बुधवार, 3 जनवरी 2024

बुल्लेशाह का काव्य- डॉ.राजेंद्र प्रसाद गर्ग (प्रोफेसर,विचारक,लेखक और संपादक-'नवमानव')


                                                                    डॉ.राजेंद्र प्रसाद गर्ग

 प्रोफेसर,विचारक,लेखक और संपादक-'नवमानव'

बुल्लेशाह का काव्य

बारहवीं-तेरहवीं सदी से अर्थात् सल्तनत काल  के प्रारम्भ से ही भारत में सूफी एक सुदीर्घ और अविच्छिन्न परम्परा शुरू होती है, जो उन्नीसवीं सदी तक चलती रहती है। सूफी भक्त किसी भी संगठित धर्म या सम्प्रदाय के अंधानुयायी नहीं होते। इनकी साधना का लक्ष्य उस सृष्टिकर्ता से तादात्म्य की आनन्दपूर्ण अनुभूति करना (फना होना) है जो निर्विकार, निरंजन, अनिर्वचनीय, सुदूर किन्तु अतिनिकट, सर्वव्यापी किन्तु अदृश्य, अगोचर किन्तु हृदय में स्थित है। सब कुछ उसमें समाहित है और वह सब कुछ में व्याप्त है। उससे से बाहर कुछ भी शेष नहीं है क्योंकि वह वहदत है। समस्त अस्तित्व उसी का है। जीव-निर्जीव, पृथ्वी- अंतरिक्ष, सूर्य-चन्द्रमा, पूर्व-पश्चिम, आकाश-पाताल, सभी वही एकमात्र है। उसे आंखों से नहीं देखा जा सकता, किन्तु उसके अलावा कुछ दृष्टिगोचर भी नहीं होता। उसे कानों से सुना नहीं जा सकता, किन्तु सारी ध्वनियां उसी की हैं। हम उसे छू नहीं सकते, किन्तु जो कुछ भी छूते हैं, वह उसके अतिरिक्त कुछ और तो हो ही नहीं सकता। धरती का कोई भी इंसान बिना किसी मध्यस्थ, प्रीस्ट, मुल्ला, मौलवी, पण्डित या पुरोहित की सहायता के उसे प्राप्त कर सकता है। निश्चित रूप से सूफी किसी संगठित और संकीर्ण मत के ढांचे में नहीं समा सकते थे। फलस्वरूप मतावलम्बियों ने इनसे कभी हमदर्दी नहीं रखी और इन्हें युग-युग में अत्याचार सहन करने पड़े। फिर भी प्रेममार्गी सूफी संतों ने सभी के कल्याण और सभी को सन्मार्ग प्रदर्शित करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना ही अपना ध्येय बनाये रखा।

सूफी अध्यात्म दरअसल इस्लामी तसव्वुफ (रहस्यवाद) की ही परिणति है और तसव्वुफ की एक समानान्तर धारा हर संगठित धर्म की बगल में हमेशा से बहती रही है। इस्लाम में ईश्वर एक सर्वशक्तिमान स्वामी और उसका बंदा सेवक के रूप में ही माने जाते हैं। लेकिन नबी मुहम्मद साहब के जीवनकाल के बाद ही उनके शिष्यों के एक वर्ग ने हुलूल (यह सिद्धान्त कि मनुष्य भी ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है) और तकसीर (ईश्वर भी मनुष्य रूप में प्रकट हो सकता है) की बातें करना शुरू किया।' इस्लाम के मौतजली सम्प्रदाय के विख्यात दार्शनिक अलगजाली (1051- 1112 ई.) बुद्धिवाद के रास्ते पर चलते हुए जीवन के अंतिम पड़ाव में खुद भी रहस्यवाद की तरफ पहुंच गए थे। उन्होंने भी कहा था कि तर्क से हम सापेक्ष को ही जान सकते हैं, निरपेक्ष को नहीं। निरपेक्ष सत्य की झलक तो सहज ज्ञान (Intuition) से ही पाई जा सकती है। इस्लामी रास्ते पर चलते हुए अब्दुल अरा (1057 ई.) जैसे चिन्तक ने भी यह कह दिया था कि "ईश्वर के अतिरिक्त कोई ईश्वर नहीं है और मन के सिवाय कोई दूसरा नबी नहीं है।" और तो और खुद मुहम्मद साहब के 'इल्हाम और हाल' (आवेश) में सूफी तत्व दृष्टिगोचर होते हैं। इकबाल अपनी पुस्तक "The Secret of the Self' में लिखते हैं "वह (ईश्वर) उन्हें प्यार करता है और वे (बन्दे) उसे प्यार करते हैं इसलिए उसका एक नाम 'वदूद' (प्रेमी) भी है।"

इनके अलावा 8-9वीं सदी में अरब जबत में यूनानी दर्शन, खासतौर से नव-अफलातून वाद, पाइथागोरस के दर्शन, बौद्ध धर्म, वेदांत, ईसाई रहस्यवाद और जरथुस्त्र धर्म की हवाएं भी बह रही थीं, जिन्होंने इस्लामी रहस्यवाद को प्रभावित किया और धीरे-धीरे सूफी अध्यात्म का विकास होता रहा। रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं "यूरोप में भी प्राचीन दार्शनिकों द्वारा प्रतिष्ठित अद्वैतवाद ईसाई मजहब के भीतर रहस्यभावना के ही रूप में लिया गया। रहस्योन्मुख सूफियों और पुराने कैथोलिक ईसाई भक्तों की साधना समान रूप से माधुर्य भाव की ओर प्रवृत्त रही। जिस प्रकार सूफी ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में करते थे, उसी प्रकार स्पेन, इटली आदि यूरोपीय प्रदेशों के भक्त भी। जिस प्रकार सूफी 'हाल' की दशा में उस माशूक से भीतर ही भीतर मिला करते थे, उसी प्रकार पुराने ईसाई भक्त साधक भी दुल्हनें बन कर उस दूल्हे से मिलने के लिए अपने अंतर्देश में कई खण्डों के रंगमहल तैयार किया करते थे। ईश्वर की पति के रूप में उपासना करने वाली सैफो, सेंट टेरेसा आदि कई भक्तिनें भी यूरोप में हुई हैं। अद्वैतवाद के दो पक्ष है- आत्मा और परमात्मा की एकता तथा ब्रह्म और जगत् की एकता। दोनों मिलकर सर्ववाद की प्रतिष्ठा करते हैं- सर्वं खल्विदं ब्रह्म । यद्यपि साधना के क्षेत्र में सूफियों और पुराने ईसाई भक्तों, दोनों की दृष्टि प्रथम पक्ष पर ही दिखाई देती है, पर भावक्षेत्र में जाकर सूफी प्रकृति की नाना विभूतियों से भी उसकी छवि का अनुभव करते आए हैं।" दरअसल रहस्य की अनुभूति धर्म की चेतना की जड़ है। रहस्यवाद दुनिया के हर धर्म के चारों तरफ लिपटा हुआ है। दिनकर अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में कहते हैं "बार-बार यह विवाद उठाया जाता है कि सूफी-मत का मूल कहाँ था। यह मत इस्लाम के स्वाभाविक विकास का परिणाम नहीं हैं, इस पर कई विद्वान बहुत जोर देते हैं। किन्तु, सच बात यह है ​कि रहस्यवाद सभी धर्मो से ऊपर का धर्म है, अतएव,वह सभी धर्मो के मूल में रहता है। पूजा और प्रार्थना कैसे करें, यह बाद की बात है। उसके पहले के ईश्वर से किसी प्रकार का मिलन स्थापित करने की बात आती है जो सभी आस्तिक धर्मो ही समान लक्षण है। रहस्यवाद का कोई-न-कोई रूप हमें प्रत्येक धर्म में मिलता यही कारण है रहस्यवाद के भेद भी अनेक रहे हैं। जैसे प्रत्येक धर्म का सार उसके रहस्यवादी अंश में रहता है, वैसे ही तसव्वुफ इस्लाम का निचोड़ था।'

बीसवीं और इक्कीसवीं सदी में संकीर्णता और कट्टरता समस्त भूमण्डल में फैलती जा रही हैं और शताब्दियों से सम्मानित सूफी दरगाहों और प्रार्थना स्थलों को, जहां सभी मत-मतान्तरों के स्त्री-पुरुष इकट्ठे होकर सदा से कीर्तन-प्रार्थना करते रहे हैं, अब कट्टरपंथियों के आक्रमणों का शिकार बनाया जा रहा है। भक्तिकालीन युग में सूफियों के कई सिलसिले उत्तर भारत में स्थान-स्थान पर भजन-कीर्तन किया करते थे और इनकी कई शाखायें बन गई थीं, जैसे चिश्तिया सिलसिला, नक्शबंदी सिलसिला, कादिरी (कादिरिया) सिलसिला, सुहरावर्दी सिलसिला आदि। इन सूफी संतों की सात्विकता, वैराग्य, सरलता और प्रेम ने बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित किया और इनके अनुयायियों एवं शिष्यों की संख्या बढ़ती ही गई। इस लेख में हम सूफी दर्शन और विभिन्न सूफी सिलसिलों पर चर्चा नहीं करेंगे और केवल पंजाब के भक्त-कवि बुल्लेशाह के काव्य और जीवन दर्शन का ही उल्लेख करेंगे। सुरिन्द्र सिंह कोहली की पुस्तक 'बुल्लेशाह' में उल्लेख है कि 'तारीख नफे-उल्साल्किन' के अनुसार इनके बचपन का नाम अब्दुल्ला शाह था। कुछ इतिहासकार इनका प्रारम्भिक नाम मीर बहली शाह कादिरी शत्तारी कसूरी बताते हैं। जो भी हो, सूफी संत-कवि के रूप में उन्हें बुल्लेशाह के नाम से ही जाना जाता था। विशप जॉन ए. सेम्युअल ने अपनी पुस्तक 'सूफीज्म : इट्स सेंट्स एण्ड शाइन्स' नामक पुस्तक में कादिरी सम्प्रदाय के 116 संतों का कालक्रम से विवरण दिया है जिसमें 98वें संत का नाम है मीर बहली शाह, यही बुल्लेशाह हैं। इनका निधन 1757 ई. में हुआ था और इनकी मज़ार कसूर में हैं।

बुल्लेशाह का जन्म कसूर से 21 किमी. दक्षिण-पूर्व में स्थित गांव पंडोक में हुआ था। एक अन्य परम्परा के अनुसार इनका जन्म गीलानियां गांव में हुआ था। बहरहाल अधिकांश इतिहासकार इनका जन्मस्थान लाहौर जिले के कसूर के पंडोक गांव को ही मानते हैं। संभवतः बुल्लेशाह किस्सा हीर राँझा के सुप्रसिद्ध कवि सैयद वारिस शाह के सहपाठी रहे थे। बुल्लेशाह अविवाहित ही रहे। उनकी एक बहिन भी थी जिसने सारा जीवन भगवद् भक्ति में ही व्यतीत किया और अविवाहित रहीं। यद्यपि अपने काव्य में बुल्लेशाह ने अपने परिवार तथा जन्मस्थान के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया है, फिर भी एक जगह यह अवश्य लिखा है कि उनका परिवार सैयद खानदान से था और इनके गुरु इनायत एक अराई (माली) परिवार के थे। सभी परिवारजनों ने बुल्लेशाह की इस बात के लिए लानत-मलामत की थी कि उच्च सैयद वंश से होते हुए भी उन्होंने अराई जाति के व्यक्ति को गुरु स्वीकार किया। बुल्लेशाह ने अपने काफियों में लिखा है "जो कोई मुझे सैयद कहेगा, वह नरक में जाएगा और मुझे अराई कहने वाला स्वर्ग सुख प्राप्त करेगा, अरे बुल्ले, तू सच्चा आनंद चाहता है तो अराई का शिष्य बन।" 

बुल्लेशाह के काव्य और जीवन दर्शन की व्याख्या करने के बजाय उनके काव्यांशों को उधृत करना अधिक उपयुक्त रहेगा।

अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वह कहते हैं कि उन्होंने ही मुझे 'अलख' के दर्शन कराये हैं :-

कहूं बैर पड़ा कहूं बेली है,

कहूं मजनू है कहूं लेली है,

कहूं आप गुरु कहूं चेली है,

आप आप का पंथ बताया है।

कहूं महजत का वर्तारा है,

कहूं बणिया ठाकुर द्वारा है,

कहूं बैरागी जटधारा है,

कहूं शेखन बन-बन आया है।

कहूं तुर्क मुसलमा पढ़ते हो,

कहूं भगत हिन्दू जप करते हो,

कहूं घोड़ घुँगट में पड़ते हो,

 हर घर-घर लाड़ लड़ाया है।

 वह शत्रु भी है और मित्र भी है, वह लैला भी है, मजनूं भी वही है। वही गुरु भी है और शिष्य भी। वह मस्जिद में भी रहता है, मंदिर में भी। वह जटाधारी वैरागी है और शेख भी है, उसी का रूप तुर्क में हैं और वही हिन्दू में प्रकट होता है। वह रहस्य के पर्दे में छिपा है और सर्वत्र प्रेम की वर्षा करता है।

एक अन्य काफिये में बुल्लेशाह कहते हैं कि इस या उस धर्म-सम्प्रदाय का संकीर्णता और कट्टरता से अनुसरण करने पर हम ईश्वर प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि वह तो इन मत-मतान्तरों की संकुचित सीमाओं से बहुत दूर ही है और भक्त की बगल में ही छिपा बैठा है -

मेरी बुक्कल दे विच चोर, 

साधो किसनूं कूक सुणावां,

मेरो बुक्कल दे विच चोर।

किते रामदास किते फतेह मुहम्मद,

इहो कदीमी शोर,

मुसलमान सिवें तो चिढ़दे,

हिन्दू चिढ़दे गोर,

चुक गए सभ झगड़े झेड़े,

 निकल गया कोई होर,

साधो किसनूं कूक सुणावां,

मेरी बुक्कल दे विच चोर।

साधों, मैं किसे बताऊँ कि वह तो मेरी बगल में चोर की तरह छिपा बैठा है। उसके कई नाम हैं जैसे रामदास या फतेह मुहम्मद। पुराने जमाने से शोर सुनते आये हैं कि मुसलमान शव को जलाने से चिढ़ते हैं और हिन्दू शव को जमीन में दफनाने से चिढ़ते हैं। लेकिन वह तो कोई और ही है जो रहस्यपूर्ण है। अब मैं किससे कहूँ कि वह तो चोर की तरह मेरी बगल में छिपा बैठा है।

कबीर, नानक, कुतुबन, मंझन, दादू तथा सूफी संतों की तरह बुल्लेशाह ने भी सभी धर्मों के अर्थहीन कर्मकाण्डों की व्यर्थता का जिक्र किया और अन्तःकरण की शुद्धि व 'मैं' और 'तू' की भावना निश्शेष कर देने पर ही परमानन्द की प्राप्ति की बात की। वह कहते हैं –

उमर गवाई विच मसीती,

अन्दर भरिया नाल पलीती,

कदे नमाज्र वाहदत ना कीती,

हुण कियों करना ऐं घाड़ो धाड़।

जां मैं सबक इश्क दा पढ़िया,

मस्जिद कोलों जिवड़ा डरिया,

भज भज ठाकर द्वारे वड़िया,

घर विच पाया माहरम यार।

वेद कुराना पढ़-पढ़ थक्के,

सिज्दे कर दियां घस गए मथ्थे

न रब्ब तीरथ न रब्ब मक्के,

जिन पाया तिन नूर अँवार।

पूरी उम्र मस्जिद में बिता देने पर भी क्या होगा, अगर तेरी आत्मा मैली है। तूने ईश्वर से तो एकत्व किया ही नहीं, अब रोने-पीटने से क्या होगा। जब मैंने प्रेम का पाठ पढ़ा तो मुझे मस्जिद से डर लगने लगा। मैं मन्दिर में दौड़कर गया, लेकिन ईश्वर मुझे अपने घर में ही मिल गया। जब मुझे प्रेम का पाठ पढ़ना आया तो मैंने मैं और तू को खत्म कर दिया। जब अहंकार से शुद्ध हो गया तो सभी जगह ईश्वर को ही पाया। हीर रांझा मिल गये। मैं वेद और कुरान पढ़-पढ़ कर थक गया था। भगवान मुझे तीर्थ स्थानों में और मक्के में नहीं मिला। उसका प्रकाश सर्वत्र व्याप्त है। बुल्लेशाह कान्हा की वंशी से सम्मोहित रहते हैं -

"बंसी कान्ह अचरज बजाई"

मुरली बाज उठी अन्धातां,

सुन सुन भूल गय्यां सब बातां ।

सुन सुन शाम सुन्दर दिया बातां,

बुल्ले शाह मैं तद बिरलाई,

जद दी मुरली कान्ह बजाई।

बौरी हो के तैं वल धाई,

कहो जी कित वल दस्त बरातां ।

मुरली की तान सुनकर मैं तो सब कुछ भूल गया। कान्हा ने बांसुरी बजाई और मेरे अश्रुधारा बहने लगी। धुन को सुन मैं पागल होकर उधर ही दौड़ा। किसी ने पूछा कि प्रेम की भेंट कहाँ लिये जा रहे हो।

एक अन्य काफिये में कवि कहता है "तुम मुल्ला बनकर कुरान पढ़ते हो और इसके शुद्ध उच्चारण का अभ्यास करते हो, लेकिन तुम्हारा ध्यान सांसारिकता में लगा है और मन हल्कारे की तरह जगह-जगह भाग रहा है।

बण हाफ़ज हिफूज़ कुरान करें,

पढ़ पढ़ के साफ़ जबान करें,

फिर नेमत विच धियान करें,

मन फिरदा जियों हल्कारा है।

मुस्लेशाह सुबूदिया सम्प्रदाय के सूफी कवि हैं जो वहदत-उल-वजूद अर्थात को मानते हैं। वह जाहिद (एकमेव द्वितीयं नास्ति) निर्गुण निराकार भी इदैन र सगुण भी। दरअसल 'वह' इस प्रकार के भेदोपभेद और वर्गीकरण से परे है। सूफी लोग सगुण रूप को तनन्जुलात कहते हैं। बुल्लेशाह कहते हैं -

तुसी समनी भेरवी थीदे हो

हरजा तुसी दिसीदे हो।

अर्थात् सभी रूपों में आप ही दिखाई देते हो, सब जगह आप ही दृष्टिगोचर होते हो।

सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान परमात्मा 'जोत' (प्रकाश) की तरह अपने जमाल (सौन्दर्य) से ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। वह अल्बातिन (अदृश्य) और अज्जाहिर (दृश्यमान) दोनों है। वह अल्अव्वल (सबसे पहले) भी है और अल्आखिर (सबके अन्त में) भी है। वह ब्रह्म अल्वाहिद (एकमात्र) है और अल्खालिक (एकमात्र सृष्टि निर्माता) है। वह अर्रहमान (कृपालु) और अर्रहीम (दयालु) है। वह अल्गफ्फार (क्षमावान) है और अल्करीम (उपकार करने वाला) है।

 परमात्मा पर कितना ही ध्यान एकाग्र किया जाये, फिर भी माया का पर्दा बार-बार मन पर पड़ जाता है और परमात्मा परदे की ओट हो जाता है।

तुसी छिपदे सी असी पकड़े हो,

असी विच जिगर दे जकड़े हो,

तुसी अजे छिपण नूं तकड़े हो

आप छिपते हो और मैं आपको पकड़ता हूं। अब मैंने आपको दिल में जकड़ लिया है लेकिन आप इतने बलवान हो कि फिर छिप जाते हो।

आत्मा और ब्रह्म के मिल जाने पर अहंकार समाप्त हो जाता है, मैं अस्तित्वहीन हो जाता हूं, खुदी पूरी तरह फना हो जाती है। फना होना ही लाहूत है। फिर साधक यह भी नहीं जानता कि वह कौन है बुल्ला की जाणा मैं कौण मिलन की दशा का वर्णन कवि इस प्रकार करता है –

मैनूँ की होया मैथों गई गवाती मैं,

जियों कमली आखे लोकों मैनूं की होया ।

मैं विच देखन ते मैं नहीं बण दी,

मैं विच वसना तूं।

 सिर तो पैरी तीक वी तू ही,

अन्दर बाहर तूं।

यह मुझे हो क्या गया है? मेरा ममत्व समाप्त हो गया है मैं सब लोगों को एक पगली की तरह पूछता हूं कि मुझे क्या हो गया है। अन्दर झांकता हूं, तो खुद को गायब पाता हूं। मेरे अन्दर तो अब तुम हो। सिर से पैर तक तुम हो, अन्दर- बाहर भी तुम ही तुम हो।

सूफी लोग इस संसार को स्वप्नवत मानते हैं। जब तक हम सपना ले रहे हैं संसार सच्चा दिखाई दे रहा है। जग जाने पर ही तो पता चलता है कि यह तो मात्र स्वप्न था, वास्तव में तो था ही नहीं। बुल्लेशाह कहते हैं-

मैं सपना सब जग वी सुपना

सुपना लोक बिबाणा

खाकी खाक सियों रल जागा

कुछ नहीं जोर धींगाणा।

मैं भी स्वप्न हूं, सारा संसार स्वप्न है, सब लोग स्वप्न हैं, खाक से बना हुआ यह खाक में ही मिल जाएगा। इसमें कोई किसी का जोर नहीं चलता।

एक अन्य स्थान पर बुल्ले कहते हैं "यह मैं अथवा मेरा शरीर न मेरी है न तेरी है। यह एक खाक की ढेरी है जो बिखर जाती है। यह ढेरी ही नाचती रहती है। अब आप किस से अपने को छिपा रहे हैं।" आत्मा के बारे में बुल्लेशाह फरमाते हैं-

नाम हम खाकी ना हम आतश

ना पाणी ना पौण

कुप्पी दे विच रोड़ खड़कदा,

मूरख आखे बोले कौण।

बुल्ले सांई घट-घट रबिया,

ज्यों आटे बिच लौण।

-न तो मैं मिट्टी से बनी हूं, न अग्नि से, न जल से और न पवन से। इस कुप्पी में जब कोई पत्थर का ढेला खड़कता है तो मूर्ख पूछता है "यह कौन बोल रहा है?" बुल्ले कहता है कि परमात्मा तो घट-घट में रहता है, जैसे आटे में नमक मिला होता है।

बुल्लेशाह ने सरल लोकभाषा में अपने हृदयोद्गार प्रकट किये हैं। उनके काव्य की शक्ति है अकृत्रिमता, सहजता और सच्चाई। उनके काव्य में अलंकारों और उक्ति वैचित्र्य की प्रदर्शनी नहीं लगाई गई है। जैसे भी भाव-विचार कवि के मन में आये हैं, उन्हें वैसा का वैसा गा दिया गया है। देखिये माटी के लिए वह क्या कहते-

 माटी कुदम करेंदी यार,

वाह वाह माटी दी गुल्जार।

माटी घोड़ा माटी जोड़ा माटी दा अस्वार,

माटी माटी नूं दोड़ावे माटी दा खड़कार।

माटी माटी नूं मारन लग्गी माटी दे हथियार,

जिस माटी पर बोहती माटी, सो माटी हँकार।

माटी बाग बगीचा माटी, माटी दे गुल्जार,

माटी माटी नूं देखण आई माटी दी बहार।

हस खेड फिर माटी होवे, पैंदि पान पसार,

बुल्ला जे एह बुझारत बुझै तां लह सिरों भुऐं मार।

अरे प्रियतम यह मिट्टी तुमसे मिलने में बाधा डालती है। चारों तरफ मिट्टी का बाग खिल रहा है। मिट्टी का घोड़ा है, मिट्टी का जोड़ा है और मिट्टी का ही घुड़सवार है। मिट्टी ही मिट्टी को दौड़ा रही है और मिट्टी की ही आवाज मिट्टी सुन रही है। मिट्टी ही मिट्टी को मारने दौड़ रही है और मिट्टी के हथियार चला रही है। मिट्टी पर मिट्टी चलती है और उसमें अहंकार है। यह संसार मिट्टी का ही बाग-बगीचा है। मिट्टी ही मिट्टी की बहार देख रही है। हंस-खेलकर मिट्टी ही फिर मिट्टी में मिल जाती है। बुल्ला कहते हैं कि यदि असली अर्थ समझना है तो अहंकार को उतारकर धरती पर डाल दो।

बुल्लेशाह एक बेशर फकीर थे। बेशर फकीर उन्हें कहा जाता है जो मुसलमान तो कहे जा सकते हैं लेकिन वे शरीयत के नियमों का पालन नहीं करते। इसके विपरीत ब-शर फकीर वे होते हैं जो इस्लाम के कायदे-कानून मानते हैं। बेशर फकीर मज्जूब (बावला) फकीर भी कहलाते हैं। इन्हें परमहंस फकीर कह सकते हैं। ये लोग दुनियादारी से पूरी तरह दूर होकर ईश्वर चिन्तन में ही तल्लीन रहते हैं। ईश्वर क्योंकि अल्जब्बार और अल्कहजार है इसलिए पाप कर्म से हमें बचते रहना चाहिए, क्योंकि ईश्वर का दण्ड भयानक होता है। फकीर को आत्मसंयम का अभ्यास करने के लिए सब्र की आदत डालनी होती है। फकीर को मुराकबाह (भक्ति) और ध्यान करते रहना होता है। बुल्लेशाह का मार्ग इश्क का मार्ग था, अतः शरीयत के कानून- कायदे बुल्लेशाह जैसे मस्तमौला फकीर को रास नहीं आ सकते थे। वह कहते हैं-

करम शरा दे धरम बतावन

संगल पावन पैरी

जात मजहब एह इश्क ना पुछदा

इश्क शरा दा वैरी

शरीयत के नियम हमारे पैरों में बेड़ी डालते हैं, इश्क किसी की जाति धर्म नहीं पूछता। इश्क को तो शरा से दुश्मनी है।

बुल्ले कहते हैं-

इश्क दी नवीयों नवी बहार

जद मैं सबक इश्क दा पढ़या,

मस्जिद कोलों जियोड़ा डरया।

डेरे जा डाकुर दे वडया,

जिथे वजदे नाद हज़ार ।।

ईश्वर प्रेम की नई बहार है। जब मैं प्रेम का पाठ पढ़ने लगा तो मुझे मस्जिद से डर लगने लगा। फिर मैंने ठाकुर के डेरे में प्रवेश किया, जहां हजारों घण्टे घड़ियालों का संगीत गूंज रहा था।

ईश्वरीय ज्ञान की तीन सीढ़ियाँ होती हैं-

(1) इल्मुल्मबादी-यह कुरान हदीस का प्रारम्भिक ज्ञान है।

(2) इल्म-उल-कसिद- यह मजहब के विषय का ज्ञान है।

(3) इल्म-उल-मकाशफाह-यह ज्ञान हृदय में प्रकाशित होता है।

यह सत्य का सम्पूर्ण ज्ञान है। बुल्लेशाह ने इसी तीसरे प्रकार के ज्ञान को महत्व दिया है। पहले दो ज्ञान तो अनावश्यक हैं। वे कहते हैं 'इक्को अलिफ तेरा दरकार' अर्थात् वर्णमाला का पहला अक्षर अलीफ ही काफी है। अलीफ एकत्व का और इसलिए अद्वैत ब्रह्म का प्रतीक है। अलीफ का ज्ञान होना यानी उस एकमात्र का ज्ञान हो जाना। बुल्लेशाह कहते हैं-

"जब मैंने प्रेम मार्ग को जाना तो मेरे और तेरे की भावना पूरी तरह समाप्त हो गई। मेरा अन्दर और बाहर दोनों शुद्ध हो गये और सर्वत्र मुझे मेरा प्रियतम ही दिखाई देने लगा। हीर को रांझा मिल गया। वह प्रेमी की खोज में भटक रही थी, लेकिन प्रेमी पर्दे के पीछे छिपा हुआ था। परमात्मा को देखते ही मेरे होश गुम हो गये। मैं वेद-पुराण का पाठ करते-करते थक गया था। सिर झुकाते-झुकाते (सिज्दे करते) मेरा ललाट घिस गया था, खुदा न तो तीर्थों में है न मक्का में। जो उसमें डूब गया, उसे उसके नूर के दर्शन होते हैं। पूजा का आसन जला दो, कलश तोड़ दो, माला फें​क दो, कानून-कायदे त्याग दो। मैंने इतना जीवन मस्जिद में ही गंवा दिया , अन्त:करण तो साफ नहीं था।  मैंने कभी नमाज नहीं की। अब तुम जोर - जोर से क्यों चिल्लाते हो कि इश्क ने मुझे नमाज से दूर कर दिया है। क्यों मुझसे झगड़ते हो? इश्क की लहर में बुल्ला मौन हो जाता है।"

अब बुल्ले का परमात्मा से मिलन हो गया है - 

राँझा जोगिण बण आया,

 वाह सांगी सांग रचाया।

 राँड़ा जोगी ते में जुगियाणीं,

 इस दी खातर भरसां पाणीं,

 ऐवें पिछली उमर विहाणी,

 इस हुण मैनूँ भरमाया।

मेरा राँझा जोगी बनकर आया है। वह तो सांगी है और सांग रचना ही उसका काम है। राँझे जोगी की मैं जोगिन हूं। मैं अब उसी की चाकरी करूंगी, उसी के लिए पानी भरूंगी। मेरा पिछला जीवन बेकार ही चला गया। उसने मुझे बहुत ही भरमाया है।

शरीयत (इस्लामी विधि-विधान) के अनुसार धर्माचरण करने की व्यवस्था इस्लाम में हैं लेकिन बुल्लेशाह जैसे बेशर सूफी फकीर शरीयत को आध्यात्मिक ऊंचाई तक पहुंचने के लिए अपर्याप्त मानते हैं। ये लोग समस्त औपचारिक प्रार्थना, उपवास और अनुशासन को व्यर्थ मानकर प्रेम के मार्ग पर चल पड़ते हैं और इसलिए इन्हें विद्रोही माना जाता है। इनका मार्ग फना होने (मोक्ष) का मार्ग है। संक्षेप में सूफी मार्ग शुद्ध अध्यात्म का मार्ग है और यह किसी भी संगठित धर्म के अनुशासन से बाहर है।

सूफी काव्य में शब्दों का लाक्षणिक अर्थ ही महत्व रखता है। वस्तुएं प्रतीकात्मक अर्थ रखती हैं और उनके बारे में कहे गये कथन रूपकों अथवा मेटाफर की गहनता रखते हैं। कई प्रतीक तो इतने प्रचलित हो गये हैं कि उनके बिना फारसी और उर्दू काव्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। जैसे मयखाना, रिन्द, पारसा, साकी, जाम, मीना, सागर, होश खुमारी आदि। बुल्लेशाह तथा अन्य पंजाबी कवियों के प्रतीक हैं - हीर राँझा, माशूक, आशिक, पेकाघर (पीहर अर्थात् संसार) सोहुरा घर (ससुराल अर्थात् ईश्वर), त्रिंझन (चरखा चलाने वाली बहिनें), झानां (प्रेम की नदी), सराय (जहां मुसाफिर ठहरता है, संसार)। माँ-बाप के घर में कन्या को अपने तन-मन के चरखे पर सद्‌गुण का सूत कातना होता है जो वह अपने साथ सुसराल ले जाती है। मुर्शीद वह जुलाहा है जो बालिका द्वारा बुने सूत को तार्णी (ताना-बाना) का रूप देता है। बुल्लेशाह ने ईश्वर के लिए 'कान्ह', साधक के लिए 'गोपी' और भक्ति के उन्माद के लिए 'मुरली की धुन' जैसे प्रतीकों का प्रयोग किया है। बुल्लेशाह संसार के हर प्राणी और प्रकृति की हर वस्तु में ईश्वरानुभूति करते हैं

हुण किस थी आप छपाई दा,

 किते मुल्ला हो बुलेन्दे हो,

किते सुन्नत फ़र्ज़ दसेन्दे हो,

किते राम दुहाई देन्दे हो,

किते मध्ये तिलक लगाई दा,

बेली अल्लाह वाली मालिक हो,

तुसी आपे अपने सालिक हो,

आपे खल्क़त आपे कालिक़ हो,

आपे अमर मारूफ़ कराई दा,

किथरे चोर हो किधरे क़ाज़ी हो,

किते मिम्बर ते बेह वाज़ी हो,

किते तेग बहादुर ग़ाज़ी हो,

आपे अपना कतक चढ़ाई दा,

बुल्ला शाह हुण सही सिंझाते हो,

हर सूरत नाल पछाते हो,

किते आते हो किते जाते हो,

हुण मैथों भूल ना जाई दा,

हुण किस तों आप छपाई दा।

अब आप हमसे कैसे छिपते रहोगे? कहीं तो आप मुल्ला बनकर हमें पुकारते हो और शिक्षा देते हो, कहीं आप राम बनकर सत्य की घोषणा करते हो, कहीं आप मस्तक पर तिलक लगाते हो। आप स्वयं ही अपने मालिक और सालिक हो, आप ही यह सृष्टि हो और आप ही सृष्टि की रचना करने वाले हो, आप ही स्वामी और सेवक हो, कहीं आप चोर होते हो और कहीं न्यायाधीश हो जाते हो, कहीं आप तेग बहादुर जैसे धर्मयोद्धा हो और सैन्य अभियान करते हो। अब बुल्ले ने आपको अच्छी तरह पहचान लिया है, आपके सभी रूपों को जान लिया है। अब आप कहीं भी आओ या कहीं भी जाओ, मुझे मत भूल जाना। अब आप किससे छिप रहे हो?

बुल्लेशाह द्वारा लिखी गई पांडुलिपियां नहीं मिलीं। संभवत: वह अपने द्वारा रचे हुए काफियों का विभिन्न रागों में केवल गान करते थे और उनके शिष्यों और अनुयायियों ने इसी गान-परम्परा में प्रचलित काव्य को बाद में लिख लिया हो। यही कारण है कि उनके काव्य के विभिन्न अंश कई स्रोतों से इकट्ठे किये गये हो। विख्यात लेखक सुरिन्द्र सिंह कोहली लिखते हैं "डॉ. मनमोहन सिंह ने सन् 1930 में बुल्लेशाह के पचास काफ़िए, भूमिका, टिप्पणियों, जीवन-वृत्तान्तों, सूची पत्रों   आदि सहित प्रकाशित किए। इस प्रकाशन में उनके संग्रह स्रोतों में प्रेम सिंह जुर्गर का उपर्युक्त संग्रह भी सम्मिलित हैं। अन्य स्रोत हैं- 'शब्द श्लोक भक्तां दे', सन् 1900 और 1904 में राय साहिब मुंशी गुलाब सिंह एण्ड सन्स द्वारा प्रकाशित। उनके द्वारा वर्णित अन्य स्रोत हैं - पंजाब विश्वविद्यालय पुस्तकालय में हस्तलिपि प्रति संख्या-374 और 4684 तथा लाहौर की एक पाण्डुलिपि-हिफ़्जुल उलूम। संग्रहकर्ता ने 7 काफिए तो हिफ़्जुल अलूम की पाण्डुलिपि संख्या 3748 से लिए हैं, 16 काफ़िए पाण्डुलिपि सं. 4684 से लिए हैं तथा शेष 96 काफ़िए 'शब्द लोक भक्ताँ दे' से लिए हैं। अन्तिम 19 काफ़ियों में 17 काफ़िए तो वही सम्मिलित हैं जो प्रेम सिंह के संग्रह में थे। 'क़ानूने-इश्क' नामक संग्रह में 116 काफ़िए हैं.....।""

 बुल्लेशाह जैसे सूफी संत-कवियों के काव्य की धारा भारत में लगभग सात शताब्दियों तक बहती रही और इस काल में जनसाधारण में यह भावना बलवती रही कि संसार में चाहे अनेक धर्म प्रचलित हों, किन्तु सच्चा धर्म तो एक ही है। अनेक धर्म हो ही नहीं सकते क्योंकि सत्य एक ही होता हे। भक्तिकाल के समस्त कवि मत-मतान्तरों, संप्रदायों और कट्टरता से दूर रहे। संकीर्णता और वैमनस्य के इस युग में यह बात अविश्वसनीय लगती है कि रसखान और रहीम ब्रजधाम के 'वन बाग तड़ाग' निहारने के लिए 'आठों सिद्धि नवो निधि' को कुरबान करते थे और तुलसीदासजी मस्जिद में सोया करते थे। इसलिए बुल्लेशाह की प्रासंगिकता आज उस कालखंड से भी ज्यादा है जिसमें वह रहते थे।

 संदर्भ ग्रन्थ :-

1. 'संस्कृति के चार अध्याय' - अध्याय इस्लाम धर्म दिनकर

2. वही

3 . हेनरी बेरलिन कृत 'द दीवान ऑफ अबुल अरा' के एक पद से, जिसे  दिनकर जी ने उद्धत किया है।

4. इकबाल 'The Secret of the Self

5. जायसी ग्रंथावली की भूमिका - रामचन्द्र शुक्ल

6. संस्कृति के चार अध्याय रामधारी सिंह दिनकर

7. बुल्लेशाह श्री सुरिन्द्र सिंह कोहली


मंगलवार, 2 जनवरी 2024

तत्पर प्यादा..... - दोलन राय


  दोलन राय
      कवयित्री,लेखिका और पत्रकार 

तत्पर   प्यादा.....

छोटा सा प्यादा,

ना समझ सका ज्यादा

अकारण ही आगे बढ़कर

 क्यों हो गया करने पर आमादा

 राजा एवं मंत्री की मंत्रणा को

 समय कम है ना समझ सका

 जीवन सत्य की कटु यंत्रणा को

 असीम आकलन के उस

  शून्य सत्य को

जीत हार के मध्य के तांडव को

 शतरंज केवल एक खेल नहीं है

 देखो चाल को

 किसी का किसी से मेल नहीं

 कितना अंतर है

 अभियंतर है, संघर्ष निरंतर है

निर्धारित चाल कोई नहीं बेचाल है

 गणना अनुमान झूठा सम्मान

 अपनी अपनी पहचान केवल चलना है

आओ बैठो समक्ष हमारे

 शतरंज खेलना है शतरंज खेलना है


                                                                                                           

कविता में अभिव्यक्ति की तलाश- डॉ.मनु शर्मा

डॉ.मनु शर्मा 
 वरिष्ठ साहित्यकार और आलोचक
टोंक (राजस्थान)

                  कविता में अभिव्यक्ति की तलाश

लुहार जब लोहे को आग में तपाना शुरू करता है तभी से यह सोचना शुरू कर देता है कि उसे कुल्हाड़ी बनानी है या संडासी। कुल्हाड़ी में बेंटा लगाने की जगह को गोल बनाना है या चौकोर । कुल्हाड़ी के निचले हिस्से में कोई कोण देना है या उसे सपाट रखना है। लोहा गर्ग होने तक यह विचार प्रक्रिया उसके मानसिक स्तर पर बराबर चलती रहती है और गर्म हो जाने के बाद वह लोहे को घन, एरन, हथोड़े और संडासी के माध्यम से एक निश्चित आकार में ढाल देता है। कवि भी ऐसा ही करता है। जीवन और जगत् से प्राप्त अनुभवों को वह मानसिक स्तर पर फिर से जीता है। उन्हें नये सिरे से रचता है। अपने अनुभवों की पुनर्रचना कर लेने के बाद वह उन्हें भाषा के माध्यम से व्यक्त करता है। वस्तुतः अनुभवों की पुनर्रचना के दौरान उसकी अभिव्यक्ति का स्वरूप तय हो जाता है। कहां कल्पना का विस्तार दिखाना है, कहां कौनसे भाव को तीव्र और सघन बनाना है, किस संवेदना के लिए कौनसा बिम्ब अर्थवान होगा। यह सब वह मानसिक स्तर पर पहले से तय कर लेता है फिर भी यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक प्राप्त अनुभव की वह सार्थक अभिव्यक्ति नहीं कर देता।

एक कवि के लिए अपनी अनुभूति और उसकी अभिव्यक्ति को अलग-अलग कर पाना बड़ा मुश्किल है। इन दोनों के मेल से ही कविता एक संश्लिष्ट इकाई बनती है। कविता में अनुभूति और अभिव्यक्ति की स्थिति ऐसी ही है 'कनक मांहि आभरण लौह में जैसे शस्तर । आभूषण सोने का और शस्त्र लोहे का एक रूप विशेष है। आभूषण को सोने से और शस्त्र को लोहे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। इसी तरह कविता में भी क्या कहा गया है और कैसे कहा गया है, इन दोनों पक्षों के तंतु एक-दूसरे में इतने उलझे रहते हैं कि सतही तौर पर कोई निष्कर्ष निकाल लेना ठीक नहीं है।

कविता में कवि ने अपने इन्द्रिय बोध, भावों और विचारों को किन-किन रूपों में प्रकट किया है, इसे जान लेना ही अभिव्यक्ति की खोज है।

       'शोकः श्लोकत्वमागतः' के सन्दर्भ से तो सभी परिचित है। क्रोंच पक्षी के वध से उत्पन्न शोक की तीव्र अनुभूति एक श्लोक के रूप में व्यक्त हुई। देखा जाय तो महर्षि वाल्मीकि ने 'मा निषाद श्लोक में वस्तुस्थिति का वर्णन मात्र किया है। वहां न कोई सादृश्य है, न सम्मूर्तन और न प्रतीक। भाषा भी सीधी-सादी और अकृत्रिम है। फिर भी शोक की ऐसी सशक्त अभिव्यक्त्ति विश्व साहित्य में ढूंढने पर शायद ही मिले। इसका एक मात्र कारण है अनुभूति की मार्मिकता। उसकी तीव्रता ने वस्तुगत यथार्थ को गौण कर दिया है। एक तरह से अनुभूति की तीव्रता और मार्मिकता ही इस श्लोक में पुनर्रचना का विकल्प हो गई है। दूसरे शब्दों में अनुभूति ने कल्पना को किंकर्त्तव्य- विमूढ़ कर दिया। उसके उठान को एक धक्के से रोक दिया है। इससे स्पष्ट है कि मार्मिक अनुभूतियों के क्षणों में किया जाने वाला वस्तु वर्णन भी अत्यन्त प्रभावकारी हो जाता है। ऐसी अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए कवि को किसी चमकदार भाषा का मोहताज नहीं होना पड़ता। यह भी देखा गया है कि कलात्मक अभिव्यक्ति के चक्कर में कई बार कवि अनुभूति की सहजता को चौपट कर देते है।

यह कहना कि अनुभूति खुद अभिव्यक्ति का स्वरूप तय कर लेती है, आंशिक सत्य है। अभिव्यक्ति भी निरन्तर अनुभूति को प्रभावित करती चलती है। कभी-कभी तो अभिव्यक्ति अनुभूति की दिशा ही बदल देती है। कवि कहना कुछ चाहता है और कह कुछ और जाता है। मिल्टन का 'पैराडाइज लास्ट' इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। मिल्टन ने पाप और पुण्य के जिस संघर्ष के जरिये ईश्वरीय न्याय को दिखाना चाहा वह उनके आत्मसंघर्ष में परिणत हो गया है। मुक्तिबोध की फंतासी उनकी संवेदनाओं को निरन्तर अपनी गिरफ्त में रखती है।   

दरअसल अनुभूति और अभिव्यक्ति एक-दूसरे की पूरक है। जहां अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा अनुभूति में काट-छाँट करती है, वहीं अनुभूति भाषा को नयी अर्थवत्ता देती है। जब कभी कवि किसी खण्डित अनुभूति को रचना का आधार बनाता है, तब अभिव्यक्ति ही उसे पूर्ण करती है। इसका कारण यह है कि भाषा एक सामाजिक माध्यम है। वह समाज के समस्त जीवन अनुभवों से संवलित रहती है। कवि अपनी खण्डित अनुभूति को जब उन जीवन अनुभवों के समानान्तर रखता है, तो उसका परिप्रेक्ष्य स्वतः विकसित होता चला जाता है। यों कह सकते हैं कि शब्दों के अर्थ में निहित सामाजिक सत्य से संयुक्त होकर कवि का खण्डित अनुभूत सत्य पूर्ण हो जाता है। कई बार कवि को यह लगता है कि वह जो कुछ कहना चाहता है, उसे कह नहीं पा रहा है। तीव्र से तीव्रतर होती अपनी अनुभूतियों को वह शब्दों में बांध पाने में असमर्थ हो जाता है। उसकी अनुभूतियां जितनी गतिशील होती हैं, उसके मुकाबले में भाषा उतनी ही ठस साबित होती है। परिणामतः उसे अपनी बात इतनी घुमा-फिरा कर कहनी पड़ती है कि अनुभूति का काम्य रूप ही नष्ट हो जाता है। दरअसल अभिव्यक्ति और माध्यम के बीच भी द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध है। माध्यम की सीमायें जहां अभिव्यक्ति पर दबाव बनाये रखती हैं, वहीं अभिव्यक्ति माध्यम को विकसित करती है। उसकी सृजनात्मक संभावनाओं को उद्घाटित  करती है।

कविता ही नहीं किसी भी कलाकृति में माध्यम के जरिये अभिव्यक्त होने वाले भाव, विचार और संवेदन ही हमारे लिए महत्वपूर्ण होते हैं। माध्यम के उपयोग से पहले कवि ने अपनी संवेदनाओं आदि को कौनसा रूप दिया था और माध्यम के जरिये ये कौनसा रूप पा गये है, इसे जानने का हमारे पास कोई आधार नहीं होता। वह कवि का व्यक्तिगत मामला है। और यह व्यक्तिगत मामला तभी तक रहता है जब तक कवि अपने भीतरी संसार को बाहर नहीं ला देता है। भाषा के द्वारा उसे मूर्त रूप नहीं दे देता है। बाह्यकृत हो जाने के बाद उस भीतरी दुनिया के मूल रूप का कोई महत्त्व नहीं रहता और मैं समझता हूँ कवि स्वयं भी उस रूप को लेकर किसी तरह के तनाव में नहीं जीता। कवि का सारा सृजनात्मक तनाव अनुभूतियों आदि को एक ऐन्द्रिक माध्यम में प्रस्तुत करने तक रहता है। अभिव्यक्ति उसे सृजनात्मक तनाव से मुक्ति दिलाती है।

अभिव्यक्ति का उत्कर्ष कवि की रचना प्रक्रिया और रचना के बीच देखा जा सकता है। इन दोनों छोरों के मध्य वस्तु की सत्ता बराबर बनी रहती है। यानी उस वस्तु को प्रस्तुत करने का तरीका ही अभिव्यक्ति का ठाठ है। एक सहृदय के लिए महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि का अनुभव विश्वसनीय और प्रामाणिक है या नहीं। महत्त्वपूर्ण यह है कि उस अनुभव की अभिव्यक्ति विश्वसनीय है या नहीं। कुशल अभिव्यक्ति के अभाव में विश्वसनीय अनुभव भी कोई खास असर पैदा नहीं कर पाते। जबकि कई बार अविश्वसनीय से लगने वाले अनुभव माध्यम के उचित इस्तेमाल और सार्थक अभिव्यक्ति से सहृदय को बांध लेते हैं।

कविता में अभिव्यक्त वस्तु का सम्बन्ध कवि से और अभिव्यंजित वस्तु का सम्बन्ध सहृदय से होता है। अपनी कल्पना से कवि वस्तु के विभिन्न रूप तैयार करता है। उनमें एकसूत्रता कायम करके उन्हें एक व्यवस्था देता है। वस्तु के अभिव्यक्त रूपों से क्या प्रकट हो रहा है, यह पाठक का विषय क्षेत्र है। कवि भावों आदि को अपने अनुभव का हिस्सा एक ढंग से बनाता है और उनकी अभिव्यक्ति दूसरे ढंग से करता है। कवि खुद जो जीवन जीता है, वह तो उसके अनुभव का हिस्सा होता ही है। दूसरों के द्वारा जिए गये जीवन को भी वह अपने अनुभव का हिस्सा बनाता है। दुष्यन्त का जीवन स्वयं कालिदास का जीवन नहीं है और न ही राम का जीवन तुलसीदास का जीवन है। परम्परागत ज्ञान के सहारे कालिदास और तुलसीदास ने इन चरित्रों के जीवन को अपने अनुभव का अंग बनाया है और उसे आधार बना कर काव्यकृतियों की रचना की है। यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कवि की अभिव्यक्ति उसके अनुभव का यथातथ्य प्रतिबिम्ब नहीं होती है। कवि अपने मन्तव्य के हिसाब से अनुभवों में बराबर कुछ घटाता-बढ़ाता रहता है। वह कभी-कभी उन पर अपनी कल्पना का ऐसा रंग चढ़ाता है कि उनके वास्तविक रूपों की खोज मुश्किल हो जाती है। कवि के अनुभवों की कलात्मक अभिव्यक्ति ही उसकी पहचान का एक मात्र रास्ता है। इस रास्ते को छोड़ देने पर हम कवि और कविता के बारे में संगत निष्कर्षों तक नहीं पहुँच सकते।

कलात्मक होने के अलावा अभिव्यक्ति में एक गुण और होना चाहिए। जिसकी ओर संकेत करते हुए गोस्वामी जी ने लिखा है –

कीरति भनिति, भूति मली सोई।

सुरसरि सम हित सब कह होई।।

कवि की 'भनिति' यानी अभिव्यक्ति का ढंग ऐसा हो, जिससे लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो सके। जो सबके लिए हितकर हो। प्रश्न यह है कि हितकर अभिव्यक्ति कैसी होती है? मैं समझता हूँ जीवन के विशद् अनुभवों को मानवीय संवेदनाओं के सन्दर्भ में प्रस्तुत करना ही हितकर अभिव्यक्ति हो सकती है। कवि यदि कोरी वाग्मिता दिखाने में ही प्रवृत्त रहता है और पाठक में कोई भाव नहीं जगाता तो उसकी अभिव्यक्ति हितकर नहीं कही जा सकी। संवेदनाओं समृद्ध अनुभव कोरे ज्ञान का विषय नहीं रह जाते हैं। काव्य को इसीलिए हमारे पुराने आचार्यों ने ''कान्ता सम्य उपदेश'' की श्रेणी में रखा है। प्रिया की कही हुई बात जैसे सीधे मन पर छा जाती है. ऐसे ही संवेदनाओं में ढला हुआ जीवन अनुभव भी हमारे मन को छूता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जो चीज मन पर छा जाती है, उसका असर लम्बे समय तक रहता है और यह मनुष्य के स्वभाव एवं आचरण को संशोधित करती है।

अभिव्यक्ति पर विचार करते समय दो बातों पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। पहली है रूप और दूसरी है शैली। जिसे हम रूप पक्ष कहते हैं वह अभिव्यक्ति का प्रारम्भिक चरण है। रूप का सम्बन्ध वस्तु जगत की पुनर्रचना से है। कवि अपनी कल्पना और यथार्थ में कितना संतुलन रखता है। यथार्थ के समान प्रकृति वाले तत्वों में कहां तक समानता दिखाता है और विपरीत प्रकृति के तत्त्वों में वैषम्य की सृष्टि कितनी करता है। विभिन्न इन्द्रिय बोधों में से वह सर्वाधिक बल किस इन्द्रिय बोध पर देता है। किन-किन इन्द्रिय बोधों का आपस में संक्रमण दिखाता है। भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए किस तरह के प्रतीक चुनता है और उनके अर्थ सन्दर्भों का विकास कैसे करता है। इन सबका अध्ययन अभिव्यक्ति की खोज का विषय है। दूसरी चीज है शैली। शैली से कवि की कल्पना की प्रसार विधि का पता चलता है। कल्पना की प्रसार विधि ही कविता के स्थापत्य को निर्धारित करती है। 

कुछ लोगों का मत है कि कविता शब्दों से लिखी जाती है और बकौल डॉ. नामवर सिंह वह निरर्थक होती है। शब्दों से कविता के लिखे जाने की बात कहने वालों की जड़ें क्रोचे के अभिव्यंजनावाद में है और अभिव्यंजनावाद ब्रेडले के 'कला, कला के लिए' सिद्धान्त से निकला है। कविता को शब्दों तक सीमित कर देने वाले लोग पूरी तरह से माध्यम पर निर्भर दिखाई पड़ते है। कोरा चाक घुमाकर कुम्हार घड़ा नहीं बना सकता और न ही अच्छे से अच्छा बढ़ई मात्र बसूले से कोई कुर्सी बना सकता है। घड़ा बनाने के लिए कुम्हार को चाक पर मिट्टी चढ़ानी पड़ेगी और बढ़ई लकड़ी को बसूले से छील-छाल कर ही कुर्सी बना पायेगा। कवि की गांठ में जब तक भाव, विचार और संवेदन की पूंजी नहीं होगी, वह खाली शब्दों से कविता नहीं लिख सकता। 

चाक को कुम्हार की और बसूले को बढ़ई की अभिव्यक्ति कोई नहीं कहेगा। शब्द कवि की अभिव्यक्ति नहीं है। सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है। कविता में भाषा का अध्ययन अभिव्यक्ति के माध्यम के तौर पर ही होना चाहिए। देखना यह चाहिए कि अभिव्यक्ति के लिए कवि ने माध्यम का कितना सही इस्तेमाल किया है। कवि के शब्द चयन, शब्द प्रयोग, शब्द निर्माण, पद रचना, वाक्य रचना और ध्वनि संयोजन पर विचार करके ही यह बताया जा सकता है कि माध्यम का सही उपयोग हुआ है या नहीं।

 अभिव्यक्ति का मूल स्रोत कवि की कल्पना है। यही उसकी रचना शक्ति है। कल्पना के जरिये ही कवि वस्तु जगत की मानसिक पुनर्रचना करता है। अपने इन्द्रिय बोध, भाव बोध और विचारों में संगति बिठाता है। उन्हें एक निश्चित आकार देता है। कविता में रहने वाले सादृश्य, सम्मूर्तन और प्रतीक उन आकारों की ही अभिव्यक्ति होते हैं। सादृश्य, सम्मूर्तन और प्रतीक कवि की अभिव्यक्ति के घटक हैं। इन्हीं के अध्ययन से हम जान सकते हैं कि अभिव्यक्ति सार्थक है या नहीं। ये घटक अभिव्यक्ति ही नहीं अनुभूति के स्वरूप को भी उद्घाटित करते हैं। वस्तुतः कविता का सारा सौन्दर्य इन्हीं में निहित होता है। मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि किसी रचना में यथार्थ का वर्णन पर्याप्त नहीं होता। महत्वपूर्ण यह है कि यथार्थ की पुनर्रचना कैसे की गई है। आपको ऐसी कई रचनाएँ मिल जायेगी जिनमें यथार्थ का चित्रण इस ढंग से किया गया है कि वह अस्वाभाविक और बनावटी हो गया है। समर्थ भाषा होने के बावजूद भी ऐसी कविताओं की अभिव्यक्ति को उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।

कविता में सम्प्रेषणीयता का प्रश्न भी अभिव्यक्ति से जुड़ा है। सम्प्रेषणीयता पर विचार करते ही हमारा ध्यान कवि और कविता के अतिरिक्त सीधा पाठक पर जाता है। कविता में कवि जो कुछ कह रहा है, उसे पाठक ग्रहण कर रहा है या नहीं। यदि कविता को पाठक ग्रहण नहीं कर रहा है; तो उसका एक कारण भावों आदि के प्रस्तुतीकरण का ढंग है और दूसरा भाषा का आलंकारिक होना है। भाव और अनुभूतियाँ तो सभी मनुष्यों में मिलती हैं। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि पाठक कवि की अनुभूतियों से सर्वथा अपरिचित होता हो। इसका मतलब यह है कि कवि की अभिव्यक्ति में कोई ऐसा पेच है जो कविता को ग्रहण करने में आड़े आ रहा है। या फिर कवि इतना वाग्छल कर रहा है कि अनुभूति का बारीक रेशा रह रहकर झटके खाने लगता है। कुशल अभिव्यक्ति वही है जो पाठक को कवि की भाव भूमि पर सहजता से पहुँचा देती है।

अतः कहा जा सकता है कि अभिव्यक्ति कवि की रचना प्रक्रिया का महत्वपूर्ण सोपान है। अभिव्यक्ति का उत्कर्ष कवि की अनुभूति के स्वरूप और माध्यम के उचित प्रयोग पर निर्भर करता है। प्रतिभाशाली कवि उस चीज का चित्रण करता है जो संभावना युक्त है। यानी जो विश्वास करने लायक है। अविश्वसनीय चीजों का चित्रण कवि की विश्वसनीयता को आघात पहुँचाता है।

 

 

 

 

 

सोमवार, 1 जनवरी 2024

क्या तुम समझ पाते हो- प्रकाश प्रियम


                                                                        प्रकाश प्रियम

क्या तुम समझ पाते हो

मेरी कविताओं में मेरे ज़हन की

आंतरिक संवेदना को

मैं कविता में क्या लिखता हूँ

मेरे शब्द कैसे होते हैं

क्या तुम विवेचन कर सकते हो

क्या तुम्हारे मन को झिंझोड़ा

मेरे शब्दों ने कभी

क्या उन्हें पढ़कर तुम्हें रोना आया है

अथवा कभी ख़ुशी मिली

क्या कभी क्रोध जगा

या कि फिर स्वेद बहा तन से

या कभी किसी के लिए करुणा जगी

कि मन में कोई बदलाव आया तुम्हारे

ये सब तुममें यदि उद्भूत नहीं हुए

यदि मेरी कविता तुम्हारे संवेदों को

नहीं जाग्रत कर पाई

तो तुम्हें कविता पढ़ना बंद कर देनी चाहिए

अथवा फिर मुझे लिखना

कविता— युद्ध- डॉ.राजेंद्र प्रसाद गर्ग

डॉ.राजेंद्र प्रसाद गर्ग

 प्रोफेसर,विचारक,लेखक और संपादक-'नवमानव'

युद्ध

कभी नहीं मिटती इसकी भूख

चबा जाता है युद्ध

दोनों तरफ के नौजवानों का

ताजा गोस्त और रंगीन सपने।

चबा जाता है युद्ध

बच्चों का कोलाहल

युवकों के गीत

बुजुर्गो की चौपाल

कोई नहीं बचता इसके जबड़े में फंस कर

न प्राचीन स्मारक न शिलालेख न दस्तावेज

न कुतुबखाने न मयखाने न तर्क न संवाद

न परिन्दे न दरिन्दे न घोंसले न घर।                                          

इतिहास और भूगोल चबा जाता है युद्ध

 

भूख की आग से व्याकुल युद्ध

सुलगाता है नारों से उन्माद

राजभक्ति देशभक्ति के नारों से

अस्मिता और आहत भावनाओं के नारों से

श्रेष्ठता और सर्वोच्चता के नारों से

धर्म पर खतरे के नारों से।

इसी आँच पर भोजन पकाता है युद्ध

और क्षणिक तृप्ति के बाद

फिर-फिर भूख से अकुलाता है युद्ध 

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...