गुरुवार, 4 जनवरी 2024

पगडंडिया- नरेश मेहन


 नरेश मेहन

पगडंडिया

 अपनी

पदचाप सुनना मुड़कर

अपने पैरों के

 निशान देखना

 कितना मधुर लगता है ।

झाड़ियों से

लताओं से

 बातें करना

भंवरों का

 संगीत सुनना

 लगता है

 कितना मनोरम।

जहां पर

हर कदम

हर ताल में

 संगीत की

रचना हो

तुम उनके संग

वह तुम्हारे संग।

 पगडंडियों का

 यह संगीत

 दुनिया भर की

हिंसक सड़को

 धुआं उगलते

वाहनों का

 कितना

मासूम सा जवाब है।

 पगडंडियां

 सदा सुहावनी

 मन-मोहक

अपनी सी लगती है

सड़कों पर

 परायेपन की

गंध आती है।

 हिंसा

 सड़कों का धर्म है स्नेह

 पगडंडियों का मर्म है ।

आओ

 स्नेह की महक से हिंसा की

गंध मिटाएं ।

 सड़कों की

 पथरीली- लयहीन

अंधी

दौड़ से बचें

 जड़ों से जुड़ना सीखे ।

अगर आप भी

 लेना चाहते हैं

प्रकृति के संगीत का

 भोरों की गुंजार का

पेड़ों से आती

 शीतल बयार का आनंद

तो पेड़ों को

काटो मत

झाड़ियों लताओं

को उखाड़ो मत

उनके बीच तलाशो

 कोई पगडंडी

जो थी कभी

हमारे आस-पास।

घुमन्तु - विजय राही

विजय राही

घुमन्तु 

शहर से दूर पटरियों के पास

कीकर-बबूलों के बीच में डेरे हैं उनके

यह एक सर्दियों की शाम थी जब हम मिले उनसे

जीव-जिनावर लौट रहे थे अपने-अपने दड़बों में 

बच्चे खेल रहे थे आँगन में पिल्लों के साथ

बच्चियाँ बना रही थी चूल्हे पर रोटी-साग

नीम की गीली लकड़ियाँ थीं

धुआँ दे रही थीं और जल रही थीं 

तिड़कती हुई आवाज़ के साथ

कड़ाई में रोटी सिक रही थी

जिसमें सब्जी बनी थी कुछ देर पहले

हवा में फैली थी उसकी चिरपरी गंध 

 मैंने पूछा कि तवे क्यों नहीं लेते काम

वे बोलीं "हम तो घुमन्तु हैं साब

कौन दस-दस बर्तन रखे पास"

और पारसी भाषा में बात कर हँसने लगीं

 "होली-दिवाली आते हैं हम गाँव

फिर लगा जाते हैं कच्चे-पक्के डेरों के ताले

साल-छह महीने में सँभालते हैं घर-बार

कोई मर भी जाता है तो नुक्ता दिवाली पे करते हैं

ताकि सब लोग शामिल हो सकें !"

मैंने पूछा- पढ़ते क्यों नहीं तुम लोग ?

पढ़कर भी नौकरी लगती नहीं है

बी.ए. की हैं डेरे के कुछ बच्चों ने 

पर कोई मतबल नहीं

सो हम तो घूमते रहते हैं सालों-साल

आसाम, महाराष्ट्र, कश्मीर, नेपाल

अरुणाचल, पश्चिमी बंगाल भी जाते हैं

पन्द्रह दिन का परमिट बनवाते हैं

फुटपाथ पर सो जाते हैं 

पुलिस परेशान भी करती है

पर क्या करें! यहाँ भी कोई काम-धंधा नहीं है

 

दो लोग तो उधर ही मर गया हमारा गुजरात में 

साँप खा गया था उनको 

फिर भी पेट की ख़ातिर बाहर जाना पड़ता है

घूमना ही हो गया अब तो हमारा सुभाव

लॉकडाउन में गुवाहटी में फँस गए थे

निकल गई थी आख़िरी ट्रेन

बसें भी हो गई थी बन्द सब

ट्रक में बैठे थे आने के लिए अपने देस जयपुर

लाठी-चार्ज कर दिया पुलिस ने 

गोद में सो रहे बच्चे के पड़ गई लाठी उतरती-सी

गड़वा दिया पुलिस ने जेसीबी से

बच्चे के फूफा की मौज़ूदगी में

बाप क्वारन्टाईन था छुट्टी नहीं मिली उसको

हमारे दादा-परदादा बैल बेचा करते थे

वे गुजरात जाते थे बैल खरीदते थे 

देशभर मेलों में बेचते थे

इस मशीनी युग में बैलों को कौन पूछता है

अब हम दिल्ली सदर बाज़ार से बैलून खरीदते हैं 

और लालबत्ती चौराहों पे बेचते हैं

बुधवार, 3 जनवरी 2024

3 जनवरी, सावित्रीबाई फुले को राष्ट्र की शक्तिशाली महिला के रूप में याद करने का दिन है, जिन्होंने शिक्षा के माध्यम से सम्मानजनक जीवन की राह दिखाई: डॉ.कमलेश मीना।

 डॉ.कमलेश मीना,
सहायक क्षेत्रीय निदेशक,
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, इग्नू क्षेत्रीय केंद्र भागलपुर, बिहार।
 इग्नू क्षेत्रीय केंद्र पटना भवन, संस्थागत क्षेत्र मीठापुर पटना। शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार।




 

3 जनवरी, सावित्रीबाई फुले को राष्ट्र की शक्तिशाली महिला के रूप में याद करने का दिन है, जिन्होंने शिक्षा के माध्यम से सम्मानजनक जीवन की राह दिखाई: डॉ कमलेश मीना।

3 जनवरी हम सभी प्रत्येक के जीवन का ऐतिहासिक दिन है। हमें इस दिन को महिला सशक्तिकरण के लिए एक क्रांतिकारी दिन के रूप में याद रखना चाहिए। फुले दंपत्ति ने अपने साहसी समर्पण, जुनून, बलिदान और करुणा के माध्यम से हमारे शोषित, निराश, वंचित,गरीब और हाशिए के लोगों के लिए शिक्षा के द्वार खोले। यह अपने आप में एक महत्वपूर्ण गंभीर हालात का निर्णायक युग था। फुले दंपति अंधकार और सामंतवाद के दौर में सभी को शिक्षा के लोकतंत्रीकरण के लिए अब तक हमारी सबसे अमीर विरासत बने रहेंगे। सावित्रीबाई फुले हमारे समाजों के लिए शिक्षा योगदान के माध्यम से तर्कवाद और सशक्तीकरण का प्रतीक है। सावित्रीबाई फुले का विवाह 1841 में ज्योतिराव फुले से हुआ था। सावित्रीबाई फुले भारत के पहले लड़कियों के स्कूल की पहली प्रिंसिपल और पहले किसान स्कूल की संस्थापक थीं। महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में 3 जनवरी 1831 को जन्‍मी सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका थी। इनके पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले शिक्षक होने के साथ भारत के नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता, समाज सुधारक और मराठी कवयित्री भी थी। इन्‍हें बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए समाज का कड़ा विरोध झेलना पड़ा था। कई बार तो ऐसा भी हुआ जब इन्हें समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाने पड़े। महिला अधिकार के लिए संघर्ष करके सावित्री बाई ने जहां विधवाओं के लिए एक केंद्र की स्थापना की, वहीं उनके पुनर्विवाह को लेकर भी प्रोत्साहित किया।

राष्ट्र और हम स्वर्गीय माता सावित्रीबाई फुले को उनकी 192वीं जयंती पर पूरे सम्मान और समर्पित भाव से पुष्पांजलि दे रहे हैं। माता सावित्री बाई फुले वास्तविक अर्थों में महिला सशक्तीकरण की प्रतीक हैं। हम माता सावित्री बाई फुले की 192वीं जयंती पर देश की महान आत्मा स्वर्गीय माता सावित्री बाई फुले को पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। वह भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं जिन्होंने अंधेरे युग में शोषित, निराश, वंचित, हाशिए और गरीब लोगों के लिए स्कूल खोला। उन्होंने हमारी बेटियों, बहनों, माताओं को अपने पति और महामना ज्योतिबा राव फुले साहब के साथ पढ़ाया। आजादी के पहले तक भारत में महिलाओं की गिनती दोयम दर्जे में होती थी। आज की तरह उन्‍हें शिक्षा का अधिकार नहीं था। वहीं अगर बात 18वीं सदी की करें तो उस समय महिलाओं का स्कूल जाना भी पाप समझा जाता था। ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने जो कर दिखाया वह कोई साधारण उपलब्धि नहीं है। वह जब स्कूल पढ़ने जाती थीं तो लोग उन पर पत्थर फेंकते थे। इस सब के बावजूद वह अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकीं और लड़कियों व महिलाओं को शिक्षा का हक दिलाया। उन्हें आधुनिक मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है। भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर 1848 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की थी। उस समय जब लड़कियों की शिक्षा पर सामाजिक पाबंदी बनी हुई थी, तब सावित्री बाई और ज्योतिराव ने वर्ष 1848 मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की थी।

सावित्री बाई आज तक भी वह हम सभी के लिए एक ध्रुव तारा हैं, जिन्होंने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, न्यायिक और संवैधानिक अधिकारों के लिए शिक्षा का मार्ग दिखाया। सावित्रीबाई फुले ने मानव समाज के मूल्य को बढ़ाने के लिए लोकतंत्र में समान रूप से भागीदारी के लिए जोर दिया। मुझे गर्व है कि 21 से अधिक वर्षों से मैं अपने सबसे बड़े सामाजिक न्याय आंदोलन और हमारे महामनाओं और सामाजिक नेताओं के सम्मान का आंदोलन "BAMCEF" से जुड़ा हुआ हूं। बामसेफ हमारे सामाजिक नेताओं के सम्मान का आंदोलन है। बामसेफ समानता, न्याय, लोकतंत्र में संवैधानिक भागीदारी और सभी के लिए आर्थिक, सामाजिक भागीदारी, राजनीतिक रूप से सशक्तिकरण, शैक्षिक अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए सामाजिक क्रांतिकारी आंदोलन है।  उस जमाने में गांवों में कुंए पर पानी लेने के लिए दलितों और नीच जाति के लोगों का जाना उचित नहीं माना जाता था, यह बात उन्हें बहुत परेशान करती थी, अत: उन्होंने दलितों के लिए एक कुंए का निर्माण किया, ताकि वे लोग आसानी से पानी ले सकें। उनके इस कार्य का खूब विरोध भी हुआ, लेकिन सावित्री बाई ने अछूतों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने का अपना कार्य जारी रखा। फुले दंपति को महिला शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के लिए सन् 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सम्मानित किया था, सावित्री बाई के सम्मान में डाक टिकट तथा केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने उनकी स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की है।

 

दोस्तों, 3 जनवरी भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है और इस ऐतिहासिक दिन 3 जनवरी 1831 को ऐसी एक साहसी और दूरदर्शी महिला माता सावित्री बाई फुले ने हमारे समाज में आशा की किरण के साथ जन्म लिया। वह न केवल हमारी महिलाओं के लिए एक ध्रुव तारा थीं, बल्कि वह शिक्षा और संवैधानिक समानता की समझ के लिए हमारे सभी मानव समाजों की अग्रणी थीं। स्वर्गीय महानायिका माता सावित्री बाई फुले की आज 192वीं जयंती है। यह उनके उल्लेखनीय योगदान, उपलब्धियों और शैक्षिक प्रयासों, सामाजिक समर्पण को याद करने और हमारी पीढ़ी के लिए उनकी दूरदर्शी अवधारणा को याद करने का दिन है। यह महानायिका माता सावित्री बाई फुले के जीवन के संघर्ष, उसके बलिदानों और उसके जीवन के दर्दनाक क्षणों को याद करने का दिन है जब उसने हमारे लिए तथाकथित नेताओं, शिक्षित, बुद्धिमान और सामंतवाद के युग में उस महत्वपूर्ण परिस्थितियों में असहनीय व्यवहार का सामना किया। वह महामना ज्योतिबा फुले साहब की जीवन साथी थीं और वह हमेशा उस समय समाज के लिए अपनी महान सेवाओं के लिए ज्योतिबा फुले साहब के नेतृत्व के साथ खड़ी रही। आज हम स्वर्गीय माता सावित्री बाई फुले को उनकी 192वीं जयंती पर उनके जन-जीवन और शिक्षा के माध्यम से उनके जीवन की उपलब्धि को याद करने के साथ उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य और सच्चाई है कि वह भारत में पहली महिला शिक्षिका थीं और उन्होंने उत्पीड़ित, निराश, हाशिए पर और गरीब लड़कियों और महिलाओं को उस समय शिक्षा दी थी जब हमारे लोगों के पास कोई अधिकार नहीं था। गर्व से मैं, 2001 से सामाजिक न्याय आंदोलन के एक सदस्य और अभिन्न अंग के रूप में,अपने समाज को माता सावित्री बाई फुले जैसी सामाजिक नेताओं के ज्ञान, अनुभव, शिक्षा और बलिदान की सूचना देने के लिए निरंतरता और विभिन्न तरीकों और प्लेटफार्मों के माध्यम से बहुत प्रयास कर रहा हूं। आज गर्व से मैं आपको बता सकता हूं कि अब हमारे लोग, युवा मित्र, पीढ़ी और व्यक्ति हमारे इतिहास और हमारे सामाजिक नेताओं को जानने के लिए मजबूर हैं और वे वास्तविक इतिहास को जान रहे हैं जो षड्यंत्रों द्वारा हमसे और हमारी पीढ़ी से छिपा हुआ था। हम वास्तविक ज्ञान, शिक्षा, अनुभव और ऐतिहासिक तथ्यों को लेते हुए षड्यंत्रकारियों के जीवाश्मों और सीमाओं को तोड़ और खोद रहे हैं। यह अविस्मरणीय ऐतिहासिक तथ्य है कि सावित्री बाई फुले और फातिमा बीबी के साथ महामना ज्योतिबा फुले ने 1848 में भिड़े वाडा में पुणे में भारत का पहला गर्ल्स स्कूल स्थापित किया था, लेकिन यह लंबे समय तक हमें नहीं पढ़ाया गया और न ही दिखाया गया। आज हमारे पास जो भी शैक्षिक स्थिति है, वह माता सावित्री बाई फुले, महामना ज्योतिबा फुले साहब और फातिमा बीबी द्वारा किए गए प्रयासों के कारण थी। वे शिक्षा, संवैधानिक लड़ाई, समानता, न्याय और राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और संस्थागत रूप में लोकतंत्र में समान भागीदारी के लिए हमारे अग्रणी थे। उन्होंने शिक्षा के माध्यम से सम्मानजनक और समृद्ध जीवन का मार्ग दिखाया और माता सावित्री बाई फुले ने उस आंदोलन का नेतृत्व किया। माता सावित्री बाई फुले ने काले लोकतंत्र और सामंतवादी शासन के युग में सामाजिक न्याय आंदोलन का नेतृत्व किया, जहां राष्ट्र के उत्पीड़ित, निराश,हाशिए और गरीब लोगों के लिए कोई अधिकार नहीं थे और न ही कोई उनकी शिक्षा,समानता, न्याय और भागीदारी के बारे में कुछ कहने की हिम्मत कर सकता थे। लेकिन हमें आभारी होना चाहिए कि यह ब्रिटिश शासन का युग था, न कि तथाकथित राष्ट्रवादी और न ही तथाकथित बुद्धिमान मानव समाज का शासन था। अठारहवीं शताब्दी ने शिक्षा, समानता, सामाजिक सशक्तीकरण, राजनीतिक भागीदारी और समावेश का मार्ग तैयार किया और इस सदी में सौभाग्य से ब्रिटिश शासन ने कई सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक नेताओं को प्रशिक्षित और उनका पालन-पोषण किया और यहां से लोकतंत्र और सुशासन में समावेशी भागीदारी का रास्ता खुला। सौभाग्य से 18वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य के दौरान हमें कई उदार गवर्नर मिले जिन्होंने हमारे लोगों के लिए शानदार काम किया जैसे कि लॉर्ड मैक्ले,विलियम बेंटिक, सर चार्ल्स, लॉर्ड डलहौज़ी,1853 का चार्टर एक्ट और शिक्षा के क्षेत्र में एलिब्नबोरोफ़ आदि ने हमारे लोगों के लिए शानदार काम किया जैसे रेलवे, डाक सेवा, कानून व्यवस्था द्वारा सुशासन और सामाजिक बुराइयों को समाप्त करना आदि। 3 जनवरी हमारे बहादुर और प्रेरणा प्रतीक शक्ति सावित्री बाई फुले को उनकी 192वीं जयंती पर पूर्ण सम्मान और हमारे संविधान द्वारा हमें जो भी जिम्मेदारी दी गई है, उसके लिए हमारे लोगों के जीवन के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्धता और जवाबदेही देने की शक्ति प्रदान करने का दिन है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे सामाजिक नेता जैसे महात्मा ज्योतिबा फुले साहब, सावित्री फुले, फातिमा बेगम, शेख उस्मान शेख, सैयद अहमद खान आदि उस युग में पैदा हुए थे, जहां हमारे लोग शिक्षा, न्याय और लोकतांत्रिक भागीदारी, समानता जैसे बुनियादी मानव अधिकारों के लिए पात्र नहीं थे। अब हम उस युग के बारे में कल्पना कर सकते हैं, जिसका वे सामना कर रहे थे और विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने हमारे लिए कई उल्लेखनीय चीजें हासिल कीं जो आज हमारी ऊर्जा और साहस का शक्तिशाली स्रोत है। इस प्रकार के अवसरों और दिनों पर, हमें गौरवशाली इतिहास और बलिदानों, मानव जीवन के संकट और काले दिनों को याद दिलाने के लिए आगे आना चाहिए जिसमें हमारे लोग जी रहे थे। एक शिक्षाविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और उत्पीड़ित, दबे और हाशिए पर खड़े समाज के रूप में, उन्होंने जाति और लैंगिक असमानता, भेदभाव और सामंतवाद की मानसिकता के खिलाफ लड़ाई लड़ी। फुले दंपति ने हमें शिक्षा सुधार, सामाजिक कुरीतियों को खत्म करने और संवैधानिक अधिकारों, लोकतंत्र और सुशासन आदि में भागीदारी के माध्यम से समानता, न्याय और मानवता का पाठ पढ़ाया। सावित्री बाई फुले अब तक के भारतीय इतिहास की महान महिलाएं थीं लेकिन हमें जानबूझकर और षड्यंत्रकारियों द्वारा समाज के लिए उनकी उपलब्धियों, उल्लेखनीय योगदान और उनके जीवन के काम से वंचित किया जा रहा था। 3 जनवरी का दिन, आज जो भी मंच, क्षमता और तरीके हमारे पास हैं, उनके माध्यम से व्यापक प्रचार, प्रकाशन दें ताकि हमारे मिशनरी और दूरदर्शी काम को हमारी सामूहिक जिम्मेदारी और प्रयासों के माध्यम से बढ़ाया जा सके। सावित्री बाई फुले महात्मा ज्योतिबा फुले साहब द्वारा स्थापित "सत्यशोधक समाज" की महिला शाखा की प्रमुख थीं, जो वंचित, उत्पीड़ित समुदाय और कमजोर वर्ग के सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों को शिक्षित करने और बढ़ाने के लिए थीं। यह अपने आप में एक प्रेरणादायक कहानी है कि सावित्री बाई फुले, जो अपनी शादी के समय पढ़ना या लिखना नहीं जानती थीं, महात्मा ज्योतिबा फुले साहब ने उन्हें अपने घर पर पढ़ाया था। इन बातों को हमारे लोगों को पता होना चाहिए कि हमारे जीवन में शिक्षा का कितना महत्व है और हमारे लोगों के बीच सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और संवैधानिक रूप से जागरूकता की अवधारणा को कैसे विकसित किया जाए। सावित्रीबाई फुले ने अपने समय में दलितों, शोषितों, वंचितों और हाशिये पर रहने वाले गरीब लोगों के लिए अपनी सामाजिक सेवाओं के कारण सबसे खराब परिस्थितियों का सामना किया। उस समय तथाकथित लोगों ने सावित्रीबाई फुले की महिलाओं और कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक रूप से जागरूकता कार्यक्रमों के कारण कई तरह के उत्पीड़न और अपमान किए, लेकिन उन्होंने शिक्षा सुधार के माध्यम से समाज के लिए अपने मिशनरी काम को कभी नहीं रोका और उन्होंने सभी प्रकार की अतार्किक गतिविधियों, बाल विवाह, बालिकाओं को शिक्षा से वंचित करना और सतीप्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियां, रूढ़िवादी गतिविधियों के खिलाफ विद्रोह किया। सावित्रीबाई फुले उस समय देश भर में महिलाओं के लिए बहादुरी की प्रतीक थीं और एक महिला जो उन्होंने सभी प्रकार के जाति, रंग और धार्मिक भेदभाव और गरीब लोगों के लिए अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी। वह महामना ज्योतिबा फुले साहब की मजबूत दिल की पत्नी थीं और उन्होंने अपने सामाजिक आंदोलनों के लिए फुले साहब को हमेशा पूरा समर्थन दिया। ऐसी महान हस्त‍ी सावित्री बाई फुले का पुणे में लोगों का प्लेग के दौरान इलाज करते समय वे स्वयं भी प्लेग से पीड़ित हो गईं और उसी दौरान 10 मार्च 1897 को उनका निधन हो गया था। सावित्री बाई फुले भारत की ऐसी पहली महिला शिक्षिका थीं, जिन्हें दलित लड़कियों को पढ़ाने पर लोगों द्वारा फेकें गए पत्थर और कीचड़ का सामना भी करना पड़ा।

3 जनवरी हमें समाज के लिए सावित्रीबाई फुले की विरासत, सामाजिक और शैक्षिक योगदान की याद दिलाता है। सावित्रीबाई फुले अपनी जबरदस्त सामाजिक ताकत और योगदान के लिए अंधेरे आकाश में हमारी ध्रुव तारा बनी रहेंगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 19वीं सदी में जो भी सामाजिक नेता मिले, उसका श्रेय इस युगल के सामाजिक और शैक्षिक प्रयासों और ईमानदार समर्पण और बलिदानों को जाता है। उन्होंने उनके लिए रास्ते बनाए, उन्होंने शुरुआती समस्याओं का समाधान किया, उन्हें अपमान का सामना करना पड़ा, उन्होंने सामाजिक मुद्दों को हल किया और उन्होंने हमारे बच्चों के लिए उस समय की शिक्षा के लिए दरवाजे खोले और सामाजिक भेदभाव, अछूतों के खिलाफ उनकी लड़ाई से 19वीं सदी में हमारी नई पीढ़ी को फायदा हुआ।

मित्रों, मैं इस आशा और अपेक्षाओं के साथ राष्ट्र की इस महान आत्मा को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं कि आने वाले दिनों में हम अपने स्वयं के शासन और लोकतंत्र में पूर्ण भागीदारी के साथ सभी को समान अधिकार देने के लिए धन्य होंगे, जैसा कि हमारे सामाजिक नेताओं को उनकी सामाजिक लड़ाई के माध्यम से उम्मीद थी। सावित्री बाई फुले ने बाल विवाह और सती प्रथा के आंदोलन का नेतृत्व किया। उसने विभिन्न स्तरों और विभिन्न समाजों में जाति और लैंगिक पक्षपात के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उसने शिशु हत्या का विरोध किया, उसने विधवाओं के पुनर्विवाह की वकालत की। सावित्रीबाई फुले ने जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए काम किया और शोषित, दमित, वंचित और गरीब लोगों के लिए शिक्षा को बढ़ावा दिया। भारत में पहली बार, उसने बिना किसी धार्मिक विश्वास और गैर रूढ़िवादी रीति-रिवाजों के बिना, बिना दहेज के विवाह का आयोजन किया। 28 नवंबर 1890 को महात्मा ज्योतिबा फुले साहब के निधन के बाद, सावित्रीबाई फुले 'समाज' की अध्यक्ष बनीं। यह घटना उस समय सभी समाजों के लिए अपने आप में एक अद्भुत कदम थी। 3 जनवरी हमारे युवाओं को ज्ञान देने के लिए उनकी उल्लेखनीय विरासत को याद करने का दिन है। सावित्रीबाई फुले तर्कवाद, शिक्षा और साहसी व्यक्तित्व की प्रतीक थीं। यह दिन हमें अपनी शैक्षिक प्रगति और विकास की समीक्षा करने के लिए प्रेरित करता है। आइए हम लोगों के जीवन की जिम्मेदारी लेने और लोकतंत्र में समान भागीदारी और सुशासन के लिए आगे आएं। आइए हम अपने सामाजिक न्याय आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए हाथ मिलाएं और अपनी उल्लेखनीय उपलब्धियों और विरासत को याद करने के लिए हमें सावित्रीबाई फुले जैसे सामाजिक नेताओं की विरासत को आगे बढ़ाना चाहिए। यह संवैधानिक सुधार और लोकतांत्रिक रूप से मजबूती से भागीदारी के लिए सामूहिक रूप से हाथ मिलाने का दिन है। 3 जनवरी भारतीय इतिहास में माता सावित्रीबाई फुले के जन्म दिन के कारण अविस्मरणीय दिन रहेगा। 10 मार्च 1897 को सावित्रीबाई फुले की प्लेग के कारण मृत्यु हो गई। आइए हम अपने सामाजिक नेताओं की विरासत के माध्यम से राष्ट्र की आत्मा को बचाने के लिए आगे आएं। मैं संवैधानिक सुधार के माध्यम से समानता,न्याय के लिए पूरी जवाबदेही और प्रतिबद्धता के साथ स्वर्गीय माता सावित्रीबाई फुले को उनकी 192वीं जयंती पर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। सावित्रीबाई फुले ने अपने समय में दलितों, शोषितों, वंचितों और हाशिये पर रहने वाले गरीब लोगों के लिए अपनी सामाजिक सेवाओं के कारण सबसे खराब परिस्थितियों का सामना किया। उस समय तथाकथित लोगों ने सावित्रीबाई फुले की महिलाओं और कमजोर वर्गों के लिए शैक्षिक रूप से जागरूकता कार्यक्रमों के कारण कई तरह के उत्पीड़न और अपमान किए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 19वीं सदी में जो भी सामाजिक नेता मिले, उसका श्रेय इस युगल के सामाजिक और शैक्षिक प्रयासों और ईमानदार समर्पण और बलिदानों को जाता है। उन्होंने उनके लिए रास्ते बनाए, उन्होंने शुरुआती समस्याओं का समाधान किया, उन्हें अपमान का सामना करना पड़ा, उन्होंने सामाजिक मुद्दों को हल किया और उन्होंने हमारे बच्चों के लिए उस समय की शिक्षा के लिए दरवाजे खोले और सामाजिक भेदभाव,अछूतों के खिलाफ उनकी लड़ाई से 19वीं सदी में हमारी नई पीढ़ी को फायदा हुआ। कुल मिलाकर आज हम बाबा साहब भीम राव अंबेडकर साहब के प्रयासों के माध्यम से एक अनूठा संविधान पा सके हैं और बाबा साहब फुले दंपति के सामाजिक, शैक्षिक प्रयासों और ईमानदार समर्पण, बलिदानों का परिणाम थे। हम आज एक सम्मानजनक स्थिति पा सके अन्यथा आज की स्थिति,आज का युग और चित्र बिलकुल अलग और निराशाजनक होता। सावित्रीबाई फुले का संघर्ष देश की बुराइयों के खिलाफ था, उन्होंने बिना किसी डर और भेदभाव के सबके हिस्से की लड़ाई लड़ी। हमारे देश में ऐसे बहुत कम व्यक्तित्व पैदा हुए जिन्होंने न्याय, संवैधानिक अधिकार और समानता के लिए आवाज उठाई। महात्मा ज्योतिबाफुले और माता सावित्रीबाई फुले उनमें से एक थे जिन्होंने आम जनता के लिए लड़ाई लड़ी, जो उस समय के तथाकथित बुद्धिमान समूहों द्वारा सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, राजनीतिक और धार्मिक रूप से पिछड़े, वंचित और उत्पीड़ित थे।

आइए हम इस समृद्ध विरासत और शिक्षा सांस्कृतिक विकास के गंभीर दौर को याद करें, ताकि लोकतंत्र में समान वितरण के माध्यम से और सुशासन के लिए लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए हमारे सामूहिक योगदान दे सकें।

सावित्रीबाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षिका कहा जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन महिला सशक्तिकरण के लिए समर्पित कर दिया। सावित्रीबाई फुले एक महान समाज सुधारक, दार्शनिक, कवयित्री और शिक्षाविद् भी थीं। उनकी कविताएँ ज्यादातर प्रकृति, शिक्षा और जाति व्यवस्था के उन्मूलन पर केंद्रित थीं। आज 21वीं सदी में भी माता सावित्री बाई फुले महिला सशक्तिकरण की सच्ची प्रतीक हैं। भारत की सच्ची समर्पित, ईमानदार, प्रतिबद्ध और दृढ़निश्चयी महिला थीं जिन्होंने अपने ईमानदार , विचारशील और दूरदर्शी प्रयासों के माध्यम से महिलाओं और भारतीय समाज के सभी कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए अपना पूरा जीवन बलिदान कर दिया। उन्होंने सभी मनुष्यों को सबसे पहले शिक्षा की अवधारणा के साथ काम किया। ऐसी महान महिला शख्सियत की आज 192वीं जयंती है, जिन्होंने हमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय, भाईचारा और हर इंसान के लिए सम्मान का रास्ता दिखाया।

सावित्रीबाई फुले ने अपना पूरा जीवन महिलाओं के अधिकार के लिए संघर्ष करते हुए बिता दिया। देश की पहली महिला शिक्षक होने के नाते उन्होंने समाज के हर वर्ग की महिला को शिक्षा के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया।

आइए हम लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों के माध्यम से लोकतंत्र में सम्मान, समानता, न्याय, समान भागीदारी और आनुपातिक साझेदारी प्राप्त करने के लिए सावित्रीबाई फुले और महात्मा ज्योतिबाफुले साहब की विरासत को पुनर्जीवित करने के लिए आगे आएं।

सावित्रीबाई वास्तव में साहसी महिला थीं जिन्होंने भारत में सबसे पिछड़े, हाशिए पर, वंचित और उत्पीड़ित समुदायों की सेवा के लिए अपना पूरा जीवन बलिदान कर दिया, जो शैक्षिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, भावनात्मक और संवैधानिक रूप से बहुत पिछड़े थे। हम भारत के महान सर्वोच्च व्यक्तित्व को उनकी 192वीं जयंती पर भावभीनी पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। हम अपने सभी सबसे पिछड़े लोगों को अपनी ईमानदारी के प्रयासों से, चाहे हमारे पास जो भी क्षमता हो, सशक्त बनाने के लिए उनके मार्ग पर चलने का संकल्प लेते हैं।

आरज़ू ग़ज़ल संग्रह- मेहबूब अली 'मेहबूब' समीक्षा— एम.असलम

                                                                            एम.असलम


    कला-साहित्य के क्षेत्र में टोंक किसी से कम नहीं है। यहां पर शायरी के क्षेत्र में कई नामवर, बा-कमाल शायर पैदा हुए। जिनका लौहा आज भी देश-दुनिया मानती है। अख़्तर शीरानी, मुश्ताक़ अहमद युसूफ़ी, बिस्मिल सईदी, मख़्मूर सईदी, जगन्नाथ शाद, उत्तमचंद चंदन जैसे शायरों की शायरी यहां परवान चढी तथा कई नामवर शायर यहां हर दौर में पैदा होते रहे हैं। उर्दू जगत में उनका नाम बड़े ही अदब से आज भी लिया जाता है। आज भी टोंक के शायर डा. जिया टोंकी देश-दुनिया में अपनी शायरी की महक बिखेरते नजर आते है। हाल ही में एक शायर जो टोंक जिले के छोटे से गांव पचेवर, मालपुरा में पैदा हुए तथा टोंक की शायराना तहज़ीब को परवान चढा रहा हैं। जिले के वो मेहबूब शायर के रुप में अब देखा भी जाने लगा है। उनका नाम मेहबूब अली तथा तख़ल्लुस मेहबूब है। वर्तमान में मेहबूब अली 'मेहबूब' जयपुर ग्रामीण के दूदू में शिक्षक के पद पर कार्यरत है। लेकिन उनकी शायरी के ज़रिए दी जा रही शिक्षा प्रेरित होने के साथ ही ग़ज़ल को एक नई दिशा भी देती नजर आती है। हालांकि शायरी का क्षेत्र इतना पुराना एवं तवील है, जहां ऐसा लगता है कि नया कुछ भी नहीं है, चाहे कोई ख़्याल, अशआर व अभिव्यक्त किए गए शब्द नई ज़मीन पर ही लिखे क्यों ना गए हो। वो भी ऐसे लगते है कि पहले लिखे जा चुके हैं। लेकिन मेहबूब अली 'महबूब' ने पुरानी ज़मीन पर भी नई महक देने की आरज़ू के साथ अपनी शायरी का सफर शुरू किया है। 28 जून 1981 में पैदा हुए मेहबूब अली 'मेहबूब' का शायरी का सफर हालांकि उनके स्कूल समय में ही शुरू हो गया था। लेकिन अब वो पुख़्तगी के साथ मंजरे आम पर आने लगा है। वो लिखते हैं :-

दोस्त, चाहत, निस्बतें सब ही फ़साना हो गया,

गाँव की गलियों से गुजरे इक ज़माना हो गया।

मालो ज़र से हो रही हैं रिश्तों की पैमाइशें।

कितना मुश्किल आजकल रिश्ते निभाना हो गया ।।

अब नसीहत बाप की भी लगती है उसको फ़िज़ूल ।

दो किताबें क्या पढी बेटा सयाना हो गया ।।

चाहता है गाँव कौन अपना खुशी से छोड़ना,

क्या करूँ जब शहर में ही आबो दाना हो गया ।

क्या चला दौर-ए-तरक्की शहर से ये गाँव तक,

था जहाँ गुलशन कभी अब कारख़ाना हो गया ।

उसकी आँखों में था जादू और बातों में ग़ज़ल ,

जो भी उसके पास बैठा वो दीवाना हो गया।।

    मेहबूब अली 'महबूब' का एक ग़ज़ल संग्रह हाल ही में राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित हुआ है। उसमें कई साहित्कारों एवं शायरों ने उनके बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं। इस ग़ज़ल संग्रह में पेश की गई 80 ग़ज़लों में शायर ने बदलते दौर, जिंदगी की हकीक़त के साथ ही वर्तमान हालत पर जो कटाक्ष किए हैं, वो काबिले तारीफ़ रहे हैं। उर्दू व हिंदी में उनकी अच्छी पकड़ हैं, इस बात को ये ग़ज़ल संग्रह बखूबी बयां करता नज़र आता है। हिंदी व उर्दू में मास्टर डिग्री प्राप्त मेहबूब अली 'मेहबूबको गत वर्ष 2023 में अदबी उड़ान आठवां राष्ट्रीय पुरस्कार एवं सम्मान समारोह जो अक्टूबर 2023 में उदयपुर में आयोजित हुए था। इसमें मेहबूब अली 'मेहबूब' को अदबी उड़ान विशिष्ठ साहित्यकार सम्मान 2023, असम के राज्यपाल गुलाबचंद कटारिया की मौजूदगी में प्रदान किया गया। उनको जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी जयपुर राजस्थान द्वारा एकता पुरस्कार, बाल साहित्य सृजन पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। उनकी ग़ज़ल -

टूट जाता हूँ मैं अश्क बहने के बाद ।

जब तुम आते नहीं मेरे कहने के बाद ।।

बिन तेरे दिल ये लगता नहीं है कहीं।

क्या कहूँ हाल अब दर्द सहने के बाद।।

आके बस जाओ तुम मेरी साँसों में अब।

और जाना नही मेरे कहने के बाद।।

अब बयाँ क्या करूँ धड़कनों का सबब ।

लब ये रुक जाते हैं कुछ भी कहने के बाद ।।

आके बस जाओ महबूब दिल में मेरे।

क्या रहोगे मकाँ के ही ढहने के बाद ।।

    उपवन के फूल बाल काव्य संग्रह पंडित जवाहरलाल नेहरु बाल साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित, जज़्बात ग़ज़ल संग्रह का उप संपादन  का कार्य भी मेहबूब अली कर चुके हैं। उनके लेख कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ ही उनकी रचनाओं को अब दूर-दूर तक पहचान मिलने लगी है। मुशायरों एवं कवि सम्मेलनों में भी उनकी उपस्थित रहने लगी है। धीरे-धीरे वो अदब के क्षेत्र में कदम बढ़ाने लगे हैं। उनकी एक ग़ज़ल : -

मस्जिद की बात कर न शिवालों की बात कर ।

तूं आज निर्धनों के निवालों की बात कर।।

वादे तो खूब कर लिए तूने जहान से ।

बीते हुए समय के उजालों की बात कर ।।

तूने अमीरे शहर की करली है पैरवी ।

कुछ गाँव के किसानों के छालों की बात कर।।

कितने परीशाँ लोग ग़मे रोज़गार से।

हर नौजवाँ के ख़्वाबों-ख़यालों की बात कर ।।

मेहबूब यूँ चुरा न तूं नज़रे जहान से।

अहले जहाँ के सारे सवालों की बात कर ।

क्या कहते हैं मेहबूब अली 'मेहबूब' :-

    मेहबूब अली 'मेहबूब' अपनी पुस्तक के बारे में लिखते हैं कि अदब (साहित्य) समाज का आईना होता है, समाज में जो मसाइल चलते रहते हैं अदब में वही नमुदार होते हैं। आरज़ू जो कि मेरा पहला ग़ज़ल का मज़मुआ है। यह किस मौजू पर है बताने के पहले मैं बताना चाहूंगा कि मैं किस तरह अदब की दुनिया में आया। अदब का तलबा (student) होने के सबब में शुरू से ही अदब की नशिस्तों और मुशायरों में जाता रहता था। मीर और ग़ालिब मेरे पसंदीदा शाइर हुआ करते हैं। उनको पढ़कर मैं भी लिखने की कोशिश किया करता था। और टीचर्स और दोस्तों को दिखाया करता था, कवियों और शाइरों को सुनता और अपनी ग़ज़लों के अशआर आदि को दिखाता। कई बार मुझे भी ग़ज़ल कहने का मौका मिलता और दाद भी मिली। शुरुआती दौर में मेरी ग़ज़लों में रदीफ़ काफ़िया तो होता था पर बहर मैं लिखने में मुश्किलें आई तब दोस्त शाइरों से मदद भी ली। मुसलसल नशिस्तों और मुशायरों में जाने से और कई मारूफ शायरों की सोहबतों में मेरी ग़ज़लों में निखार आने लगा। आरजू ग़ज़ल के मजमुए से पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी राजस्थान के सहयोग से प्रकाशित मेरे बाल कविता संग्रह 'उपवन के फूल' का जिक्र करूंगा बाल साहित्य के लिए मुझे सत्यदेव संवितेंद्र जोधपुर संपादक (सतरंगा बचपन) आर एल दीपक वरिष्ठ साहित्यकार (मालपुरा) राजेंद्र मोहन शर्मा (बाल साहित्यकार) यशपाल शर्मा यशस्वी पहुना (चित्तौड़गढ़) का मार्गदर्शन मिला है आरजू ग़ज़ल के मजमुए में मैंने जो ग़ज़लें शामिल की है, वे आम लोगों की जिंदगी से वाबस्ता होने के साथ-साथ वतन परस्ती, इंसाफ, मुहब्बत, अमन, भाईचारे को इंगित करती है।,,

 जिंदगी को रफ़्ता रफ़्ता मुस्कुराना आ गया ।

आजकल हमको पुराने ग़म भुलाना आ गया।।

मुस्कुराओ तुम सदा के नूर चेहरे पर रहे ।

अब मेरे लब पे दुआओं का ख़जाना आ गया ।।

दोस्तों में दोस्ती सी आदते जाती रही।

जब नए अंदाज़ से दिल को दुखाना आ गया ।।

कर रहे हो मालो ज़र से रिश्तो की पैमाइशे ।

आपको भी आजकल रिश्ते निभाना आ गया।।

सह लिया करते थे तुम महबूब हर इक बात को।

दिल हुआ ज़ख्मी तो तुमको तमतमाना आ गया ।।

    बहरहाल मेहबूब अली के अपने ये विचार ही उनको एक मुकम्मल शायर होने की तस्दीक़ करने के लिए काफी है। वहीं उनका कलाम में भी काफी पुख़्तगी से वो आगे इस क्षेत्र में बुलंद मुकाम हासिल करेंगे। ऐसी मेरी कामना है। मेहबूब अली की मेहबूब ग़ज़ल ,:-

कहीं सुकूँ की फ़िज़ा नहीं है। वो पहले जैसी हवा नहीं है ।।

ये सज्दे कैसे क़बूल होंगे । झुका है सर दिल झुका नहीं है ।।

ये मयक़शी तो है मर्ज़ यारों । है जहर ये कुछ दवा नहीं है।।

कहाँ हवन अब मुहब्बतों का । तो अम्न की भी दुआ नहीं है ।।

मिलो जो तुम तो क़रम तुम्हारा। ना मिल सको तो गिला नहीं है।।

 आप भी मेहबूब अली 'मेहबूब' की आरज़ू ग़ज़ल संग्रह जरुर पढे तथा साहित्य एवं साहित्यकारों को प्रोत्साहित करें। 

इस तरह जीवन जिया- कुमार बिंदु

                                           कुमार बिंदु 

 

इस तरह जीवन जिया

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एक ने अंगुलियों में फंसाया

दूसरे ने अंगुलियों में दबाया

पत्थर का एक- एक टुकड़ा

एक ने बेलचे को बनाया तबला

दूसरे ने कुदाल को बनाया ढोलक

तीसरे ने लिया तार सप्तक में आलाप

फिर सुर से सुर मिले

फिर ताल से ताल मिले

फिर फ़ज़ा में गूंजा बिरहा के निरगुन बोल

सइयां मोर गवनवां लिहले जाला बदरी में

बाप महतारी रोवें, भाई भौजाई हो

सखी आ सहेली रोवें, ठाढ़ देहरी में

बलमा मोर गवनवां लिहले जाला बदरी में...

मजदूरों को बिरहा गाते हुए

निरगुन भजन के रस- रंग में गोते लगाते हुए

किसी को पता ही नहीं चला कि कितने पल बीत गए

कब घड़ी में दो से तीन और तीन से चार भी बज गए

और कब प्लेटफार्म संख्या एक पर आकर पैसेंजर ट्रेन आयी

ट्रेन रूकी, बिरहा की तान थमी

फिर बैठे मजदूर हुए उठ खड़े

सबने अपने- अपने चूतड़ का धूल झाड़ा

सबने अपने- अपने माथे पर मुरेठा बांधा

किसी ने कुदाल तो किसी ने बेलचा उठाया

सामने खड़ी बोगी के दुआर पर खड़े

सवारियों को ठेल- धकेल सब अंदर घुसे

इस तरह  मजदूरों का जत्था

ट्रेन में भी हँसता- गाता सफ़र किया, जीवन जिया


“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...