गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

स्वावलम्बन-  केदार शर्मा,”निरीह’’ सेवानिवृत व्याख्याता (अंग्रेजी)


 स्वावलम्बन

 श हर की फैक्ट्री बंद हो जाने के कारण  जमना और विनोद को वापस एक अरसे बाद गाँव आना पड़ा । पति विनोद दमें का मरीज था। वहाँ निगरानी और माल की गिनती  के काम में नियुक्त था । जमना का काम मीटर के डिब्बों को ट्रकों में लादना था।

           शहर से वापस आने पर उसने पाया कि उसका वह छोटा सा घर आज बदरंग हालत में हो गया था। बरसात की सीलन से लकडी के दरवाजे अकड़े हुए थे । घर के भीतर चूहों के बड़े-बड़े बिल थे। जमना की दो दिन की अथक मेहनत के बाद घर रहने लायक स्थिति में आ गया था। सच  में बिन घरनी घर भूत का डेरा जैसा हो गया था ।

तभी बाहर किसी  पाँवों की आहट सुनाई पड़ी। ‘आज शहर वालों के यहाँ क्या बन रहा ?’ छोटी देवरानी भीतर आ गयी थी।

‘कुछ नहीं बहन, चटनी-रोटी बनी हैं । क्यों मजाक उड़ाती हो? शहर वाले बनना तो हमारी मजबूरी थी। ‘

‘ऐसी क्या मजबूरी थी ,हम तो नहीं गए गाँव छोड़कर ।‘कहते हुए वह सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गयी।

‘’ न जाते तो क्या करते बहिन ? ससुरजी की मौत के बाद सारी जिम्मेदारी रतन के पापा के कंधों पर आ गयी थी। दोनो देवरों और तीन ननदों का खर्चा उठाया ,पढ़ाया-लिखाया ,विवाह किया । उसके बाद गाँव से शहर के बीच की भागम-भाग से परेशान होकर  साथ मुझे भी उनके साथ शहर जाना ही पड़ा । यहाँ सब कुछ सीधा मिल गया,इसलिए तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।

        ‘जो कुछ किया होगा तुम्हारे देवरों के लिए किया होगा,अब हमें गिनाने से क्या होगा ?’ कहते हुए देवरानी बड़बड़ाती हुई धीरे-धीरे  बाहर चली गई ।

खाना खाने के बाद रतन,रतनी और धन्नी तीनों पुत्रियाँ तो सो गई  पर जमना की आँखों में नींद नहीं थी। ‘इस तरह से चेहरा लटकाए क्या सारी रात जागत रहोगी ?’— विनोद ने टोका तो जमना की रूलाई फूट पड़ी ।

            ‘’अपने भाग्य को कोस रही हूँ—भीतर भरा गुबार मानो निकलने की प्रतीक्षा में था । ‘’ कैसे यहाँ नई जिन्दगी की शुरूआत होगी ? किसी उखड़े हुए पौधे की सी हालत हो गई है हमारी । नकद पैसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है । कैसे हम परिवार का खर्च चलाएँगे ।‘’ कैसे तीनों संतानों को पढ़ाने का और विवाह का खर्च उठाएँगे ?

‘तू चिंता मत कर,ईश्‍वर सब सही करेगा ।‘ विनोद ने सांत्वना देने का प्रयास किया ।

         ‘ ईश्‍वर क्या आकर मुँह में खाना डाल देगा ?आपने शहर जाकर क्या कर लिया ?’

       ‘ शहर की महँगाई कुछ करने देती तब न । वहाँ तो बस दाल-रोटी खाकर जिंदा रहा जा सकता है।‘

 पति से बहस करते करते जमना की न जाने आँख लग गई ।

                       मुर्गा बोलने की आवाज से उसे पता चला कि सुबह होने वाली है। आवाजाही शुरू होने से पहले ही पड़ौस की औरतों ने घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगाना शुरू कर दिया था। उधर हरिबोल कीर्तन वालों की प्रभात-फेरी ढोल-मजीरों के साथ चल पड़ी थी।हेण्‍डपंप चलाने की आवाज भी रह रहकर वातावरण की इस हलचल में अपना अलग ही सुर बिखेर रही थी। अभी.अभी  मस्जिद की अजान बंद हुई थी और मंदिर की आरती शुरू हो गई थी । जमना भी अपने नित्य-कर्म में जुट गयी। विनोद कब का नहा-धोकर पूजा-पाठ में लग गया था ।

भोर का उजाला हो चुका था। बाहर कोई आवाज लगा रहा था।उत्सुकता का भाव लिए दोनो पति-पत्नी बाहर निकल आए।  यह तो चौधरी रामलाल था —“खेत से सब्जियाँ तोड़कर शहर भिजवानी है,दो मजदूरों की जरूरत है,चलोगे?”

विनोद  कुछ कहता इसके पहले ही जमना ने घूँघट नीचे सरका कर अपने पति से कहा—“हाँ, चले चलेंगे।“

पति और बच्चों सहित जमना आधे घंटे में चौधरी के खेत में पहुँच गई । लोकी,भिण्‍डी,बैंगन,गवार की फलियाँ और टमाटर प्लास्टिक के कट्टों में पैक करके जुगाड़ में लाद दिया गया । विनोद भी रामलाल के साथ थोक-मंडी पहुँच गया। उसने एक-एक कर सभी कट्टे उतरवाए ।  हिसाब-किताब करके दोपहर बाद दोनों  वापस गाँव के लिए रवाना हो गए।

           आज मिली दोनो की मजदूरी से जमना ने किराने का  जरूरी सामान मंगवाया।

शाम को  विनोद को अपने बचपन का घनिष्‍ट मित्र नानगराम जाता हुआ दिखाई दिया।जिस समय विनोद जयपुर गया था उन्ही दिनों नानगराम ने ठेले पर कुल्फी बेचने का काम संभाल लिया था।उसने जोर से आवाज देकर उसे बुला लिया । नानगराम भी चौंका—“अरे भैया कब आए शहर से ?सब ठीक-ठाक तो है न भाई ?कहता हुआ वह चारपाई पर बैठ गया ।कहने लगा-‘’मैंने भी अब फेरी लगाकर कुल्फी बेचना बन्द कर दिया भैया, अब बुढा़पे में कमर ने जवाब दे दिया है । सो यह ठेला बेचने का मन था । यहाँ भी पड़े -पड़े खराब हो जाएगा --  नानगराम ने पास में ही अपने बाड़े में पड़े ठेले की ओर इशारा करते हुए कहा।

           ठेले की बात आते ही जमना के मष्तिष्‍क में कोई विचार कौंधा —‘’हमें दे दो भैया । हम मजूरी करके खा लेंगे ।‘’चाय का कप सौंपते हुए जमना ने कहा । विनोद चौंका — ‘’किसके लिए ले रही हो तुम ?,मेरी तो कमर का पहले ही हाल बेहाल है । मुझसे नहीं लगेगी फेरी-वेरी ।‘’

‘’ आपको फेरी लगाने के लिए कौन कह रहा है  जी ? आड़े वक्त में चीज काम आ ही आती हे ‘’ कहकर जमना चुप हो गयी ।

  थोड़ी देर के लिए सन्नाटा पसर गया । फिर जमना ही बोली-  भैया , आप तो यह बताओ —‘’कितने रूपए लोगे ? विनोद मन ही मन चकरा रहा था । आखिर जमना को हो क्या गया  है ? एक दिन तो मजूरी की है ओर ठेले का सौदा  कर रही है। कहाँ से इसके पैसे देगी यह ? पर प्रत्यक्ष में वह चुप ही रहा ।

‘वैसे तो एक हजार से कम का नहीं है पर तुम नौ सौ रूपए दे देना  ‘’ नानगराम ने जवाब दिया

‘’ ठीक है भैया , सौदा पक्का । दो महीने की मोहलत दे दो । हम बिना माँगे हिसाब चुकता कर देंगे ।‘’

 नानगराम को नकद की उम्मीद थी । पर वह कुछ कह नहीं सका ।

          दूसरे दिन जमना ठेला उठाकर चौधरी के खेत पर चली गई । वहl सीधी रामलाल की पत्नि के पास गई और उससे अनुमति लेकर ,सब्जियाँ शहर के लिए लदवाने से पहले तौलकर अपने ठेले में रख ली । उसने चोधराईन से कहा—“ जो भाव थोक मंडी में हो उसी भाव से मैं भी हर दूसरे रोज दाम दे दिया करूंगी ।“

             इस तरह रोज विनोद रामलाल के साथ शहर चला गया और जमना तराजू और सब्जीका ठेला लेकर गाँव में चल पड़ी।           शाम तक जमना की सारी सब्जी बिक गयी थी ।ठेले पर अनाज का ढेर ओर पल्लू में नकदी बंधी हुई थी । अब चिंता ओर अनिश्चितता की धुंध छट  चुकी थी । दिन भर का परिश्रम और  आत्मविश्‍वास का  आलोक  उसके चेहरे पर  दिपदिपा रहा था ।उसे  आत्मनिर्भरता के लिए एक  नया संबलन  मिल गया था और गाँव वालों को घर बैठे सब्जी  की सुविधा । धीरे-धीरे जमना सब्जी का धंधा चलने लगा ।एक दिन रामलाल ने लकड़ी की केबिन बनवाकर गाँव के बीच चौराहे के पास रखवा दिया । अब जमना वहाँ बैठकर सब्जी बेचने लगी । दूसरे दिन ही वहाँ पर ताश खेलने वाले लोगों में से किसी ने पंचायत में शिकायत कर दी कि विनोद और जमना ने सरकारी जमीन पर कब्जा करने की नीयत से केबिन रख दी है ।

  रात को पंचायत का नुमाइंदा घर आया और एक कागज दे गया । कहा --- ‘’संरपंच साहब ने भेजा है । और कल तुम्हें पंचायत घर मे बुलाया है ।‘’

          देर रात तक जब विनोद घर पर आया तो जमना क्रोध में थी —‘’जब ठेले से काम चल रहा था तो क्या जरूरत थी केबिन बनवाने की ? अब दो जवाब पंचायत को। अब भरो जुर्माना । ‘’ जमना के स्वर में जोरदार आक्रोश था।

    ‘’ पर जुर्माना किस बात का ?   कोनसा कागज आया है ? मुझे भी तो बताओ ।‘’ विनोद चकराया ।

   ‘’ कागज तो मैं कहीं रखकर भूल गई पर जहाँ आपने केबिन रखी है वह उसी सरकारी जमीन का लगता है । किसी ने हमारी शिकायत की है ।  मैंने उड़ती हुई खबर मेरे कानों में पड़ी थी ।मुझे लगता है वह कागज इसीलिए आया है और इसीलिए सरपंच साहब ने कल पंचायत घर में बुलाया होगा ।

      ‘’देखो मैने तुम्हारी भलाई के लिए ही यह काम किया था। तुम शाम तक बुरी तरह से थक जाती थी । यह गाँव के बीच आम चौराहा है इसलिए बिक्री भी खूब हो रही है ।जो होगा सो देखा जाएगा।

       सुबह जब विनोद उठा तो पलगँ के नीचे एक कागज नजर आया । पता चला तो वह आश्‍चर्य चकित रह गया । जल्दी से उसने जमना को बुलाया —‘’यह नोटिस नही आमत्रंण पत्र है, शहर से आकर तुमने अपने संघर्ष के बलबूते पर स्वावलम्बन  का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है उसके लिए स्वतंत्रता- दिवस पर तुम्हें  पंचायत द्वारा सम्मानित किया जाएगा, साथ ही मुख्‍य चौराहे पर रखी केबिन की जमीन का अनुमति पत्र भी तुम्हारे नाम जारी किया जाएगा ।‘’

          सामने स्वर्णिम सूर्य क्षितिज पर थोड़ा ऊपर तक चढ़ आया था । जमना के चेहरे पर गिरती किरणें उसके  चेहरे के आत्मविश्‍वास  की आभा  में रंग भर रही थी ।

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रविवार, 18 फ़रवरी 2024

पहाड़ आ रहे हैं!- -हूबनाथ

 


पहाड़ आ रहे हैं!

 

पहाड़ आ रहे हैं

सभ्य बनाने की ख़ातिर

शहर लाए जा रहे हैं

 

पहाड़ आ रहे हैं

 

पहाड़ों की खाल खींचकर

छोटी-बड़ी बोटियों में बाँटकर

धरती के जिस्म से काटकर

 

शैतानी ट्रकों ट्रेलरों में

लादकर

विशाल मशीनों में पीसकर

 

ख़ूबसूरत बोरों में भरकर

शहरों में भेजे जा रहे हैं

हरे भरे ख़ूबसूरत पहाड़

 

पहाड़ों की कब्र पर

पहाड़ों के लोग

बिदाई गीत गा रहे हैं

 

पहाड़ आ रहे हैं

 

चमचमाती लंबी सड़कों

उड़ते हुए लहराते पुलों

दैत्याकार भवनों की शक़्ल में

बिछ रहे हैं

ऊँचाई से गिरकर

घिसट रहे हैं

 

जब रात गहराती है

लोहे की गाड़ियाँ

सरसराती गुज़र जाती हैं

 

ठीक उसी वक़्त

हराहराते झरने

लहलहाते दरख़्त

चहचहाते पंछी

सरसराती घासें

 

पहाड़ों की साँसों से

निकलकर

आसमान पर छा जाते हैं

 

सारी कायनात सो रही है

पहाड़ों को पहाड़

याद आ रहे हैं

 

जिनके पेट भरे हैं

वे विकास के गीत गा रहे हैं

 

पूरी तरह सभ्य होने

पहाड़ शहर आ रहे हैं

पुस्तक संस्कृति, समाज और सार्वजनिक पुस्तकालय - विवेक कुमार मिश्र

पुस्तक संस्कृति, समाज और सार्वजनिक पुस्तकालय

- विवेक कुमार मिश्र

 

पुस्तक संस्कृति की जब बात करते हैं तो साफ है कि हमारा भाव पुस्तकों के प्रति आत्मीय संवाद से है । पुस्तकों को जब जीवन का , कार्य व्यवहार का , अपनी गति व सोच का अभिन्न हिस्सा बनाते हैं तो हमारे पास पुस्तक के साथ प्रेम करने का विकल्प और भाव होता है । पुस्तकों से किसी एक व्यक्ति का लगाव या जुड़ाव होना पुस्तक संस्कृत नहीं है । कोई एक व्यक्ति ऐसा मिल सकता है जिसका घर पुस्तकों से भरा हो , कोई एक व्यक्ति ऐसा मिल सकता है जो नई से नई पुस्तक और पत्र पत्रिकाएं खरीदता रहता हो , कोई ऐसा व्यक्ति मिल सकता है जिसका ड्राइविंग रूम पुस्तकों से सजा हो , यह एक दो उदाहरण पुस्तक संस्कृत के प्रतीक या उदाहरण नहीं हो सकते । जब पुस्तक संस्कृत की बात की जाती है तो यह देखा जाना जरूरी है कि हमारे जीवन में किस गहराई से पुस्तकों  के लिए  जगह है । पुस्तक किस तरह हमारे जीवन से जुड़ी है और जीवन के प्रत्येक पक्ष में कहां तक पुस्तकों का साथ है । इसे तभी समझा और जाना जा सकता है जब हम इस बात को इस भाव को समाज में व्यापक रूप से होते हुए देखते हैं । पुस्तक संस्कृति है इस बात का प्रमाण है कि हम अपने रीति रिवाज को मनाते समय कितनी जगह पुस्तकों को देते हैं । हमारे यहां महंगी से महंगी शादियां होती हैं किसी भी अवसर पर पटाखे में अनाप-शनाप खर्च कर देते हैं । बाजार से लौटते हुए थैली भरे पैकेट इस तरह भरे होते हैं कि आदमी को चला नहीं जाता पर इन स्थलों को उलट पलट कर देख लीजिए एक पन्ना भी नहीं मिलेगा । एक पत्रिका नहीं मिलेगी एक किताब भी नहीं मिलेगी तो कहां से पुस्तक संस्कृति आएगी पुस्तक संस्कृति को बनाने के लिए हमें अपने विचार में , अपने मन में इतनी जगह बनानी होगी की विभिन्न अवसरों के लिए हमारे पास पुस्तक हों । हम अपने आसपास के समाज में पुस्तक के लिए वातावरण निर्माण कर सकें । कम से कम जन्मतिथि , वैवाहिक वर्षगांठ पर अपने परिचितों को एक अच्छी पुस्तक भेंट कर सकें । रिटायरमेंट या अन्य जो भी अवसर आसपास आते हैं तो उसमें आपकी उपस्थिति एक पुस्तक प्रेमी और पुस्तक संस्कृति के संवाहक के रूप में होती है तो समाज में बड़ा मैसेज जाएगा । हमें पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए आसपास के उन दुकानों के बारे में पता करना चाहिए जहां पुस्तकें होती हैं । वहां पुस्तक क्रय  करने के लिए होती है । यदि आप पुस्तक क्रय करते हैं तो उससे दुकानदार का भी हौसला बढ़ता है और वह आपको नई पत्रिकाएं नई पुस्तक दिखता है उनके बारे में बताता है । चलिए आजकल अमेजॉन फ्लिपकार्ट और ऐसे ही अनगिनत ऑनलाइन प्लेटफॉर्म आ गए हैं जहां से पुस्तक आसानी से मंगा सकते हैं । यह आपको तय करना होगा कि हर साल कुछ अच्छी पुस्तक खरीद कर पढ़ें । गोष्ठियों आदि में दी गई पुस्तक , पुस्तक संस्कृति का बढ़ावा नहीं करती बल्कि पुस्तकों के प्रति एक विपरीत माहौल भी बनाती है । बहुत सारे लोग उन पुस्तकों को ले जाकर रख देते हैं । पुस्तक को पढ़ना आवश्यक है । जो चर्चित है जो महत्वपूर्ण है वहां यह देखना भी जरूरी है कि ऐसा क्या है उस पुस्तक में जो लोग उस पुस्तक को पढ़ने के लिए इतना भाग रहे हैं । जब आप पुस्तक पढ़ते हैं तो विचार के साथ पुस्तक के साथ और उस दुनिया के साथ चलते हैं जो सामाजिकता की वह दुनिया होती है जिसे लेखक द्वारा दिया गया होता है । लेखक के संसार को जीना फिर उसे संसार में जाना और उसके लिए कुछ नया लेकर आना ही पुस्तक संस्कृत का निर्माण करता है । जहां तक पुस्तक संस्कृति के साथ समाज की बात है तो कोई भी मूल्यवान संदर्भ तब तक मूल्यवान नहीं बनता जब तक उसमें समाज शामिल न हो । जब आप अपने ज्ञान को अपनी पढ़ी गई दुनिया को औरों के साथ जोड़ते हैं औरों से संवाद करते हैं तो सच मानिए आप पुस्तक संस्कृति का निर्माण कर रहे होते हैं । पुस्तकें समाज में आकर उल्लसित होती है और खिलती व खिलखिलाती हैं । जब पुस्तकें सामाजिक होती हैं पूरे समाज में लोकार्पित होती हैं तो पुस्तकों के साथ समाज की एक अलग मानसिकता होती है । आप अकेले पुस्तक का लोकार्पण कर लें , अकेले में पढ़ लें तो पुस्तक की सामाजिकता के लिए आप कुछ नहीं कर रहे हैं । इसलिए जरूरी है की पुस्तकों की सामाजिकता को ध्यान में रखते हुए भी कुछ न कुछ करते रहना चाहिए । समाज में अन्य पर्वों की तरफ पुस्तक पर्व के लिए भी अवसर व समय होना चाहिए । यदि पुस्तकें  समाज में अपनी जगह बनाती हैं तो और लोगों के जीवन का आधार भी बनती हैं और लोगों के जीवन जीने का जरिया भी । जब प्रेमचंद भोला महतो के घर का शब्द चित्र खींचते हैं तो लिखते हैं कि उनके बरामदे में एक ताखे पर लाल कपड़े में लिपटी रामायण थी ।  रामचरितमानस थी तो यहां सामाजिक पुस्तक प्रेम का जिक्र कर रहे होते हैं । रामचरितमानस के दोहे चौपाई लोगों की जुबान पर ऐसे थे कि उनकी कोई भी बातचीत चौपाइयों के बिना पूरी नहीं होती थी । यही हाल भक्ति काल के अन्य कवियों अन्य संतों और लेखकों का था । वे लोगों की जुबान पर चढ़कर बोलते रहते थे । लोग बात पर कबीर रहीम मीरा के पद कोड करते थे । यह पुस्तक संस्कृति का सामाजिक पक्ष था कि लोग अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए संतो भक्तों की पंक्तियां इस्तेमाल करते थे । आज जब लोग बातचीत करते हैं तो इधर-उधर बंगले झांकते हैं या फिल्मी गाशिप करने लग जाते हैं या जोक सुनाते हैं । जो अंततः उनके  व्यक्तित्व को कमजोर करने का काम करती हैं । सार्वजनिक पुस्तकालय की जहां तक बात कर है तो वह आपको पुस्तकों के एक अपरिमित संसार में ले जाने की जगह होती है । यहां आप एक साथ असंख्य पुस्तकों को पाते हैं । अपने समय और समकाल को पाते हैं तो पीछे जो पुस्तकों की दुनिया रही है वह सब कुछ यहां उपलब्ध होता है । एक पुस्तकालय स्कूल कॉलेज विश्वविद्यालय में होता है जहां विषय सामग्री की सब्जेक्ट को केंद्र में रखकर पुस्तक होती हैं पर जहां तक सार्वजनिक पुस्तकालयों की बात होती है तो वह आम आदमी की मनो रूचियों को ध्यान में रखकर होती है इस पुस्तकालय में जो लोग होते हैं जो पढ़ने आते हैं उनकी रुचियां को ध्यान में रखते हुए पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा पुस्तक मंगाई जाती हैं जहां तक सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय की बात है तो यह एक विशेष संदर्भ और अभिरुचि से जुड़ा ऐसा पुस्तकालय है जिसे मंडल पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा विशेष स्नेह से सींचा गया है उनकी रुचि और पुस्तक प्रेमियों के साथ इनका सौजन्य सौहार्द और पुस्तकालय को जन-जन के बीच ले जाने की उनकी पहल ही इस पुस्तकालय को न केवल हाडोती में बल्कि राजस्थान और देश के कुछ विशिष्ट सार्वजनिक पुस्तकालयों में जगह दिलाने का काम करती है । आम आदमी के बीच पुस्तकों के प्रति प्रेम बढ़े इसकी उज्जवल घोषणा ही सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय कोटा को विशिष्ट बनाती है । सार्वजनिक मंडल पुस्तकालय की उपस्थिति सामाजिक पुस्तक प्रेमी को तैयार करने में है । यहां आप सब एक अभिरुचि से आते हैं और आपकी अभिरुचि को तैयार करने का काम पुस्तक प्रेमी पुस्तकालय अध्यक्ष द्वारा की जाती है । वह अपने पाठकों की जरूरत अभिरुचियों को ध्यान में रखकर पुस्तक संसार का एक ऐसा कोना तैयार  करते हैं जहां आकर आपको लगेगा कि हां यहां सुकून है । यही तो मैं खोज रहा था । एक खुला मन एक साथी का भाव ही कि हां सब हो जाएगा । सब उपलब्ध हो जाएगा । इस तरह किताबों का एक बड़ा संसार यहां सामाजिक केंद्र बनकर आता है । पुस्तक यहां संवाद और साक्षात्कार करती हैं । साथ में केंद्र में होते हैं पुस्तकालय अध्यक्ष । इस तरह पाठकों पुस्तकालय और समाज के बीच एक व्यापक सेतु बन जाता है । इस पर चलना आवश्यक लगता है । पुस्तकें पहचान और व्यक्तित्व को पुख्ता बनाने का काम करती हैं । पुस्तक पढ़ते-पढ़ते आप एक संसार में , एक समाज में न केवल जाते हैं अपितु एक जीवन संसार को जीते हुए अपने बहुत करीब महसूस करते हैं । अपने संसार को नजदीक से देखते हैं । यह आकर जो सांसारिक होते हैं उसमें शब्द से संसार से एक अमरता की सत्ता भी जुड़ जाती है और जो यहां होता है वह अमर होता है । उसके विचार बोलते हैं । उसकी वाणी लोगों के भीतर जीवित हो अमर गान बन जाती है । इस तरह पुस्तक संस्कृति समाज और पुस्तकालय एक सांस्कृतिक सत्ता को निर्मित करने का मंच है । यहां से आप संसार के मन मस्तिष्क पर राज करने का काम करते हैं ।

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एफ -9 , समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002

 

सहनशीलता द्वारा जगत-कल्याण: भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता- डॉ0 रवीन्द्र कुमार*


  सहनशीलता द्वारा जगत-कल्याण: भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता

 डॉ0 रवीन्द्र कुमार*

 "ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवी त्वं विष्णुना धृता/ त्वं च धारय मां देवी पवित्रं कुरु चासनम्// हे देवी (पृथ्वी)! सम्पूर्ण विश्व लोक आपके द्वारा धारण किया जाता है और श्रीविष्णु (परमात्मा) द्वारा आपको धारण किया जाता हैहे (पृथ्वी) देवी! आप मुझे भी धारण करो तथा इस आसन (लोक-निवास) को पवित्रता प्रदान करो।"

मानव-एकतासमानता तथा सर्व सद्भावना के लिए सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले चैतन्य महाप्रभु (जीवनकाल: 1486-1534 ईसवीं) के प्रमुख शिष्य सनातन गोस्वामी (जीवनकाल: 1488-1558 ईसवीं) द्वारा रचित श्री हरि-भक्ति विलास (5: 22) में प्रकट उक्त श्लोकजिसकी जड़ें वैदिक वाङ्गमय के अभिन्न भाग उपनिषदों (विशेषकर कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरीय उपनिषद्) की मूल शिक्षाओं में हैंसाथ हीवैदिक मंत्रों से जिनका निकास हैवास्तव मेंभारतीय संस्कृति की जगत-कल्याण सम्बन्धी सर्वप्रमुख विशेषता को समर्पित है।      

तैत्तिरीय उपनिषद् के शिक्षावल्ली (11: 1) मेंजो इस उपनिषद् का बहुत ही महत्त्वपूर्ण भाग है"सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः... सत्य बोलोधर्माचरण करोस्वाध्याय में आलस्य न करो" जैसे प्रमुख मंत्र सम्मिलित हैं।

सत्य एक ही हैवही परमसत्य और ब्रह्म है। सत्य का आलिंगन ही धर्म-पालन हैदूसरे शब्दों मेंयही धर्माचरण का माध्यम या मार्ग है। पृथ्वी (वसुधा) धर्म-पालन (धर्माचरण) का क्षेत्र है। यह अपने स्वभाव में क्षमा की पर्याय है। यह निरन्तर धारण करती हैसदैव सहनशील रहती है। अपने क्षमाशीलता और सहनशीलता जैसे महागुणों द्वारा स्वयं धर्म का उदाहरण बनकर मानव का धर्म-पालन का आह्वान करती है। मध्यकाल में रचित श्री हरि-भक्ति विलास में प्रकट हुए श्लोक का (हजारों वर्ष पूर्व तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षाओं के माध्यम से) आधार बनती है।   

अथर्ववेद के पृथ्वी (भूमि) सूक्त (प्रथम सूक्तबारहवाँ काण्ड) की यही मूल  भावना है। इसका निष्कर्ष मानव में सहनशीलता को (क्षमा-करुणा जैसी विशिष्टताएँ जिसके साथ जुड़ी हैंसहिष्णुता जिसकी पूरक है और जो आत्मसंयमउदारवादी तटस्थता व निष्पक्षता की भी द्योतक है) प्रधान गुण के रूप में विकसित करना है। इसे प्रमुख जीवन-संस्कार बनाकरइसकी मूल भावना के अनुसार मानव को परस्पर व्यवहारों के लिए प्रेरित करना है। यह वास्तविकता और आगे भी जाती है। वैदिक-हिन्दू धर्मग्रन्थों के अतिरिक्त भारतीय मूल के अन्य प्राचीनकालिक विचार-ग्रन्थोंयहाँ तक की तिरुवल्लुवर (जीवनकाल: अनुमानतः छठी-पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व) की नीतिशास्त्र की अद्वितीय रचना तिरुक्कुरल मेंस्वयं अहिंसा धर्म और उच्चतम मानवीय मूल्य के रूप में जिसका एक प्रमुख विषय हैयही प्राथमिकता से प्रकट होता मनुष्य का आह्वान है। विशेष रूप सेगृहस्थी में अहिंसामूलक नैतिक मूल्योंप्रमुखतः सहनशीलता जैसी विशिष्टता के अनुरूप व्यवहारों द्वारा दिव्यपवित्र और शुद्ध जीवन जीया जा सकता हैमानव के लिए यह सन्देश है।  

आधारभूत धर्मग्रन्थों में, विशेष रूप से पृथ्वी को केन्द्र में रखकर सहनशीलता के सम्बन्ध में प्रकट उल्लेखों के अनुरूप ही इनके आदिकालिक व्याख्याताओं-प्रसारकों ने अपना जीवन भी जीया। उत्तर-दक्षिण व पूरब-पश्चिमसम्पूर्ण भारतवर्ष से उन व्याख्याताओं-प्रसारकों ने धैर्यशान्तता, सन्तोषसंयमसहिष्णुतासुशीलता आदि जैसी सहनशीलता की पूरक और इसे दृढ़ करती विशिष्टताओं को अपना एक प्रमुख जीवन-संस्कार बनाया। परस्पर सहयोगसामंजस्यता तथा स्वीकार्यता का मार्ग प्रशस्तकर्त्री सहनशीलता को अपने जीवन के प्रमुख गुण के रूप में विकसित कर, लोगों को इसके अनुरूप व्यवहारों-आचरणों हेतु प्रेरित और प्रवृत्त करने वाले वे वीर पुरुष ही वसुधैव कुटुम्बकम" की सत्यता को स्वीकार कर सर्व न्याय के सिद्धान्त साथ जगत-कल्याण को समर्पित भारतीय संस्कृति की नींव रखने वाले थे।

उन संस्थापकों का अनुसरण करते हुए बाद के प्रत्येक काल-खण्ड में धर्म-सम्प्रदायोंमतों-पन्थों की सीमाओं से बाहर आकर निर्भीकदृढ़संकल्पी और व्यापक जनोद्धार के लिए प्रतिबद्ध आचार्यकर्मयोगी और महापुरुष इस दिशा में आगे बढ़े।   

'संस्कृतिशब्द संस्कार से ही बना है। संस्कार व्यक्ति में गुण (विशिष्टता) के विकास का माध्यम अथवा आधार है तथा उसकी व्यक्तिगत गतिविधियों एवं सजातीयों के साथ व्यवहारों के माध्यम से उसके सभ्यसकारात्मक एवं समन्वयकारी बनने व कर्त्तव्यबद्ध होकर विकासमार्गी होने में निर्णायक भूमिका का निर्वहन करता है। संस्कार ही सहनशीलता कोउसके विभिन्न पक्षों के साथजिनमें से करुणाक्षमा, सन्तोषसहिष्णुतासुशीलतासंयम आदि जैसे कुछेक का हमने उल्लेख भी किया हैव्यक्ति में गुण के रूप में विकसित करता है। यही मनुष्य में धैर्य व संयम कोजिनका वृहद् मानवोत्थान हेतु इसी के परिप्रेक्ष्य में वेदों व अन्य ग्रन्थों में अनेक बार उल्लेख हैसुदृढ़ भी करता है। इसलिएभारत-भूमि पर उत्पन्न महान ऋषियों-महर्षियों सनातन सत्यता (सनता सनातनऋग्वेद, 33औरशाश्वत  सदैव अस्तित्ववानश्रीमद्भगवद्गीता, 14: 27) के प्रकाशकर्ताओं ने सहनशीलता को प्रमुख मानवीय संस्कार के रूप में स्थापित कर भारतीय संस्कृति की अति सुदृढ़ नींव रखी और इसका विकास किया। यह क्रम हजारों वर्ष से बना हुआ है। भारतीय संस्कृति सहनशीलता प्रधान अपनी पहचान के साथ विश्वभर के लिए आशा व विश्वास से भरपूर एक प्रकाशपुञ्ज की भाँति स्थापित है। सहनशीलता की अपनी सर्वप्रमुख विशिष्टता की अक्षुण्णता के बल पर जगत-कल्याण के लिए आगे भी स्थापित रहेगी। 

भारतीय संस्कृति का सहनशीलता वाला पक्ष सनातन सत्यता (जगत में प्रत्येक जन एक ही मूलोत्पन्न है और सर्व-कल्याण में ही निजोन्नति भी सम्मिलित है"को समर्पित है। सहनशीलता पर-मत अथवा विचारविश्वास या श्रद्धा की स्वीकृति का सन्देश देती है। इस सन्देश के मूल में "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" (ऋग्वेद, 1: 164: 46) जैसा अतिश्रेष्ठ वेद-मंत्र है। चूँकि सत्य तक पहुँचने का मार्ग या माध्यम किसी एक विचारग्रन्थअवतार या सन्देशवाहक तक सीमित नहीं हो सकताइसलिए ऐसा करने वाला कोई भी व्यक्तिवास्तव मेंसहनशील नहीं हो सकता।     

सहनशीलता दूसरे की कार्यपद्धति कायदि वह किसी के लिए अन्यायी नहीं है और उसके मार्ग की बाधा नहीं बनती हैसम्मान करने की अपेक्षा भी रखती है। साथ हीवैचारिक मतभेद अथवा पृथक कार्यपद्धति की स्थिति में वृहद् कल्याण के लिए सामंजस्य स्थापना के साथ सहयोग का आह्वान करती है।     

विश्व-इतिहास के पृष्ठ स्वयं ही इस बात के साक्षी हैं कि सहनशीलता केन्द्रित भारतीय संस्कृति ने गत हजारों वर्षों की समयावधि में उन अनेकानेक मतोंपन्थों एवं धर्म सम्प्रदायों को हृदयंगम कियाजिनका उदय-स्थान हिन्दुस्तान नहीं था। विश्व की सबसे प्राचीन जीवित भारतीय संस्कृति ने उन अभारतीय जन के विश्वासोंउनकी परम्पराओं और श्रद्धाओं को हिन्दुस्तानी भूमि पर सम्मान के साथ फैलने-फूलने का समान अवसर दियाजिन्हें स्वयं उनके उद्गम स्थानों पर नकारा और उजाड़ा गया।

विशेष रूप से यहूदियों और पारसियों के अपने-अपने देशों में अमानवीय उत्पीड़नउनकी उपासना पद्धतियोंरीतियोंधार्मिक मान्यताओं व मूल्यों को बलात मिटाने के निरन्तर प्रयासपरिणामस्वरूप उनके प्रथम से सातवीं-आठवीं शताब्दी ईसवीं में मालाबार (वर्तमान केरल प्रान्त) और संजान नगर (वर्तमान गुजरात प्रान्त) में पहली बार और बाद में भी  भारत आगमन से जुड़ा घटनाक्रम हमारे सामने है। पर-वैयक्तिकता की सत्यता को स्वीकार कर उसे सम्मान देने वाली   सनातन मूल्यों की पोषक हिन्दुस्तानी भूमि द्वारा उन लोगों को अपनी गोद में लेना तथा सहनशीलता प्रधान व समावेशी भारतीय संस्कृति द्वारा उनकी मान्यताओंश्रद्धाओं और अति विशेष रूप से उनकी उपासना पद्धतियों का आदर व संरक्षण विश्वभर में किसी से छिपा नहीं है।

इस सम्बन्ध में मैं किसी विस्तार में नहीं जाऊँगा। मैं केवल इतना ही कहूँगा कि सहनशीलता का इससे श्रेष्ठ कोई दूसरा उदाहरण भारतीय संस्कृति के अतिरिक्त सम्पूर्ण उपलब्ध मानव-इतिहास में वर्णित किसी अन्य संस्कृति के सम्बन्ध में नहीं मिलेगा। सनातन–शाश्वत मूल्यों से बँधी और पृथ्वीमाता की जगत-कल्याण हेतु सहनशीलता का अनुसरण करती भारतीय संस्कृति पूरे विश्व के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है। एक ओर यही वह शक्ति हैजो सारे भारत को उसकी विभिन्नताओं के साथ एकता के सूत्र में पिरोती हैतो दूसरी ओर "वसुधैव कुटुम्बकम" की सत्यता को स्वीकार कर यह भारत के विश्वगुरु के रूप में स्थापित होने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। अमरीकी इतिहासकार और दार्शनिक विल ड्यूरेंट (जीवनकाल: 1885-1981 ईसवींने ठीक ही कहा है"भारत हमें परिपक्व मस्तिष्क की सहनशीलता और विनम्रतासमझने की भावना और सभी मनुष्यों की एकता व संतुष्टि हेतु प्रेम सिखाएगा।"   

*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत इण्डोलॉजिस्ट डॉरवीन्द्र कुमार चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालयमेरठ के पूर्व कुलपति हैंवर्तमान में स्वामी विवेकानन्द सुभारती विश्वविद्यालयमेरठ (उत्तर प्रदेश) के लोकपाल भी हैं।

 

“कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।” - संतोष श्रीवास्तव ---

कहानी संवाद “कलम में वह ताक़त होती है जो आज़ादी का बिगुल बजा सकती है।”  - संतोष श्रीवास्तव --- "सुनो, बच्चों को सही समझाइश देना और ज़माने...