बुधवार, 1 मई 2024

कहानी: समय के साक्षी-  केदार शर्मा,”निरीह’’ सेवानिवृत व्याख्याता (अंग्रेजी)


 बचपन से ही वह बेहद भोली-भाली लड़की थी।दुबली-पतली काया,चपटा चेहरा असमय ही सिर में केशौर्य की चुगली करती श्‍वेत केशराशि, नाक नक्श से सुदर्शन तो नहीं पर उसे बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था ।

       वह किसी भी काम के लिए किसी को भी मना नहीं करती थी,इसीलिए कई बार पास-पड़ौस में जाने-अनजाने उससे बेगार भी करवा ली जाती थी।उसे पलटकर जवाब देना नहीं आता था,इसीलिए हँसी-मजाक का पात्र बनाकर उसका मजाक भी खूब बनाया जाता था। कोई पन्नी नाम की एक लावारिश और पागल महिला वर्षों पहले गाँव में रही थी, इसी कारण से गाँव की हर मानसिक रूप से कमजोर महिलाओं को यह उपाधि दी  जाने लगी। धीरे-धीरे सीता को भी कई बार इस नाम से पुकारा जाने लगा।हालाकि सीता मंदबुद्धि नहीं थी,भोली-भाली थी। जैसे–तैसे करके वह पाँचवीं पास कर पाई और उसने अटक-अटक कर पढ़ना और कुछ लिखना भी सीख लिया था   

      युवावस्था में प्रवेश के साथ ही पिता ने धूमधाम से पास ही के गाँव के ही एक धनी परिवार में रामस्वरूप नामक युवक के साथ सीता का विवाह कर दिया। खूब नेग-दहेज भी दिया पर दुर्भाग्य से वैवाहिक जीवन दो साल ही चला। रामस्वरूप ने उसे छोड़ दिया।समाज के पंच-पटेलों के हस्तक्षेप से दहेज का कुछ सामान तो वापस आ गया, पर सीता भी फिर से  अपने पिता के घर वापस आ गयी।

            नियति का चक्र मानकर परिवार ने जैसे-तैसे अपने मन को समझा लिया, पर सीता अनमनी और उदास रहने लगी। ‘माँ, मेरा कसूर क्या था?’—एक दिन उसकी रूलाई फूट पड़ी।

         ‘बेटा, सीधापन और सुंदर नही होना ही इस समाज में तेरे जैसी स्त्री का कसूर माना माना जाता है।भेडि़यों को मांसल शरीर चाहिए।चालाकी और फरेब से भरे लोगों की उनकी प्रकृति के लोगों से ही बनती है। अच्छा है, तू उन जानवरों के बीच से निकल आई।‘ ‘पर माँ अब हम क्या करेंगे’ ? माँ ने सिर पर हाथ रखकर आश्‍वासन दिया—‘बेटा, तू चिंता मत कर,यहाँ तेरे लिए क्या कमी है? तेरे तीन-तीन समर्थ भाई हैं।सब तुझे पलकों में रखेंगे।तू चिंता मत कर।

       इसी तरह से चार-पांच साल और गुजर गए।

……………. ........

एक दिन सीता के दूर के रिश्‍ते के मौसी और मौसाजी की कार आठ,दस महिला पुरूषों के साथ घर के बाहर आकर रुकी।

      उन्होनें सीता की उस मौसी के देवर के पुत्र रामराज से सीता के पुनर्विवाह का प्रस्ताव रखा। ‘एक ही लड़का है और उसने जयपुर में ही सैलून की नई दुकान खोली है। अपना समझकर आये हैं,सीता हमारी भी बेटी जैसी है‘जैसे अनेक तर्कों से उन्होनें समझाने का प्रयास किया ।

          आखिरकार बेटी के हित में ठीक समझकर पिता ने एक बार फिर सीता का धूमधाम से पुनर्विवाह कर दिया। बैंड-बाजे बजे,नाच-गान हुआ,वर-वधू ने एक दूसरे को माला पहनाई।सांयकाल भव्य भोज हुआ और सीता की एक बार फिर से विदाई हो गई ।

                  आठ-दस महीने तो ठीक से गुजर गए। उधर रामराज की दुकान भी परवान चढ़ने लगी। सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक ग्राहकों की लाइन लगी रहती।धीरे-धीरे एक अदना सा रामराज सेठ रामराज में तब्दील हो गया और सीता घर के काम करने की मशीन में ।सब उसे सुबह से शाम तक काम में लगाए रखते।

     रामराज के पास अब शानदार गाड़ी, नौकर-चाकर और सभी सुख -सुविधाएं थी, पर सीता को देखकर उसका मन उद्वेलित हो उठता था।रात साढ़े ग्यारह बजे तक आना फिर शराब पीना और खाना खाकर सो जाना।सुबह देर तक दिन चढ़ने पर उठना और दुकान पर चले जाना। यह उसकी रोज की दिनचर्या थी। सीता को भी इन सब बातों से कोई शिकायत नहीं थी।उसे तो काम करना था ,रोटी खानी थी,और जीये चले जाना था।

   एक दिन सीता स्नान करके भीतर जा रही थी कि माँ बेटे की जोर- जोर से बोलने की आवाज सुन वह ठिठक कर खड़ी हो गयी। बेटा माँ से कह रहा था —‘‘माँ अब मैं इसे अपने साथ नहीं रख सकता। मेरी शान-शौकत पर धब्बा लगता है ।

         न तो इसे मॉडर्न तरीके से सजने- संवरने में रूचि है, न ही इसे बोलने, बैठने और चलने के तौर तरीके आते हैं। किसी पार्टी में ले जाता हूँ तो लोग मेरी मजाक बनाते है। हां मंदिर में बैठकर यह कीर्तन कर सकती है। मशीन की तरह बिना रुके खूब काम कर सकती है । मुझे मशीन नहीं एक मॉडर्न बीबी चाहिए। और अब मुझे कोई नहीं रोक सकता है।‘’

       जब सीता ने यह सब  सुना तो सन्न रह गयी । उसके भीतर मानो ज्वालाएं उठने लगी।

       धीरे-धीरे प्याज के छिलकों की तरह रहस्य की परतें उघड़ने लगीं। दरअसल रामराज जब बेरोजगार था और गाँव की ही एक लडकी के साथ भागकर जाने की तैयारी में था तब पिता ने उसे रोकने के लिए सीता नाम की बेड़ी उसके पैरों में बाँध दी थी और व्यस्त रखने के लिए जयपुर मे सैलून की दुकान खुलवा दी थी।

  उसे उम्मीद थी कि समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा।पर रामराज के पैरों में ये बेड़ी अब चुभने लगीं थी। उसके पंख अब खुले उन्मुक्त आकाश में अपनी परी-प्रेयसी के साथ उड़ने को व्याकुल थे।

     राखी के त्योहार पर जब सीता अपने पीहर गई तो न तो वह वापस आई और न ही रामराज ही उसे वापस लेने गया।

     एक बार फिर सारा परिवार दु:ख के सागर में डूब गया जब समाचार मिले कि रामराज उसी लड़की को अपने घर ले आया है जिसके साथ वह सीता से विवाह के पहले भागकर जाने वाला था। ऐसे ही दु:ख का ऐसा ही दौर तब  भी आया था जब रामस्वरूप ने सीता का परित्याग किया था। अंतर यही था कि सीता की कोख में इस बार दो माह का गर्भ पल रहा था।

     अब किसी काम में उसका मन नहीं लगता था । सारे दिन गुमसुम बनी रहती ।माँ दिलासा देती तो उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग जाती—‘बेटा ,तू चिंता मत कर, हम हैं ना तेरे साथ, तुझे तिल मात्र की भी परेशानी नहीं आने देंगे।

         ‘’लेकिन मेरा कसूर क्या था माँ…’’……? लंबे समय बाद उसका मौन टूटा, भीतर भरा गुबार आँसू बनकर फूट निकला और वह फूट-फूटकर रोने लगी।खूब रो लेने के बाद जब वह चुप हुई तो माँ ने कहा—‘ बेटा,अच्छा बता उस सीता माता का कसूर क्या था जिसको भगवान राम वन में ऋषि वा‍ल्मिकी के आश्रम में छोड़कर आ गए थे ?पर सीता माता ने अपने आप को टूटने नहीं दिया था। तू भी चिंता मत कर, जो होगा सही होगा। हम सब परछाई की तरह तेरे साथ खड़े हैं।

..................

        समय पंख लगाकर उड़ता गया। सीता का जीवन पीहर में ही बसर होने लगा। रात कितनी ही लंबी हो सवेरा भी होता ही है ।

         पतझड़ गुजर चुका था। दिन की धूप में तेजी और रात में गुलाबी ठंड का अहसास होने लगा‍ था। पलाश पर लाल पुष्‍प और पेड़़ो  पर नये पत्ते आ रहे थे। चारों ओर खेत सरसों के फूलों की पीली चूनर ओढे थे।कोयल की कूक रह रहकर सुनाई पड़ने लगी थी।

      सीता के आंगन में भी किलकारी गूँजी । प्यारा सा शिशु लवेश उसकी गोद में आ गया था।संसार सागर की उत्‍ताल लहरों के बीच उसके डूबते मन को तिनके की तरह एक सहारा तो मिल ही गया था।

      सीता ने अब अपना पूरा ध्‍यान अपने बच्चे की परवरिश पर केन्द्रित कर दिया ।अपने घर के पास की स्कूल में व‍ह मिड-डे मील कुक के रूप में कार्य करने लगी थी । लवेश पढ़ाई में बहुत ही कुशाग्र बुद्धि निकला। प्रतियोगी परीक्षाओं की जमकर तैयारी के बाद उसका सब इंस्पेक्टर के पद पर चयन हो गया । जयपुर के पास ही एक थाने में उसको नियुक्ति भी मिल गई ।

          भगवान की दया से आज सीता के पास कुछ भी कमी नहीं थी । जयपुर के बाहर की एक कॉलोनी में ही उसने एक मकान ले लिया था और बेटे के साथ वहीं रहने लगी थी।

       पर लवेश ने गत रात उसे जो घटना सुनाई उससे उसके मन में एक बार फिर भूचाल सा आ गया।

        लवेश कह रहा था— ‘माँ हमारे थाने में एक व्यक्ति गिरफ्तार हुआ है और इस समय कस्टडी में है। रात को बातचीत में पता चला कि यह वही व्‍यक्ति था जिसने तुम्हारा परित्याग किया था— सेठ रामराज ! किसी कॉलोनी में प्लॉट काटने से संबधित किसी धोखाधड़ी के मामले में अभी वह कस्टडी में बंद है । परसों सुबह कोर्ट में उसका चालान पेश किया जाएगा।

      वह रो रोकर बता रहा था कि उसकी पत्नी के काफी समय से कैंसर  है और अब बिस्तर पर पड़ी रहती है । उसके न तो कोई बाल-बच्चा है और न हीं घर पर कोई संभालने वाला बचा है।मां-बाप को मरे अरसा हो गया है ।अगर परसों सुबह भी उसकी जमानत नहीं हुई तो उसकी पत्नि को पानी पिलाने वाला भी कोई घर पर नहीं रहेगा। वह जमानत के लिए कई लोगो के सामने गिड़गिड़़ाया भी पर कोई तैयार नहीं हुआ।

           किसी तरह उसने मेरे बारे भी जानकारी प्राप्त कर ली और वह रात को दोनो हाथ जोडकर मुझसे बोला कि उसने तुम्हारी माँ के साथ जो भी अन्याय किया था उसकी सजा ईश्‍वर उसे दे रहा है।वह इस मामले में कुछ करे ताकि वह अपनी मरती हुई पत्नि की कुछ दिनो तक ही सही, सेवा कर सके।

           सीता कुछ न बोली।परिस्थितियों के थफेड़ों ने उसे बहुत संवदेनशील, भावुक और समझदार बना दिया था। वह शून्य में दूर क्षितिज की ओर पथराई आँखों से देखती रही और सोचती रही।

       दूसरे दिन जब लवेश वर्दी पहन कर ड्यूटी के लिए पुलिस स्टेशन जाने को तैयार हुआ तो सीता ने कहा —‘’बेटा,कल मै भी तुम्हारे साथ कोर्ट में चलूंगी। हालाकि मेरा उससे कोई सम्बधं नहीं रहा और तलाक हो चुका है। पर उसने तुमसे मदद की गुहार लगाई है, वह पश्‍चाताप से भी भरा है इसलिए  इंसानियत के नाते ही सही एक बार तो मैं उसकी जमानत दूंगी ताकि वह कुछ समय तक ही सही वह अपनी पत्नि की सेवा कर सके ।

          लवेश ने खूब समझाया पर वह जिद पर अड़ी रही ।  आखिरकार लवेश ने उस दिन की छुट्टी ले ली और सादा वर्दी मे माँ को साथ ले जाना पड़ा।

      लवेश की देखरेख में कोर्ट में जमानत के कागजों पर साइन और आवश्‍यक कानूनी प्रक्रिया पूरी कर सीता चुपचाप बाहर आ गई। बहुत दूर खड़े रामराज को अब उसने गौर से देखा जो सचमुच दयनीय हालत में लग रहा था। उसे विश्‍वास नहीं हो रहा था कि बढ़ी हुइ दाढ़़ी,झुर्रियों से भरा चेहरा, पुलिस कस्टडी में खड़ा यह वही रामराज है, जिसका गरूर कभी सातवें आसमान पर हुआ करता था ।

         ‘ पर इसमें मेरा तो क्या दोष है ?‘ सीता ने मन ही मन अपने आप से कहा और आगे बढ गई । 

         जब लवेश भी वापस सीता के पीछे जाने के लिए मुड़ा और रामराज के पास से गुजरा तो रामराज ने हा‍थ जोड़कर कहा— बेटा, इतना कुछ करने के लिए तम्हारा और तुम्हारी मां का बहुत बहुत धन्यवाद।

       लवेश एक बार पलटकर वापस मुड़ा ।

         ‘उस समय तो अपने स्वार्थ में अंधे होकर आपने मेरी मां का परित्याग किया था,उसे और मुझे  ऐसी हालत में मझधार में छोड़ दिया था। अभी आज भी आपका ही स्वार्थ सिद्ध हुआ है।मानता हूं कि आप मेरे जैविक पिता हैं, पर रिश्‍ते केवल शरीर से ही तो नहीं बनते बल्कि आत्मा से बनते हैं ।हाँ शरीर तो एक अवसर देता है आत्मिक रिश्‍ता बनाने का। उस अवसर को आप बहुत पहले ही गंवा चुके हो।‘ मैं और मेरी मां ने,जितना आपके लिए कर सकते थे,किया है।पर यदि समय आपसे बदला ले रहा है और यह हमारा भी दुभार्ग्य है कि इस बदले हुए समय के हम साक्षी बन रहें है ।समय पर हमारा भी बस नहीं है — कहकर लवेश तेजी से आगे बढ़ गया।

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

दुख: वास्तविकता और निदान - डॉ0 रवीन्द्र कुमार

 

दुख: वास्तविकता और निदान

डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

दुख (संस्कृत में दुःखतथा पाली में दुक्खा’) जीवन की सत्यता है, अपरिहार्यता भी है। अवतारीपुरुष, मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण और तथागत गौतम बुद्ध के  जीवन भी दुख-स्थिति का अपवाद नहीं रहे।

कष्ट, पीड़ा, वेदना व सन्ताप, दुख के समानार्थी हैं। व्याकुलता, व्यथा, विपदा, क्षोभ, अवसाद व अशान्ति दुख के साथ ही जुड़ी हुई स्थितियाँ हैं। व्युत्पत्ति के दृष्टिकोण से विश्लेषण के बाद निष्कर्ष रूप में जो परिणाम सामने आता है, वह यह कि दुख असहजता, असुविधा, अप्रियता, उदासीनता, कठिनाई आदि उत्पन्नकर्ता है।

'जीवन में दुख', एक ऐसा विषय है, जिस पर संसार भर के चिन्तनों में, और अति विशेष रूप से भारत के प्रत्येक धर्म-दर्शन में चर्चा हुई है। हर दर्शन की प्रत्येक शाखा में इस पर विचार किया गया है। प्रत्येक विचार-चिन्तन में दुख अन्ततः सुख-विपरीत स्थिति के रूप में सामने आता है।

ऐसी स्थिति में 'सुख' के अर्थ को जान लेना, यद्यपि, आवश्यक प्रतीत हो सकता है, लेकिन इस बात को अभी एक ओर रखकर 'जीवन में दुख क्यों', इस चर्चा पर ही आगे बढ़ेंगे, तो अच्छा होगा। मेरा यह मानना है कि इससे ही अन्ततः सुखावस्था की सत्यता सामने आ जाएगी।    

सनातन-वैदिक दर्शन में अज्ञान अथवा अविद्या दुख का मूल कारण है। ऐसे में प्रश्न उठेगा कि अज्ञान अथवा अविद्या क्या है? इसका सीधा, सरल, सर्वथा उचित और श्रेष्ठ उत्तर है, भ्रान्ति के साथ असत्यता में जीना। दूसरे शब्दों में, सत्य से विमुखता।

सत्य क्या है? सत्य केवल एक ही है; वह अविभाज्य समग्रता है और जगत –सार्वभौमिक एकता का निर्माण करती है। अविभाज्य समग्रता को (ब्रह्म सहित) अनेकानेक नामों से सम्बोधित किया जाता है; वही एक शाश्वत व निरन्तर प्रवहमान सर्वथा चेतनायुक्त सार्वभौमिक नियम रूप भी है। इसी वास्तविकता की अनुभूति, अंगीकरण और उसके परम आह्वान के अनुसार जीवन-व्यवहार, सत्य का अनुसरण है। यह, उस सार्वभौमिक नैतिक आचरण संहिता का अनुपालन भी है, जो प्रारम्भ से ब्रह्माण्डीय स्तर तक व्यवस्था के सुचारु संचालनार्थ अपरिहार्य है और जिससे पलायन नहीं हो सकता।  

यही वास्तविक ज्ञान है, विद्या है, अर्थात्, प्रज्ञानं ब्रह्म, क्योंकि, वही शुद्धतम (वास्तविक अथवा परम सत्य) है; (सबका आधार है); उसके तुल्य न कोई शुद्ध हुआ है, न है, और न ही होगा, न त्वावाँऽअन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते/” (यजुर्वेद, 27: 36)

सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता अथवा नियम रूप का समस्त जीवों में ज्ञात श्रेष्ठ प्राणी मानव का परम आह्वान क्या है?

अपनी एकांगिता के मिथ्या विचार से अपने को पृथक कर एक ही अविभाज्य समग्रता के अंश/भाग होने की सत्यता को स्वीकार करना; 'निज-अस्तित्व की कल्पना से बाहर निकलकर स्वयं के हित को साधने की इच्छा का त्याग करना। सर्वकल्याण में ही अपने कल्याण की वास्तविकता को स्वीकार करते हुए जीवन-यात्रा पर निरन्तर आगे बढ़ना।

II

यदि अति सरल शब्दों में कहें, तो तीर्थंकर महावीर ने दुख के मूल कारण को सामान्यतः परिग्रह माना है। जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति का मोह, ममत्व व आसक्ति परिग्रह (संचय) के लिए क्षेत्र तैयार करते हैं; निजी हित को केन्द्र में रखते हुए मानव इस हेतु आगे बढ़ता है। वह तनावग्रस्त होता है। तनाव दुख को जन्म देता है। आत्मा को प्रभावित करता है। निजी हित के लिए परिग्रह-स्थिति से बाहर आना, इस प्रकार मोह, ममत्व व आसक्ति का त्याग करना दुख-निवारण का उपाय है। यह अविद्या अथवा अज्ञान की स्थिति से पृथकता है। बन्धन-मुक्ति का उपाय है। स्वयं प्रकाश है और अन्ततः सत्यालिंगन है।

तथागत गौतम बुद्ध ने जीवन में दुख की सत्यता, दुख के कारण अथवा उत्पत्ति, निरोध या अन्त एवं इस हेतु 'आर्य आष्टांगिक मार्ग' के अनुसरण का मानवाह्वान किया। बुद्ध ने असन्तोष, चाह-लालच, मिलन-विछोह, लालसा, यहाँ तक कि मृत्यु व पुनर्जन्म-चक्र सहित अनेक दुख-स्थितियों को मानव के समक्ष रखा। इस कड़ी में हम अनाधिकार चेष्टा अथवा प्राप्ति की चाह को भी सम्मिलित कर सकते हैं। ये सभी प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की तृष्णा से, जो लालसा का उग्र रूप अथवा तीव्रेच्छा है, सम्बद्ध हैं; बुद्ध ने इसीलिए तृष्णाक्षय तृष्णा-समाप्ति का मानव का आह्वान किया। 'आर्य आष्टांगिक मार्ग' (उचित, कल्याणकारी और योग्य पथ) को, जो "लोकानुकम्पाय" अथवा "सर्वभूत हिते रता: प्राणिमात्र के हितार्थ" केन्द्रित है, अपनाने का दीर्घकालिक सन्देश दिया।

मध्यकाल में प्रथम सिख गुरु नानकदेव ने सारे संसार में व्याप्त दुख की स्थिति के सम्बन्ध में उल्लेख किया। तथागत गौतम बुद्ध की ही भाँति गुरु नानकदेव ने भी विछोह, भूख, इच्छापूर्ति अभाव, असन्तोष, अलगाव आदि के कारण मानव को होने वाली वेदना एवं अप्राप्ति, असन्तुष्टि और मृत्यु के भय से उत्पन्न होने वाले दुख की चर्चा की। जगत में सभी, न्यूनाधिक, उक्त में से किसी-न-किसी स्थिति के वशीभूत होते हैं और उनका निजी  स्वार्थ उत्पन्न होने वाली दुख-स्थिति के मूल में होता है। इस प्रकार, "नानक दुखिया सब संसार" जैसा उनका कथन जगत-प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने इसके निदान का उपाय भी बताया। वह यह कि मनुष्य सत्यालिंगन करे; सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली एक ही अविभाज्य समग्रता वाहेगुरु से साक्षात्कार करे। उसी के निमित्त व्यवहारों से आनन्द-स्थिति को प्राप्त हो, "सो सुखिया जिस नाम आधार"। दूसरे शब्दों में, अविभाज्य समग्रता की सर्वकल्याण हेतु अपेक्षा की पूर्ति के लिए मानव समर्पित हो, जो सुख, अर्थात् सत्यता की अनुभूति और आलिंगन से आनन्द-प्राप्ति है; अज्ञानता के कारण निर्मित दुख के विपरीत स्थिति है।     

आधुनिककाल के रमण महर्षि जैसे महापुरुष ने जीवन में 'आत्म-निरीक्षण' की महत्ता को जानने का आह्वान करते हुए जो विचार प्रस्तुत किया, वह भी किसी-न-किसी रूप में दुख-स्थिति सम्बन्धी उक्त चार विश्लेषणों के ही निकट जाकर ठहरता है।

संक्षेप में, निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति सत्य से विमुख रहता है। निज-हित को वास्तविक मानता है और अज्ञान की स्थिति में रहता है। निज-हित प्राप्ति हेतु तृष्णा उसमें बलवती रहती है। एक ही सार्वभौमिक एकता का निर्माण करने वाली अविभाज्य समग्रता की वास्तविकता को, जिसकी परिधि से बाहर कुछ भी नहीं है, अनदेखा कर वह उसकी अपेक्षा के विपरीत व्यवहार करता है। परिणामस्वरूप दुख-स्थिति को प्राप्त होता है। इसलिए, सनातन-वैदिक दर्शन, तीर्थंकर महावीर और जैन-विचार, तथागत गौतम बुद्ध, गुरु नानक देव अथवा जीवन में दुख-स्थिति के सम्बन्ध में दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाले अन्य सभी चिन्तकों ने, 'सर्वकल्याण में ही निज-कल्याण' की वास्तविकता मानवमात्र के समक्ष रखी। इसी के अनुरूप जीवन-व्यवहारों की अपेक्षा भी की। इसे दुख से सुख की ओर जाने का मार्ग बताया। दुख-स्थिति से गुजरते अवतारी पुरुषों के जीवन से भी यही सत्यता सामने आती है।

प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह मार्ग पार कर पाना भले ही सम्भव न हो, लेकिन कोई जितना भी इस पर आगे बढ़ेगा, वह उतना ही दुख-स्थिति से मुक्त होगा। यह न नकारे जा सकने वाला सत्य है। 

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

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सदाचार और नैतिकता का सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य

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डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

अति साधारण शब्दों में, सत् (सत्य –शाश्वत, नित्य) और आचार (आचरण) की सन्धि से निर्मित शब्द सदाचार, शुभ कर्मों का प्रकटकर्ता है। दूसरे शब्दों में, सत्याधारित आचरण, सदाचार है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि शुभ अथवा सत्याधारित आचरण अथवा कर्म कौन-सा है। अति सरल शब्दों में कहा जाए, तो सकारात्मक सोच के साथ (विवेकाधारित) आचरण शुभ आचरण हैं; ऐसे आचरण अथवा कर्म स्वयं के साथ ही वृहद् कल्याणकारी होते हैं। सत्य को समर्पित रहते हैं।

यहाँ तनिक और स्पष्टता की जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि विवेक ही सोच को सकारात्मक बनाता है; मानव-जीवन में अपरिहार्य कर्म-प्रक्रिया को सुकर्मों में रूपान्तरित करता है। इस प्रकार, विवेक स्वयं में एक सद्गुण के रूप में प्रतिष्ठित होता है। सुकर्म, सत्य-मार्ग का अनुकरण है। निज के साथ ही समष्टि-कल्याण सुकर्मों की कसौटी है।

नैतिकता का निर्माण नैतिक शब्द से हुआ है। नैतिक, नीति से बना है। नैतिक भाव की अनुभूति, विकास और व्यवहार द्वारा मानव न्यायसंगत कार्य करता है I नैतिकता मानवीय सद्गुणों का प्रदर्शन है। नैतिकता उचित आचरण-नियमों के अनुसरण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। क्या करना और क्या नहीं करना है; क्या उचित है, जो करना चाहिए एवं क्या अनुचित है, जो त्याज्य है तथा नहीं करना चाहिए, नैतिकता इसका बोध कराती है I नैतिकता पवित्रता, न्याय एवं सत्य का प्रतिनिधित्व करती है। यह आत्मा का स्वर बनती है I जब नैतिकता अविभाज्य रूप से सद्गुणों के प्रदर्शन –न्यायसंगत कार्य व उचित व्यवहार के साथ सम्बद्ध होती है, तो यह व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायणता अथवा उत्तरदायित्व-निर्वहन भावना से भरपूर करती है I इस प्रकार अति साधारण और ग्राह्य शब्दों में, कर्त्तव्यपरायणता या समुचित उत्तरदायित्व-निर्वहन नैतिकता की कसौटी है I

मानसिक शुद्धता के लिए एकाग्रता-प्रक्रिया से चरित्र-निर्माण भी होता है। व्यवहारों में निरपेक्ष बन्धुत्व का विकास, जो जीवन में करुणा-भावना का आधार है, उच्चतम नैतिक आचरण है। तथागत गौतम बुद्ध के मानव-विश्व के लिए इस सन्देश द्वारा अपरिहार्य कर्त्तव्य-निर्वहन का सुदृढ़ पक्ष सामने आता है।   

प्रसिद्ध चीनी चिन्तक और अपने नैतिक विचारों के लिए विश्व की दार्शनिक परम्परा में उच्च स्थान रखने वाले कन्फ्यूशियस के अनुसार सम्मान, सद्भाव, न्याय और निष्ठा जैसी मानवीय विशिष्टताएँ नैतिकता के आधारभूत तत्व हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ये विशिष्टताएँ मनुष्य को सदाचारी बनाती हैं। 

पश्चिमी जगत से सुप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने 'निकोमैचियन एथिक्स' जैसी आज तक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना  की। इसमें उन्होंने तर्कों के साथ नैतिकता के सम्बन्ध में वर्णन किया। नैतिकता को सच्चा आनन्द प्रदान करने वाली सर्वोच्च अच्छाई के रूप में निरूपित किया, जिसमें मानव-चरित्र के सुलक्षण सम्मिलित होते हैं। सार रूप में, अरस्तू ने इन्हीं के विकास एवं जीवन-व्यवहारों में अनुकरण द्वारा मानव के श्रेष्ठ अथवा सदाचारी जीवन जीने की बात की।

महात्मा गाँधी ने सजातीय समानता की वास्तविकता के अंगीकरण को उच्च नैतिकता घोषित किया। स्वतंत्रता, न्याय और अधिकार जैसे मानव-जीवन के अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष समानता के साथ ही जुड़े हुए हैं। समानता-भावना सार्वभौमिक एकता का दर्पण है। इसलिए, गाँधीजी ने समानता-केन्द्रित मानव-व्यवहार को मनुष्य का सत्याचरण स्वीकारा। 

सदाचार और नैतिकता एक-दूसरे के साथ अभिन्नतः जुड़े विषय हैं। दोनों मानव-जीवन की शुद्धता व समृद्धि के लिए हैं। जीवन के अर्थपूर्ण होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। सदाचार, सत्य के लिए समर्पित है। नैतिकता, मानव को कर्त्तव्यपरायण बनाती है। कर्त्तव्य-निर्वहन, स्वयं  सत्याचरण है। अन्ततः निज के साथ वृहद् कल्याण केन्द्रित होने के कारण दोनों की, एक-दूसरे के साथ घनिष्ठतः सम्बद्ध होते हुए, कितनी महत्ता है, वह स्वतः ही प्रकट है।

व्यक्तिगत से राष्ट्रीय, राष्ट्रीय से वैश्विक और वैश्विक से सार्वभौमिक स्तर तक परिस्थितियाँ निरन्तर परिवर्तित होती हैं। परिवर्तन शाश्वत नियम है। जीवन का कोई भी क्षेत्र और किसी भी क्षेत्र का कोई भी स्तर परिवर्तन नियम से बाहर नहीं है। ऐसे स्थिति में मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि क्या सदाचार और नैतिकता इसका अपवाद हैं। नहीं हैं। सदाचार और नैतिकता से सम्बद्ध विशिष्टताएँ भी देशकाल की परिस्थितियों में परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं।

परिवर्तन-क्रम, हम बारम्बार कह सकते हैं, निरन्तर रहता है। वर्तमान में कम-से-कम दो (पूर्ववर्ती एवं उत्तराधिकारी) पीढ़ियों के मध्य सोच-विचार, कार्यपद्धति, व्यक्तिगत एवं परस्पर सम्बन्धों व व्यवहारों सहित जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हरेक स्तर पर परिवर्तनों का हममें से हर कोई साक्षी है। यह स्वाभाविक है। परिवर्तन नियम-प्रक्रिया से सम्बद्ध है।

सदाचार और नैतिकता जीवन शुद्धता, समृद्धि और सार्थकता के लिए हैं। इस हेतु अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण भी आवश्यक होता है।  इसके लिए सदाचार और नैतिकता की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण होती है। इसलिए, सदाचार एवं नैतिकता अपनी-अपनी मूल भावना के साथ जुड़े रहकर भी परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं। सत्यता के साथ आचरण –वर्तमान परिस्थितियों में सम्बन्धों में ईमानदारी एक श्रेष्ठ सदाचार है। साथ ही, अच्छी-बुरी सामाजिक परम्पराओं, प्रथाओं और रीतियों को नकार कर भी यदि  कोई सम्बन्धों में (वे निजी जीवन से जुड़े हों या परस्पर व्यवहारों से सम्बद्ध हो अथवा उनका सरोकार किसी भी क्षेत्र से हो) उत्तरदायित्व-निर्वहन हेतु प्रतिबद्ध रहता है, तो वह नैतिकता का पालन करता है। ये दोनों (अर्थात् सम्बन्धों एवं व्यवहारों में ईमानदारी तथा उत्तरदायित्व-निर्वहन के लिए प्रतिबद्धता) सदाचार व नैतिकता के उत्कृष्ट पहलू  हैं, जो यह भी प्रतिपादित करते हैं कि  जीवन में सदाचार और नैतिकता की सर्वकालिक महत्ता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

सदाचार और नैतिकता का सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य-डॉ0 रवीन्द्र कुमार




सदाचार और नैतिकता का सर्वकालिक परिप्रेक्ष्य


डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

अति साधारण शब्दों में, सत् (सत्य –शाश्वत, नित्य) और आचार (आचरण) की सन्धि से निर्मित शब्द सदाचार, शुभ कर्मों का प्रकटकर्ता है। दूसरे शब्दों में, सत्याधारित आचरण, सदाचार है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि शुभ अथवा सत्याधारित आचरण अथवा कर्म कौन-सा है। अति सरल शब्दों में कहा जाए, तो सकारात्मक सोच के साथ (विवेकाधारित) आचरण शुभ आचरण हैं; ऐसे आचरण अथवा कर्म स्वयं के साथ ही वृहद् कल्याणकारी होते हैं। सत्य को समर्पित रहते हैं।

यहाँ तनिक और स्पष्टता की जाए, तो हम यह कह सकते हैं कि विवेक ही सोच को सकारात्मक बनाता है; मानव-जीवन में अपरिहार्य कर्म-प्रक्रिया को सुकर्मों में रूपान्तरित करता है। इस प्रकार, विवेक स्वयं में एक सद्गुण के रूप में प्रतिष्ठित होता है। सुकर्म, सत्य-मार्ग का अनुकरण है। निज के साथ ही समष्टि-कल्याण सुकर्मों की कसौटी है।

नैतिकता का निर्माण नैतिक शब्द से हुआ है। नैतिक, नीति से बना है। नैतिक भाव की अनुभूति, विकास और व्यवहार द्वारा मानव न्यायसंगत कार्य करता है। नैतिकता मानवीय सद्गुणों का प्रदर्शन है। नैतिकता उचित आचरण-नियमों के अनुसरण के लिए मार्ग प्रशस्त करती है। क्या करना और क्या नहीं करना है; क्या उचित है, जो करना चाहिए एवं क्या अनुचित है, जो त्याज्य है तथा नहीं करना चाहिए, नैतिकता इसका बोध कराती हैI नैतिकता पवित्रता, न्याय एवं सत्य का प्रतिनिधित्व करती है। यह आत्मा का स्वर बनती है। जब नैतिकता अविभाज्य रूप से सद्गुणों के प्रदर्शन –न्यायसंगत कार्य व उचित व्यवहार के साथ सम्बद्ध होती है, तो यह व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायणता अथवा उत्तरदायित्व-निर्वहन भावना से भरपूर करती हैI इस प्रकार अति साधारण और ग्राह्य शब्दों में, कर्त्तव्यपरायणता या समुचित उत्तरदायित्व-निर्वहन नैतिकता की कसौटी है।

मानसिक शुद्धता के लिए एकाग्रता-प्रक्रिया से चरित्र-निर्माण भी होता है। व्यवहारों में निरपेक्ष बन्धुत्व का विकास, जो जीवन में करुणा-भावना का आधार है, उच्चतम नैतिक आचरण है। तथागत गौतम बुद्ध के मानव-विश्व के लिए इस सन्देश द्वारा अपरिहार्य कर्त्तव्य-निर्वहन का सुदृढ़ पक्ष सामने आता है।   

प्रसिद्ध चीनी चिन्तक और अपने नैतिक विचारों के लिए विश्व की दार्शनिक परम्परा में उच्च स्थान रखने वाले कन्फ्यूशियस के अनुसार सम्मान, सद्भाव, न्याय और निष्ठा जैसी मानवीय विशिष्टताएँ नैतिकता के आधारभूत तत्व हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ये विशिष्टताएँ मनुष्य को सदाचारी बनाती हैं। 

पश्चिमी जगत से सुप्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने 'निकोमैचियन एथिक्स' जैसी आज तक प्रसिद्ध पुस्तक की रचना  की। इसमें उन्होंने तर्कों के साथ नैतिकता के सम्बन्ध में वर्णन किया। नैतिकता को सच्चा आनन्द प्रदान करने वाली सर्वोच्च अच्छाई के रूप में निरूपित किया, जिसमें मानव-चरित्र के सुलक्षण सम्मिलित होते हैं। सार रूप में, अरस्तू ने इन्हीं के विकास एवं जीवन-व्यवहारों में अनुकरण द्वारा मानव के श्रेष्ठ अथवा सदाचारी जीवन जीने की बात की।

महात्मा गाँधी ने सजातीय समानता की वास्तविकता के अंगीकरण को उच्च नैतिकता घोषित किया। स्वतंत्रता, न्याय और अधिकार जैसे मानव-जीवन के अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष समानता के साथ ही जुड़े हुए हैं। समानता-भावना सार्वभौमिक एकता का दर्पण है। इसलिए, गाँधीजी ने समानता-केन्द्रित मानव-व्यवहार को मनुष्य का सत्याचरण स्वीकारा। 

सदाचार और नैतिकता एक-दूसरे के साथ अभिन्नतः जुड़े विषय हैं। दोनों मानव-जीवन की शुद्धता व समृद्धि के लिए हैं। जीवन के अर्थपूर्ण होने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। सदाचार, सत्य के लिए समर्पित है। नैतिकता, मानव को कर्त्तव्यपरायण बनाती है। कर्त्तव्य-निर्वहन, स्वयं  सत्याचरण है। अन्ततः निज के साथ वृहद् कल्याण केन्द्रित होने के कारण दोनों की, एक-दूसरे के साथ घनिष्ठतः सम्बद्ध होते हुए, कितनी महत्ता है, वह स्वतः ही प्रकट है।

व्यक्तिगत से राष्ट्रीय, राष्ट्रीय से वैश्विक और वैश्विक से सार्वभौमिक स्तर तक परिस्थितियाँ निरन्तर परिवर्तित होती हैं। परिवर्तन शाश्वत नियम है। जीवन का कोई भी क्षेत्र और किसी भी क्षेत्र का कोई भी स्तर परिवर्तन नियम से बाहर नहीं है। ऐसे स्थिति में मस्तिष्क में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि क्या सदाचार और नैतिकता इसका अपवाद हैं। नहीं हैं। सदाचार और नैतिकता से सम्बद्ध विशिष्टताएँ भी देशकाल की परिस्थितियों में परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं।

परिवर्तन-क्रम, हम बारम्बार कह सकते हैं, निरन्तर रहता है। वर्तमान में कम-से-कम दो (पूर्ववर्ती एवं उत्तराधिकारी) पीढ़ियों के मध्य सोच-विचार, कार्यपद्धति, व्यक्तिगत एवं परस्पर सम्बन्धों व व्यवहारों सहित जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हरेक स्तर पर परिवर्तनों का हममें से हर कोई साक्षी है। यह स्वाभाविक है। परिवर्तन नियम-प्रक्रिया से सम्बद्ध है।

सदाचार और नैतिकता जीवन शुद्धता, समृद्धि और सार्थकता के लिए हैं। इस हेतु अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण भी आवश्यक होता है। इसके लिए सदाचार और नैतिकता की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण होती है। इसलिए, सदाचार एवं नैतिकता अपनी-अपनी मूल भावना के साथ जुड़े रहकर भी परिष्करण अथवा परिशोधन का विषय हैं। सत्यता के साथ आचरण –वर्तमान परिस्थितियों में सम्बन्धों में ईमानदारी एक श्रेष्ठ सदाचार है। साथ ही, अच्छी-बुरी सामाजिक परम्पराओं, प्रथाओं और रीतियों को नकार कर भी यदि  कोई सम्बन्धों में (वे निजी जीवन से जुड़े हों या परस्पर व्यवहारों से सम्बद्ध हो अथवा उनका सरोकार किसी भी क्षेत्र से हो) उत्तरदायित्व-निर्वहन हेतु प्रतिबद्ध रहता है, तो वह नैतिकता का पालन करता है। ये दोनों (अर्थात् सम्बन्धों एवं व्यवहारों में ईमानदारी तथा उत्तरदायित्व-निर्वहन के लिए प्रतिबद्धता) सदाचार व नैतिकता के उत्कृष्ट पहलू  हैं, जो यह भी प्रतिपादित करते हैं कि  जीवन में सदाचार और नैतिकता की सर्वकालिक महत्ता है।

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

 

 



रविवार, 14 अप्रैल 2024

स्वतंत्रता , समता , सेवा और सामाजिक चेतना... बाबा साहब अंबेडकर के संदर्भ से - विवेक कुमार मिश्र (आचार्य हिंदी,कवि,लेखक व रेखांकनकार)

 

स्वतंत्रता , समता , सेवा और सामाजिक चेतना... बाबा साहब अंबेडकर के संदर्भ से

- विवेक कुमार मिश्र

सामाजिक सेवा ही मनुष्य को पूर्ण मनुष्य के रूप में परिभाषित करती है। मनुष्य होने का अर्थ ही तब पूरा होता है जब हम अपनी दुनिया का विस्तार करते हैं । यह नहीं हो सकता कि आप केवल अपनी प्रगति और अपनी खुशी के बारे में सोचें । यदि आप केवल अपना ही पेट भरते हैं और पेट भरने को ही सांसारिक होना समझते हैं तो यह समाज और संसार की अधूरी समझ का ही परिणाम होता है । समाज की गति में अपनी गति, अपनी उपलब्धियों को जोड़कर देखने की जरूरत होती है ।

व्यक्ति के रूप में आप कहां से आते हैं, क्या करते हैं ? कहां है ? इसका कोई मतलब नहीं होता ।  आप किस घर में पैदा हुए हैं यह सब खास मायने नहीं रखता । आप क्या है यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी उपस्थिति किस तरह से समाज में है । अपनी उपस्थिति को लेकर आप कहां हैं ? कितना सजग हैं और किस तरह काम करते हैं । आप की सोच किस तरह की है । आप अपने व्यक्तिगत संसार और व्यक्तित्व से बाहर निकल पाते हैं कि नहीं । यदि नहीं निकल पाते या सीमित दायरे में ही निकल पाते हैं तो इसका समाज को कोई बड़ा लाभ नहीं होता । आपका भी जीवन आम आदमी की तरह अपने आसपास के संसार में कुछ घटनाओं के साथ चलता रहता है और इससे कोई और नहीं केवल आप प्रभावित होते हैं । समाज आपके साथ चलें और आप समाज को लेकर चलें, सामाजिक गति के कारक बने यह सब संभव तभी हो पाता है जब आप अपनी गति में, अपनी सोच में पूरे समाज को रखकर चलते हैं । जब बड़े विजन से काम करते हैं । बड़े सपने देखते हैं , यह सोचते हैं कि हम समाज के लिए क्या कर सकते हैं ? हमारे होने का अर्थ क्या है ? क्या कुछ किया जा सकता है ? जिससे सार्थकता की अनुभूति हों और जो सपने हम देख रहे हैं क्या वे केवल मेरे हैं । यदि केवल मेरे सपने हैं तो उनका समाज के लिए क्या उपयोग ? इसलिए हमारे सपने भी ऐसे हों कि हम समाज के लिए सपने देख रहे हैं । समाज को रचने गढ़ने बनाने के लिए आगे चल रहे हैं । तभी सही मायने में हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता है । व्यक्तित्व को व्यक्ति स्वयं गढ़ता है पर यह भी सही है कि व्यक्तित्व को सही आकार और संदर्भ तो समाज में जाकर ही मिलता है । जब हमारी सत्ता समाज के लिए होती है । जब हमारे सपने में हमारे साथ-साथ समाज होता है तो वास्तव में व्यक्तित्व एक वृहद आकर ले लेता है ।  यही से हमारे बीच से ही ऐसे महापुरुष आकर ले लेते हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर पाते । बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर ( 14 अप्रैल 1891 -06 दिसंबर 1956 ) एक ऐसे ही महापुरुष थे । उनकी हर बात , हर संदर्भ और हर प्रसंग में उनका समाज दिखता है कि मैं जो कुछ कर रहा हूं उसमें मेरा समाज कहां है ? मेरा समाज कहां जाएगा और समाज की प्रगति के लिए हम कुछ कर पा रहे हैं कि नहीं । यहीं से अंबेडकर जी का सामाजिक दर्शन व सामाजिक स्वप्न संभव होता है । जिसमें अपने समाज को उसका अधिकार उसकी स्वतंत्रता उसकी समता का भाव मिलता है । जिस रास्ते समाज आधुनिक संदर्भों में अपने अधिकारों के साथ अपनी मुक्ति का अपनी सामाजिक मुक्ति का स्वप्न देखा है ।  यह सब संभव होता है अंबेडकर जी की जागृत चेतना के कारण । यही से सामाजिक समता , स्वतंत्रता और बंधुत्व का भाव सामने आता है । सम भाव पर चलने से ही  सामाजिक सत्ता निर्मित होती है ।

सामाजिक समता के लिए कार्य आप तभी कर सकते हैं जब अन्य में अपनी सत्ता को महसूस करते होंगे । सभी समान विंदू पर हैं । सबके भीतर एक ही तत्व है । एक ही रक्त एक ही मन एक ही सत्ता सबमें है । सब मनुष्य हैं और सबके भीतर मनुष्य की सत्ता बराबर से जब इस तरह सोचते हैं तो कोई कारण नहीं है कि हम किसी के साथ भेदभाव कर सकें । यह जो भी भेदभाव है जो भ्रांत धारणा है वह हमारी अज्ञानता के कारण ही है । जब सामूहिक अज्ञानता समाज में बढ़ जाती है तो घोर अनर्थ होता है । हम एक दूसरे को छोटा दिखाने की कोशिश करने लगते हैं और ऐसे में मनुष्यता रोती और कराहती है । यहीं पर मानव धर्म व मूल्य की बात आती है । यहां समता और स्वतंत्रता का मूल्य ही जीवन का आधार बन सामने आता है । समता और स्वतंत्रता केवल किताब में लिखे जाने के लिए मूल्य नही है । ये हमारे जीवन में वास्तविक बदलाव लाने वाले मूल्य के रूप में हैं । जिसे सही मायने में जीने की जरूरत है । इस मूल्य को दूर रखकर देख नही सकते यह हमारे जीवन का आंतरिक और बाह्य मूल्य एक साथ है । आप कुछ भी करें उसका कोई अर्थ नहीं यदि आप उसे करने में स्वतंत्र नही हैं । यह स्वतंत्रता सीधे सीधे स्वाभिमान और अस्तित्व बोध को लेकर आती है। आपके समूचे व्यक्तित्व को रचने का काम करती है । स्वतंत्रता और समानता का भाव ही समाज की गति और विकास के मूल में है । सामाजिक गति और सामाजिक संस्कृति समानता के मूल्य से संयोजित होती है । समानता के कारण ही हम सब दूसरे के भीतर अपनी सत्ता प्रकाशित होते हैं । कोई भी पदार्थ किसी एक के लिए नही है ।  वह सभी के लिए है । सब उसका समान रूप से उपभोग कर सकते हैं । यह समता ही न्याय की अवधारणा के मूल में है । न्याय तभी हो सकता हैं जब समाज में समता का मूल्य हो , जब एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करना हम जानते हों तभी सामाजिक जागरण , चेतना का जागरण और मानव मन की सत्ता को हम समझ पाते हैं । हर मनुष्य को उसका अधिकार दिलाना, उसकी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखना , उसके जीवन की गरिमा को बनाए रखना यह सब समता और स्वतंत्रता के वृहत्तर रूप में मूल्य को जीने के खारण ही संभव हो पाता है । स्वतंत्रता के मूल्य को सामाजिकता के वृहत्तर संसार का आधार बना बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर ने समाज में जो क्रांति चलाईं । जो जागृति लाईं वह पूरे समाज को अंधकार से मुक्त करने का अधिकार बना। सामाजिक मुक्ति के लिए जरूरी है कि पूरा समाज स्वतंत्रता को मूल्य के रूप में जहां स्वीकार करता है वही समता के भाव को सामाजिक सेतु का आधार बनाता है और समाज को आगे आने के लिए सभी शिक्षित जनों को पहले आगे आना होगा । आप शिक्षित हो गये , उच्च पद पर पहुंच गये - इसका लाभ तबतक समाज को नही मिलेगा जब तक कि आप समाज को शिक्षित नही करते हैं । सामाजिक शिक्षण प्रशिक्षण और सामाजिक जागरूकता ही समाज की सबसे बड़ी संपत्ति है । सामाजिक समता का संदेश समाज के हर व्यक्ति तक पहुंचे तभी वास्तव में सामाजिक जागृति और चेतना की बात पूरी होती है । यह सामाजिक क्रान्ति ही सभ्यता और संस्कृति का सबसे बड़ा प्रश्न है । समता , बंधुत्व स्वतंत्रता जब तक समाज में नहीं है जब  तक वास्तविक रूप में नहीं है तब तक इनके अस्तित्व गत अर्थ को हम नहीं समझ सकते । बाबासाहेब आंबेडकर ने समाज को न केवल जगाया बल्कि समाज को उसके अधिकारों का स्वामित्व भी भारतीय संविधान के माध्यम से दिलाया । समता, स्वतंत्रता बंधुत्व और संवैधानिक संरक्षण का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में घोषित किया । यह अधिकार मनुष्य की गरिमा, स्वतंत्रता बोध औल निजता को एक साथ संरक्षित करने का काम करता है ।

बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर ने शिक्षा को अपने तक सीमित नहीं रखा । उनका बराबर से यह मानना है कि शिक्षा ही हमारी जड़ता को तोड़ेगी । हमें अंधकार से बाहर निकलेगी । यदि आदमी शिक्षित हो गया तो समझो कि वह अपना सारा अधिकार ले लेगा । इसीलिए जैसे-जैसे शिक्षा के अधिकार का समाज में प्रसार हो रहा है और जिस तेजी से लोग शिक्षित हो रहे हैं और अपने अधिकारों को न केवल पहचान रहे हैं बल्कि समझ भी रहे हैं वैसे-वैसे भारतीय समाज में सामाजिक जागरण और सामाजिक क्रांति की मशाले तेजी से सामने आ रही है । शिक्षा ही सब कुछ है । शिक्षित बनो और समाज को बदलने के लिए काम करों । समाज को शिक्षित करों अकेले शिक्षित हो जाने का कोई अर्थ नहीं है । आप अपने कुटुंब और समाज को शिक्षित करों उसे अंधेरे से दूर ले चलो और उसकी राह में प्रकाश बिखेरों । यदि आप ऐसा करते हैं कर सकते हैं तो आपके शिक्षित होने सामाजिक होने और आपके शिक्षक धर्म का फायदा समाज को मिलेगा , अन्यथा कुछ नहीं होने वाला है ।  अंबेडकर जी सामूहिक चेतना के जागरण और सामूहिक मुक्ति की बात करते थे । यह सब संभव तभी हो सकता है जब समाज शिक्षित होगा । बिना समाज को जगाये , शिक्षित किए बिना सामाजिक क्रान्ति के कुछ भी होने वाला नहीं है। अंबेडकर ने यह क्रांति शिक्षा के माध्यम से ही चलायी । शिक्षा ही संगठित कलती है और जागरण का कारण भी बनती है ।

अन्य के साथ जुड़ना अपनी आत्म सत्ता का विस्तार करना है । अलग थलग या अकेले पड़ कर समाज निर्माण का काम नही होता । समाज निर्माण के लिए सामाजिक शक्तियों को इकठ्ठा करना पड़ता है । उनके साथ चलना पड़ता है और समाज हित में फैसला लेना पड़ता है । सेवा सामाजिक सत्ता और सामाजिक समता के लिए कार्य करते हुए ही एक व्यक्ति सामाजिक व्यक्तित्व बनता है । बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर एक ऐसे ही सामाजिक व्यक्तित्व रहे जिन्होंने अपनी सत्ता को अन्य की स्वतंत्रता और समता के मूल्य पर चलने की शिक्षा के रूप में जीवन जीने की प्रणाली बनाई।

बाबासाहेब डॉ भीमराव अंबेडकर स्वतंत्रता के मूल्य को सामाजिक स्वतंत्रता के मूल्य के रूप में पहचान दिलाई । यदि हम केवल राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो जाते हैं तो उससे समाज का भला कहां होगा ? समाज भला कहां गति करेगा । समाज तो वही पड़ा रह जावेगा जहां हजारों वर्षों पहले था । ऐसे समाज से काम नही चलेगा सभी को अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़नी होगी । तुम्हारी लड़ाई कोई और क्यों लड़ेगा ? यदि आप आगे नही आयेंगे तो कोई दूसरा भला आपकी स्वतंत्रता की लड़ाई  क्यों लड़ेगा । अम्बेडकर ने पूरे समाज में यह जागृति भर दी कि हमें आजाद होना है और हमारी आजादी राजनीतिक स्वतंत्रता से आगे सामाजिक स्वतंत्रता में ही है । यदि समाज स्वतंत्र नही हुआ यदि लोगों ने आजाद हवा को महसूस नही किया तो स्वतंत्रता को मूल्यवान कैसे समझेगा


“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...