रविवार, 31 दिसंबर 2023

इस आपाधापी में- विजय सिंह नाहटा

                                 विजय सिंह नाहटा

 

इस आपाधापी में

सब कुछ बचाया जा रहा है

जल, जंगल औ’ जमीन

ताजा हवा

आनेवाले कल के दाय में

एक साफ-सुथरी धरती

किसी अदेखे डर के खिलाफ

बचाया जा रहा

लड़ाई का हुनर

बचाया जा रहा अन्न अकाल के लिए

एक कार्य योजना बचाई जा रही है

आकस्मिक आपदा से निपटने के लिए

कुछ सपने बचाए जा रहे हैं

आनन-फानन ही सही

संभावित भूखे लोगों के लिए

हर तरफ अंतहीन दौड़ है कुछ बचाने की

फिर इस आपाधापी में

खुद बचे रह पाने की बेचैनी

चीजों औ’ चीखों से ठसाठस भरी इस दुनिया में

चाहता हूँ बस, बचा रहे थोड़ा – सा प्रेम

विकट समय के लिए ।

गांधी-दर्शन का वैश्विक सरोकार- डॉ.जितेन्द्र पाण्डेय





                                                              डॉ.जितेन्द्र पाण्डेय

गांधी-दर्शन का वैश्विक सरोकार

            महात्मा गांधी स्वयं में एक युग थे | ऐसा युग जो अतीत के दरख्त़ से जीवन-रस ग्रहण करता हुआ भविष्य की भयावहता के लिए मधुरिम फल हो | अपने स्वाद और सुगंध में लाज़वाब | बेहतरीन इतना कि देश और काल की सीमा भी न रोक सके | दुनिया का हर कलाकार, विचारक, वैज्ञानिक और चिंतक जिसे पाने के लिए बेचैन हो | जिसकी छवि में विश्वात्मा दिख जाय | ऐसे युगपुरुष बार-बार जन्म नहीं लेते क्योंकि उनके विचार सनातन और शाश्वत होते हैं | उनके बहिर्दर्शन के अनुयायी कोटि-कोटि जन होते हैं | यही बात सोहनलाल द्विवेदी लिखते हैं – “युग हँसा तुम्हारी हँसी देख, युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख |”

            गांधी जी ने किसी नये सत्य का उद्घाटन नहीं किया था बल्कि सदियों से जमीं धूल को साफ-सूफ करके दुनिया के सामने रखा | पूज्य ग्रंथों (उपनिषद्, रामायण, गीता आदि) में कैद ज्ञान को अपने व्यवहार में उतारा था | उन्होंने “आत्मवत् सर्वभूतेषु” को जीया था | उनके लिए ईश्वर का साक्षात्कार ‘प्राणिमात्र का दर्शन’ था | यही कारण है कि वे ‘अहिंसा’ के प्रबल पक्षधर थे | एक बार गांधी और सावरकर का आमना-सामना लंदन के किसी समारोह में हुआ | सावरकर ने अपने वक्तव्य में कहा कि राम ने रावण पर विजय पाने के लिए शक्ति का आराधन किया था | यह जरूरी नहीं है कि स्वाधीनता संग्राम के लिए ‘अहिंसा’ का ही रास्ता अपनाया जाय | महात्मा गांधी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में अहिंसा का पक्ष लेते हुए कहा कि राम शक्ति के साथ-साथ करुणा के भी प्रतीक हैं | सनातन मूल्य के वे संवाहक हैं | अहिंसा तो सनातन परम्परा के मूल में है | इस प्रकार समर्पित और ईमानदार क्रांतिकारियों को उन्होंने उस रास्ते पर चलने से मना किया जो मानवता के हित में न हो |

              गांधी का किसी से कोई बैर-भाव नहीं था | सबके लिए उनके अंतःकरण से सद्भावना की नदियाँ फूटती थीं | प्रभु ईसा मसीह की तरह वे उन्हें भी क्षमा करने के लिए तैयार थे जो भारत का अहित सोचते थे | ऐसा विराट व्यक्तित्त्व भला विश्व-मनीषा की नज़र से कैसे बचता ? सबने मुक्त-कंठ से बापू का गुणगान किया | मूर्तिकला, चित्रकला, चिंतन, कविता, राजनीति, विज्ञान, फिल्म आदि से जुड़े शीर्षस्थ लोगों ने गांधी को अपनी-अपनी दृष्टि से जांचा-परखा और अपनी सर्जना में ढाला | इस संत की सादगी, सत्य, संकल्प, साहस, समर्पण, करुणा, विद्रोह, सहनशीलता, अहिंसा, आध्यात्मिकता आदि ने दुनिया की महान विभूतियों को उनकी तरफ आकृष्ट किया | सबने महसूस किया कि ‘गांधी-दर्शन’ ही सच्चे अर्थों में ‘विश्व-दर्शन’ है |

                                 भारत की स्वतंत्रता के लिए गांधी ने कभी साधन और साध्य के बीच अंतर नहीं माना | ऐसा करना व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्तर पर दोहरा मापदंड अपनाना था |  हिंसा के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति उन्हें कदापि स्वीकार्य न थी | यदि स्वतंत्रता प्राप्ति को वृक्ष मान लिया जाय तो उसका माध्यम निश्चित रूप से बीज होगा | इनमें असंतुलन आना विषमताओं का कारण बनता है | यही बात महात्मा गांधी भारतीय क्रांतिकारियों को समझाना चाहते थे | इस सूत्र को न समझ पाने के कारण दुनिया के अनगिनत क्रांतिकारियों और विचारकों ने मुंह की खाई | इनमें से एक उदाहरण एम्मा गोल्डमैन का देना जरूरी है | एम्मा का जन्म रूस में उस समय हुआ था जब वहाँ ज़ार की आतंकवादी गतिविधियाँ चरम पर थीं | उसी समय इस महिला ने अपना देश छोड़कर अमेरिका में बसने का निर्णय लिया | बाद में अमेरिका की किसी नीति में हस्तक्षेप करने के कारण उन्हें दंडित किया गया | १९१९ में अमेरिकी सरकार ने एम्मा को उनके देश रूस भेज दिया | यहाँ आकर वह बहुत खुश थीं | बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी | उनको लगा कि साम्यवादी समाज स्थापित होगा किन्तु थोड़े ही दिनों में मोह भंग हो गया | स्थितियां असामान्य बनी रहीं | गोल्डमैन ने महसूस किया कि इन सबका कारण मार्क्सवाद चिंतन है जिसमें साधन और साध्य में विसंगति है | क्रांति और हिंसा की इस समर्थक ने अपनी पुस्तक ‘माइ दिस एल्यूज़नमेंट इन रसा’ में खुले दिल से इस भूल को स्वीकार किया है | एम्मा ने गांधी के नमक सत्याग्रह की वकालत अपनी दूसरी पुस्तक ‘नो ह्वेवर एट होम’ में की है | वहां उसने साधन और साध्य को भारत के लिए समीचीन बताया |

             गांधी जी निडर और निर्भीक थे | उन्हें नैतिकता का अमोघ अस्त्र प्राप्त था किंतु थे निःशस्त्र मसीहा (unarmed prophet) | यह ‘नंगा फकीर’ जब राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में भाग लेने लंदन पहुंचा तो लार्ड मरे ने तीन पंक्तियों से इनका परिचय कराया था –

‘He is a man whom gun cannot frighten,

To whom money cannot buy

To whom woman cannot seduce.’

गाँधी का विश्व-क्षितिज पर आना एक चमत्कारिक घटना थी | इस बात पर एल्बर्ट आइन्स्टीन ने हैरानी जताते हुए कहा था, “आने वाली पीढ़ी आश्चर्य करेगी, वे विस्मयपूर्वक पूछेंगी, क्या ऐसा कोई हाड़-मांस वाला व्यक्ति कभी इस धरती पर चलता-फिरता भी था ? वे मुश्किल से यह विश्वास करेंगी कि आदमी के ऐसे शरीर में देवता, संत अथवा देवदूत का होना कभी संभव हुआ |” अद्भुत व्यक्तित्त्व था महात्मा का जिसमें न तो पूरी तरह राम अँट सके और न ही कृष्ण | उनकी वैचारिक ऊष्मा इतनी प्रखर और सुहावनी थी कि स्वतः ही महावीर, बुद्ध, फ्रांसिस, ईसा आदि से जुड़ जाती | एक तरफ अमेरिकी चिन्तक डॉ. जे. एच. होम्स गाँधी की तुलना ईसा से करते थे तो दूसरी ओर डॉ. रूफ़स जोम्स उन्हें संत फ्रांसिस मानते थे | मार्टिन लूथर ने अपने संघर्षों में वैचारिक साथी के रूप में महात्मा गांधी के नाम की घोषणा की थी | वे अपने मिशन (अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई) के लिए सदैव महात्मा के प्रसाद के अभिलाषी रहे | इस बात को मार्टिन ने एक कविता में इस प्रकार स्वीकारी थी –

कैसी थी उनकी  लड़ाई  !

जिसमें विद्वेष-घृणा के लिए

कोई जगह नहीं थी |

हड्डियों के उस ढांचे में

कैसा था वह आत्मबल !

मैं सर्वदा उनके प्रसाद का अभिलाषी रहा

हूँ और रहूंगा |”

            गांधी के ‘स्वराज’ का स्वरूप विराट था | उसमें मात्र अंग्रेजों की दासता से मुक्ति ही  शामिल नहीं थी बल्कि मुक्ति के बाद का ‘ब्लू प्रिंट’ भी था. वे नहीं चाहते थे कि ‘अंग्रेजी शासन बिना अंग्रेजों के चलता रहे’ | परिवर्तन जरूरी था | अतः उन्होंने ‘स्वराज’ के नए आयाम खोले |  राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता ( उद्योगों का विकेंद्रीकरण), सांस्कृतिक स्वतंत्रता (इंडिया की जगह ‘हिन्द’ का प्रयोग) और आत्मानुशासन पर बल दिया | फ्रेड डलमायर और रूसो ने तो ‘आत्मानुशासन’ को लोकतंत्र का केंद्रीय तत्त्व माना | बिना इसके इच्छाएँ रक्तबीज की तरह जन्म लेती हैं और राष्ट्र में गृहयुद्ध जैसे हालात बन जाते हैं | कुल मिलाकर इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उपजी अनेकानेक समस्यायों का निदान है गांधी के स्वराज में | भारत पर सांस्कृतिक हमले बदस्तूर जारी हैं | अंग्रेजों के बाद यह वीणा अमेरिका ने उठाया है | उनके पोषित बुद्धिजीवी  (एम्बेडेड इंटेलेक्चुअल्स) अमेरिकी वर्चस्व को पूरी दुनिया पर थोपना चाहते हैं | दूसरे देशों में राजनीतिक, सैनिक और आर्थिक हस्तक्षेप को ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ बताया जा रहा है | इस वैचारिक परंपरा (पश्चिम का अहंकार और दंभ) के वाहक रूप में  सैमुअल हटिंगटन और फ्यूकोयामा का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है | वर्त्तमान में भी सोशल मीडिया पर कुछ पश्चिमी विचारकों के लेख वायरल हो रहे हैं जिसमें भारत की अस्मिता पर प्रहार किया जा रहा है | इस दुष्प्रचार में हमारे पड़ोसी देशों की सरकारी मीडिया भी शामिल है | ऐसी स्थिति में गाँधी का स्वराज-दर्शन वरेण्य है | अधकचरी जानकारी से लैस ऐसे चिंतकों को माकूल जवाब मिलना चाहिए |

             हिंसा-प्रतिहिंसा की भंवर में उलझा विश्व हथियारों की खरीद-फरोख्त में विवेकशून्य हो गया है | जलवायु-संकट गहराता जा रहा है | पेरिस-सम्मलेन का संतोषजनक हल नहीं निकला | उत्तर कोरिया की परमाणु धमकी दुनिया की धड़कनों को तेज कर दी है | आतंकवाद की ज़द में समूचा विश्व समाया है | रासायनिक हथियार तबाही मचाने के लिए तैयार हैं | निर्माण की मात्रा कम किंतु ध्वंस के सामान अधिक हैं | आखिर, विश्व-मनीषा इतनी लाचार क्यों है ? इस समय प्रेम, सद्भावना, करुणा, अहिंसा, सत्य, सहयोग और सहानुभूति की सर्वाधिक आवश्यकता महसूस हो रही है | ऐसे में उम्मीद की एकमेव चमकीली किरण गाँधी-दर्शन है | इसे अपनाकर दुनिया को स्वर्ग बनाया जा सकता है | भविष्य की ऐसी ही भयावह स्थिति को भांपकर जापान के संत कवि तोशियो साका ने लिखा है –

जब तक इस धरती का

एक भी व्यक्ति उदास है दुखी है

गांधी उसकी उदासी, उसके दुःख में

हिस्सा बंटाने के लिए

बराबर आते रहेंगे

वे आवागमन से न कभी मुक्त होंगे

और न होना चाहेंगे |”

           बाज़ार और शक्ति का पूरी दुनिया पर वर्चस्व है | ऐसी स्थिति में युद्ध की संभावना बढ़ती जा रही है | आवश्यकता है गांधी के विचारों की प्रबल पुनर्वापसी हो | हम इसे अपने व्यवहार में उतारें जिससे भारत विश्व-मंच पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए | धरती पर अमन-चैन स्थापित करने में ‘आर्यावर्त’ नेतृत्त्व की भूमिका में आए | ध्यान रहे इस बड़ी मुहिम की शुरुआत ‘स्व’ से करनी होगी | संदेश का स्वतः भूमंडलीकरण हो जाएगा |

जीवन में सहजता की तलाश बनाम 'सिवान में बाँसुरी'- प्रशांत जैन, मुंबई




                                                                  प्रशांत जैन, मुंबई 

कवि, लेखक, शिक्षाविद् और शोधकर्ता


जीवन में सहजता की तलाश बनाम 'सिवान में बाँसुरी'

----------------------------------

'सिवान में बाँसुरी' यदि किसी कविता संग्रह का शीर्षक हो तो सबसे पहले आपके मानस-पटल पर कौन सी छवि उभरेगी? निश्चित ही किसी गाँव की सरहद पर स्थित किसी खेत की मेड़ पर बैठ बाँसुरी बजाते एक ग्रामीण युवक की। यहाँ मैं ‘नंद-किसोर चरावत गैयाँ, मुखहिं बजावत बेनु’ की बात नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि वह छवि हमारे मन-मस्तिष्क में एक ईश्वरीय लीला की तरह रूढ़ हो चुकी है। वैसे बीती सदियों में 'सिवान में बाँसुरी' जैसे मिलते-जुलते विषय पर विश्व भर के अनेक चित्रकारों ने अपनी कूची चलाई है। इन कविताओं का रचयिता पिछले साठ सालों से मुंबई में रह रहा है, लेकिन हज़ार मील की दूरी के बावजूद अब भी उसके गाँव की सरहद मुंबई की सरहद से मिलती है। इन्हें मिलाने वाले तत्व एवं कारक कई हो सकते हैं, लेकिन उनमें से एक कारक निश्चित ही कवि की स्मृति में रची-बसी बाँसुरी की धुन भी है।

 

संग्रह की भूमिका में हृदयेश कहते हैं कि मुंबई के मीरा रोड क्षेत्र में जहाँ वे रहते हैं, अक्सर एक बाँसुरी बेचने वाला पुरानी  हिंदी  फिल्मों  की  धुनें बजाते हुए फेरी लगाता है। बाँसुरी का यही स्वर कवि को औचक अपने अतीत में ले जाता है। 'सिवान में बाँसुरी' शीर्षक कविता की पंक्तियाँ देखें - हृदय तल में/ सिवान में बजती बाँसुरी की तरह/ बजता रहता है गाँव …।  भूमिका में वे आगे कहते हैं कि शहर की बाँसुरी और गाँव के सिवान का क्या रिश्ता है मुझे पता नहीं, पर दोनों मुझे असहज कर देते हैं। निश्चित ही यह असहजता कोई असुविधा या आराम में ख़लल नहीं बल्कि मनुष्य की अपनी स्वाभाविक सहजता की तलाश है, जो उसकी लक्षित विश्रांति भी है। वैसे भी असहजता श्रम है और सहजता विश्राम। हृदयेश मयंक की कविता सहजता की इसी तलाश की कविता है।

 

जीवन में सहज आख़िर क्या है? तनिक विचारने पर हमें अपने ही अंदर से उत्तर मिलता है कि जो प्रकृति सम्मत है वह सहज है । जो प्रकृति के विभिन्न तत्वों, यथा - पदार्थ, वनस्पति, प्राणी एवं मनुष्य के स्वभाव एवं नैसर्गिक आवश्यकताओं के अनुकूल है वह सहज है। अपने अस्तित्व को बनाए रखने हेतु इन तत्वों में अंतर्निहित जो साहचर्य है वह सहज है। जीवन में इसी सहजता की अपेक्षा, आशा, आग्रह अथवा आवश्यकता ही संभवत: वे तत्व हैं जिनकी वजह से हृदयेश मयंक की कविताएँ प्रकृति, पर्यावरण एवं मानव के अत्यंत निकट हैं। ये कविताएँ प्रकृति के इन तत्वों की परस्पर पूरकता एवं सहअस्तित्व-पूर्ण संबंध को लगातार चिन्हित एवं परिभाषित करती हैं। बदले हुए समय ने सबसे अधिक बदला है मनुष्य की उस नैसर्गिकता को जो उसे मनुष्य बनाती है। आज  जीवन में सादगी और आपसी संबंधों में सहजता नहीं रही। संग्रह की कविताओं में शायद इसीलिए गाँव बार-बार आता है, बचपन बार-बार आता है, भूले-बिसरे साथी, गली-मोहल्ले-चौबारे, खेत-खलिहान-सिवान बार-बार आते हैं. यही नहीं ग्रामीण जीवन के सहचर वृक्ष-पशु-पक्षी भी बार-बार आते हैं। कुल मिलाकर हृदयेश मयंक की कविताओं का यह गुलदस्ता एक भलेमानस की सहजता एवं सरलता के उत्सव सा प्रतीत होता है, जिसमें संबंधों की उष्मा एवं माटी का सोंधापन रचा-बसा है।

 

पहली नज़र में ये कविताएँ वर्तमान समय के लंपट एवं स्वार्थी शहरी जीवन से मोह-भंग की कविताएँ जान पड़ सकती हैं, किंतु ध्यातव्य है कि इन कविताओं में जिजीविषा का एक अंत:प्रवाह लगातार मौजूद है। ये कविताएँ पलायन में त्राण नहीं ढूंढतीं, बल्कि परिस्थितियों से दो-दो हाथ करती दिखाई देती हैं। स्वप्नों और उम्मीदों के टूटने का दर्द निश्चित ही अनेक कविताओं में झलकता है, लेकिन इसके बावजूद ये कविताएँ भविष्य के प्रति राग, उत्साह एवं आस्था से लबरेज़ हैं। किसी भी कालखण्ड में जीवन-मूल्यों का यदि कल्पनातीत तरीके से पतन हो और मनुष्य का मानव-पद से हद से ज़्यादा स्खलन हो तो उस काल के कवि-लेखकों-कलाकारों के लिए ऐसे वीभत्स दृश्यों को देखना और उस शापग्रस्त समय को जीना निश्चित ही मृत्यु के अनुभव से कम न होता होगा। वर्तमान समय भी शायद ऐसा ही है कि जब हर सच्चे कवि को रोज़ अपनी ही राख से जी उठना होता है, फीनिक्स पक्षी की तरह। हृदयेश अदम्य जिजीविषा से भरपूर ऐसे ही एक कवि हैं। ‘हम जियेंगे साथी’ की पंक्तियाँ देखें - हम जियेंगे साथी/ उन मौसमों के लिए/ जिन्हें अभी आना है धरती पर/ और हरना है जन-जन की पीड़ा …।

 

संग्रह में नॉस्टैल्जिया के भाव से संपृक्त अनेक कविताएँ हैं। लेकिन ये कविताएँ वर्तमान के प्रति किसी असंतोष, हताशा या विवशता का उत्पाद नहीं, बल्कि अपने वर्तमान को बीते हुए जीवन की सकारात्मकता से समृद्ध करने का एक उपक्रम अथवा पुरुषार्थ हैं। ‘जी करता है’ कविता देखें - जी करता है/ दूर कहीं जाकर छुप जाऊँ/ और ढूँढ़ने माँ आ जाए/ जी करता है/ संगी-साथी बिछड़ चुके जो/ मिल जाएँ फ़िर लड़ें-भिड़ें हम …। यह कविता किस सहृदय पाठक के अंतर्मन को भिगो नहीं देगी? भावनाओं की यही गहनता एवं तीव्रता हृदयेश मयंक की कविताओं का अनिवार्य गुण है। ‘चिट्ठी’ कविता की चार ही पंक्तियों में गाँव अपनी संपूर्णता में  प्रतिबिंबित होता है - चिट्ठी में पिता के आशीष थे/ गाँव-पड़ोस की विपदाएँ/ ताज़ा ब्याई भैंस के फेनिल दूध की महक थी/ कुटे धान की ख़ुशबू …। देखें कि इन पंक्तियों में मात्र घर, पड़ोस, गाँव, खेत, भैंस आदि ही अपनी-अपनी इयत्ता, महत्ता एवं पूरकता के साथ अनुनादित एवं प्रतिबिंबित नहीं  हैं, बल्कि फेनिल दूध और धान भी अपनी दृश्य छवि एवं सुगंध के साथ शामिल हैं। ‘गाँव में जाना’ कविता में कवि अपने पोतों को भी गाँव जाने एवं चीज़ों को अच्छी तरह से देख-समझ आने की प्रेरणा देता है - जाना, गाँव/ तो सूप, दौरी, चूल्हा, मूसर, चकरी, हल, कुदाल/ पूजते देखना दादी, गोतिन पड़ोसिनों को/ श्रम संस्कृति के औजारों को जी भर, देख आना …।

 

आज के पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में मौजूद परस्पर विश्वास के संकट को कवि ने अत्यंत सशक्त ढंग से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। 'घर में’ कविता की इन पंक्तियों की चमत्कारी शब्द-योजना देखें - घर में/ सब कुछ ठीक-ठाक था/ एक भरोसे को छोड़कर/ जो धीरे-धीरे टूट रहा था…। मनुष्य के आपसी व्यवहार में जहाँ भावना एवं बुद्धि में संतुलन नितांत आवश्यक है, बुद्धि बड़ी तेज़ी से भावना की स्थानापन्न होती जा रही है, और वह भी स्वार्थ-बुद्धि। बँटवारा कविता देखें - बँटवारा ज़मीन का था/ भाइयों ने सबसे पहले बाँट लिए रिश्ते/ स्त्रियों ने बाँट लिया आँगन/ बंद कर लिए घर में प्रवेश के रास्ते/ बँटवारा सिर्फ़ ज़मीन का था/ बँट गया सबका आकाश भी न जाने कैसे ...।  इसके बरअक्स संग्रह में ऐसी अनेक कविताएँ हैं जो विश्वास जगाती हैं कि अभी सहेजे जाने लायक बहुत कुछ बाक़ी है। पिता को याद करती एक कविता ‘गाँव का होना गाँव में जैसे पिता का होना है’ अपने शीर्षक से ही बहुत कुछ कह देती है।  ‘यातना भरी रातें’ शीर्षक श्रृंखला की आठ कविताएँ कवि की हाल ही की गंभीर अस्वस्थता एवं उससे उबरने की व्यथा-कथा का यथार्थ आख्यान हैं। इन कविताओं में आशा, निराशा, उत्साह, अवसाद, हर्ष, विषाद आदि विभिन्न स्याह-सफ़ेद रंग मौजूद हैं। पुत्र एवं पुत्रवधु के सेवा-शुश्रूषा से बहुत आगे बढ़कर अंगदान तक पहुँच जाने वाले कर्तव्य-बोध एवं स्वयं के  धर्मसंकट का मार्मिक चित्रण कवि ने इन कविताओं में किया है। इस अर्थ में कविताओं की यह श्रृंखला पाठकों के लिए अत्यंत प्रेरक भी है। वैसे भी कवि या लेखक का यथार्थ काफी हद तक समाज का भी यथार्थ होता है। या कहें एक रचनाकार अपनी रचना में, उपलब्ध ज्ञान एवं सूचनाओं के आधार पर, अपने अनुभवों को ही एक्स्ट्रापोलेट करता है, और इसीलिए रचना सार्वजनीन महत्व की वस्तु बन जाती है।

 

वर्तमान समय के यक्ष प्रश्नों को हृदयेश मयंक ने अपनी कविता में अत्यंत प्रभावकारी ढंग से संबोधित किया है। नए और पुराने का द्वंद ऐसा ही एक प्रश्न है। नए की खोज मनुष्य का एक स्वाभाविक एवं सकारात्मक गुण है। लेकिन वर्तमान में नए की यह खोज किसी नए विचार नहीं बल्कि नई वस्तु या नए अनुभव की प्राप्ति के रोमांच तक ही सीमित रह गई है। नए को जाने बिना, उसका मूल्यांकन एवं हिताहित का विचार किए बिना सिर्फ़ उसे हासिल करने की होड़ मची हुई है। यह नए की खोज नहीं, बल्कि अपनी ऐंद्रिक संवेदनाओं, आवेगों, एवं भौतिक इच्छाओं की असंभव संतुष्टि हेतु अंतहीन उद्यम मात्र है। इस होड़ में लोग समय की कसौटी पर खरी उतर चुकी सार्थक परंपराओं, अनुभव-सिद्ध मान्यताओं ही नहीं बल्कि वर्तमान का मार्ग प्रशस्त करने वाली स्मृतियों तक से स्वयं को वंचित कर ले रहे हैं। ‘दीवार पर टँगा सितार’ की पंक्तियाँ देखें – जब तक दीवार पर/ टँगा था सितार/ लोग याद करते रहे नाना को/ …सितार का न होना / कोई बड़ी बात नहीं / पर स्मृतियों का न होना/ बहुत ही घातक है ...।

 

पुरखों और धरोहरों को भुला देने के अनेक सर्वनाशी प्रकल्प सरकारी स्तर पर भी भयंकर निर्लज्जता, ग़ैर-ज़िम्मेदारी, और फूहड़ता के साथ चल रहे हैं। हम गवाह हैं कि किस तरह से विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर काशी विश्वनाथ परिसर एवं उसके आसपास के घरों, दुकानों, गलियों और मंदिरों के इकोसिस्टम को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया है। ‘खेवली से लौटकर’ शीर्षक कविता में कवि ने धूमिल के साथ ही काशी के उपरोक्त प्रसंग को भी याद किया है - कुछ लोग कहते हैं लक-दक हो गया है बनारस/ कुछ कहते हैं कि लुप्त हो रहा है बनारस का खांटीपन/ ग़ायब हो जाएंगे सांड, रांड और संन्यासी सड़क से …। ये पंक्तियाँ प्रभावी इसलिए भी बन पड़ी हैं कि ये काशी में सदियों से प्रचलित एक लोकोक्ति - 'रांड, सांड, सीढ़ी, संन्यासी/ इन से बचे तो सेवे काशी' से प्रेरित हैं। अँधे विकास का बुलडोजर किस तरह से पर्यावरण का विनाश कर रहा है, ‘मानुष गंध’ की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है - हवा में ज्यों ही पसरती है/ किसी मानुष की गंध/ चौकन्ने जाते हैं/ पशु-पक्षी नदी नाले/ नदियों में शामिल होता है ज्यों ही धरती का तापमान/ कसमसा कर रह जाता है जल…।

 

प्रतिरोध हृदयेश मयंक की कविताओं का एक प्रमुख स्वर है, जिसकी विशिष्टता यह है कि यहाँ कवि अपनी ज़मीन पर मजबूती से खड़े रहकर आक्रामक भाषा का प्रयोग न करते हुए संयत स्वर में सत्ता-तंत्र को चुनौती देता हुआ दिखाई देता है। ‘आओ सूरज स्वागत है’ कविता देखें - आओ सूरज स्वागत है/ गाँव की चुंगी/ और महलों के बीच बनी/ झुग्गियों पर/ ... पर, अबकी/ बहरों के देश में/ आँखें खोल कर आना …। महामारी की विभीषिका के दौरान प्रशासन की लज्जास्पद लापरवाही एवं आम जन की मर्मांतक पीड़ा पर भी कवि ने अपनी लेखनी चलाई है। ‘कैसे हो मित्र’ में कवि कहता है - जब नहीं बची रही सत्ताधारियों के पास लाज/ मेडिकल स्टोर्स पर नहीं बची रही दवा/ दलालों ने दबोच ली सारी ऑक्सीजन/ फिर भी कैसे बचे रह गए मित्र ...। महामारी के दौरान अनगिनत लाशों को गंगा में बहाए जाने की हृदय-विदारक घटना पर आधारित कविता ‘गंगा सिर्फ एक नदी भर नहीं है’ जितनी प्रतिरोधात्मक है उतनी ही मार्मिक भी।

विडंबनाओं से भरपूर  इस नृशंस समय में देश के लोकतंत्र को बिल्कुल भिन्न एवं नए ख़तरे का सामना करना पड़ रहा है, और वह है वर्तमान सत्ता-तंत्र द्वारा लोकतंत्र की आवश्यकता को ही सिरे से नकारा जाना। इस नई व्यवस्था के स्थायीकरण के लिए  विरूपित इतिहास, अनर्गल साहित्य एवं अपसंस्कृति के सूक्ष्म औजारों से जनता के  दिमागों की सर्जरी की जा रही है। इस महाषड्यंत्र के विरुद्ध कवि के प्रतिरोध का स्वर ‘बौखलाई नदी’ में देखें - आओ मिलजुल तलाशें/ अपने आस्तीन में छिपे/ सभ्यता और संस्कृति के बिल में घुसे/ ज़हरीले साँपों को/ और कुचल दें उनके फन …। कवि के सरोकार का दायरा आर्थिक रूप से निचले पायदान पर खड़े शोषण के शिकार आम आदमी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसमें दलित एवं स्त्री भी उसी शिद्दत के साथ आते हैं। इन तबकों के लिए कवि के मन में मात्र संवेदना अथवा सहानुभूति नहीं बल्कि गहरी तदनुभूति भी है। ‘माई-बाप’ कविता में एक दलित का संघर्ष औऱ स्वाभिमान देखें – मुझसे, मेरे पुरखों से नहीं हुई बेअदबी/ पर बच्चों से भी नहीं होगी/ कहा नहीं जा सकता …। इसी तरह नौकरीपेशा महिलाओं पर कविता ‘एक दिन’ की पंक्तियाँ हैं - एक दिन/ पूरा विश्राम का हो/ जब घर न आए कोई मेहमान/ पतिदेव उपवास रख लें/ एक दिन/ जब बच्चे नींद में हों/ उतर कर आए कोई परी/ टिफ़िन में भर जाए नाश्ते का सामान…।

 

साहित्यिक व सांस्कृतिक क्षेत्र के पाखंडियों की भी कवि ने अच्छी खबर ली है। ‘तुम चुप क्यों हो’ कविता देखें – तुम गुनिया हो/ जोड़ते घटाते रहते हो/ संबंधों का हिसाब-किताब/ तुम एक शातिर जालसाज़ हो/ तुम्हारे बहीखाते में मक्कारी है …। इसके बरअक़्स एक ईमानदार कवि किस हद तक असहाय है, यह ‘जगह’ शीर्षक कविता में कुछ इस तरह से अभिव्यक्त हुआ है - मैं ख़ामोशी को उतारना चाहता था कविता में/ उतर आया शोर/ मैं अमन को उतारना चाहता था/ कविता में  उतर आई आग/ मित्रो यह कैसा समय है कि/ जो हम चाहते हैं वह नहीं हो पाता …। इस परिदृश्य में एक संवेदनशील कवि का अपराध-बोध से भर जाना एवं पुरखों से क्षमा याचना करना स्वाभाविक ही है। ‘पिता क्षमा करना’ कविता देखें - पिता क्षमा करना/ हम नहीं सँभाल पाए तुम्हारी विरासत/ बच्चों के लिए हम नहीं छोड़ पाए अमन-चैन/ हमने बाँट डाली मानवता/ कहने को तो चाँद तक हो आए हम/ पर नहीं रख पाए शुद्ध हवा जल तक भी …।

 

जहां तक शिल्प का सवाल है, संग्रह की कविताओं में अलग-अलग पैटर्न देखने को मिलते हैं। बीच-बीच में तुकांत कविताएँ भी हैं। कुछ उर्दू नज़्म सी तहरीरें  भी हैं। अभिधा की बहुलता में लक्षणा और व्यंजना का भी प्रयोग खूब हुआ है। विषयों में पर्याप्त विविधता है। बिंब-विधान में ताज़गी है। ‘गिरना’ कविता में तो गिरना भी उत्सव बन जाता है - गिरना ऐसे/ जैसे गिरते हैं वृक्ष से फल/ गिरना ऐसे/ जैसे गिरती हैं बूँदें/ रेत पर…। ‘ईंट की आत्मकथा’ कविता रहीम के दोहे की याद दिलाती हैं जिसमें ‘पानी’ अपने श्लेषार्थ  के साथ प्रयुक्त हुआ है। अंतर मात्र यह है कि इन पंक्तियों में रहीम के मोती, मानुष, चून की जगह ईंट, सोना और मानुष हैं, और ‘पानी’ के स्थान पर ‘ताप’ है - तपना ज़रूरी होता है/ ईंट, सोना, मानुष तीनों के लिए …। ‘अथ श्री चावल कथा’ तो नज़ीर अकबराबादी की ‘रोटियाँ ’ की याद दिलाती है।

 

हृदयेश मयंक की भाषा शब्दाडंबर से  रहित सामान्य बतकही की भाषा है। सघन आत्मीयता भरे सीधे-सरल शब्द पाठक के हृदय में सहज ही बहुत गहरे उतर जाते हैं। कविता पढ़ते हुए पाठक को महसूस होता है मानो वह  कवि का पड़ोसी हो, और कवि देहरी पर बैठ उसके साथ सुख-दुख की बातें कर रहा हो। एक तरह से देखा जाए तो ये कविताएँ गहन ऐंद्रिक अनुभूतियों से भरपूर हैं। भावनाएँ इन कविताओं में अपने  हर रंग में नमूदार होती हैं। मनुष्य के मनुष्य एवं प्रकृति के साथ स्वाभाविक संबंधों की तरंगें जिस तरह से अनुभूतियों की उत्कटता के साथ पाठक को संवेदित करतीं हैं, वह निश्चित ही इस विशिष्ट भाषा-शैली की वजह से ही सम्भव होता है। हृदयेश मयंक की कविताओं में देश-काल एवं कथ्य के अनुसार देशज शब्दों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। शायद इसीलिए दो सौ से अधिक पृष्ठों के इस संग्रह में प्रारंभ से अंत तक कविता की पुरवाई सी बहती प्रतीत होती है।

 

कुल मिलाकर ‘सिवान में बाँसुरी’ विविध मानवीय भावनाओं, कल्पनाओं और स्वप्नों को स्वर देने वाली कविताओं का ऐसा कोलाज है जिसमें ग्रामीण से लेकर नागरी जीवन का हर रंग शामिल है। संग्रह की अंतिम कविता ‘हमारे पूर्वज’ जो कि मानव की वनमानुष से मनुष्य बनने की यात्रा को संबोधित है, इस बात को रेखांकित करती है कि सभ्यता की यह यात्रा सहजता और नैसर्गिकता के नकार और कृत्रिमता के स्वीकार पर आधारित रही है। और यही आज के मनुष्य के दुखों और मनुष्य जाति के समक्ष मुँह बाए खड़ी तमाम समस्याओं का कारण है। सभ्यता की यात्रा में मनुष्य जाति ने क्या खोया है, इस चर्चा के बीच अंतिम उद्धरण के तौर पर भविष्य के प्रति आशा एवं उत्साह से भरपूर ‘बड़ी नहीं यह रात’ कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं - देख रहा आकाश/ ज़मीं है देख रही/ खुद विपदा स्तब्ध भाव से निरख रही है/ हम में दम है/ हम में बल है/ हमको नेह अपार धरा से/ इसीलिए यह विपदा आकर टल जाएगी/ बड़ी नहीं यह रात सुबह तक ढल जाएगी …।

इस शब्द-बहुल समय में जबकि शब्द अपनी अर्थवत्ता एवं जीवन-मूल्य अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं, मीडिया मानवीय चेतना के एक बड़े हिस्से पर क़ाबिज़ है, सारा आकाश  दृश्यों और ध्वनियों की तरंगों से ठसाठस भरा हुआ है, सूचनाओं के अंबार में दबकर व्यक्ति की अंत:प्रज्ञा लगातार क्षीण एवं निष्प्रभावी होती जा रही है, संभवतः कविता ही मनुष्य की अंतिम शरण है। और कविता यदि मनुष्य से अपनी जड़ों की ओर लौटने का आह्वान करती हो, उसे अपने वास्तविक-निर्मल-नैसर्गिक स्वरूप की याद दिलाती हो, जीवन संघर्ष में अपनी पूरी क्षमता, आशा, उत्साह, एवं विवेक के साथ टिके रहने का संदेश और संबल देती हो, और अंततः उसमें स्वयं के प्रति विश्वास जगाती हो, तो निश्चित ही वह व्यक्ति ही नहीं समाज को भी आमूल-चूल परिवर्तित अथवा रूपांतरित कर देने का माद्दा रखती है। हृदयेश मयंक का नया कविता संग्रह 'सिवान में बाँसुरी' कविता की इसी परिवर्तनकारी शक्ति को रेखांकित करता है।

प्रकाशक: प्रलेक प्रकाशन, मुंबई           मुखपृष्ठ: विज्ञान व्रत

पुस्तक प्राप्ति हेतु लिंक: https://amzn.eu/d/hZCIXwf


अथ स्त्री कथा-- तुम फिर आना माई- प्रियंवदा पाण्डेय

प्रियंवदा पाण्डेय

अथ स्त्री कथा-- तुम फिर आना माई

वे स्त्रियाँ;जिनकी युवावस्था प्याज सी गला दी गई गृहस्थी के कोरमे में,जिन्होंने रसोई और पाल्यों की उदरपूर्ति को ही अपना भविष्य बना लिया;सुबह जाँत पर पीसते वर्तमान की परिणति शाम को उद्खल में कूटते   भविष्य में फलीभूत होती थी।

दिनभर कोल्हू के बैल की तरह उनके जीवन का चर्रकचूँ चलता रहता;ऐसी स्त्रियों में प्रथमतः जिसे देखा वह मेरी मातामही थी।

अलभ्य सुंदरी,नन्हीं-मुन्नी;रबर की गुड़िया सी;स्पर्श से मलीन हो जाए ऐसी।

दुलार में हम लोग उसे कभी माई तो कभी मावा भी कहते थे।

होश संभालने बाद के बाद जब मैंने माई को देखा,वह सूर्योदय से पूर्व बिस्तर त्याग देती,जब तक हम जगते वह स्नानोपंरात सूर्य को जलार्पण कर अगरबत्ती दिखाती,उसे पूजा की पद्धति न आती थी न कोई मंत्र।लेकिन पूजा का उसका यह क्रम कभी न टूटता,हमने माई को कभी स्नान करते न देखा,जगने के पश्चात उसकी भींगी साड़ी यह बात बताती।

इस उद्योग के पश्चात वह

अपने कार्यस्थल रसोईकक्ष में मिट्टी के चूल्हे के समीप बैठी चाय बनाती मिलती,केतली और अन्य पात्र के रहते हुए वह प्रायः कड़ाही में चाय बनाती।

और सबको चाय सर्व करती, उसके बाद वह छाछ विलोती और हम भाई बहन उसके पास बर्तन लेकर गोल घेरा बनाकर बैठते,छाछ विलोने के पश्चात हम लोग सबसे पहले अपने कटोरे गिलास जो भी पात्र रहता उसमें नवनीत ग्रहण करते उसके बाद माठामृत पीते।

उसके बाद माई की अनन्य भक्त उसकी सेविका कम सखी प्रकट होती जिन्हें वह झलमल की माई बोलती,साथ-साथ हम सब भी,झलमल की माई लंबी छरहरी कोयल के रंग को मात देते रंग की चेचक के दाग से शोभित मुखाकृति की फुर्तीली दिमागदार औरत थी।  जब से आती वह हमारी माई की दायीं भुजा हो जातीं रसोई से लेकर दालान जहाँ सब भोजन ग्रहण करते,तक निरन्तर दौड़तीं,उनकी उपस्थिति में मजाल कि आप भोजनोपरान्त थाली रख छोड़ें,आपके हाथ निकालते ही झलमल की माई लपक लेतीं,इस उपक्रम के बीच धोबिन आतीं,वह कपड़े धुलने में लग जातीं,सबके भोजनोपरांत झलमल की माई हमारी मावा को भोजन परसती और स्वयं भी साथ बैठकर भोजन करतीं,सारा दिन वे दोनों गृहस्थी के काम में जुती रहतीं।

इस तरह उस लंबे देवर भसुर नन्दादि और पुत्र-पुत्रियों से युक्त कुनबे की पालनहार थी हमारी माई।

पूरा परिवार उस पर किस तरह आश्रित था,उसे स्वयं इसका बोध न था।

वह सबके भोजन नाश्ते के परिचर्या के चक्कर में स्वयं को भूल जाती,साड़ी कहीं से फट जाए तो वह सिल न पाने का समय न होने के कारण उसे गाँठ लगा काम में लग जाती।

कहने में कोई अत्युक्ति न होगी कि वह व्यवहार कुशल और सर्वप्रिय थी।

उसकी पाककला के तो क्या ही कहने आज भी उसके भोजन का स्वाद नहीं भूलता इन दिनों वह मेथी,सोया और आलू की सब्जी बनाती जो दही के साथ खाकर मन मस्त हो जाता।

उसके काम में कमी निकालने वाला व्यक्तित्व एक था, वह थे उसके पतिदेव और हमारे मातामह!

तेजस्वी इतने कि उनके तेज से वह भूकंप में काँपती हुई धरती सी काँपती थी।

नाम "श्री दयासागर मिश्र"आँख के अंधे नाम नयनसुख से थे।

माई के लिए कोई दया नहीं उनके मन में,उनके स्कूल से आने के पहले माई चैतन्य हो जाती उन्हें खराब लगने जैसा कुछ रह न जाय,फिर भी उन्हें कुछ न कुछ मिल ही जाता,जिसपर वह माई को खूब लंबी चौड़ी सुनाते,वह जो कहते माई हाँ नहीं तक न बोलती,सुनती रहती,

मामला भी कुछ ऐसा कि वह जितने व्यवस्थित माई उतनी ही अव्यवस्थित।

वह सलीकेमंद माई अस्तव्यस्त।

उनके कोप का विषय यही रहता,माई ने एकबार सूर्प रास्ते में रख दिया था, नानाश्री आए,स्वभावतः उन्होंने कहा---अरी उल्लू यह सूप रखने की जगह है,तुझे पता नहीं,यह रास्ते में पड़ रहा?

माई ने कुछ नहीं कहा--उन्होंने कहा तोड़ दूँ?अबकी उसने सहमति में सिर हिलाया।

नाना बाकायदा उसपर चढ़कर उसे तोड़कर ही हटे।

इसतरह की घटनाएँ आम थीं वहाँ।

इसतरह माई बराबर भय के साये में जिया करती कभी लालटेन का शीशा फूट जाता तो किसी अन्य से चोरी से नाना के स्कूल से लौटने के पहले ही भयाक्रांत होकर मँगा लिया करती।

कालांतर में नाना गठिया जैसी पीड़ादायक बीमारी से ग्रस्त हो गये और लगभग 16 वर्ष तक प्रतिवर्ष अक्तूबर से लेकर मार्च तक आनबेड रहा करते,माई की दुर्दशा और अधिक बढ़ गई वह दिनभर उनकी परिचर्या में ही लगी रहती।

जब लोग तरह-तरह की वनौषधियाँ पीसकर लेपकरने की सलाह देते उन्हें पीसते कूटते माई के हाथ में गाँठ पड़ जाती।

वह अत्यंत सरल थी अशिक्षित होने के बाद भी परिवार चलाने का अद्भुत हुनर था उसके पास।

वह जब तक जीवित रही पाँच भाइयों का वह परिवार एकत्र रहा जो उसके मरते ही बिखर गया।

माई जैसी अपनी देवरानी -जेठानी के लिए थी बिलकुल वैसी ही बहूओं के लिए भी वह जब तक शरीर से समर्थ रही बहूओं से कोई काम न लिया,एकबार जब मैंने कहा--माई तुम्हारी बहूएँ क्या शोकेश में सजाने के लिये आईं हैं तुम इनसे काम क्यों नहीं लेती?

तो उसने कहा ऐसी बात नहीं है चाय बनातीं हैं सब।

अपने-अपने पति के लिए ठीक हैं सब वही ठीक है।

अपने निर्मल और श्रमशील स्वभाव के कारण माई सबको प्रिय रही,उसकी अनन्य सखी झलमल की माई दुर्दिन में हमारी माई ने जिनकी अनाज आदि से मदद की थी,उन्होंने धनागम के बाद भी उसका साथ निभाया अंतकाल तक जब उसका बोलना बंद हो गया था, तब भी उन्होंने उसकी परिचर्या न छोड़ी।

जब वह संपन्न हो गई थीं उन्होंने हमारे घर से कुछ भी लेना बंद कर दिया था।

बस भोजन किया करतीं थीं।

जब भी आतीं बर्तन आदि साफ करने के पश्चात सबको खाने का पूछकर जो व्यक्ति बिन भोजन बचा रहता,उसे भोजन परोसती और स्वयं भी भोजन किया करतीं।

वह अंत तक माई की हमसाया रहीं।

श्रम और सुख-दुःख की साझेदार।

 माई जबतक शरीर से समर्थ रही श्रम करती रही,आखिरी मुलाकात में माई बीमार हो गई थी,उसे ब्रेनट्यूमर हो गया था,उससे मिलकर जब मुझे आँसू आने लगे,उसने कहा अभी जिन्दा हूँ बेटा!

इस तरह ब्रेनट्यूमर जैसी असाध्य बीमारी से पीड़ित होकर 2011 में माई ने देहत्याग किया।

सच्चा डर- चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'


   चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'

  सच्चा डर

       ------------

  बचपन में, मैं खूब डरता था

 भूत से

 दिन हो या रात

 भूत का डर

 पकड़ लेता था मुझे

 अकेले में।

 

 जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया

 वह डर जाता रहा

 और नए-नए डर

 समाते रहे मेरे भीतर

 बाघ, भालू और सियार का डर

 कीड़े-मकोड़े, बिच्छू और साँप का डर

 जीवाणु, विषाणु, कवक आदि का डर

 इत्यादि का डर।

 

 आज, वे सारे डर

 काफूर हो गए हैं

 मेरे भीतर से

 पर एक डर

 समा गया है

 मेरे भीतर... गहराई में

 कोई माने, न माने

 पर मैंने समझा है

 अपने अनुभव से कि

 'यह सच्चा डर है '

 इसीलिए तो मैं डरता हूं

 आदमी से,

  केवल आदमी से।

मेरा दुःख मेरा दीपक है- युवा कवि गोलेन्द्र पटेल


 युवा कवि गोलेन्द्र पटेल

 

मेरा दुःख मेरा दीपक है

________________

जब मैं अपने माँ के गर्भ में था

वह ढोती रही ईंट

जब मेरा जन्म हुआ वह ढोती रही ईंट

जब मैं दुधमुंहाँ शिशु था

वह अपनी पीठ पर मुझे

और सर पर ढोती रही ईंट

मेरी माँ, माईपन का महाकाव्य है

यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उसका बेटा हूँ

मेरी माँ लोहे की बनी है

मेरी माँ की देह से श्रम-संस्कृति के दोहे फूटे हैं

उसके पसीने और आँसू के संगम पर

ईंट-गारे, गिट्टी-पत्थर,

कोयला-सोयला, लोहा-लक्कड़ व लकड़ी-सकड़ी के स्वर सुनाई देते हैं

मेरी माँ के पैरों की फटी बिवाइयों से पीब नहीं,

प्रगीत बहता है

मेरी माँ की खुरदरी हथेलियों का हुनर गोइंठा-गोहरा

की छपासी कला में देखा जा सकता है

मेरी माँ धूल, धुएँ और कुएँ की पहचान है

मेरी माँ धरती, नदी और गाय का गान है

मेरी माँ भूख की भाषा है

मेरी माँ मनुष्यता की मिट्टी की परिभाषा है

मेरी माँ मेरी उम्मीद है

चढ़ते हुए घाम में चाम जल रहा है उसका

वह ईंट ढो रही है

उसके विरुद्ध झुलसाती हुई लू ही नहीं,

अग्नि की आँधी चल रही है

वह सुबह से शाम अविराम काम कर रही है

उसे अभी खेतों की निराई-गुड़ाई करनी है

वह थक कर चूर है

लेकिन उसे आधी रात तक चौका-बरतन करना है

मेरे लिए रोटी पोनी है, चिरई बनानी है

क्योंकि वह मजदूर है!

अब माँ की जगह मैं ढोता हूँ ईंट

कभी भट्ठे पर, कभी मंडी का मजदूर बन कर शहर में

और कभी-कभी पहाड़ों में पत्थर भी तोड़ता हूँ

काटता हूँ बोल्डर बड़ा-बड़ा

मैं गुरु हथौड़ा ही नहीं

घन चलाता हूँ खड़ा-खड़ा

टाँकी और चकधारे के बीच मुझे मेरा समय नज़र आता है

मैं करनी, बसूली, साहुल, सूता, रूसा व पाटा से संवाद करता हूँ

और अँधेरे में ख़ुद बरता हूँ दुख

मेरा दुख मेरा दीपक है!

मैं मजदूर का बच्चा हूँ

मजदूर के बच्चे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं

वे बूढ़ों की तरह सोचते हैं

उनकी बातें

भयानक कष्ट की कोख से जन्म लेती हैं

क्योंकि उनकी माँएँ

उनके मालिक की किताबों के पन्नों पर

उनका मल फेंकती हैं

और उनके बीच की कविता सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है।

मेरी माँ अब वही कविता बन गयी है

जो दुनिया की ज़रूरत है!

 

2).

 

चोकर की लिट्टी

________________

 

मेरे पुरखे जानवर के चाम छीलते थे

मगर, मैं घास छीलता हूँ

 

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ

मेरे सिर पर

चूल्हे की जलती हुई कंडी फेंकी गयी

मैंने जलन यह सोचकर बरदाश्त कर ली

कि यह मेरे पाप का फल है

(शायद अग्निदेव का प्रसाद है)

 

मैं पतली रोटी नहीं,

बगैर चोखे का चोकर की लिट्टी खाता हूँ

 

चपाती नहीं,

चिपरी जैसी दिखती है मेरे घर की रोटी

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ

 

मुझे हमेशा कोल्हू का बैल समझा गया

मैं जाति की बंजर ज़मीन जोतने के लिए

जुल्म के जुए में जोता गया हूँ

मेरी ज़िंदगी देवताओं की दया का नाम है

देवताओं के वंशजों को मेरा सच झूठ लगता है

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ

 

मैं कैसे किसी देवता को नेवता दूँ?

मेरे घर न दाना है न पानी

न साग है न सब्जी

न गोइंठी है न गैस

मुझे कुएँ और धुएँ के बीच सिर्फ़ धूल समझा जाता है

पर, मैं बेहया का फूल हूँ

देवी-देवता मुझे हालात का मारा और वक्त का हारा कहते हैं

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ

 

देखो न देव, देश के देव!

मैं अब भी चोकर का लिट्टा गढ़ रहा हूँ,

चोकर का रोटा ठोंक रहा हूँ

क्या तुम इसे मेरी तरह ठूँस सकते हो?

मैं भाषा में अनंत आँखों की नमी हूँ

मैं दक्खिन टोले का आदमी हूँ

 

©गोलेन्द्र पटेल

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...