डॉ.राजेंद्र प्रसाद गर्ग
प्रोफेसर,विचारक,लेखक और संपादक-'नवमानव'
बुल्लेशाह का काव्य
बारहवीं-तेरहवीं सदी से अर्थात् सल्तनत काल के प्रारम्भ से ही भारत में सूफी एक सुदीर्घ और
अविच्छिन्न परम्परा शुरू होती है, जो उन्नीसवीं
सदी तक चलती रहती है। सूफी भक्त किसी भी संगठित धर्म या सम्प्रदाय के अंधानुयायी
नहीं होते। इनकी साधना का लक्ष्य उस सृष्टिकर्ता से तादात्म्य की आनन्दपूर्ण
अनुभूति करना (फना होना) है जो निर्विकार, निरंजन, अनिर्वचनीय, सुदूर किन्तु अतिनिकट, सर्वव्यापी किन्तु अदृश्य, अगोचर किन्तु हृदय में
स्थित है। सब कुछ उसमें समाहित है और वह सब कुछ में व्याप्त है। उससे से बाहर कुछ
भी शेष नहीं है क्योंकि वह वहदत है। समस्त अस्तित्व उसी का है। जीव-निर्जीव,
पृथ्वी- अंतरिक्ष, सूर्य-चन्द्रमा, पूर्व-पश्चिम, आकाश-पाताल, सभी
वही एकमात्र है। उसे आंखों से नहीं देखा जा सकता, किन्तु
उसके अलावा कुछ दृष्टिगोचर भी नहीं होता। उसे कानों से सुना नहीं जा सकता, किन्तु सारी ध्वनियां उसी की हैं। हम उसे छू नहीं सकते, किन्तु जो कुछ भी छूते हैं, वह उसके अतिरिक्त कुछ और
तो हो ही नहीं सकता। धरती का कोई भी इंसान बिना किसी मध्यस्थ, प्रीस्ट, मुल्ला, मौलवी,
पण्डित या पुरोहित की सहायता के उसे प्राप्त कर सकता है। निश्चित
रूप से सूफी किसी संगठित और संकीर्ण मत के ढांचे में नहीं समा सकते थे। फलस्वरूप
मतावलम्बियों ने इनसे कभी हमदर्दी नहीं रखी और इन्हें युग-युग में अत्याचार सहन
करने पड़े। फिर भी प्रेममार्गी सूफी संतों ने सभी के कल्याण और सभी को सन्मार्ग
प्रदर्शित करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना ही अपना ध्येय बनाये रखा।
सूफी अध्यात्म दरअसल इस्लामी तसव्वुफ (रहस्यवाद) की ही परिणति है
और तसव्वुफ की एक समानान्तर धारा हर संगठित धर्म की बगल में हमेशा से बहती रही है।
इस्लाम में ईश्वर एक सर्वशक्तिमान स्वामी और उसका बंदा सेवक के रूप में ही माने
जाते हैं। लेकिन नबी मुहम्मद साहब के जीवनकाल के बाद ही उनके शिष्यों के एक वर्ग
ने हुलूल (यह सिद्धान्त कि मनुष्य भी ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है) और तकसीर
(ईश्वर भी मनुष्य रूप में प्रकट हो सकता है) की बातें करना शुरू किया।' इस्लाम के मौतजली सम्प्रदाय के विख्यात दार्शनिक
अलगजाली (1051- 1112 ई.) बुद्धिवाद के रास्ते पर चलते हुए
जीवन के अंतिम पड़ाव में खुद भी रहस्यवाद की तरफ पहुंच गए थे। उन्होंने भी कहा था
कि तर्क से हम सापेक्ष को ही जान सकते हैं, निरपेक्ष को
नहीं। निरपेक्ष सत्य की झलक तो सहज ज्ञान (Intuition) से ही
पाई जा सकती है। इस्लामी रास्ते पर चलते हुए अब्दुल अरा (1057 ई.) जैसे चिन्तक ने भी यह कह दिया था कि "ईश्वर के अतिरिक्त कोई
ईश्वर नहीं है और मन के सिवाय कोई दूसरा नबी नहीं है।" और तो और खुद मुहम्मद
साहब के 'इल्हाम और हाल' (आवेश) में
सूफी तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। इकबाल अपनी पुस्तक "The Secret of the
Self' में लिखते हैं "वह (ईश्वर) उन्हें प्यार करता है और वे
(बन्दे) उसे प्यार करते हैं इसलिए उसका एक नाम 'वदूद'
(प्रेमी) भी है।"
इनके अलावा 8-9वीं सदी में
अरब जबत में यूनानी दर्शन, खासतौर से नव-अफलातून वाद,
पाइथागोरस के दर्शन, बौद्ध धर्म, वेदांत, ईसाई रहस्यवाद और जरथुस्त्र धर्म की हवाएं
भी बह रही थीं, जिन्होंने इस्लामी रहस्यवाद को प्रभावित किया
और धीरे-धीरे सूफी अध्यात्म का विकास होता रहा। रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं
"यूरोप में भी प्राचीन दार्शनिकों द्वारा प्रतिष्ठित अद्वैतवाद ईसाई मजहब के
भीतर रहस्यभावना के ही रूप में लिया गया। रहस्योन्मुख सूफियों और पुराने कैथोलिक
ईसाई भक्तों की साधना समान रूप से माधुर्य भाव की ओर प्रवृत्त रही। जिस प्रकार
सूफी ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में करते थे, उसी प्रकार
स्पेन, इटली आदि यूरोपीय प्रदेशों के भक्त भी। जिस प्रकार
सूफी 'हाल' की दशा में उस माशूक से
भीतर ही भीतर मिला करते थे, उसी प्रकार पुराने ईसाई भक्त
साधक भी दुल्हनें बन कर उस दूल्हे से मिलने के लिए अपने अंतर्देश में कई खण्डों के
रंगमहल तैयार किया करते थे। ईश्वर की पति के रूप में उपासना करने वाली सैफो,
सेंट टेरेसा आदि कई भक्तिनें भी यूरोप में हुई हैं। अद्वैतवाद के दो
पक्ष है- आत्मा और परमात्मा की एकता तथा ब्रह्म और जगत् की एकता। दोनों मिलकर
सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं- सर्वं खल्विदं ब्रह्म । यद्यपि साधना के क्षेत्र
में सूफियों और पुराने ईसाई भक्तों, दोनों की दृष्टि प्रथम
पक्ष पर ही दिखाई देती है, पर भावक्षेत्र में जाकर सूफी
प्रकृति की नाना विभूतियों से भी उसकी छवि का अनुभव करते आए हैं।" दरअसल
रहस्य की अनुभूति धर्म की चेतना की जड़ है। रहस्यवाद दुनिया के हर धर्म के चारों
तरफ लिपटा हुआ है। दिनकर अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार
अध्याय' में कहते हैं "बार-बार यह विवाद उठाया जाता है
कि सूफी-मत का मूल कहाँ था। यह मत इस्लाम के स्वाभाविक विकास का परिणाम नहीं हैं,
इस पर कई विद्वान बहुत जोर देते हैं। किन्तु, सच
बात यह है कि रहस्यवाद सभी धर्मो से ऊपर का धर्म है, अतएव,वह सभी धर्मो के मूल में रहता है। पूजा और प्रार्थना कैसे करें, यह बाद की बात है। उसके पहले के ईश्वर से किसी प्रकार का मिलन स्थापित
करने की बात आती है जो सभी आस्तिक धर्मो ही समान लक्षण है। रहस्यवाद का कोई-न-कोई
रूप हमें प्रत्येक धर्म में मिलता यही कारण है रहस्यवाद के भेद भी अनेक रहे हैं।
जैसे प्रत्येक धर्म का सार उसके रहस्यवादी अंश में रहता है, वैसे
ही तसव्वुफ इस्लाम का निचोड़ था।'
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में संकीर्णता और कट्टरता समस्त भूमण्डल
में फैलती जा रही हैं और शताब्दियों से सम्मानित सूफी दरगाहों और प्रार्थना स्थलों
को, जहां सभी मत-मतान्तरों के स्त्री-पुरुष इकट्ठे
होकर सदा से कीर्तन-प्रार्थना करते रहे हैं, अब कट्टरपंथियों
के आक्रमणों का शिकार बनाया जा रहा है। भक्तिकालीन युग में सूफियों के कई सिलसिले
उत्तर भारत में स्थान-स्थान पर भजन-कीर्तन किया करते थे और इनकी कई शाखायें बन गई
थीं, जैसे चिश्तिया सिलसिला, नक्शबंदी
सिलसिला, कादिरी (कादिरिया) सिलसिला, सुहरावर्दी
सिलसिला आदि। इन सूफी संतों की सात्विकता, वैराग्य, सरलता और प्रेम ने बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित किया और इनके
अनुयायियों एवं शिष्यों की संख्या बढ़ती ही गई। इस लेख में हम सूफी दर्शन और
विभिन्न सूफी सिलसिलों पर चर्चा नहीं करेंगे और केवल पंजाब के भक्त-कवि बुल्लेशाह
के काव्य और जीवन दर्शन का ही उल्लेख करेंगे। सुरिन्द्र सिंह कोहली की पुस्तक 'बुल्लेशाह' में उल्लेख है कि 'तारीख
नफे-उल्साल्किन' के अनुसार इनके बचपन का नाम अब्दुल्ला शाह
था। कुछ इतिहासकार इनका प्रारम्भिक नाम मीर बहली शाह कादिरी शत्तारी कसूरी बताते
हैं। जो भी हो, सूफी संत-कवि के रूप में उन्हें बुल्लेशाह के
नाम से ही जाना जाता था। विशप जॉन ए. सेम्युअल ने अपनी पुस्तक 'सूफीज्म : इट्स सेंट्स एण्ड शाइन्स' नामक पुस्तक में
कादिरी सम्प्रदाय के 116 संतों का कालक्रम से विवरण दिया है
जिसमें 98वें संत का नाम है मीर बहली शाह, यही बुल्लेशाह हैं। इनका निधन 1757 ई. में हुआ था और
इनकी मज़ार कसूर में हैं।
बुल्लेशाह का जन्म कसूर से 21 किमी. दक्षिण-पूर्व में स्थित गांव पंडोक में हुआ था। एक अन्य परम्परा के अनुसार इनका जन्म गीलानियां गांव में हुआ था। बहरहाल अधिकांश इतिहासकार इनका जन्मस्थान लाहौर जिले के कसूर के पंडोक गांव को ही मानते हैं। संभवतः बुल्लेशाह किस्सा हीर राँझा के सुप्रसिद्ध कवि सैयद वारिस शाह के सहपाठी रहे थे। बुल्लेशाह अविवाहित ही रहे। उनकी एक बहिन भी थी जिसने सारा जीवन भगवद् भक्ति में ही व्यतीत किया और अविवाहित रहीं। यद्यपि अपने काव्य में बुल्लेशाह ने अपने परिवार तथा जन्मस्थान के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया है, फिर भी एक जगह यह अवश्य लिखा है कि उनका परिवार सैयद खानदान से था और इनके गुरु इनायत एक अराई (माली) परिवार के थे। सभी परिवारजनों ने बुल्लेशाह की इस बात के लिए लानत-मलामत की थी कि उच्च सैयद वंश से होते हुए भी उन्होंने अराई जाति के व्यक्ति को गुरु स्वीकार किया। बुल्लेशाह ने अपने काफियों में लिखा है "जो कोई मुझे सैयद कहेगा, वह नरक में जाएगा और मुझे अराई कहने वाला स्वर्ग सुख प्राप्त करेगा, अरे बुल्ले, तू सच्चा आनंद चाहता है तो अराई का शिष्य बन।"
बुल्लेशाह के काव्य और जीवन दर्शन की व्याख्या करने के बजाय उनके
काव्यांशों को उधृत करना अधिक उपयुक्त रहेगा।
अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वह कहते हैं कि
उन्होंने ही मुझे 'अलख' के दर्शन कराये हैं :-
कहूं बैर पड़ा कहूं बेली है,
कहूं मजनू है कहूं लेली है,
कहूं आप गुरु कहूं चेली है,
आप आप का पंथ बताया है।
कहूं महजत का वर्तारा है,
कहूं बणिया ठाकुर द्वारा है,
कहूं बैरागी जटधारा है,
कहूं शेखन बन-बन आया है।
कहूं तुर्क मुसलमा पढ़ते हो,
कहूं भगत हिन्दू जप करते हो,
कहूं घोड़ घुँगट में पड़ते हो,
हर घर-घर
लाड़ लड़ाया है।
एक अन्य काफिये में बुल्लेशाह कहते हैं कि इस या उस धर्म-सम्प्रदाय
का संकीर्णता और कट्टरता से अनुसरण करने पर हम ईश्वर प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि वह तो इन मत-मतान्तरों की संकुचित सीमाओं
से बहुत दूर ही है और भक्त की बगल में ही छिपा बैठा है -
मेरी बुक्कल दे विच चोर,
साधो किसनूं कूक सुणावां,
मेरो बुक्कल दे विच चोर।
किते रामदास किते फतेह मुहम्मद,
इहो कदीमी शोर,
मुसलमान सिवें तो चिढ़दे,
हिन्दू चिढ़दे गोर,
चुक गए सभ झगड़े झेड़े,
निकल गया
कोई होर,
साधो किसनूं कूक सुणावां,
मेरी बुक्कल दे विच चोर।
साधों, मैं किसे बताऊँ कि वह
तो मेरी बगल में चोर की तरह छिपा बैठा है। उसके कई नाम हैं जैसे रामदास या फतेह
मुहम्मद। पुराने जमाने से शोर सुनते आये हैं कि मुसलमान शव को जलाने से चिढ़ते हैं
और हिन्दू शव को जमीन में दफनाने से चिढ़ते हैं। लेकिन वह तो कोई और ही है जो
रहस्यपूर्ण है। अब मैं किससे कहूँ कि वह तो चोर की तरह मेरी बगल में छिपा बैठा है।
कबीर, नानक, कुतुबन, मंझन, दादू तथा सूफी
संतों की तरह बुल्लेशाह ने भी सभी धर्मों के अर्थहीन कर्मकाण्डों की व्यर्थता का
जिक्र किया और अन्तःकरण की शुद्धि व 'मैं' और 'तू' की भावना निश्शेष कर
देने पर ही परमानन्द की प्राप्ति की बात की। वह कहते हैं –
उमर गवाई विच मसीती,
अन्दर भरिया नाल पलीती,
कदे नमाज्र वाहदत ना कीती,
हुण कियों करना ऐं घाड़ो धाड़।
जां मैं सबक इश्क दा पढ़िया,
मस्जिद कोलों जिवड़ा डरिया,
भज भज ठाकर द्वारे वड़िया,
घर विच पाया माहरम यार।
वेद कुराना पढ़-पढ़ थक्के,
सिज्दे कर दियां घस गए मथ्थे
न रब्ब तीरथ न रब्ब मक्के,
जिन पाया तिन नूर अँवार।
पूरी उम्र मस्जिद में बिता देने पर भी क्या होगा, अगर तेरी आत्मा मैली है। तूने ईश्वर से तो एकत्व
किया ही नहीं, अब रोने-पीटने से क्या होगा। जब मैंने प्रेम
का पाठ पढ़ा तो मुझे मस्जिद से डर लगने लगा। मैं मन्दिर में दौड़कर गया, लेकिन ईश्वर मुझे अपने घर में ही मिल गया। जब मुझे प्रेम का पाठ पढ़ना आया
तो मैंने मैं और तू को खत्म कर दिया। जब अहंकार से शुद्ध हो गया तो सभी जगह ईश्वर
को ही पाया। हीर रांझा मिल गये। मैं वेद और कुरान पढ़-पढ़ कर थक गया था। भगवान
मुझे तीर्थ स्थानों में और मक्के में नहीं मिला। उसका प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है।
बुल्लेशाह कान्हा की वंशी से सम्मोहित रहते हैं -
"बंसी कान्ह अचरज बजाई"
मुरली बाज उठी अन्धातां,
सुन सुन भूल गय्यां सब बातां ।
सुन सुन शाम सुन्दर दिया बातां,
बुल्ले शाह मैं तद बिरलाई,
जद दी मुरली कान्ह बजाई।
बौरी हो के तैं वल धाई,
कहो जी कित वल दस्त बरातां ।
मुरली की तान सुनकर मैं तो सब कुछ भूल गया। कान्हा ने बांसुरी बजाई
और मेरे अश्रुधारा बहने लगी। धुन को सुन मैं पागल होकर उधर ही दौड़ा। किसी ने पूछा
कि प्रेम की भेंट कहाँ लिये जा रहे हो।
एक अन्य काफिये में कवि कहता है "तुम मुल्ला बनकर कुरान पढ़ते
हो और इसके शुद्ध उच्चारण का अभ्यास करते हो, लेकिन
तुम्हारा ध्यान सांसारिकता में लगा है और मन हल्कारे की तरह जगह-जगह भाग रहा है।
बण हाफ़ज हिफूज़ कुरान करें,
पढ़ पढ़ के साफ़ जबान करें,
फिर नेमत विच धियान करें,
मन फिरदा जियों हल्कारा है।
मुस्लेशाह सुबूदिया सम्प्रदाय के सूफी कवि हैं जो वहदत-उल-वजूद
अर्थात को मानते हैं। वह जाहिद (एकमेव द्वितीयं नास्ति) निर्गुण निराकार भी इदैन र
सगुण भी। दरअसल 'वह' इस प्रकार के भेदोपभेद और वर्गीकरण से परे है। सूफी लोग सगुण रूप को
तनन्जुलात कहते हैं। बुल्लेशाह कहते हैं -
तुसी समनी भेरवी थीदे हो
हरजा तुसी दिसीदे हो।
अर्थात् सभी रूपों में आप ही दिखाई देते हो, सब जगह आप ही दृष्टिगोचर होते हो।
सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान परमात्मा 'जोत' (प्रकाश) की तरह अपने जमाल (सौन्दर्य) से ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। वह अल्बातिन (अदृश्य) और अज्जाहिर (दृश्यमान) दोनों है। वह अल्अव्वल (सबसे पहले) भी है और अल्आखिर (सबके अन्त में) भी है। वह ब्रह्म अल्वाहिद (एकमात्र) है और अल्खालिक (एकमात्र सृष्टि निर्माता) है। वह अर्रहमान (कृपालु) और अर्रहीम (दयालु) है। वह अल्गफ्फार (क्षमावान) है और अल्करीम (उपकार करने वाला) है।
तुसी छिपदे सी असी पकड़े हो,
असी विच जिगर दे जकड़े हो,
तुसी अजे छिपण नूं तकड़े हो
आप छिपते हो और मैं आपको पकड़ता हूं। अब मैंने आपको दिल में जकड़
लिया है लेकिन आप इतने बलवान हो कि फिर छिप जाते हो।
आत्मा और ब्रह्म के मिल जाने पर अहंकार समाप्त हो जाता है, मैं अस्तित्वहीन हो जाता हूं, खुदी पूरी तरह फना हो जाती है। फना होना ही लाहूत है। फिर साधक यह भी नहीं
जानता कि वह कौन है बुल्ला की जाणा मैं कौण मिलन की दशा का वर्णन कवि इस प्रकार
करता है –
मैनूँ की होया मैथों गई गवाती मैं,
जियों कमली आखे लोकों मैनूं की होया ।
मैं विच देखन ते मैं नहीं बण दी,
मैं विच वसना तूं।
सिर तो पैरी तीक वी तू ही,
अन्दर बाहर तूं।
यह मुझे हो क्या गया है? मेरा
ममत्व समाप्त हो गया है मैं सब लोगों को एक पगली की तरह पूछता हूं कि मुझे क्या हो
गया है। अन्दर झांकता हूं, तो खुद को गायब पाता हूं। मेरे
अन्दर तो अब तुम हो। सिर से पैर तक तुम हो, अन्दर- बाहर भी
तुम ही तुम हो।
सूफी लोग इस संसार को स्वप्नवत मानते हैं। जब तक हम सपना ले रहे
हैं संसार सच्चा दिखाई दे रहा है। जग जाने पर ही तो पता चलता है कि यह तो मात्र
स्वप्न था, वास्तव में तो था ही नहीं।
बुल्लेशाह कहते हैं-
मैं सपना सब जग वी सुपना
सुपना लोक बिबाणा
खाकी खाक सियों रल जागा
कुछ नहीं जोर धींगाणा।
मैं भी स्वप्न हूं, सारा
संसार स्वप्न है, सब लोग स्वप्न हैं, खाक
से बना हुआ यह खाक में ही मिल जाएगा। इसमें कोई किसी का जोर नहीं चलता।
एक अन्य स्थान पर बुल्ले कहते हैं "यह मैं अथवा मेरा शरीर न
मेरी है न तेरी है। यह एक खाक की ढेरी है जो बिखर जाती है। यह ढेरी ही नाचती रहती
है। अब आप किस से अपने को छिपा रहे हैं।" आत्मा के बारे में बुल्लेशाह फरमाते
हैं-
नाम हम खाकी ना हम आतश
ना पाणी ना पौण
कुप्पी दे विच रोड़ खड़कदा,
मूरख आखे बोले कौण।
बुल्ले सांई घट-घट रबिया,
ज्यों आटे बिच लौण।
-न तो मैं मिट्टी से बनी हूं, न
अग्नि से, न जल से और न पवन से। इस कुप्पी में जब कोई पत्थर
का ढेला खड़कता है तो मूर्ख पूछता है "यह कौन बोल रहा है?" बुल्ले कहता है कि परमात्मा तो घट-घट में रहता है, जैसे
आटे में नमक मिला होता है।
बुल्लेशाह ने सरल लोकभाषा में अपने हृदयोद्गार प्रकट किये हैं।
उनके काव्य की शक्ति है अकृत्रिमता, सहजता
और सच्चाई। उनके काव्य में अलंकारों और उक्ति वैचित्र्य की प्रदर्शनी नहीं लगाई गई
है। जैसे भी भाव-विचार कवि के मन में आये हैं, उन्हें वैसा
का वैसा गा दिया गया है। देखिये माटी के लिए वह क्या कहते-
वाह वाह माटी दी गुल्जार।
माटी घोड़ा माटी जोड़ा माटी दा अस्वार,
माटी माटी नूं दोड़ावे माटी दा खड़कार।
माटी माटी नूं मारन लग्गी माटी दे हथियार,
जिस माटी पर बोहती माटी, सो
माटी हँकार।
माटी बाग बगीचा माटी, माटी
दे गुल्जार,
माटी माटी नूं देखण आई माटी दी बहार।
हस खेड फिर माटी होवे, पैंदि
पान पसार,
बुल्ला जे एह बुझारत बुझै तां लह सिरों भुऐं मार।
अरे प्रियतम यह मिट्टी तुमसे मिलने में बाधा डालती है। चारों तरफ
मिट्टी का बाग खिल रहा है। मिट्टी का घोड़ा है, मिट्टी
का जोड़ा है और मिट्टी का ही घुड़सवार है। मिट्टी ही मिट्टी को दौड़ा रही है और
मिट्टी की ही आवाज मिट्टी सुन रही है। मिट्टी ही मिट्टी को मारने दौड़ रही है और
मिट्टी के हथियार चला रही है। मिट्टी पर मिट्टी चलती है और उसमें अहंकार है। यह
संसार मिट्टी का ही बाग-बगीचा है। मिट्टी ही मिट्टी की बहार देख रही है। हंस-खेलकर
मिट्टी ही फिर मिट्टी में मिल जाती है। बुल्ला कहते हैं कि यदि असली अर्थ समझना है
तो अहंकार को उतारकर धरती पर डाल दो।
बुल्लेशाह एक बेशर फकीर थे। बेशर फकीर उन्हें कहा जाता है जो
मुसलमान तो कहे जा सकते हैं लेकिन वे शरीयत के नियमों का पालन नहीं करते। इसके
विपरीत ब-शर फकीर वे होते हैं जो इस्लाम के कायदे-कानून मानते हैं। बेशर फकीर
मज्जूब (बावला) फकीर भी कहलाते हैं। इन्हें परमहंस फकीर कह सकते हैं। ये लोग
दुनियादारी से पूरी तरह दूर होकर ईश्वर चिन्तन में ही तल्लीन रहते हैं। ईश्वर
क्योंकि अल्जब्बार और अल्कहजार है इसलिए पाप कर्म से हमें बचते रहना चाहिए, क्योंकि ईश्वर का दण्ड भयानक होता है। फकीर को
आत्मसंयम का अभ्यास करने के लिए सब्र की आदत डालनी होती है। फकीर को मुराकबाह
(भक्ति) और ध्यान करते रहना होता है। बुल्लेशाह का मार्ग इश्क का मार्ग था,
अतः शरीयत के कानून- कायदे बुल्लेशाह जैसे मस्तमौला फकीर को रास
नहीं आ सकते थे। वह कहते हैं-
करम शरा दे धरम बतावन
संगल पावन पैरी
जात मजहब एह इश्क ना पुछदा
इश्क शरा दा वैरी
शरीयत के नियम हमारे पैरों में बेड़ी डालते हैं, इश्क किसी की जाति धर्म नहीं पूछता। इश्क को तो
शरा से दुश्मनी है।
बुल्ले कहते हैं-
इश्क दी नवीयों नवी बहार
जद मैं सबक इश्क दा पढ़या,
मस्जिद कोलों जियोड़ा डरया।
डेरे जा डाकुर दे वडया,
जिथे वजदे नाद हज़ार ।।
ईश्वर प्रेम की नई बहार है। जब मैं प्रेम का पाठ पढ़ने लगा तो मुझे
मस्जिद से डर लगने लगा। फिर मैंने ठाकुर के डेरे में प्रवेश किया, जहां हजारों घण्टे घड़ियालों का संगीत गूंज रहा
था।
ईश्वरीय ज्ञान की तीन सीढ़ियाँ होती हैं-
(1) इल्मुल्मबादी-यह कुरान हदीस का प्रारम्भिक ज्ञान
है।
(2) इल्म-उल-कसिद- यह मजहब के
विषय का ज्ञान है।
(3) इल्म-उल-मकाशफाह-यह ज्ञान
हृदय में प्रकाशित होता है।
यह सत्य का सम्पूर्ण ज्ञान है। बुल्लेशाह ने इसी तीसरे प्रकार के
ज्ञान को महत्व दिया है। पहले दो ज्ञान तो अनावश्यक हैं। वे कहते हैं 'इक्को अलिफ तेरा दरकार' अर्थात्
वर्णमाला का पहला अक्षर अलीफ ही काफी है। अलीफ एकत्व का और इसलिए अद्वैत ब्रह्म का
प्रतीक है। अलीफ का ज्ञान होना यानी उस एकमात्र का ज्ञान हो जाना। बुल्लेशाह कहते
हैं-
"जब मैंने प्रेम मार्ग को जाना तो मेरे और तेरे
की भावना पूरी तरह समाप्त हो गई। मेरा अन्दर और बाहर दोनों शुद्ध हो गये और
सर्वत्र मुझे मेरा प्रियतम ही दिखाई देने लगा। हीर को रांझा मिल गया। वह प्रेमी की
खोज में भटक रही थी, लेकिन प्रेमी पर्दे के पीछे छिपा हुआ
था। परमात्मा को देखते ही मेरे होश गुम हो गये। मैं वेद-पुराण का पाठ करते-करते थक
गया था। सिर झुकाते-झुकाते (सिज्दे करते) मेरा ललाट घिस गया था, खुदा न तो तीर्थों में है न मक्का में। जो उसमें डूब गया, उसे उसके नूर के दर्शन होते हैं। पूजा का आसन जला दो, कलश तोड़ दो, माला फेंक दो, कानून-कायदे त्याग दो। मैंने इतना जीवन मस्जिद में ही गंवा दिया , अन्त:करण तो साफ नहीं था। मैंने
कभी नमाज नहीं की। अब तुम जोर - जोर से क्यों चिल्लाते हो कि इश्क ने मुझे नमाज से दूर कर दिया है।
क्यों मुझसे झगड़ते हो? इश्क की लहर में
बुल्ला मौन हो जाता है।"
अब बुल्ले का परमात्मा से मिलन हो गया है -
राँझा जोगिण बण आया,
वाह सांगी
सांग रचाया।
राँड़ा जोगी ते में
जुगियाणीं,
इस दी खातर
भरसां पाणीं,
ऐवें पिछली
उमर विहाणी,
इस हुण
मैनूँ भरमाया।
मेरा राँझा जोगी बनकर आया है। वह तो सांगी है और सांग रचना ही उसका
काम है। राँझे जोगी की मैं जोगिन हूं। मैं अब उसी की चाकरी करूंगी, उसी के लिए पानी भरूंगी। मेरा पिछला जीवन बेकार ही
चला गया। उसने मुझे बहुत ही भरमाया है।
शरीयत (इस्लामी विधि-विधान) के अनुसार धर्माचरण करने की व्यवस्था
इस्लाम में हैं लेकिन बुल्लेशाह जैसे बेशर सूफी फकीर शरीयत को आध्यात्मिक ऊंचाई तक
पहुंचने के लिए अपर्याप्त मानते हैं। ये लोग समस्त औपचारिक प्रार्थना, उपवास और अनुशासन को व्यर्थ मानकर प्रेम के मार्ग
पर चल पड़ते हैं और इसलिए इन्हें विद्रोही माना जाता है। इनका मार्ग फना होने
(मोक्ष) का मार्ग है। संक्षेप में सूफी मार्ग शुद्ध अध्यात्म का मार्ग है और यह
किसी भी संगठित धर्म के अनुशासन से बाहर है।
सूफी काव्य में शब्दों का लाक्षणिक अर्थ ही महत्व रखता है। वस्तुएं
प्रतीकात्मक अर्थ रखती हैं और उनके बारे में कहे गये कथन रूपकों अथवा मेटाफर की
गहनता रखते हैं। कई प्रतीक तो इतने प्रचलित हो गये हैं कि उनके बिना फारसी और
उर्दू काव्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। जैसे मयखाना, रिन्द, पारसा, साकी, जाम, मीना, सागर, होश खुमारी आदि। बुल्लेशाह तथा अन्य पंजाबी
कवियों के प्रतीक हैं - हीर राँझा, माशूक, आशिक, पेकाघर (पीहर अर्थात् संसार) सोहुरा घर
(ससुराल अर्थात् ईश्वर), त्रिंझन (चरखा चलाने वाली बहिनें),
झानां (प्रेम की नदी), सराय (जहां मुसाफिर
ठहरता है, संसार)। माँ-बाप के घर में कन्या को अपने तन-मन के
चरखे पर सद्गुण का सूत कातना होता है जो वह अपने साथ सुसराल ले जाती है। मुर्शीद
वह जुलाहा है जो बालिका द्वारा बुने सूत को तार्णी (ताना-बाना) का रूप देता है।
बुल्लेशाह ने ईश्वर के लिए 'कान्ह', साधक
के लिए 'गोपी' और भक्ति के उन्माद के
लिए 'मुरली की धुन' जैसे प्रतीकों का
प्रयोग किया है। बुल्लेशाह संसार के हर प्राणी और प्रकृति की हर वस्तु में
ईश्वरानुभूति करते हैं 一
हुण किस थी आप छपाई दा,
किते मुल्ला
हो बुलेन्दे हो,
किते सुन्नत फ़र्ज़ दसेन्दे हो,
किते राम दुहाई देन्दे हो,
किते मध्ये तिलक लगाई दा,
बेली अल्लाह वाली मालिक हो,
तुसी आपे अपने सालिक हो,
आपे खल्क़त आपे कालिक़ हो,
आपे अमर मारूफ़ कराई दा,
किथरे चोर हो किधरे क़ाज़ी हो,
किते मिम्बर ते बेह वाज़ी हो,
किते तेग बहादुर ग़ाज़ी हो,
आपे अपना कतक चढ़ाई दा,
बुल्ला शाह हुण सही सिंझाते हो,
हर सूरत नाल पछाते हो,
किते आते हो किते जाते हो,
हुण मैथों भूल ना जाई दा,
हुण किस तों आप छपाई दा।
अब आप हमसे कैसे छिपते रहोगे? कहीं
तो आप मुल्ला बनकर हमें पुकारते हो और शिक्षा देते हो, कहीं
आप राम बनकर सत्य की घोषणा करते हो, कहीं आप मस्तक पर तिलक
लगाते हो। आप स्वयं ही अपने मालिक और सालिक हो, आप ही यह
सृष्टि हो और आप ही सृष्टि की रचना करने वाले हो, आप ही
स्वामी और सेवक हो, कहीं आप चोर होते हो और कहीं न्यायाधीश
हो जाते हो, कहीं आप तेग बहादुर जैसे धर्मयोद्धा हो और सैन्य
अभियान करते हो। अब बुल्ले ने आपको अच्छी तरह पहचान लिया है, आपके सभी रूपों को जान लिया है। अब आप कहीं भी आओ या कहीं भी जाओ, मुझे मत भूल जाना। अब आप किससे छिप रहे हो?
बुल्लेशाह द्वारा लिखी गई पांडुलिपियां नहीं मिलीं। संभवत: वह अपने
द्वारा रचे हुए काफियों का विभिन्न रागों में केवल गान करते थे और उनके शिष्यों और
अनुयायियों ने इसी गान-परम्परा में प्रचलित काव्य को बाद में लिख लिया हो। यही
कारण है कि उनके काव्य के विभिन्न अंश कई स्रोतों से इकट्ठे किये गये हो। विख्यात
लेखक सुरिन्द्र सिंह कोहली लिखते हैं "डॉ. मनमोहन सिंह ने सन् 1930 में
बुल्लेशाह के पचास काफ़िए, भूमिका, टिप्पणियों, जीवन-वृत्तान्तों, सूची पत्रों आदि सहित प्रकाशित
किए। इस प्रकाशन में उनके संग्रह स्रोतों में प्रेम सिंह जुर्गर का उपर्युक्त
संग्रह भी सम्मिलित हैं। अन्य स्रोत हैं- 'शब्द श्लोक भक्तां
दे', सन् 1900 और 1904 में राय साहिब मुंशी गुलाब सिंह एण्ड
सन्स द्वारा प्रकाशित। उनके द्वारा वर्णित अन्य स्रोत हैं - पंजाब विश्वविद्यालय
पुस्तकालय में हस्तलिपि प्रति संख्या-374 और 4684 तथा लाहौर की एक
पाण्डुलिपि-हिफ़्जुल उलूम। संग्रहकर्ता ने 7 काफिए तो हिफ़्जुल अलूम की पाण्डुलिपि
संख्या 3748 से लिए हैं, 16 काफ़िए पाण्डुलिपि सं. 4684 से
लिए हैं तथा शेष 96 काफ़िए 'शब्द लोक भक्ताँ दे' से लिए हैं। अन्तिम 19 काफ़ियों में 17 काफ़िए तो वही सम्मिलित हैं जो
प्रेम सिंह के संग्रह में थे। 'क़ानूने-इश्क' नामक संग्रह में 116 काफ़िए हैं.....।""
1. 'संस्कृति के चार
अध्याय' - अध्याय इस्लाम धर्म दिनकर
2. वही
3 . हेनरी बेरलिन कृत 'द
दीवान ऑफ अबुल अरा' के एक पद से, जिसे दिनकर जी ने उद्धत किया है।
4. इकबाल 'The Secret of the Self
5. जायसी ग्रंथावली की भूमिका - रामचन्द्र शुक्ल
6. संस्कृति के चार अध्याय रामधारी सिंह दिनकर
7. बुल्लेशाह श्री सुरिन्द्र सिंह कोहली