सोमवार, 15 जनवरी 2024

मकर-संक्रांति-उत्तरायणी: सांस्कृतिक-पर्व, पुस्यूड़िया- घुघुतिया त्यार, सूर्योपासना का पर्व है, ऋतु परिवर्तन का पर्व है मकर संक्रांति- बृजमोहन जोशी, लोककला मर्मज्ञ, नैनीताल

मकर-संक्रांति-उत्तरायणी: सांस्कृतिक-पर्व, पुस्यूड़िया- घुघुतिया त्यार, सूर्योपासना का पर्व है, ऋतु परिवर्तन का पर्व है  मकर संक्रांति

कुमाऊं में माघ मास को धर्म और पुण्य लाभ का माह माना जाता है। गंगा स्नान और ब्राह्मणों को विशेष रूप से घीं- खिचड़ी खिलाने का बड़ा महत्व है। कुमाऊं अंचल में मनाया जाने वाला यह अनूठा त्यार हैइसे 'काले कौवा या 'पुस्यूड़ियाघुघुतिया त्यार भी कहा जाता है। पौष मास के मासान्त की ढाल से सरककर आई हुई माघ की संक्रांति मकर संक्रांति कहलाती है। इस पर्व के पहले दिन गर्म पानी से स्नान किया जाता हैजिसे स्थानीय भाषा में 'तात्वाणीकहा जाता हैदूसरे दिन ठंडे पानी से स्नान किया जाता हैजिसे  'सेवाणी'  कहा जाता है। यह शीत ऋतु के अंत का द्योतक है। सेवाणी के दिन बच्चे सवेरे ही टोलियां बनाकर सारे गांव में घूमते हैंअपने से बड़ों को प्रणाम-पैलागन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। सभी घरों में इनका स्वागत किया जाता है और इन्हें भेंट स्वरूप गुड़ दिया जाता है। इसे प्रणाम- पैलागन कहने को जाना या गुड़ मांगने को जाना कहा जाता हैअर्थात गुड़ मांगने के बहाने बच्चों में शिष्टाचार की शिक्षा देना भी है। गुड़ व तिल तो कुमाऊं में प्रत्येक शुभ मांगलिक अवसरों पर बांटने की परंपरा है।

इस दिनदिन में गांव के सभी लोग नगाड़े,ढोल और निशाणं लेकर गिरखेत 'गीराखेलने का स्थान की ओर चल पड़ते हैं। अलग-अलग दल बनते हैं और गीरा खेला जाता है। 'गिटुआजिस दल की अंतिम सीमा रेखा को पार कर लेता है उसे 'हालूहो जाता है अर्थात वह दल हार जाता है। गिटुआ या गज्याडुं फुटबॉल की तरह है तथा उसे लूटने का खेल होता है। जिसमें बच्चेबड़े ,और बूड़े सभी लोग अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। उसे लूटते समय नगाड़ेढोल,दमामे  नृसिंहतुतुरी आदि लोक वाद्य-यंत्र बजते रहते हैंगिरखेत उस समय कुरुक्षेत्र का रूप ले लेता है। यह उत्सव मनोरंजन के साथ-साथ वीरता का जीवन बिताने की प्रेरणा देता। महिलाएं भी उत्सव में भाग लेती हैं उनके सुरीले कंठ से लोक गीतों के मीठे -मीठे बोल झरने लगते हैं।गीतों का भावार्थ यह होता है कि इस तरह सदा गिरखेत में मनोरंजन के लिए और घुघुती सग्यान पर्व को मनाने के लिए आते रहने की मंगलकामना करते हुए सभी लोग अपने घर लौट आते हैं।

घर आकर आटेगुड़घी की सहायता से ना-ना प्रकार के व्यंजन घुघुतेढाल,तलवारहुड़ुका,दाड़िम का फूल आदि बनाकर उसे घीं में तलकर एक डोरी में उन्हें नारंगी सहित गूथ-कर बच्चों के लिए लंबी माला बनाते हैं।

 मायके पक्ष व ससुराल पक्ष द्वारा भी घर में शीशु के लिए घुघुते की माला बनाई जाती है तथा त्यौहार के दिन उस शीशु के लिए भेंट स्वरूप भेजी जाती है। विशेष रूप से मामा के घर से आने वाली घुघुते की माला की बहन को प्रतीक्षा रहती है। प्रातः काल बच्चे घुघुते की माला पहनकर कौओं को बुलाते हैं। बागेश्वर में कहीं-कहीं प्रायः सरयू पार माघ संक्रांति की शाम को घुघुते बनाकर दूसरे दिन कौवा बुलाते हैंतथा सरयू वार कहीं-कहीं पौष मास के मासान्त की शाम को यह त्यौहार मनाया जाता है।

 तथा माघ मास की संक्रांति को प्रातः काल कौवा बुलाया जाता है कहा जाता है कि कौवा प्रातः काल बागेश्वर संगम में स्नान कर आता हैकौवा को घुघुतेलगड़-पूरीबडा़ दिए जाते हैं। कौवा जिसका उपहार सबसे पहले ग्रहण कर ले उसे श्रेष्ठ माना जाता हैकौवे द्वारा ले जाने के बाद छिपाई गई लगड़ -पूरी आदि पकवान बच्चों के द्वारा ढूंढ -ढूंढ कर गाय के बछड़े को खिलाई जाती है क्योंकि ऐसी लोक मान्यता हैकि इस त्यौहार से लगभग 15 दिन पहले 15 गते पौष की रात 22 दिसंबर को कौवा भूख से अचेत हो जाता है तथा वह रात सबसे लंबी रात होती है। पुस्युड़िया का कौवा बहुत चाटुकारिता से मानने वाला किस्सा भी है। बच्चे प्रातः काल कागा को बुलाते हैं और यह बाल गीत-गाते हैं-

ऐजा कवा ऐजाबांटि चुटि खैजा।उत्तरैणी ऐछाघुघुती लये रैछा।

केवल खाने का ही नहीं वरन बटी चुटि मिल-जुलकरमिल- बांटकर खाने का आमंत्रण और वह भी मानवेतर प्राणी के साथ कितनी अच्छी बात है।

बच्चे यह बाल गीत भी गाते हैं-

काले! काले! काले!

काले!कौवा काले।

 घुघुती माला खाले।

त्यर गलणा थेचूलोत्यर गलणा मेचूलो।

घुघूती माला खा ले।

ले कौवा पूरी मैं कैं दे भल भल दुल्हैणीं।

 ले कौवा बड़ मैं कै दे सुनक घण।

 काले कौवा कालेघुघूती माला खाले।

प्राचीन मान्यता है कि इस दिन कौवो को खिलाया गया यह पकवान कौवो के माध्यम से उनके पूर्वजों तक पहुंचता है। घुघुते की माला में हुड़का होता है जिसका मनोरंजन के साथ-साथ सांस्कृतिक महत्व भी है। माला में बनी तलवार उसे वीर बनाएगी। ढाल उसकी रक्षा करेगी। खिलौने उसका मनोरंजन करेंगे। घुघुते खाकर बच्चे कहते हैंघुघुते तो उड़ गए! घर के बड़े लोग भी इस खुशी में शामिल होकर अपने श्रम में लथपथ जीवन में अपूर्व आनंद का अनुभव करते हैं।

 

बर्फ की चट्टान - रामकिशोर मेहता


 

बर्फ की चट्टान

हमें लगा था

कि तुम्हारे पास तो

रीढ की हड्डी है

और  तुम्हारे पैरों के नीचे है

खुरदरी चट्टानी जमीन

इस नाउम्मीद समय में

हमें

बड़ी उम्मीद थी न्याय

कि कम से कम

तुम तो

कि इस फिसलन भरे रास्ते पर

सीधे खडे होकर

गर्त में जाती व्यवस्था को

रोक पाओगे।

पर अफसोस

तुम भी

उसी लुंज पुंज व्यवस्था के

हिस्से  निकले

और

हाँ

तुम्हारे पैरों के नीचे

चट्टान तो थी

पर  थी बर्फ की

जो दबाव के नीचे

पिघलती चली गई

और

तुम भी

फिसलते चले गए न्याय

रविवार, 14 जनवरी 2024

नदी से नाता  - मिथिलेश श्रीवास्तव


 नदी से नाता 

पानी दो किनारों के बीच से बहता हुआ गुजरता है 

निर्विध्न रास्ते में आई सारी रुकावटों को आगे धकेलते 

और धवस्त करते हुए अपने आप को ताज़ा और शीतल बनाये  हुए

विनाश को रोकने की पूरी कोशिश में 

पानी को मालूम है उसका थक कर किसी जगह रुक कर बैठ जाना 

प्रलय को आमंत्रण है एक नए और अस्वस्थ प्रलय का जिसका चेहरा 

हमने अभी तक देखा नहीं है | पानी रुकना नहीं चाहता

नदी बहते हुए चलती है|  

 

एक नयी सभ्यता जन्म लेती है पानी के दोनों तरफ़ 

गहरी रात में बहते पानी के धार में से सुरीले संगीत गाती नदी को 

अपनी नींद में भी महसूस कर सकता हूँ  

नदी का गाना सदियों पुराना है एक ही गीत को नदी हर पल हर रोज़ नहीं 

गाती है संगीत नदी के नए पानी के साथ ही नया हो जाता है 

हर रात मैंने रात के गहराने का इंतज़ार किया है 

हर रात मैंने नदी में  नए पानी के आने का इंतज़ार किया है 

चांदनी में नए पानी की चमक को देखने का इंतज़ार किया है 

और संगीत की नई स्वरलिपि को साफ़ साफ़ सुना है 

 

मेरे पुरखों के आने के पहले से नदी गाती हुई चली आ रही है   

नदी के  संगीत से पैदा हुए होंगे एक स्त्री और एक पुरुष 

इसी नदी के तट पर मेरे पुरखे एक के बाद एक आते गए होंगे 

नदी के संगीत पर थिरकते और अपने जीवन को 

नदी की तरह सरल और मानवीय बनाये रखते हुए 

हम सरल कहाँ रह गए एक दिन हम नदी से चालीस किलोमीटर दूर हुए 

और हमने लिखा नदी हमसे चालीस किलोमीटर दूर चली गयी 

फिर हमने नदी से एक हज़ार किलोमीटर दूर अपना आशियाना  बनाया और कहा 

नदी हमसे बहुत दूर चली गयी उसका पानी गन्दा हो गया उसमें तैरना असंभव हो गया 

उसकी काया नाले सरीखी हो गयी नदी से हमने धीरे धीरे 

संबंध-विच्छेद कर लिया नदी की आवाज़ें हम तक आनी बंद हो गयीं  

संबंधों का विरोधाभाष देखिये कि जल हमारा जीवन है क्योंकि नदी में पानी है और 

उसी पानी से हम अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं|  

 

नदी जब उफन  कर हमारे घरों में घुस जाती तो 

हम यही समझते नदी हमसे क्रोधित है 

चन्द्रमा और तारे हमसे नाराज़ हैं असहमत हैं 

हमें तब कहां पता था कि बर्फ पिघलती है तो नदी उफन  जाती है 

एक नया रहस्य हमने समझा बर्फ के पिघलने और नदी के उफनने के संबंध में 

नदी के पानी में पुरखों की राख है अधजली रह गई हड्डियां हैं 

पानी पर उनके हाथ और पैर के छापे हैं 

नदी के संगीत में उनके दुख का राग है  

 

नदी अब उदास रहती है 

उसके संगीत की जरुरत किसी को नहीं है 

रात भर राष्ट्रीय राजमार्ग पर घरघराती ट्रकों की आवाजाही 

फिसलता हुआ ब्रेक, अटकता हुआ गीयर और रौद्र रूप धारण करता एक्सेलरेटर 

और उनके बीच कभी नहीं बैठने वाला तालमेल   

हॉर्न और गति की आवाज़ें  नदी के संगीत के लय को प्राणहीन कर देती  हैं 

चांदनी की उसकी आदिम तीव्रता को  जिसमें लोग अपने लीकों को देखते थे

खंभे से लटकते हुए बिजली के बल्ब की पीली रोशनी ने ग्रस लिया है 

नदी आज भी गाती है खामोशी का गीत   

 

नदी जो अपने किनारों को नमीदार छायादार बनाये रखती 

आज उदास है अपने किनारों को पत्थरों में तब्दील होते हुए देख कर 

 

मुखशाला- मानस रंजन महापात्र ओड़िया से अनुवाद : राधू मिश्र


 मुखशाला

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प्यार में कुछ इस तरह बीत गया

एक पूरा जीवन,

जिससे भी मिला, लगा

न मिलता तो अच्छा होता,

और जिससे मिल न पाया

रात-दिन सताने लगी यादें उसी की।

 

कोई तो देख रहा, नहीं जानता

कब, कहाँ से, किस तरह

पर देख तो रहा है।

 

मुखशाला उस दिन से खड़ी है

टूट गई है, पर चमक उतरी नहीं।

 

समय के साथ यहाँ सहवास भी

कितनी मुश्किल है

गुजरते रहते लोग बेहिसाब,

बीच में एक अदृश्य झंडा उठाये

खड़े हैं हम किसी अनजान चौक पर,

मैं, मुखशाला और मेरे

कल, आज और कल।

 

कभी-कभी मन करता

सीमित इस जीवन को पसार दूँ

कुछ इस तरह कि कोई मुझे छू न पाए,

पर अगले ही पल कोई रोक लेता,

न जाने क्यों।

 

न चाहने पर भी मैं बंध जाता

हमेशा एक सीमित दायरे में।

 

आजकल दिनों को खबर नहीं

सरकारी घोषणाओं से चल रहा देश,

अवांछित अनजान जुलूसों में

बेशुमार भीड़,

बस, बहुत हो गया

अब खत्म हो यह सिलसिला,

बार-बार कहता मैं

पर यात्रा खत्म नहीं होती,

हर पल टूटता रहता मेरा मंदिर,

अब तो अजनबी यह मुखशाला,

अजनबी-सा लगता मेरा धुंधला अतीत,

पुराने कैलेंडर-सा टंगा मेरा

सारा इतिहास।

हर बार- डॉ.प्रभा मुजुमदार


 हर बार

इतिहास की एक निर्णायक घड़ी

पराजित और पस्त हो जाती है,

अपने हो अंतरद्वंदों और दुविधाओं की छाया में.

बेबस हो जाती हैं,

अराजकता की भरकम मुट्ठियों में ,

कुचली जाती हैं

तानाशाही बूटों के तले।

 किसी संभावना को जन्म देती आँच

एक विस्फोट बन कर

अपने ही ध्येय को जला देती है ,

या अवसाद की गहराती परतों में

राख बन कर जम जाती है।

एक विश्वास

जो संबल बन कर उगता है-

नाइंसाफ़ी, निराशा और अविश्वास के रेगिस्तान में,

किसी फुलवारी का सुगंधभरा अहसास लेकर...

दोपहर की तेज धूप से

मुर्झा जाता है ।

साहस और संकल्पों के

ऊँचे पर्वतों से उद्गामित

छोटा सा एक झरना,

 जिसे बदलना था

समय की प्रदूषित धाराओं को ,

थोड़ी ही दूर जाकर

नालों में बदल जाता है ।

एक सूरज, जो अपनी प्रखरता से

बदल सकता था

ऋतुओं की परिभाषाएं ....

उदय होते ही,

संशय और उपहास के बादलों से ढंक कर

निष्प्रभ: हो जाता है।

 ऐसा क्यों होता है कि हर बार

सपनें झुठला जाते हैं,

संकल्प, मजाक में बादल जाते हैं

और उम्मीदें

नागफणियों का रूप ले कर

डँसने लगती हैं ?

मुसोलिनी- हूबनाथ पांडे


 

मुसोलिनी

  

अपने समय का

सबसे महान

राष्ट्रभक्त मुसोलिनी

 इतना महान

कि वह स्वयं

राष्ट्र बन गया

राष्ट्र का अपमान

मुसोलिनी का अपमान

मुसोलिनी का अपमान

राष्ट्र का अपमान

 ऐसा पहली बार हुआ

किसी नेता ने

राष्ट्र का सर्वोच्च शिखर छुआ

 राष्ट्र बन जाने के बाद

मुसोलिनी ने ढूंँढ़े

राष्ट्रद्रोही

उन्हें सज़ा-ए-मौत दी

 फिर एक दिन

राष्ट्र को अहसास हुआ

कि एक व्यक्ति

कैसे पूरा राष्ट्र हो सकता है

 उसके बाद की कथा

इतिहास में दर्ज है

व्यक्ति का राष्ट्र होना

एक राष्ट्रीय मर्ज़ है

 जिसका इलाज

जितनी देर से होगा

राष्ट्र उतने दिन बीमार रहेगा

 अब यह राष्ट्र को तै करना है

कि राष्ट्रीय मर्ज़ को

कितने दिन तक सहना है

 

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...