शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

छोटे कलाकारों ने किया बड़ा नाम, महज़ 5 हजार रुपए में बना डालीं बड़े पर्दे की फिल्म - एम.असलम, टोंक


 छोटे कलाकारों ने किया बड़ा नाम, महज़ 5 हजार रुपए    में बना डालीं बड़े पर्दे की फिल्म

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एम.असलम, टोंक

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राज्य के पिछड़े जिलों में शुमार किए जाने वाले टोंक में कलाकारों की कोई कमी नहीं है। इसबात को यहां के युवा कलाकार बखूबी साबित भी करते रहे हैं। चाहे परिस्थितियां अनुकुल हो या ना हो। लेकिन युवा प्रतिभावान कलाकारों ने टोंक का नाम रोशन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हाल ही में एक 21 वर्षीय कलाकार शादाब खान उपनाम शहंशाह सूरी खान ने भी फिल्म के क्षेत्र में बड़ा काम कर डाला है। हम कह सकते हैं कि एक्टिंग के जादूगर फिल्म अभिनेता इरफान खान के शहर में आज भी प्रतिभावान युवाओं की कोई कमी नहीं है। हाल ही में टोंक के युवा कलाकारों ने इरफान खान के संघर्षमय जीवन से प्रेरित होकर बड़े पर्दें की फिल्म बनाकर एक इतिहास ही रचने का कार्य कर दिया है। जिसे दुनिया के एक बड़े फिल्म फेस्टिवल के रुप में अपने जगह बना रहे जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में 9 फरवरी 2024 को राजस्थान की चयनित टाप 8 फिल्म का अवार्ड दिया गया है।

इस फिल्म के निर्माण में जूनियर कलाकारों का हौसला, लगन, मेहनत ही है, बाकी तो इस फिल्म को बनाने में महज 5 हजार रुपए ही लगे बताए जा रहे हैं। लेकिन जिले के लिए बड़ी बात ये हैं कि 9 से13फरवरी में जयपुर में आयोजित होने वाले जयपुर इंटरनेशल फिल्म फेस्टिवल जिसमें कई देशों की 329 फिल्मों का चयन हुआ है। इसमें फिल्म ईरीई ए टेरर ऑफ जोम्बीं वायरस..भी शामिल है। जिसे अवार्ड मिला है।

युवा कलाकार शादाब खान उपनाम शहंशाह सूरी खान ने ये फिल्म बनाई है। इसके डायरेक्टर, लीड हीरो, राइटर, प्रोड्यूसर, एडिटर 21 वर्षीय शहंशाह सूरी खान ही है। इसमें कलाकार जूनियर कलाकार सोहेल सूरी, नाजिश खान, कासिम खान, नायब खान सूरी, अनुराधा धुंडिया, बिट्टू वर्मा, आकिब खान, अयाज खान, जवाद हबीब, सलमान रशीद, गुफरान मलिक, जीतेंद्र वर्मा, तुबा खान सूरी, रवि धानका, मोहम्मद अली कौसर, अंसार खान, फैसल अंसारी, अकबर खान, शादाब खान, अप्पी चाचा, हस्सान खान, सुभान खान आदि ने काम किया है। शहंशाह खान सूरी का कहना है कि ये फिल्म वायरस पर आधारित है। इसमें एक वायरस तबाही मचा रहा है, तो उसको रोकने के लिए भी वैक्सीन तैयार कर एक साइंटिस्ट बचाने का काम करता है। दोनों के बीच की जंग के साथ ही इस फिल्म में एकता भाईचारे का संदेश व इंसानी लालच को भी दिखाया गया है। एक सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। जिसका चयन जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए हुआ है।

फिल्म बनाने की कैसे मिली प्रेरणा : 

बचपन से ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने वाले शहंशाह सूरी खान का सपना था कि वो इरफान खान के साथ भी काम करें। लेकिन उसको ये मौका तो नहीं मिल सका। लेकिन इरफान की मृत्यु के बाद उसने फिल्म लाइन में जाने की ठानी। उसने रवींद्र मंच में एक्टिंग सीखने के दौरान टिफिन  सेंटर पर काम करके अपना खर्च आदि की इंतज़ाम भी किया। एक दिन उसने बैठे-बैठे सोचा की अपने जैसे कलाकार को बॉलीवुड में आसानी से रोल नहीं मिलेगा। ऐसे में उसने स्वयं ही फिल्म बनाने की सोची। और इस में अपने साथियों का साथ लेकर वायरस पर आधारित फिल्म बना डाली।

आस्कर जीतने का है सपना :

शहंशाह खान सूरी का कहना है कि वो वैसे तो आस्कर जीतने का सपना देखता है। लेकिन उसका काम अच्छी एवं बेहतर फिल्म का निर्माण करके, लोगों को रचानात्मक दिशा की ओर लाना है। अब तक वो कई धारावाहिक एवं कुछ फिल्मों में भी छोटा-मोटा रोल कर चुका है। फिल्म अभिनेता शाहरुख खान की जवान फिल्म में भी उसने फोटो ग्राफर का छोटा रोल किया है।

इरफान खान से है काफी प्रभावित :

शहंशाह सूरी खान का कहना है कि वो एक्टिंग की दुनिया में फिल्म अभिनेता इरफान खान से प्रभावित होकर ही आया हैं। हालांकि वो इस क्षेत्र में अपनी एक्टिंग एवं अपनी अलग ही पहचान कायम करना चाहता है। इसके लिए वो निरंतर प्रयास भी कर रहा है। साथ ही उसका सपना है कि बाॅलीवुड टोंक की वादियों में भी शूटिंग करें। यहां के पर्यटन क्षेत्र को भी फिल्मों के माध्यम से बढावा दिलाएं। जो फिल्म उसने बनाई है। वो टोंक में बनी बड़े पर्दें की पहली फिल्म है, जो टोंक में ही फिल्माई गई है।

पहली फिल्म के बारे में शहंशाह सूरी क्या कहते हैं :

शादाब खान जिनको अब एसएसके शहंशाह सूरी खान के नाम से भी पहचान मिलने लगी है। सूरी खान ने इसके बारे में बताया कि ईरीई ए टेरर ऑफ जोंबी वायरस उनकी पहली फिल्म है। जो जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए चयनित हुई है। इसको टोंक, राजस्थान की अलग-अलग लोकेशन पर शूट किया गया है। ये टोंक की पहला फीचर फिल्म है, जिसकी अवधि 2 घंटे 8 मिनट है। वो एक साइंस फिक्शन और हॉरर थ्रिलर फिल्म है। ये फिल्म में हमने दिखाया कि एक विज्ञान प्रयोग कैसे दुनिया के ख़तम होने का कारण बन जाता है या एक वायरस एक भयावह ज़ोंबी वायरस पेंडमिक में तब्दिल हो जाता है...। इस फिल्म में इसबात को रोचक तरीक़े से दिखाया गया है। और सूरी जो की फिल्म का हीरो है, वो देश को बचाता है... उन अंग्रेज साइंटिस्ट से...। ये फिल्म जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के लिए सेलेक्ट हुई है।  EERIE A terror of zombie virus को अवार्ड भी मिला हैं। सूरी खान ने इससे पूर्व हिंदी सीरियल या थिएटर शो या बॉलीवुड फिल्म में काम किया है। मंथन, जवान एटली की, द ग्रेट वेडिंग ऑफ मुन्नेस, हिट फर्स्ट केस, डर, खो गए हम काहा जोया अख्तर की, मुंबई डायरीज़ सीजन 2, इसके अलावा रवींद्र मंच जयपुर से एक्टिंग सीखी है। उनके गुरु समीर राज थे। जिनका कोरोना में इंतकाल हो गया। उन्होंने अभिनय, निर्देशन सिखाया। मैँने थिएटर शो भी किया है। कोर्ट मार्शल जिसमें उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला था। 2018 में रामचन्द्र में मुख्य भूमिका दी थी, और किसका हाथ, इन्साफ, भक्त प्रल्हाद, पुतरा यागे, और मॉडलिंग शो भी किया। अच्छे लेवल के, जिसमें वो फेम आइकन टोंक 2021 के विजेता, मिस्टर इंडिया 2019 के चौथे रनर अप, या स्काई बैग वीआईपी, डिस्काउंट मास्टर, कदम शूज के लिए मॉडलिंग की है इसके अलावा वो, डांस, मार्शल आर्ट, क्रिकेटर भी रुचि हैं। टोंक शहर पर एक गाना भी बनाया है। विरासत टोंक आप उसे यूट्यूब पर सुन सकते हैं। इसके अलावा नुक्कड़ नाटक, लघु फिल्में बनाई हैं। अपने स्कूल की पढ़ाई रीजनल पब्लिक स्कूल से की। कॉलेज ग्रेजुएशन डॉ. अंबेडकर से की। बचपन से फिल्मों में काम करने का जुनून रहा। अपना आइडियल गुरु इरफान खान को मानता हूं। जैसे इरफान खान ने टोंक का नाम रोशन किया बॉलीवुड, हॉलीवुड में वैसे वो भी करना चाहता है। इरीई ए टेरर ऑफ जॉम्बी वायरस फिल्म 365 दिनों की कड़ी मेहनत, समर्पण और बलिदान का ही परिणाम है। जोंबी वायरस का भयानक आतंक, ये मेरी पहली फीचर फिल्म है। जो मैंने एक निर्देशक, लेखक, निर्माता संपादक के रूप में पूरी की है। इस फिल्म में हमारे टोंक के कलाकारों ने बहुत अच्छा परफॉर्म किया। जब में कहानी लिख रहा था, जब मैंने सोचा नहीं था। इसका बजट कहां से आएगा। फिल्म कैसे बनेगी, बस मैंने बिना सोचे समझे काम चालू कर दिया। ये फिल्म का बजट लाखों में नहीं है, ये फिल्म 5000 रुपए के बजट में बनी हैं। देखा जाए तो ये फिल्म मेरी टीम की मेहनत, समर्पण या कड़ी मेहनत से बनी है मैंने क्या कुछ नहीं किया फिल्म बनाने के लिए चाय की दुकान पे काम किया। टिफिन डिलीवरी बॉय बना। सैलून में नौकरी की। फिल्म बनाना सीखने के लिए मैंने फिल्मों में बैकग्राउंड एक्टर, काम किया। वहा जाकर में बहुत कुछ सिखा फिल्म इंडस्ट्री को जाना समझा मैंने कैसे फिल्म बनाई जाती है। फिल्म में क्या-क्या इक्विपमेंट का इस्तेमाल होता है। डिपार्टमेंट किया होते हैं। फिर मैंने कुछ पैसे जामा किए। और फिल्म का काम शुरू किया। हमारे पास इतनी सुविधा भी नहीं थी कि हम लोग शूट लोकेशन पे पहुंच सके। गाड़ी से हम ई-रिक्क्षा से जाते हर जगह टोंक की अलग-अलग लोकेशन पे शूट किया। हमने हमारे पास फाइट सीन में सेफ्टी इक्विपमेंट्स नहीं थे। हमने सब फाइट रियलिस्टिक की। मैं बहुत घायल हुआ। पर मैं रुका नहीं, इस फिल्म की शूटिंग हमने 7 दिनों में पूरी कर ली थी। इस फिल्म की एडिटिंग के लिए 1 लाख रुपए मांगे गए, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे, लेकिन मैंने एक मोबाइल फोन लिया जिसका प्रोसेसर अच्छा था। उसमें ही मैंने फिल्म की एडिटिंग की। बहुत रिस्क लेकर एडिट हुई फिल्म फोन में एक बार डिलीट हो गई थी। फोन हैंग हो गया। मैं बहुत डिप्रेस्ड हुआ। पर मैंने कुछ दिन इंतजार करके वापस काम शुरू किया। मैंने सब काम छोड़ दिया शूट्स जाना बंद कर दिया। और घर पे बैठ गया। बस, अपना पूरा फोकस एडिटिंग में लगा दिया। मेरी दाढ़ी और बाल इतने बड़े हो गए। घर की हालत भी ठीक नहीं थी। मजबूरी में मुझे फोटोग्राफी करनी पड़ी शादियों में अपने दिल मारके में कहीं नहीं जाता था। एक-एक पैसा बचाया या ये फिल्म फाइनली मैंने हिम्मत करके जिफ यानी जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भेज दी और वो सेलेक्ट हुई मैं अब बहुत खुश हूं। अब मेरा सपना है कि में ऑस्कर जीतू।

कौन है शहंशाह सूरी खान :

राजस्थान टोंक की एक नामवर शख्सियत रहे एजाज अहमद खान सूरी जो मैयो कॉलेज सहित कई जगह अंग्रेजी के शिक्षक रहे तथा तारीखे टोंक पुस्तक के लेखक भी रहे। जिनका नाम देश के विद्वानों में शुमार रहा है। उनके पौत्र हैं शहंशाह सूरी खान। उनका घराना शिक्षित होने के साथ ही शहर का नामवर परिवार हैं। 21 वर्षीय शादाब खान उपनाम शहंशाह सूरी खान पुत्र खुर्शीद सूरी, जो घंटाघर के समीप रहते हैं। वो थियेटर कलाकार होने के साथ ही अब फिल्मी दुनिया में भी अपनी पहचान बनाने लगे हैं।

सूरी खान ने बताया कि प्राचीन रहस्यों का जिला टोंक, पुस्तक में टोंक में पैदा हुए दुनिया के बड़े शायर अख्तर शीरानी के बारे में पढ़ा, अब उन पर भी फिल्म बनाने की कोशिश की जाएगी।

 

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

जड़ों की ओर लौटना मनुष्य का मूल स्वभाव है - विवेक कुमार मिश्र

जड़ों की ओर लौटना मनुष्य का मूल स्वभाव है

- विवेक कुमार मिश्र

 

हम किस तरह चलें कि अपने मूल तक - अपनी जड़ों तक पहुंच जाएं । हर आदमी के लिए जरूरी होता है कि वह अपनी जड़ों तक पहुंचे । अपने उस संसार को जाने , देखें जहां से निकला है । आज हम कहां हैं ? इसका बहुत कुछ श्रेय इस पर निर्भर करता है कि हम कहां से आए हैं । हमारी बुनावट कहां से हुई है । हम सब जहां कहीं भी जाएं पर अपनी जड़ों को भुलाकर जड़ों को काटकर या जड़ों से कट कर कदम ना बढ़ाएं । जड़ों से कटकर कोई भी कहीं नहीं पहुंचता । यदि इस तरह जाते हैं तो हम कहीं पहुंच नहीं पाएंगे । संसार में हमारा विस्तार कितना भी क्यों ना हो जाए कोई अर्थ नहीं । यदि आप जड़ों को भूल कर आगे बढ़ते हैं यदि आपके पास अपनी जड़ों की स्मृतियां नहीं है तो फिर जीवन की कोई सार्थकता नहीं हो सकती । हमारी जड़ें कितनी व्यापक हैं हम जड़ों को कितना विस्तार दे पा रहे हैं यह सब जब हम देखते हैं सोचते हैं तभी सही ढंग से समाज के लिए अपना कुछ श्रेष्ठ दे पाते हैं । यह  सब अपनी जड़ों के कारण ही हो पाता है । जड़ों की ओर लौटना मूल स्वभाव बन जाता है । वह अपने को खोजना शुरू करता है कि हम कौन थे ? हम कहां से आए ? हमारी शुरुआत कहां से हुई ? और हम जहां हैं क्या यह हमारी शुरुआत से मेल खाता है या हम इतना बदल गये हैं कि कुछ भी पूर्व जैसा नहीं है या हमारी जड़ें सूख गई हैं और यदि कुछ बचा ही नहीं तो फिर होने के क्या मायने ? यहीं पर यह कहा जा सकता है कि अपनी जड़ों को पहचानते हुए अपने उद्गम के स्रोत को जानते हुए आगे बढ़ना चाहिए । अपने समय अपने मूल का पता लिए चलते रहना चाहिए । मूल स्रोत की बातें जीवन व्यवहार व समाज में चलती रहती हैं । पूरी दुनिया ही घूम आये पर मूल स्रोत को कैसे भूल सकते । अपनी दुनिया इतनी दूर न हो कि आप उसे पहचान ही न पाएं । यदि आप अपनी दुनिया के साथ चलते हैं तो अन्य दुनिया भी आपके साथ चलती है । यानी आप अपनी जड़ों के साथ हैं और जड़ें हैं तो सब कुछ है ।

जड़ें  परिवार से आती हैं । परिवार के प्रति हमारी भावना क्या है ? परिवार को हम किस तरह देखते हैं ? परिवार के साथ समाज को किस तरह देखते हैं और अपने समय के साथ हम कहां तक पारिवारिक धरातल पर जुड़े हैं ? यह पारिवारिक लगाव जुड़ाव ही समाज में हमें नए सिरे से जुड़ने और जीने के लिए कहता है । परिवार का अर्थ केवल निजी परिवार भर नहीं है वल्कि जिस समाज में, जिस दुनिया में जिस परिसर में आप रहते हैं उसके साथ आपका भाव तंत्र जुड़ा है कि नहीं , उसके साथ आप कितना पारिवारिक हो पाते हैं यह आपके सांसारिक जीवन और सांसारिक कदम को आगे बढ़ाने का कारक बनता है । पारिवारिक भाव , मित्र भाव और समभाव समाज के बीच जीवन जीने से मिलते हैं ।

समाज में होने का अर्थ है कि समाज की खुशियों में सुख में , दुःख में , संकट काल में हर समय समाज के साथ चलने के लिए दो कदम आपके पास हो , इतना समय निकालिए कि अपने अलावा अन्य के लिए भी चल सकें । लोगों के साथ कुछ देर बैठे कुछ समय निकालें , बातें करें तब जाकर सही में आप सामाजिक व्यक्ति हो पाते हैं । मनुष्य यदि यह सोचता है कि समाज के बीच मेरा घर है तो वह सामाजिक नहीं होता । कॉलोनी में आपका मकान / घर है । ठीक है । यह एक तथ्य भर  है पर कॉलोनी में आप लोगों से मिलते हैं लोगों से संवाद करते हैं । कभी उनकी बातों को सुनते हैं कभी उनके सुख-दुःख पर चर्चा करते हैं । तो बात बनती है । तीज़ त्योहार पर साथ खुशियां मनाते हैं तो आप समाज में रहते हैं । अन्यथा आप और आपका मकान तो अपनी जगह पर है ही पर आपके साथ समाज कहीं नहीं है । न ही किसी के साथ आप हैं । समाज आपके लिए दूर की कौड़ी हो जाता है । परिवार भी इस तरह लोगों के पास नहीं होता । परिवार से भी वे केवल भौतिक दूरी पर नहीं भावकोश से भी मिलों मील दूर रहते हैं । इस तरह के लोगों के पास कोई भी चीज नहीं होती , सब दूर होता है ।

ऐसे लोग कहीं पर जाएं किसी भी तरह की बातें करें किसी भी तरह का दिखावा करें संसार इनके लेखें कुछ नहीं होता । ये संसार से दूर होते हैं । सांसारिक दूरियां अपनी जगह पर हैं । ये केवल तथ्य भर है पर जब बातचीत करते हैं या बातचीत के बहाने निकलते हैं तो दूरियां भौगोलिक तो दूर होती ही हैं भावनात्मक दूरी भी दूर हो जाती है । इस तरह मानवीय ऊर्जा को हम न केवल समझने में समर्थ होते हैं बल्कि उस ऊर्जा से जीवन का विस्तार करते हैं । संवाद के लिए रास्ता निकालते हैं । समय निकालना और चलना महत्वपूर्ण होता है ।

किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है पर इसी संसार में यदि और समय निकाल पाते हैं तो आप क्यों नहीं निकल पा रहे हैं । ऐसा क्या कर रहे हैं या कर भी रहे हैं कि नहीं यह समझ से परे है । आप कुछ करें या ना करें पर अपने आसपास की दुनिया के लिए अपने परिवार समाज के लिए पड़ोसी के लिए अपनी सत्ता से इतर अन्य लोगों के लिए कुछ समय निकालें । यदि आप अन्य के लिए समय निकाल पाते हैं तो अन्य के साथ-साथ आपके भीतर भी खुशियां जन्म लेती हैं । हमारा आंतरिक भाव मजबूत होता है ।

केवल शारीरिक बल या शारीरिक स्वास्थ्य ही काफी नहीं होता । शारीरिक स्वास्थ्य से आगे मानसिक स्वास्थ्य के लिए अपने भाव तंत्र के लिए जीवन पथ पर सामाजिक पथ पर बंधुत्व का भाव एक दूसरे की सत्ता को स्वीकार करने की सदिच्क्षा का होना हमारे भीतर अनिवार्य होता है । यह कोई दवा की गोली नहीं है कि लिया और गटक लिया । कुछ देर बाद इसका प्रभाव दिखने लगेगा । यह धीरे-धीरे जीवन जीने की प्रक्रिया में विकसित भाव प्रणाली तंत्र है जिससे मनुष्य का स्वभाव निर्मित होता है । यह सहज गति से चलने का परिणाम है । जीवन पथ पर जब अतियों से बचकर निकलते हैं तो हमारे सामने सहजता व सरलता का पाठ होता है । कहना आसान है कि सहज हो जाए या सहज रहें । हर कोई सहज रहना चाहता है पर सहज रह नहीं पता । बहुत ज्यादा अपनी दुनिया अपनी माटी और अपने लोगों पर विश्वास के बाद यह सहजता अर्जित होती है ।

स्वयं को पहचानते हुए अन्य लोगों की गति को देखें और अन्य को पहचाने । अन्य को छोड़कर अन्य से किनारा करते हुए न चलें । अपनी गति में अन्य का सहयोग निश्चयात्मक रूप से लेते रहें , जो लोग भी आगे जाते हैं या कुछ अच्छा कर पाते हैं उसमें अन्य की भी भूमिका होती है । अन्य को लेने का अन्य को स्वीकार करने की क्षमता भी आपके भीतर होनी चाहिए । यह सीखने की प्रक्रिया के साथ होती है । जो लोग भी नई बात , नए संदर्भ और नई तकनीक को स्वीकार करते हैं वे सहज रूप से अपनी क्षमता का विकास करते रहते हैं । उन्हें अलग से इसके लिए प्रयास नहीं करना पड़ता । हमारे सामाजिक ढांचे में इसी तरह  एक दूसरे से समझने , सीखने और जानने की सहज परंपरा रही है । एक दूसरे के ज्ञान के प्रति आदर सम्मान का भाव  जब विकसित होता है तो स्वाभाविक रूप से हम अपना विकास करते हैं। इस क्रम में समाज का विकास होता है, सामाजिक गति को बढ़ावा मिलता है । कुछ भी अपने आप में पूर्ण नहीं है सब एक दूसरे के साथ अपनी अपूर्ण स्थिति को दूर करते हैं ।

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एफ -9समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002

 

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

एक झूंठी दिलासा- जयचन्द प्रजापति 'जय'


 एक झूंठी दिलासा

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टोनी के पापा चले गए इस संसार से जब तीन साल का था टोनी। सबके पापा हैं। मेरे पापा कहां हैं। आते नही हैं। रामू के पापा तो चले गए थे वो तो आ गए। मिठाईयां लाए थे। टाफियां लाए थे। मेरे पापा पता नहीं कब आयेंगे। आयेंगे तो खूब बात करूंगा। पूछूंगा जल्दी क्यों नही आते हो। जाया करिए पापा। जल्दी आ जाया करिए। बहुत याद आती हैं।

 मम्मी के पास जाकर टोनी मम्मी से कहता है....’मम्मी, पापा कब आयेंगे। तुम तो कहती थी। पापा कमाने गए हैं। खूब पैसा लायेंगे। टाफियाँ लायेंगे। सबके पापा बहुत अच्छे हैं। पापा हम लोगों को याद नहीं करते हैं। गंदे पापा हैं’

 ”नही बेटे, छुट्टी नहीं है। छुट्टी मिलेगी। आ जायेंगे। तेरे पापा तुम्हे याद करते हैं। कहते हैं। आयेंगे तो टोनी से खूब बात करेंगे। टोनी मेरा बड़ा हो गया है। खूब टाफियां लायेंगे.... मम्मी ने बेटे को झूंठे दिलासा देते हुए कहा। माहौल भयानक पीड़ा का एहसास कराने वाला हो गया था।

 ”मम्मी तुम रो रही हो, पापा आयेंगे तब क्यो रो रही हो। टाफियां पापा लायेंगे तो तुमको ढेर सारी टाफियां पापा से कह कर दिला दूंगा” टोनी मम्मी को चुप कराते हुए बोला।

 मां ने टोनी को खींच कर अपने बाहों में भर कर सिसकने लगी। टोनी भी मां को रोते देख कर रोने लगा। गमगीन माहौल हो गया था। वेदना मुखर हो गई थी। चेतना शून्य हो गई थी। करुण बहाव झर -झर बह रहे थे। रूदन वेधता हुआ़ ह्रदय को चीर कर रख दिया था। झूठे दिलासा दिलाते-दिलाते मां टूट गई।

 "टोनी अब तेरे पापा कभी नहीं आयेंगे। तेरे पापा भगवान के घर चले गए हैं"

 "मम्मी, मैं भगवान से कह दूंगा कि मेरे पापा को भेज दो। भगवान भेज देंगे। नही भेजेंगे तो बड़ा हो जाऊंगा तो भगवान को मारूंगा, मम्मी"  

बेटे के इस भोलेपन की बाते सुनकर मां बेटे को देखती रह गई। अनाथ टोनी को मां थपकियां देने लगी। आसमान की तरफ एकटक निहारने लगी। भावना शून्य हो गई। एक खामोश पल हो गया था। प्रकृति भी मौन हो गई थी।

 

 

              

रविवार, 4 फ़रवरी 2024

ममता- (कहानी) केदार शर्मा, ‘’निरीह’’


कहानी

ममता

केदार शर्मा, ‘’निरीह’’

 

उन दिनो मोटर वाहनों के साधन आज की अपेक्षा कम थे। मैं उन दिनों टौंक शहर से आठ किलोमीटर दूर एक गाँव में साईकिल से ही स्कूल  आता जाता था । लौटते समय सड़क किनारे सब्जी का टोकरा लिए नीम  के पेड़ के नीचे  बैठी किशोर वय की एक लड़की से रोज शाम के लिए सब्जी भी खरीदकर  ले जाया करता था । सड़क के पास ही उनका  खेत और कुआ था ,उसके पास ही एक झौंपड़ी थी जिसमें वह लड़की परिवार सहित रहती थी । खेतों में आस-पास बहुत सी  झौंपडिया थी । कभी  गुजरते वाहनों की आवाज तो कभी सब्जी के खरीदार इस सन्‍नाटे को भंग कर  चहल-पहल में बदल देते थे ।

सब्जी  खरीदते समय मोल-भाव की नौंक-झौंक रोज होती । ऐसे ही एक दिन मैने मेने नाराज होने का नाटक करते हुए कहा-‘आज के बाद तुमसे सब्जी  नहीं खरीदनी है। तुम हमेशा ज्यादा भाव बताती हौ ‘

‘’ जाओ  बाबूजी जाओ  ,शहर से सब्जी खरीदकर तो देखो ,अगर यहाँ से भाव कम निकले तो मेरा नाम बदल देना ‘’।‘वह हँसते हुए स्‍वाभाविक रूप से कह गयी ।

क्या नाम है तुम्हारा ? मैने बात का सिरा पकड़ा । ‘मेरा  नाम तो ममता है , क्‍यों? ‘

‘भाव कम निकले तो तुम्‍हारा नाम भी तो बदलना है’ । ‘क्या तुम पढ़ी-लिखी हो ममता ? ‘

‘ नहीं  बाबूजी , मुझे तो नाम लिखना भी नहीं  आता ‘।

‘अच्‍छा नाम लिखना तो मैं सिखा देता हूँ। तुम ध्‍यान से समझकर अभ्‍यास कर लेना। बहुत आसान है ।‘मैंने रेत पर उँग ली से रेखाएं खींचकर ममता को नाम लिखकर समझा दिया।                                                              ;              दूसरे  दिन मैं फिर स्कूल से लौटा तो सबसे पहले मैंने वही सवाल किया –‘क्या  तुमने नाम लिखने का अभ्‍यास किया  ?

मुस्‍कराते हुए उसने पास ही रेत पर उकेरे हुए अक्षरों की ओर इशारा किया । उसने कई जगह अपना   नाम लिख रखा था। मेरे सामने उसने  दुबारा लिखकर बता दिया । मैंने प्रस्ताव रखा –‘ ममता  अगर  तुम चाहो तो मैं रोज वापस लौटते समय तुम्हें  पढ़ना-लिखना सिखा सकता हूँ’ ‘ । मैंने एक  कॉपी और पेन उसे उसी समय दे दिया । अभ्‍यास के लिए  उसका नाम लिखकर नकल करने के लिए दे दिया ।

अगले दिन ममता के पास एक प्रोढ़ वय की स्त्री बैठी थी । मेरा अनुमान सही था , वह उसकी मां थी ।  परस्पर अभिवादन और परिचय के बाद उसकी मां ने बताया ‘,बाबूजी  बचपन में यह  स्कूल जाने की बहुत जिद करती थी । तब  हम लोग  उसी गॉंव में रहते  थे जहाँ आप  रोज पढ़ाने जाते हो । छोटे भाई-बहिन को संभालने ,घर का काम कराने और दो जून की रोटी कमाने के स्वार्थ के चलते हमने इसकी जिद का गला घोट दिया  था । ‘ एक बार फिर इसने जिद की है । अब आप इसका पढ़ाने के कितने पैसे लेंगे  ? ‘’

मैंने कहा माँजी एक ही शर्त है ,यह अगर सीखती  रहेगी तो मैं रोज आधा-एक घंटा स्कूल से वापस लौटते  समय यहीं पर बैठ कर  पढ़ा दिया करूंगा । लड़की  है ,पढ़-लिख  जाएगी तो यह धर्म-पुण्‍य  का काम ही होगा । एक लड़की पढ़ेगी तो सात पीढ़ी तरेगी। परन्तु मुझे लगा कि यह सीख नही पा रही है , तो मैं पढ़ाना बन्द कर दूँगा । ‘’ मैने कुछ और किताबें ममता को दे दी और अक्षर ज्ञान का सिनसिला  शुरू कर दिया।

साईकिल को एक ओर खड़ी करके मैं खजूर के पत्तों से बनी चटाई पर बैठ कर ममता को पढ़ाने लगा ।  कभी काई ग्राहक आ जाता तो उतनी देर के लिए हमें रुकना पड़ता ।ममता में गजब की ग्रहण शक्ति थी । एक बार जो बता दिया जाता उसे दुबारा समझाने की जरूरत नहीं  पड़ती थी ।अभ्‍यास  के लिए जितना दिया जाता उससे ज्यादा वह करती थी । मात्रा वाले  शब्‍द सीखना अपेक्षाकृत उसे कठिन लगा ,पर अभ्‍यास हो जाने के बाद वह तेजी  से वाक्य दर वाक्य पढ़कर समझने लगी । शुरू के कुछ  दिन उसकी मां सामने  बेठी रही । पर आश्‍वस्त होने के बाद कि उसकी बेटी सीखने में रुचि ले रही  है, वह अपने रोजमर्रा  के काम में पास  ही खेत में जुटी रहती।बीच  में एक दो बार आ जाती और मेरे   विरोध के बावजूद कभी-  कभी  एक थैले में सब्जी भरकर साईकिल पर टाँग  देती ।

लगभग तीन महीने में ममता ने हिन्दी पढ़ना  सीख लिया था । जब भी मैं उसे कोई नई कहानी की किताब पढ़ने को देता ,दूसरे दिन ढेर सारे कठिन शब्द  वह कागज प‍र लिखकर मेरे सामने रख देती ।  शब्दों के सन्दर्भ सहित अर्थ समझाना मेरी रूचि का विषय था ।एक बार मैंने उसे धार्मिक पुस्‍तक  ‘’सुखसागर की कथाएँ’’ जो मेरे पास पड़ी थी लाकर दे , दी तो वह विस्मित भाव से हँसने लगी –हे भगवान !इतनी मोटी किताब ! बाद में उसे वह पुस्तक  बहुत रुचिकर लगी ।   सामान्य जोड़,बाकी,गुणा,भाग में  में तो उसने  आशातीत गति से निपुणता प्राप्‍त कर ली थी । कुल मिलाकर मेरे  प्रयास और उसकी उपलब्धि संतोषजनक थी ।

दिसम्बर का महीना चल रहा था। ठंड अपनी पकड़ को मजबूत करने लगी थी । सूर्य जल्दी ही अस्‍ताचल की ओर  जाने लगा था । हमारे सीखने सिखाने का समय भी बहुत  कम हो गया था। अगले महीने से ममता को अंग्रेजी सिखाने की योजना मैने  मन ही मन बना ली थी  । हमारा विद्यालय भी उच्‍च प्राथमिक से  माध्‍यमिक में क्रमोन्‍नत हो चुका था ।

एक दिन अचानक प्राथमिक सेट अप के सभी अध्‍यापकों का स्थानान्तरण और उनके स्‍थान पर माध्‍यमिक सेट-अप के स्टॉफ  के पदस्‍थापन का आदेश आ गया था । मेरा स्थानान्तरण भी तीस कि;मी; दूर किसी गाँव में हो चुका था ।

स्कूल जाते समय ममता की मां मिल गयी । मैने स्थानान्तरण की बात बताई और कहा –अब मै कल से नहीं आ सकूंगा। आप ममता को ये और किताबें  दे देना और उसे पढ़ने के लिए प्रेरित करते  रहना ।

।वह बहुत उदास हो गई,बोली-‘’ मास्टर साहब इस जंगल में उसे कौन पढ़ाएगा ? भला हो आपका  जो उसे पढ़ना - लिखना सिखा दिया ।ज्योंही फुरसत मिलती है किताबों में खो जाती है।शाम को खाना खाने के बाद आस-पास के परिवार आ जाते है और उस मोटी सी किताब में से रोज कथाएँ सुनाती है । उसके  जीवन में एक तरह की नई  उमंग  आ गई है ।ससुराल में भी परिवार पढ़ा-लिखा नहीं है । पति भी अनपढ़ है । आगे राम करे सो काम है ।‘’

स्कूल में भी आज उदासी का माहौल  था। कुछ बालिकाएँ रोने लगी थीं । एक साथ  हम चार  अध्‍यापक  जा रहे थे ।

विदाई समारोह के बाद कार्यमुक्त होकर मैं वापस  घर के लिए रवाना  हो गया । सुबह से ही आकाश में बादल छाए हुए थे ।ठंडी हवा तीर की तरह चुभ रही थी ।मंथर  गति से साईकिल आगे बढ़ रही थी पर मन  में विचारों क बवंडर चल रहे  थे । ममता  को आगे पढ़ते रहने की प्रेरणा देने के लिए शब्‍दों का जाल बुनता जा  रहा था । पता ही नहीं चला कि कब मैं ममता के सामने जाकर खड़ा हो गया ।

ममता ‘’मैं जा रहा हूँ’’ मैंने  इतना ही कहा था कि उसकी आँखों से  टप टप आँसू गिरने लगे। मेरा भी गला रूंध गया था। मुँह से कोई शब्द निकलना मुश्किल था। भावनाओं के ज्वार को रोक पाने  की अक्षमता से आशंकित हो मैंने  साईकिल आगे बढ़़ा दी ।

समय पंख लगाकर उड़ता गया । ममता की स्मृति भी अतीत की धुंध में खो गयी थी।

कई वर्षों बाद संयोग से  एक दिन पास ही के एक कस्‍बे  में स्थित हमारे  गुरूजी के आश्रम में साधना-शिविर का  आयोजन  था । साधकों के लिए भोजन  व्यवस्‍था की  जिम्‍मेदारी मुझे दी गई  थी । अत: सुबह ही किसी को लेकर सब्जी –मंडी  में जाना  पड़ा ।एक बड़ी सी दुकान से मैंने सब्‍जी खरीदकर ऑटो  में रखवा दिया ।

भुगतान के लिए मेरा ध्‍यान  काउंटर पर गया । वहाँ ममता बैठी  थी ।दैखते ही पहचान गई ,बोली –सर , ‘’आप यहाँ  ! ‘’ ‘’हाँ ममता , यह संयोग ही है  जो मनुष्‍य को मनुष्‍य से मिला देता  है ।‘’मैंने विस्तार से  सारी  बात  बताई।

सर ,’’ इस दुकान के पीछे ही  मेरा ससुराल है । यह दुकान हमारी  ही है । पति पढ़े-लिखे नहीं है इसलिए हिसाब-किताब मैं ही संभालती हूँ ।आपने जो सिखाया था , उससे जीवन  में बहुत संम्बलन  मिला है । ‘’

‘’ लेकिन ममता,वह तो तुम्हारी सीखने की ललक और कुशाग्र बुद्धि का परिणाम था , अन्यथा  इसके बिना क्या सीखना संभव  होता  ?’’

‘’हाँ सर ,वह बोली – दीपक भी हो उसमें तेल भी भरा हो ,तेल से भीगी हुई बाती  भी हो , पर यदि उसे प्रज्‍ज्‍वलित  करने  वाली  चिनगारी न  हो तो क्या उजाला हो सकता है  ? सर,आश्रम में पधारे हुए  साधकों  के लिए आज  की सब्जी  मेरी  ओर  से’’ कहते हुए  दोनो हाथ जोड़कर ममता  ने  रूपए  वापस  दे  दिए ।


 

देवरानी-जेठानी- विजय राही

देवरानी-जेठानी

 बेजा लड़ती थी आपस में काट-कड़ाकड़

जब नयी-नयी आई थी दोनों देवरानी-जेठानी

 अपनी पर उतर जाती तो

बाप-दादा तक को बखेल देती

जब लड़ धापती पतियों के सामने दहाड़ मारकर रोती

 कभी-कभी भाई भी खमखमा जाते

लाठियाँ तन जाती

बीच-बचाव करना मुश्किल हो जाता

 कई दिनों तक मुँह मरोड़ती

टेसरे करती आपस में

भाई भी कई दिनों तक नहीं करते

एक-दूसरे से राम-राम

फिर बाल-बच्चे हुए तो कटुता घटी

सात घड़ी बच्चों के संग से थोड़ा हेत बढ़ा

जैसे-जैसे उम्र पकी

गोड़े टूट गए और हाथ छूट गए

दोनों बुढ़िया एक-दूसरे की लाठी बन गयी

 अब दोनों बुढ़िया

एक दूसरे को नहलाती चोटी गूँथती

जो भी होता बाँटकर खाती

एक बीमार हो जाये तो दूसरी की नींद उड़ जाती

 उनका प्रेम देखकर

दोनों बूढ़े भी खखार थूककर

कउ पर बैठने लगे हैं

साथ हुक्का भरते हैं

ठहाका लगाते हैं कोई पुरानी बात याद कर

 अन्दर चूल्हे पर बैठी

दोनों बुढ़िया भी सुल्फी धरती हुई

एक-दूसरे के कान में कुछ कहती हैं

और हँसती हैं हरहरार

आत्म शक्ति-डॉ.पुष्पिता अवस्थी - प्रोफेसर,लेखिका और कवयित्री नीदरलैंड


                                       डॉ.पुष्पिता अवस्थी                                                                                                                                             प्रोफेसर,लेखिका और कवयित्री                                                                                                                            नीदरलैंड

आत्म शक्ति

 

आंखों की कोरो के

तटबंध धसके है -

शब्द स्पर्श से.

आत्मा के भीतर

अभिषापित अहिल्या

अवतरित हुई है

जिसके आंसुओ को

जिया है।

मेरी आंखों ने

अहिल्या की आंखे बनकर।

 

आंखे साक्षी है

आत्मा की मुक्तावस्था

के सत्य की

उनके पास

आंसू के हस्ताक्षर हैं।

जो आत्मा की आंखो से

बहे हैं -

अविश्वसीय दुनिया के बीच

विश्वास के अपरिहार्य

क्षणों में

सैकड़ों दीवाने हैं आज भी सौलत की शायरी के - एम.असलम. टोंक


 सैकड़ों दीवाने हैं आज भी सौलत की शायरी के

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एम.असलम. टोंक

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टोंक के उस्ताद शायरों में हजरते सौलत का नाम आज भी बड़े अदब से लिया जाता है। वो ग़ज़ल के शायर थे, लेकिन उन्होंने शायरी की हर विधा में लिखा। ज़िंदगी में उनका कोई दीवान प्रकाशित नहीं हो सका। लेकिन उनकी शायरी के दीवाने जमाने में बहुत हैं। वो उर्दू, फारसी एवं अरबी के जानकार होने के साथ ही एक ऐसे शायर थे, जिनकी महफिल में मौजूदगी ही महफिल की कामयाबी का बाइस हुआ करती थी। उन्होंने हज़ारों शेर कहे, सैंकड़ों ग़ज़लें लिखी। लेकिन उनको अपनी हमदर्दी व काबिलियत के सिले में दुश्वारियों के सिवाए कुछ मिलता नज़र नहीं आया। 

 

"बाम व दर मतला ए अनवार नज़र आते हैं,

उनके आने के से आसार नज़र आते हैं। '

 

हजरते सौलत का नाम सैयद महमूदुल हसन सौलत टोंकी था। जो अरब में जनवरी 1898 में पैदा हुए। बचपन में ही उनके वालेदेन का इंतकाल हो गया था। बताया जाता है कि साहबजादा इकरामुद्दीन खां की वालिदा उनको हज पर जाने के दौरान वहां से कम उम्र में ही टोंक ले आई थी। 11 साल की उम्र में वो शायरी करने लगे।

 

"बहुत से रंज उठाए है ज़िंदगी के लिए,

हजार बार में रोया हूं इक हंसी के लिए।

ये बात क्या है कि तारीक है मेरी महफिल,

चराग़ लाख जलाए हैं राेशनी के लिए।'

 

टोंक के शायरों पर लिखी स्व. हनुमान सिंह की पुस्तक अंजुमन में लिखा है कि "जब भी टोंक में उर्दू शेरो शायरी का जिक्र आएगा हजरते सौलत का नाम अपने आप जुबान से फिसल जाएगा, एक जमाना था जब उर्दू शेरों शायरी की कोई भी महफिल तब तक मुकम्मल नहीं मानी जाती थी, जब तक कि हजरत सौलत तशरीफ नहीं ले आते थे।

 

"ये कैसी दिल रुबाई है निगाहें नाज़ कातिल में,

के पैदा कत्ल होने की तमन्ना हो गई दिल में'

 

सौलत साहब के निधन के बाद साहबजाद शौकत अली खां ने उनकी याद में ऑल इंडिया मुशायरा टोंक में करवाया तथा अपने इंस्ट्यूशन से एक जनरल उनको केंद्रीत करते हुए प्रकाशित भी करवाया था। दिल्ली के एक रिसाले शाने हिंद ने भी उनके कलाम को प्रकाशित किया।

 

"किसी करवट तो चैन आए किसी पहलू तो कल आए,

इलाही कोई सूरत तो तसल्ली की निकल आए। '

 

हजरते सौलत 1968 में दुनिया से रूखसत हो गए। लेकिन उनकी शायरी आज भी लोगों को प्रेरित करती है। उनकी शायरी की तारीफ कई नामवर शायर करते नहीं थकते हैं। उनके शार्गिदों की भी एक लंबी फेहरिस्त रही।

 

"यह किसी की याद ने ली चुटकियां दिल में मेरे "सौलत',

यह इक दम बैठे बैठे क्यो मेरे आंसू निकल आए।

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...