खुशफहम
वो
खुश फहम है बड़ा ,
खुद
पे बहुत इतराता है।
कभी
खुद को खुदा
कभी
फकीर बताता है।
बहरूपिया
है ,ना
जाने
कितने
स्वांग रचाता है,
झूठ
का पुलिंदा,सच
की
कसमें
खाता है।
जनता
को बहकाने के
नए
नए हथकंडे अपनाता है।
जब
कुछ नही चलता तो
बौखला
जाता है।
सब
को डराने वाला खुद
हारने
के भय से
जाकर
किसी पहाड़ की
गुफा
में छुप जाता है।
हम
मुजरा करने वालियां
जी
हुजूर, "मुजरा" यही तो
करती
हैं हम तवायफें
तुम्हारा
दिल बहलाने को।
तवायफ
,रण्डी, वैश्या या
पश्यन्ती
खंडशीला,रुपजिवा,कंजरी
या
कंचनी
इतिहास
से वर्तमान तक
तुम्हारे दिए नाम और पेशे
से
मिले अपमान को सदी दर
सदी
ढोती स्त्रियां।
तुम्हारे
सामने सज संवर कर
हंसती
मुस्कुराती, गुनगुनाती
अपनी
अदाओं और नाच -गा कर
तुम्हारा
दिल बहलाती
हम
मुजरे वालियां
मुस्कुराकर
झुककर '
तुम्हारा
इस्तकबाल करती
झुक
झुक कर सलाम ' करती
तुम्हे
इज्जत बख्शती हैं
यही
होता है, ' मुजरा
'
पर
लगता है ,साहेब
को
इज्जत
रास नहीं आती।
साहेब
क्यों भूल जाते हो
हर
बार
आखिर
तुम्हारे जैसे रईसों
राजे
रजवाड़ों और धन्ना सेठों ,
वैश्यों
ने ही धकेला हमे इस धंधे में
और
सिखाया देह - व्यापार।
वरना..
हम भी थी किसी की
बहन
,बेटी
,पत्नी
इज्जतदार
पर
तुमने खरीद कर हमारी
मजबूरी
,बेबसी
और लाचारी
लगा
दी हमारी बोली और
बसा
दिए अपने शहरों में
शाही
कोठे,खोल
दिए वैशालय ,
मंडी
और बाजार ।
हमारी
कला को बनाकर कलंक
और
कर्म को दुष्कर्म
तुम
ही करते रहे हमे बदनाम
करते
आए संभोग,शोषण
और
व्यभिचार।
घर
में बीवी को परदे में रखकर
हमें
बेपर्दा करते रहे
हमारी
इज्जत हमारी अस्मत
नीलाम
कर चौराहों पर
खुद
इज्जतदार होने का
दम
भरते रहे।
क्यो
भूल जाते हो साहेब
ये
बदनाम कहलाने वाली वेश्याएं
सदियों
तुम्हारे न जाने कितने
कुकर्मों
को छिपाती हैं ।
तुम्हारी
नाजायज कही जाने वाली
संतानों
को जायज ठहराती हैं ।
लेकिन
मत भूलना कि
आसान
नहीं होता
अपने
अस्तित्व अपने वजूद
को
मिटा कर ,दूसरो
को खुश करना
अपने
हुनर अपनी कला का सौदा कर
खून
के घूंट भरना।
सदियों
से वैश्या के आंगन की
मिट्टी
को पवित्र मान उससे
देवी
शक्ति की मूर्ति बनवाते हो
और
चकलों,चौराहों
पर आते ही
उसे पैरों की धूल बताते हो।
कभी
गणिका, देवदासी
,
राज
नर्तकी तो कभी वैश्या बनाकर
तुम
साहेब जादे, अपनी
साख पर
इतराते
हो, ' मुजरा
' शब्द
का
उपहास उड़ाते हो।
अरे
हुजूर शुक्र करो , हम वेश्याओं ने
तो
मजबूरी में अपनी देह बेची
गरीबी
में अपना हुनर बेचा
मुल्क
की खातिर कुर्बान हो गई
पर
मुल्क नही बेचा।
चूड़ियां
मुझे
बचपन से ही चूड़ियां
बहुत
भाती हैं ।
रंग
बिरंगी ,लाल,गुलाबी ,हरी
नीली,पीली नारंगी,सतरंगी
चूड़ियां
मुझे अक्सर बहुत
लुभाती
हैं ।
चूड़ियों
सजे हाथ मुझे
बेड़ियां
नही नही लगते
अगर
मैं
उन्हें शौक से पहनू
नही
लगते वे मुझे स्त्रियों
की
किसी कमजोरी का आधार।
बल्कि
देखते ही रंग बिरंगी कांच
की ,सिल्वर ,मेटल और लॉक
की
चूड़ियां ।
अचानक
ही उमड़ पड़ता है
माता
पिता का वात्सल्य,
याद
आ जाती है
बचपन
में पढ़ी नागार्जुन की
कविता
गुलाबी चूड़ियां हर बार।
अच्छे
लगते हैं वे पुरुष जो
चूड़ियों
को स्त्री की कमजोरी
नही
बताते।
चूड़ियों
को मर्दानगी से जोड़
घटिया
मुहावरों की ईजाद पर
नही
इतराते।
घर
और समाज में
किसी
का उपहास नही उड़ाते।
कभी
कभी तो प्रेम की
निशानी
होती हैं चूड़ियां
किसी
के खामोश स्नेह की
मासूम
कहानी होती हैं चूड़ियां।
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