतः सम्बद्ध होते हुए, कितनी महत्ता है, वह स्वतः ही प्रकट है।

व्यक्तिगत से राष्ट्रीय, राष्ट्रीय से वैश्विक और वैश्विक से सार्वभौमिक स्तर तक परिस्थितियाँ निरन्तर परिवर्तित होती हैं। परिवर्तन शाश्वत नियम है। जीवन का कोई भी क्षेत्र और किसी भी क्षेत्र का कोई भी स्तर परिवर्तन नियम से बाहर नहीं है। ऐसे स्थिति में मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि क्या सदाचार और नैतिकता इसका अपवाद हैं। नहीं हैं। सदाचार और नैतिकता से सम्बद्ध विशिष्टताएँ भी देशकाल की परिस्थितियों में परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं।

परिवर्तन-क्रम, हम बारम्बार कह सकते हैं, निरन्तर रहता है। वर्तमान में कम-से-कम दो (पूर्ववर्ती एवं उत्तराधिकारी) पीढ़ियों के मध्य सोच-विचार, कार्यपद्धति, व्यक्तिगत एवं परस्पर सम्बन्धों व व्यवहारों सहित जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हरेक स्तर पर परिवर्तनों का हममें से हर कोई साक्षी है। यह स्वाभाविक है। परिवर्तन नियम-प्रक्रिया से सम्बद्ध है।

सदाचार और नैतिकता जीवन शुद्धता, समृद्धि और सार्थकता के लिए हैं। इस हेतु अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण भी आवश्यक होता है।  इसके लिए सदाचार और नैतिकता की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण होती है। इसलिए, सदाचार एवं नैतिकता अपनी-अपनी मूल भावना के साथ जुड़े रहकर भी परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं। सत्यता के साथ आचरण –वर्तमान परिस्थितियों में सम्बन्धों में ईमानदारी एक श्रेष्ठ सदाचार है। साथ ही, अच्छी-बुरी सामाजिक परम्पराओं, प्रथाओं और रीतियों को नकार कर भी यदि  कोई सम्बन्धों में (वे निजी जीवन से जुड़े हों या परस्पर व्यवहारों से सम्बद्ध हो अथवा उनका सरोकार किसी भी क्षेत्र से हो) उत्तरदायित्व-निर्वहन हेतु प्रतिबद्ध रहता है, तो वह नैतिकता का पालन करता है। ये दोनों (अर्थात् सम्बन्धों एवं व्यवहारों में ईमानदारी तथा उत्तरदायित्व-निर्वहन के लिए प्रतिबद्धता) सदाचार व नैतिकता के उत्कृष्ट पहलू  हैं, जो यह भी प्रतिपादित करते हैं कि  जीवन में सदाचार और नैतिकता की सर्वकालिक महत्ता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

सदाचार और नैतिकता का सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य-डॉ0 रवीन्द्र कुमार




सदाचार और नैतिकता का सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य


डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

अति साधारण शब्दों में, सत् (सत्य –शाश्वत, नित्य) और आचार (आचरण) की सन्धि से निर्मित शब्द सदाचार, शुभ कर्मों का प्रकटकर्ता है। दूसरे शब्दों में, सत्याधारित आचरण, सदाचार है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि शुभ अथवा सत्याधारित आचरण अथवा कर्म कौन-सा है। अति सरल शब्दों में कहा जाए, तो सकारात्मक सोच के साथ (विवेकाधारित) आचरण शुभ आचरण हैं; ऐसे आचरण अथवा कर्म स्वयं के साथ ही वृहद् कल्याणकारी होते हैं। सत्य को समर्पित रहते हैं।

यहाँ तनिक और स्पष्टता की जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि विवेक ही सोच को सकारात्मक बनाता है; मानव-जीवन में अपरिहार्य कर्म-प्रक्रिया को सुकर्मों में रूपान्तरित करता है। इस प्रकार, विवेक स्वयं में एक सद्गुण के रूप में प्रतिष्ठित होता है। सुकर्म, सत्य-मार्ग का अनुकरण है। निज के साथ ही समष्टि-कल्याण सुकर्मों की कसौटी है।

नैतिकता का निर्माण नैतिक शब्द से हुआ है। नैतिक, नीति से बना है। नैतिक भाव की अनुभूति, विकास और व्यवहार द्वारा मानव न्यायसंगत कार्य करता है। नैतिकता मानवीय सद्गुणों का प्रदर्शन है। नैतिकता उचित आचरण-नियमों के अनुसरण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। क्या करना और क्या नहीं करना है; क्या उचित है, जो करना चाहिए एवं क्या अनुचित है, जो त्याज्य है तथा नहीं करना चाहिए, नैतिकता इसका बोध कराती हैI नैतिकता पवित्रता, न्याय एवं सत्य का प्रतिनिधित्व करती है। यह आत्मा का स्वर बनती है। जब नैतिकता अविभाज्य रूप से सद्गुणों के प्रदर्शन –न्यायसंगत कार्य व उचित व्यवहार के साथ सम्बद्ध होती है, तो यह व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायणता अथवा उत्तरदायित्व-निर्वहन भावना से भरपूर करती हैI इस प्रकार अति साधारण और ग्राह्य शब्दों में, कर्त्तव्यपरायणता या समुचित उत्तरदायित्व-निर्वहन नैतिकता की कसौटी है।

मानसिक शुद्धता के लिए एकाग्रता-प्रक्रिया से चरित्र-निर्माण भी होता है। व्यवहारों में निरपेक्ष बन्धुत्व का विकास, जो जीवन में करुणा-भावना का आधार है, उच्चतम नैतिक आचरण है। तथागत गौतम बुद्ध के मानव-विश्व के लिए इस सन्देश द्वारा अपरिहार्य कर्त्तव्य-निर्वहन का सुदृढ़ पक्ष सामने आता है।   

प्रसिद्ध चीनी चिन्तक और अपने नैतिक विचारों के लिए विश्व की दार्शनिक परम्परा में उच्च स्थान रखने वाले कन्फ्यूशियस के अनुसार सम्मान, सद्भाव, न्याय और निष्ठा जैसी मानवीय विशिष्टताएँ नैतिकता के आधारभूत तत्व हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ये विशिष्टताएँ मनुष्य को सदाचारी बनाती हैं। 

पश्चिमी जगत से सुप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने 'निकोमैचियन एथिक्स' जैसी आज तक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना  की। इसमें उन्होंने तर्कों के साथ नैतिकता के सम्बन्ध में वर्णन किया। नैतिकता को सच्चा आनन्द प्रदान करने वाली सर्वोच्च अच्छाई के रूप में निरूपित किया, जिसमें मानव-चरित्र के सुलक्षण सम्मिलित होते हैं। सार रूप में, अरस्तू ने इन्हीं के विकास एवं जीवन-व्यवहारों में अनुकरण द्वारा मानव के श्रेष्ठ अथवा सदाचारी जीवन जीने की बात की।

महात्मा गाँधी ने सजातीय समानता की वास्तविकता के अंगीकरण को उच्च नैतिकता घोषित किया। स्वतंत्रता, न्याय और अधिकार जैसे मानव-जीवन के अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष समानता के साथ ही जुड़े हुए हैं। समानता-भावना सार्वभौमिक एकता का दर्पण है। इसलिए, गाँधीजी ने समानता-केन्द्रित मानव-व्यवहार को मनुष्य का सत्याचरण स्वीकारा। 

सदाचार और नैतिकता एक-दूसरे के साथ अभिन्नतः जुड़े विषय हैं। दोनों मानव-जीवन की शुद्धता व समृद्धि के लिए हैं। जीवन के अर्थपूर्ण होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। सदाचार, सत्य के लिए समर्पित है। नैतिकता, मानव को कर्त्तव्यपरायण बनाती है। कर्त्तव्य-निर्वहन, स्वयं  सत्याचरण है। अन्ततः निज के साथ वृहद् कल्याण केन्द्रित होने के कारण दोनों की, एक-दूसरे के साथ घनिष्ठतः सम्बद्ध होते हुए, कितनी महत्ता है, वह स्वतः ही प्रकट है।

व्यक्तिगत से राष्ट्रीय, राष्ट्रीय से वैश्विक और वैश्विक से सार्वभौमिक स्तर तक परिस्थितियाँ निरन्तर परिवर्तित होती हैं। परिवर्तन शाश्वत नियम है। जीवन का कोई भी क्षेत्र और किसी भी क्षेत्र का कोई भी स्तर परिवर्तन नियम से बाहर नहीं है। ऐसे स्थिति में मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि क्या सदाचार और नैतिकता इसका अपवाद हैं। नहीं हैं। सदाचार और नैतिकता से सम्बद्ध विशिष्टताएँ भी देशकाल की परिस्थितियों में परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं।

परिवर्तन-क्रम, हम बारम्बार कह सकते हैं, निरन्तर रहता है। वर्तमान में कम-से-कम दो (पूर्ववर्ती एवं उत्तराधिकारी) पीढ़ियों के मध्य सोच-विचार, कार्यपद्धति, व्यक्तिगत एवं परस्पर सम्बन्धों व व्यवहारों सहित जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हरेक स्तर पर परिवर्तनों का हममें से हर कोई साक्षी है। यह स्वाभाविक है। परिवर्तन नियम-प्रक्रिया से सम्बद्ध है।

सदाचार और नैतिकता जीवन शुद्धता, समृद्धि और सार्थकता के लिए हैं। इस हेतु अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण भी आवश्यक होता है। इसके लिए सदाचार और नैतिकता की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण होती है। इसलिए, सदाचार एवं नैतिकता अपनी-अपनी मूल भावना के साथ जुड़े रहकर भी परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं। सत्यता के साथ आचरण –वर्तमान परिस्थितियों में सम्बन्धों में ईमानदारी एक श्रेष्ठ सदाचार है। साथ ही, अच्छी-बुरी सामाजिक परम्पराओं, प्रथाओं और रीतियों को नकार कर भी यदि  कोई सम्बन्धों में (वे निजी जीवन से जुड़े हों या परस्पर व्यवहारों से सम्बद्ध हो अथवा उनका सरोकार किसी भी क्षेत्र से हो) उत्तरदायित्व-निर्वहन हेतु प्रतिबद्ध रहता है, तो वह नैतिकता का पालन करता है। ये दोनों (अर्थात् सम्बन्धों एवं व्यवहारों में ईमानदारी तथा उत्तरदायित्व-निर्वहन के लिए प्रतिबद्धता) सदाचार व नैतिकता के उत्कृष्ट पहलू  हैं, जो यह भी प्रतिपादित करते हैं कि  जीवन में सदाचार और नैतिकता की सर्वकालिक महत्ता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

 



रविवार, 14 अप्रैल 2024

स्वतंत्रता , समता , सेवा और सामाजिक चेतना... बाबा साहब अंबेडकर के संदर्भ से - विवेक कुमार मिश्र (आचार्य हिंदी,कवि,लेखक व रेखांकनकार)

 

स्वतंत्रता , समता , सेवा और सामाजिक चेतना... बाबा साहब अंबेडकर के संदर्भ से

- विवेक कुमार मिश्र

सामाजिक सेवा ही मनुष्य को पूर्ण मनुष्य के रूप में परिभाषित करती है। मनुष्य होने का अर्थ ही तब पूरा होता है जब हम अपनी दुनिया का विस्तार करते हैं । यह नहीं हो सकता कि आप केवल अपनी प्रगति और अपनी खुशी के बारे में सोचें । यदि आप केवल अपना ही पेट भरते हैं और पेट भरने को ही सांसारिक होना समझते हैं तो यह समाज और संसार की अधूरी समझ का ही परिणाम होता है । समाज की गति में अपनी गति, अपनी उपलब्धियों को जोड़कर देखने की जरूरत होती है ।

व्यक्ति के रूप में आप कहां से आते हैं, क्या करते हैं ? कहां है ? इसका कोई मतलब नहीं होता ।  आप किस घर में पैदा हुए हैं यह सब खास मायने नहीं रखता । आप क्या है यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी उपस्थिति किस तरह से समाज में है । अपनी उपस्थिति को लेकर आप कहां हैं ? कितना सजग हैं और किस तरह काम करते हैं । आप की सोच किस तरह की है । आप अपने व्यक्तिगत संसार और व्यक्तित्व से बाहर निकल पाते हैं कि नहीं । यदि नहीं निकल पाते या सीमित दायरे में ही निकल पाते हैं तो इसका समाज को कोई बड़ा लाभ नहीं होता । आपका भी जीवन आम आदमी की तरह अपने आसपास के संसार में कुछ घटनाओं के साथ चलता रहता है और इससे कोई और नहीं केवल आप प्रभावित होते हैं । समाज आपके साथ चलें और आप समाज को लेकर चलें, सामाजिक गति के कारक बने यह सब संभव तभी हो पाता है जब आप अपनी गति में, अपनी सोच में पूरे समाज को रखकर चलते हैं । जब बड़े विजन से काम करते हैं । बड़े सपने देखते हैं , यह सोचते हैं कि हम समाज के लिए क्या कर सकते हैं ? हमारे होने का अर्थ क्या है ? क्या कुछ किया जा सकता है ? जिससे सार्थकता की अनुभूति हों और जो सपने हम देख रहे हैं क्या वे केवल मेरे हैं । यदि केवल मेरे सपने हैं तो उनका समाज के लिए क्या उपयोग ? इसलिए हमारे सपने भी ऐसे हों कि हम समाज के लिए सपने देख रहे हैं । समाज को रचने गढ़ने बनाने के लिए आगे चल रहे हैं । तभी सही मायने में हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता है । व्यक्तित्व को व्यक्ति स्वयं गढ़ता है पर यह भी सही है कि व्यक्तित्व को सही आकार और संदर्भ तो समाज में जाकर ही मिलता है । जब हमारी सत्ता समाज के लिए होती है । जब हमारे सपने में हमारे साथ-साथ समाज होता है तो वास्तव में व्यक्तित्व एक वृहद आकर ले लेता है ।  यही से हमारे बीच से ही ऐसे महापुरुष आकर ले लेते हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर पाते । बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ( 14 अप्रैल 1891 -06 दिसंबर 1956 ) एक ऐसे ही महापुरुष थे । उनकी हर बात , हर संदर्भ और हर प्रसंग में उनका समाज दिखता है कि मैं जो कुछ कर रहा हूं उसमें मेरा समाज कहां है ? मेरा समाज कहां जाएगा और समाज की प्रगति के लिए हम कुछ कर पा रहे हैं कि नहीं । यहीं से अंबेडकर जी का सामाजिक दर्शन व सामाजिक स्वप्न संभव होता है । जिसमें अपने समाज को उसका अधिकार उसकी स्वतंत्रता उसकी समता का भाव मिलता है । जिस रास्ते समाज आधुनिक संदर्भों में अपने अधिकारों के साथ अपनी मुक्ति का अपनी सामाजिक मुक्ति का स्वप्न देखा है ।  यह सब संभव होता है अंबेडकर जी की जागृत चेतना के कारण । यही से सामाजिक समता , स्वतंत्रता और बंधुत्व का भाव सामने आता है । सम भाव पर चलने से ही  सामाजिक सत्ता निर्मित होती है ।

सामाजिक समता के लिए कार्य आप तभी कर सकते हैं जब अन्य में अपनी सत्ता को महसूस करते होंगे । सभी समान विंदू पर हैं । सबके भीतर एक ही तत्व है । एक ही रक्त एक ही मन एक ही सत्ता सबमें है । सब मनुष्य हैं और सबके भीतर मनुष्य की सत्ता बराबर से जब इस तरह सोचते हैं तो कोई कारण नहीं है कि हम किसी के साथ भेदभाव कर सकें । यह जो भी भेदभाव है जो भ्रांत धारणा है वह हमारी अज्ञानता के कारण ही है । जब सामूहिक अज्ञानता समाज में बढ़ जाती है तो घोर अनर्थ होता है । हम एक दूसरे को छोटा दिखाने की कोशिश करने लगते हैं और ऐसे में मनुष्यता रोती और कराहती है । यहीं पर मानव धर्म व मूल्य की बात आती है । यहां समता और स्वतंत्रता का मूल्य ही जीवन का आधार बन सामने आता है । समता और स्वतंत्रता केवल किताब में लिखे जाने के लिए मूल्य नही है । ये हमारे जीवन में वास्तविक बदलाव लाने वाले मूल्य के रूप में हैं । जिसे सही मायने में जीने की जरूरत है । इस मूल्य को दूर रखकर देख नही सकते यह हमारे जीवन का आंतरिक और बाह्य मूल्य एक साथ है । आप कुछ भी करें उसका कोई अर्थ नहीं यदि आप उसे करने में स्वतंत्र नही हैं । यह स्वतंत्रता सीधे सीधे स्वाभिमान और अस्तित्व बोध को लेकर आती है। आपके समूचे व्यक्तित्व को रचने का काम करती है । स्वतंत्रता और समानता का भाव ही समाज की गति और विकास के मूल में है । सामाजिक गति और सामाजिक संस्कृति समानता के मूल्य से संयोजित होती है । समानता के कारण ही हम सब दूसरे के भीतर अपनी सत्ता प्रकाशित होते हैं । कोई भी पदार्थ किसी एक के लिए नही है ।  वह सभी के लिए है । सब उसका समान रूप से उपभोग कर सकते हैं । यह समता ही न्याय की अवधारणा के मूल में है । न्याय तभी हो सकता हैं जब समाज में समता का मूल्य हो , जब एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करना हम जानते हों तभी सामाजिक जागरण , चेतना का जागरण और मानव मन की सत्ता को हम समझ पाते हैं । हर मनुष्य को उसका अधिकार दिलाना, उसकी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखना , उसके जीवन की गरिमा को बनाए रखना यह सब समता और स्वतंत्रता के वृहत्तर रूप में मूल्य को जीने के खारण ही संभव हो पाता है । स्वतंत्रता के मूल्य को सामाजिकता के वृहत्तर संसार का आधार बना बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर ने समाज में जो क्रांति चलाईं । जो जागृति लाईं वह पूरे समाज को अंधकार से मुक्त करने का अधिकार बना। सामाजिक मुक्ति के लिए जरूरी है कि पूरा समाज स्वतंत्रता को मूल्य के रूप में जहां स्वीकार करता है वही समता के भाव को सामाजिक सेतु का आधार बनाता है और समाज को आगे आने के लिए सभी शिक्षित जनों को पहले आगे आना होगा । आप शिक्षित हो गये , उच्च पद पर पहुंच गये - इसका लाभ तबतक समाज को नही मिलेगा जब तक कि आप समाज को शिक्षित नही करते हैं । सामाजिक शिक्षण प्रशिक्षण और सामाजिक जागरूकता ही समाज की सबसे बड़ी संपत्ति है । सामाजिक समता का संदेश समाज के हर व्यक्ति तक पहुंचे तभी वास्तव में सामाजिक जागृति और चेतना की बात पूरी होती है । यह सामाजिक क्रान्ति ही सभ्यता और संस्कृति का सबसे बड़ा प्रश्न है । समता , बंधुत्व स्वतंत्रता जब तक समाज में नहीं है जब  तक वास्तविक रूप में नहीं है तब तक इनके अस्तित्व गत अर्थ को हम नहीं समझ सकते । बाबासाहेब आंबेडकर ने समाज को न केवल जगाया बल्कि समाज को उसके अधिकारों का स्वामित्व भी भारतीय संविधान के माध्यम से दिलाया । समता, स्वतंत्रता बंधुत्व और संवैधानिक संरक्षण का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में घोषित किया । यह अधिकार मनुष्य की गरिमा, स्वतंत्रता बोध औल निजता को एक साथ संरक्षित करने का काम करता है ।

बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा को अपने तक सीमित नहीं रखा । उनका बराबर से यह मानना है कि शिक्षा ही हमारी जड़ता को तोड़ेगी । हमें अंधकार से बाहर निकलेगी । यदि आदमी शिक्षित हो गया तो समझो कि वह अपना सारा अधिकार ले लेगा । इसीलिए जैसे-जैसे शिक्षा के अधिकार का समाज में प्रसार हो रहा है और जिस तेजी से लोग शिक्षित हो रहे हैं और अपने अधिकारों को न केवल पहचान रहे हैं बल्कि समझ भी रहे हैं वैसे-वैसे भारतीय समाज में सामाजिक जागरण और सामाजिक क्रांति की मशाले तेजी से सामने आ रही है । शिक्षा ही सब कुछ है । शिक्षित बनो और समाज को बदलने के लिए काम करों । समाज को शिक्षित करों अकेले शिक्षित हो जाने का कोई अर्थ नहीं है । आप अपने कुटुंब और समाज को शिक्षित करों उसे अंधेरे से दूर ले चलो और उसकी राह में प्रकाश बिखेरों । यदि आप ऐसा करते हैं कर सकते हैं तो आपके शिक्षित होने सामाजिक होने और आपके शिक्षक धर्म का फायदा समाज को मिलेगा , अन्यथा कुछ नहीं होने वाला है ।  अंबेडकर जी सामूहिक चेतना के जागरण और सामूहिक मुक्ति की बात करते थे । यह सब संभव तभी हो सकता है जब समाज शिक्षित होगा । बिना समाज को जगाये , शिक्षित किए बिना सामाजिक क्रान्ति के कुछ भी होने वाला नहीं है। अंबेडकर ने यह क्रांति शिक्षा के माध्यम से ही चलायी । शिक्षा ही संगठित कलती है और जागरण का कारण भी बनती है ।

अन्य के साथ जुड़ना अपनी आत्म सत्ता का विस्तार करना है । अलग थलग या अकेले पड़ कर समाज निर्माण का काम नही होता । समाज निर्माण के लिए सामाजिक शक्तियों को इकठ्ठा करना पड़ता है । उनके साथ चलना पड़ता है और समाज हित में फैसला लेना पड़ता है । सेवा सामाजिक सत्ता और सामाजिक समता के लिए कार्य करते हुए ही एक व्यक्ति सामाजिक व्यक्तित्व बनता है । बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर एक ऐसे ही सामाजिक व्यक्तित्व रहे जिन्होंने अपनी सत्ता को अन्य की स्वतंत्रता और समता के मूल्य पर चलने की शिक्षा के रूप में जीवन जीने की प्रणाली बनाई।

बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर स्वतंत्रता के मूल्य को सामाजिक स्वतंत्रता के मूल्य के रूप में पहचान दिलाई । यदि हम केवल राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो जाते हैं तो उससे समाज का भला कहां होगा ? समाज भला कहां गति करेगा । समाज तो वही पड़ा रह जावेगा जहां हजारों वर्षों पहले था । ऐसे समाज से काम नही चलेगा सभी को अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़नी होगी । तुम्हारी लड़ाई कोई और क्यों लड़ेगा ? यदि आप आगे नही आयेंगे तो कोई दूसरा भला आपकी स्वतंत्रता की लड़ाई  क्यों लड़ेगा । अम्बेडकर ने पूरे समाज में यह जागृति भर दी कि हमें आजाद होना है और हमारी आजादी राजनीतिक स्वतंत्रता से आगे सामाजिक स्वतंत्रता में ही है । यदि समाज स्वतंत्र नही हुआ यदि लोगों ने आजाद हवा को महसूस नही किया तो स्वतंत्रता को मूल्यवान कैसे समझेगा


शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

अथर्ववेद: पृथ्वीमाता, प्रकृति, पर्यावरण और जीवन- डॉ0 रवीन्द्र कुमार

 

अथर्ववेद: पृथ्वीमाता, प्रकृति, पर्यावरण और जीवन

 

बीस काण्डों के सात सौ इकतीस सूक्तों में पाँच हजार नौ सौ सतहत्तर मंत्रों से सम्पन्न चतुर्थ वेद, अर्थात् अथर्ववेद (+=थर्व=अथर्व, जो 'गति', 'रचनात्मकता', 'सक्रियता' 'सक्षमता' का द्योतक है; साथ ही, 'उदारता', 'मैत्री’, 'शान्ति', 'स्थिरता' और अन्ततः वृहद् कल्याण को समर्पित है; एवं, 'वेद', जो 'विद्' धातु निर्गत है और इसका अर्थ ज्ञान है)  की शोभा और महत्ता कई रूपों में है। अथर्ववेद को 'छन्दवेद' कहा जाता है। छन्द, अर्थात् आनन्द; इस प्रकार, अथर्ववेद आनन्द ज्ञान व अध्ययन का मार्ग प्रशस्तकर्ता है। अथर्ववेद के मंत्रों में प्रकट ब्रह्म संवाद के कारण इसे 'ब्रह्मवेद' भी कहते हैं। अथर्ववेद, चूँकि प्रमुखतः अंगिरा अथवा अंगिरस ऋषिबद्ध है, इसलिए यह अथर्वांगिरस वेद' कहलाता है।  ब्रह्मा के मस्तिष्क का प्रतिनिधित्व करने वाले अंगिरस अथवा अंगिरा वाणी और छन्द के आदि ज्ञाता के रूप में सुप्रसिद्ध हैं। अथर्ववेद के सूत्रपातकर्ता प्रारम्भकर्ता होने के कारण ही अंगिरस अथर्वा भी कहलाते हैं।

अथर्ववेद में जीवाणु विज्ञान का उल्लेख है। इसमें मानव-काया रचना और चिकित्सा-उपचार व औषधियों से सम्बन्धित सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। आयुर्वेद के मूल उल्लेख, दूसरे शब्दों में आयुर्वेद की उत्पत्ति के कारण, अथर्ववेद 'भैषज्यवेद' अथवा  'भिषग्वेद' कहलाता है। ब्रह्मज्ञान, अथर्ववेद का, जैसा कि उल्लेख किया है, एक श्रेष्ठ पक्ष है। इसी के साथ, 'आनन्द', जिसकी अन्तिम अवस्था 'परमानन्द' है; जो स्वयं परमात्मा-स्वरूप है, अथर्ववेद में अध्ययन व ज्ञान का एक मुख्य विषय है।          

संक्षेप में, वेदों में अथर्ववेद की श्रेष्ठ स्थिति है। अथर्ववेद के वृहद् कल्याणकारी मंत्रों के माध्यम से प्रकट ज्ञान, विशेष रूप से व्यवस्था-सन्तुलन, वांछित संरक्षण और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त के प्रति व्यावहारिक प्रतिबद्धता के आधार पर लौकिक जगत में जीवन की सुचारु रूप में निरन्तरता और इसकी सम्पन्नता के साथ ही, मानव-जीवन  के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु, अतिमहत्त्वपूर्ण, प्रासंगिक और सर्वकालिक है।

II

अथर्ववेद के बारहवें काण्ड का प्रथम सूक्त 'पृथ्वी माँ' को समर्पित है। इसीलिए, इस सूक्त को 'पृथ्वीसूक्त' अथवा 'भूमिसूक्त' भी कहते हैं। इस सूक्त के त्रेसठ मंत्र, जगत के समस्त चर-अचर व दृश्य-अदृश्य की कुशलता हेतु, तथा इस सम्बन्ध में प्रकट होने वाली चिन्ताओं एवं उनके निदान के लिए मानव-कर्त्तव्य निर्धारित करते सत्याधारित दिशानिर्देशों के समान हैं।

इन मंत्रों के माध्यम से पृथ्वी को ब्रह्म-वरदानी, सत्य-प्राप्ति हेतु हर प्रकार से अनुकूल और समृद्ध, व पालनकर्त्री तपोभूमि घोषित किया गया है (मंत्र: 1), जहाँ महर्षि, ऋषि, महात्मा और विद्वान जन अपनी तपस्याओं के बल पर परम सत्य की स्थिति तक पहुँचते हैं। इस सूक्त के मंत्रों द्वारा उद्देश्यपूर्ण एवं लाभकारी ऊँचे-नीचे व समतल स्थानों वाली और, साथ ही, समुद्रों, नदियों आदि से भरपूर पृथ्वी (मंत्र: 2-3) पर जीवन की निरन्तरता, हर प्रकार से जीव-रक्षा, मानव की सभी क्षेत्रों में सभी स्तरों पर सम्पन्नता और चहुँमुखी विकास के लिए स्वयं पृथ्वी माता के प्रति मनुष्य के अपरिहार्य उत्तरदायित्वों का, जो इससे जुड़ा अभिन्न पक्ष है, अभूतपूर्व प्रकटीकरण है। साथ ही, जीवन-सुरक्षा एवं इसके सुचारु रूप से आगे बढ़ने के लिए आवश्यक रूप से निर्णायक भूमिका का निर्वहन करने वाले पर्यावरण एवं प्रकृति के संरक्षण का अभूतपूर्व आह्वान है।   

प्रकृति जीवनदात्री है। यह जीवन को सुरक्षा कवच प्रदान करती है। वनस्पति, जल आदि सहित अपने तत्त्वों के साथ प्रकृति शुद्ध स्वरूप में जीवन को संरक्षित करती है। जीव के भरण-पोषण को सुनिश्चित करती है। प्रकृति, पर्यावरण की, जिसकी जीवन की निरन्तरता में प्रत्यक्ष भूमिका है, स्वच्छता तथा अनुकूलता में भी निर्णायक योगदान देती है। जीव-अस्तित्व हेतु अपरिहार्य श्वास भी पर्यावरण से सम्बद्ध विषय है। जीवन के लिए इस विषय की महत्ता के सन्दर्भ में मेरे द्वारा किसी विशेष विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है। हम सभी इसकी सर्वकालिक महत्ता, प्रासंगिकता, आवश्यकता तथा अपरिहार्यता से भली-भाँति परिचित हैं। लेकिन, तो भी, बात स्वच्छ और अनुकूल जलवायु व वातावरण की है, जिस पर जीवन-अस्तित्व के साथ ही स्वास्थ्य की निर्भरता है। इसलिए, हजारों वर्ष पूर्व अथर्ववेद का 'पृथ्वीसूक्त' वृहद् जीव-कल्याण के उद्देश्य से प्रकृति-संरक्षण, पर्यावरण-संतुलन –स्वच्छ-शुद्ध, समृद्ध एवं स्वास्थ्यवर्धक जलवायु को समर्पित हुआ। इस सूक्त के मंत्रों की सर्वकालिक महत्ता है; पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व व निरन्तरता के सम्बन्ध में पूरी-पूरी उपयोगिता है।  

III

प्रकृति-संरक्षण, पर्यावरण-संतुलन और मित्रवत जलवायु की सुनिश्चितता के साथ, पृथ्वी प्राणिजगत का सुयोग्य पोषण करे; पृथ्वी, अपने विभिन्न तत्त्वों द्वारा मानव-समाज के चहुँमुखी विकास का निरन्तर आधार बने, सामान्यतः इस सूक्त की यह भावना है। इस हेतु, अविभाज्य समग्रता के प्रतीक परमात्मा से मार्ग प्रशस्त करने की प्रार्थना की गई। साथ ही, इस सम्बन्ध में प्रत्येक जन, स्त्री व पुरुष, का व्यक्तिगत व सामूहिक उत्तरदायित्व-निर्वहन का आह्वान किया गया है। इस सम्बन्ध में 'पृथ्वीसूक्त' के ग्यारहवें मंत्र में प्रकट प्रबल मानवीय कामना यहाँ अतिविशेष रूप से उल्लेखनीय है:

"गिरयस्ते पर्वता हिमवन्तोऽरण्यं ते पृथिवि स्योनमस्तु/ बभ्रुं कृष्णां रोहिणीं विश्वरूपां ध्रुवां भूमिं पृथिवीमिन्द्रगुप्ताम्/ अजीतोऽहतो अक्षतोऽध्यष्ठां पृथिवीमहम्// 

अर्थात्, "हे पृथ्वी, हम मनुष्यों के लिए तेरी पहाड़ियाँ, हिम पर्वत और प्रदेश व वन मनभावन हों; पोषण करने वाली, जोती जा सकने वाली और उपजाऊ, रूपवती, प्रभावशाली तथा आश्रय प्रदानकर्त्री विशाल व रक्षित पृथ्वी बिना जीर्ण हुए (हमें) प्रतिष्ठा प्रदान करे।      

अति विशेष रूप से पृथ्वीसूक्त का बीसवाँ मंत्र सूर्य के साथ ही भीतर से भी अग्नि के कल्याणकारी होने की कामना को समर्पित है। अग्नि का पृथ्वी पर समुचित प्रभाव हो; सूर्य से अग्नि का पृथ्वी पर प्रभाव –तेज, कल्याणकारी रहे, ताकि जीवन सुरक्षित, सुन्दर एवं स्वस्थ रहे, जीवन रोगमुक्त हो, इस मंत्र की यह मूल भावना है। इस सूक्त का तीसवाँ मंत्र जल की स्वच्छता व शुद्धता, छत्तीसवाँ मंत्र ऋतुओं की अनुकूलता, तैंतालीसवाँ मंत्र उत्तम फसलों की प्राप्ति, चवालीसवाँ मंत्र खनिज पदार्थों की लाभप्रदता, इक्यावनवाँ मंत्र वायु की उपकारी गति, इकसठवाँ मंत्र विभिन्न दुखों-कठिनाइयों से मुक्ति एवं बासठवाँ मंत्र निरोगी काया की मानवीय अभिलाषा को प्रकट करता है। अन्तिम, अर्थात्, त्रेसठवाँ मंत्र सर्वकल्याण की प्रार्थना को समर्पित है:

"भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्। संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम्// हे पृथ्वी माता! आपकी मंगलमय समृद्ध एवं कल्याणकारी प्रतिष्ठा में (ही) मैं सुबुद्धि के साथ रहूँ। हे गतिशील माता भूमि! आपकी सम्पन्नता और विभूति में ही लक्ष्य स्वर्ग-प्राप्ति हो; वृहद् जगत कल्याण हो।

अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त के मंत्र चार में प्रकट 'बिभर्ति' (पोषणकर्त्री), छह में 'निवेशनी' (सुखदात्री), एवं 'विश्वम्भरा' (भेदभावरहित रहकर सबको सहारा प्रदानकर्त्री), सात में 'विश्वदानीम्' (सब कुछ प्रदान करने वाली), नौ में 'भूरिधारा' (अनेकानेक शक्तियों को धारण करने वाली), सोलह में 'समग्रा:' (समस्त सब कुछ), सत्रह में 'विश्वस्वं' (सब कुछ उत्पन्न करने वाली), इक्कीस में 'अग्निवासा:' (अग्नि के साथ निवासकर्त्री), चौबीस में 'पुष्करं' (पोषक पदार्थ प्रदानकर्त्री), तीस में 'शुद्धा' (शुद्ध भाव वाली कल्याणकर्त्री), अड़तीस में 'सदोहविर्धाने (सभा तथा अन्न स्थान वाली), इकतालीस में 'व्यैलबा:' (अनेक बोलियों के लोगों विभिन्नताओं वाला स्थान), पैंतालीस में 'ध्रुवा' (दृढ़ स्वाभाव वाली), सैंतालीस में 'बहवः पन्थानः' (अनेक मार्गों के अनुयायियों का निवासस्थान), पचपन में 'देवि' (उत्तम गुणों वाली) और 'प्रथमाना' (विस्तृत फैली हुई), छप्पन में 'चारु' (सुन्दर व यशस्विनी), सत्तावन में 'गोपाः' (रक्षा करने वाली) व 'गृभिः' (ग्रहणीय स्थान), उनसठ में 'सुरभि:' (ऐश्वरीया) तथा इकसठ में 'अदितिः' (अखण्डव्रता) व 'कामदुधा' (कामना पूर्ण करने वाली) वे शब्द हैं, जो पृथ्वीमाता के वैभव, शोभा, क्षमता, समृद्धि और सामर्थ्य जैसी अद्वितीय विशिष्टताओं का मानवता से परिचय कराते हैं। इन विशिष्टताओं के बल पर मानवमात्र का निरन्तर कल्याण होता रहे; सारी मानवता पृथ्वी की समृद्धि व सामर्थ्य से फलती-फूलती रहे, पृथ्वीसूक्त के मंत्रों के इन शब्दों की यह मूल भावना है। पृथ्वी का वैभव, शोभा, क्षमता, समृद्धि और सामर्थ्य अक्षुण्ण रहें, इस हेतु  मानव अपने परम कर्त्तव्य के रूप में प्रकृति-संरक्षण, पर्यावरण-सन्तुलन व प्राकृतिक संसाधनों के न्यायोचित सदुपयोग के लिए जागृत रहे, इन शब्दों का मानवमात्र का यह आह्वान भी है।

IV

निस्सन्देह, अथर्ववेद के इस सूक्त के त्रेसठ मंत्रों में एक ओर पृथ्वी की दीर्घकालिक अनुकूलता और इस पर अच्छे जीवन की निरन्तरता व सुरक्षा के लिए आवश्यक शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व की अभिलाषा है। इस हेतु, मानवीय स्तुतियाँ और प्रार्थनाएँ हैं। वहीं दूसरी ओर, इन मंत्रों के माध्यम से विशेष रूप से प्रकृति, पर्यावरण व प्राकृतिक संसाधनों की ओर (अतिविशेष रूप से वर्षों से पर्यावरण व प्रकृति से खिलवाड़ और प्राकृतिक संसाधनों के अन्धाधुन्ध दुरुपयोग व परिणामस्वरूप प्रकट वर्तमान भयावह स्थिति को केन्द्र में रखते हुए) न्यायोचित दृष्टिकोण रखने का मानवाह्वान है। प्रकृति, पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार तथा इनके सदुपयोग की अपेक्षा है।

इस सम्बन्ध में मानव-जाति के अनुत्तरदायित्व का सहज ही अनुमान इस सत्यता से लगाया जा सकता है कि उसके द्वारा प्रतिवर्ष एक करोड़ हेक्टेयर से भी अधिक वन प्रतिवर्ष कटान और जलाए जाने से नष्ट हो जाते हैं। वनों की कटाई और उन्हें जलाए जाने के कारण जैव-विविधता को भारी हानि हुई है। हजारों की संख्या में जीव-जन्तु प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं। हजारों ही की संख्या में लुप्त होने की स्थिति में हैं। एक आख्या के अनुसार, चालीस प्रतिशत उभयचर और तैंतीस प्रतिशत जलीय स्तनधारी विलुप्त हो गए हैं अथवा विलुप्त होने को हैं। वातावरण में शुष्कता बढ़ी है। वैश्विक तापन में भारी और अति हानिकारक वृद्धि हुई है। ग्लेशियर निरन्तर और तीव्रतापूर्वक पिघल रहे हैं। विशेष रूप जो बर्फ अन्टार्कटिक की ओर से पिघल रही है, उससे समुद्री जल-स्थिति में चिन्ताजनक वृद्धि हो रही है। विश्व के लगभग एक अरब जन इससे तत्काल प्रभावित होने को हैं। प्रकृति बुरी तरह प्रभावित हुई है। नदियाँ, तालाब और अन्य भू-जलीय अनुरक्षक विलुप्त हुए हैं, और निरन्तर हो रहे हैं। खेती योग्य भूमि का बहुत बड़ा क्षेत्रफल बंजर हो गया है। लगभग पचहत्तर प्रतिशत भूमि क्षेत्र का और छियासठ प्रतिशत समुद्री क्षेत्र का वातावरण परिवर्तित हो गया है। इस स्थिति के कारण जो अनेकानेक समस्याएँ जीवन से जुड़ी हैं, वे सभी हमारे संज्ञान में हैं।

ऐसी स्थिति में पृथ्वी के प्रति अपरिहार्य व्यक्तिगत और सामूहिक सजातीय उत्तरदायित्वों के निर्वहन के आह्वान की सर्वोच्च महत्ता स्वयं ही स्पष्ट  है। केवल अपरिहार्य उत्तरदायित्व के निर्वहन द्वारा ही पृथ्वीसूक्त के मंत्रों के माध्यम से प्रकट मानवीय अभिलाषाओं, कामनाओं, प्रार्थनाओं व स्तुतियों के फलीभूत होने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। पृथ्वी पर जीवन सुरक्षित, समृद्ध और सुखमय हो सकता है।

वैश्विक स्तर पर वर्तमान में पर्यावरण और प्रकृति से जुड़ी जो अति गम्भीर चिन्ताएँ हैं; इन गम्भीर चिन्ताओं के करण पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व पर जो प्रश्नचिह्न है, उनके सम्बन्ध में अथर्ववेद के 'पृथ्वीसूक्त' के मंत्र, हम बारम्बार दृढ़ता के साथ कह सकते हैं, निदानात्मक दिशानिर्देश सदृश्य हैं। इतना ही नहीं, वृहद् परिप्रेक्ष्य में इन मंत्रों का आह्वान सार्वभौमिक व्यवस्था के सुचारु सञ्चालन के लिए है। पृथ्वी स्वयं सार्वभौमिक व्यवस्था के अन्तर्गत है और मानव पृथ्वी का वासी है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉ0 रवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ के पूर्व कुलपति हैं; वर्तमान में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 


“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...